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अपनाया मुहब्बत में पतिंगो ने क़जा को
बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को
है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था
बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था सजा को
जो लोग सदाकत से करें पाक मुहब्बत
वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को
आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर
समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को
देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर
लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया को
जब रोज जलाता रहे खुर्शीद तपिश से
वो फूल तरसते हैं सदा बाद-ए-सबा को
सजदे में बिछाए हैं बगीचों ने सितारे
रोका न करो अब्र यूँ सूरज की जिया को
दुनिया ये मुहब्बत पे भरोसा न करेगी
तोड़ा न करो यार कभी रस्मे वफा को
---------राजेश कुमारी ‘राज’
TEJ VEER SINGH
आदरणीय राजेश कुमारी जी। हार्दिक बधाई।बेहतरीन गज़ल।
जो दिल से सदाकत से करें पाक मुहब्बत
वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को|
Feb 17, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० तेजवीर सिंह जी, ग़ज़ल के सर्वप्रथम पाठक के रूप में आप द्वारा दी गई इस दाद के प्रति दिल से शुक्रगुजार हूँ बहुत बहुत शुक्रिया .
Feb 17, 2017
Mohammed Arif
Feb 17, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |
Feb 17, 2017
Samar kabeer
इस समय मंच पर आने का मेरा मक़सद ये था कि जनाब डॉ गोपाल नारायन साहिब की ग़ज़ल पर मुझे अपनी प्रतिक्रिया देनी थी और उसके बाद मंच से दो हफ़्ते की छुट्टी की दरख़्वास्त पेश करना थी,क्यूँकि आजकल मेरी तबीअत मुझे इजाज़त नहीं देती की मैं मंच पर अपनी सक्रीयता दिखा सकूँ । जनाब गोपाल नारायन जी की गज़ल से पहले आपकी ग़ज़ल पर नज़र पड़ गई तो सोचा की आपकी ग़ज़ल पर अपने विचार आपसे साझा कर लूँ ।
मतले के ऊला मिसरे में 'पतंगों' को "पतिंगों" कर लें ।
"बे खौफ़ मगर दिल से लगाई थी सजा को"
इस मिसरे में 'लगाई थी' शब्द आपने 'सज़ा' की वजह से लिखा है कि सज़ा स्त्रीलिंग है,लेकिन 'दिल' शब्द इसे नकार रहा है ,इसलिये मुनासिब यह होगा की 'लगाई थी' की जगह "लगाया था" कर लें ,ये बहुत बारीक नुक्ता है बहना,इस पर ग़ौर करें :-
"बे ख़ौफ़ मगर दिल से लगाया था,सज़ा को"
'जो दिल से सदाकत से करें पाक मुहब्बत'
इस मिसरे में दो बार 'से' शब्द का इस्तेमाल मिसरे को कमज़ोर कर रहा है,इसे शायद व्याकरण की ग़लती कहेंगे ,ये मिसरा मेरे ख़याल में यूँ होना चाहिये :-
"जो लोग सदाक़त से करें पाक मुहब्बत"
'दिन रात जलाता जिन्हें खुर्शीद तपिश से
वो फूल पुकारे हैं वहाँ बादे सबा को'
इस शैर के ऊला मिसरे में ख़ुर्शीद का दिन रात जलाना मन्तिक़ (तार्किकता) के ख़िलाफ़ है क्यूँकि सूरज दिन में जलाता है रात में नहीं और इस शैर के सानी मिसरे में 'वहाँ' शब्द भर्ती का है,चूँकि ऊला मिसरे में सूरज दिन रात जला रहा है ,इस लिहाज़ से सानी मिसरे में 'पुकारेंगे' शब्द काम तो कर रहा है मगर मज़ा नहीं दे रहा,मेरे ख़याल से ये शैर यूँ होना चाहिये इसमें आपके भाव भी नहीं बदलेंगे :-
"जब रोज़ जलाता रहे ख़ुर्शीद तपिश से
वो फूल तरस्ते हैं सदा बाद-ए-सबा को"
ये नुक्ता भी बहुत बारीक है बहना,अगर आप इस तक पहुँच गईं तो मेरा कहना सर्थक हो जायेगा ।
बाक़ी अशआर बहुत उम्दा हैं,गिरह भी ख़ूब लगाई है,बाक़ी शुभ-शुभ ।
Feb 17, 2017
नाथ सोनांचली
Feb 17, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० समर भाई जी ,आप ने उन बातों को इंगित किया है जो मेरे दिमाग में ही नहीं आई हम तो हमेशा पतंगे ही उच्चारित करते आये हैं ये आप से ही पता चला की सही लफ्ज़ पतिंगे होता है दूसरा ..दिल से लगाई थी सजा को यहाँ बहुत महीन अंतर आपके बताने पर दिखाई दिया जो ठीक लगा तीसरे ---"जब रोज़ जलाता रहे ख़ुर्शीद तपिश से
वो फूल तरस्ते हैं सदा बाद-ए-सबा को"---ये शेर तो निखर उठा आपके सुझाव से .भाई जी इस मार्ग दर्शन की बेहद शुक्रगुजार हूँ इस ग़ज़ल को मैंने बहुत वक़्त दिया था लोगों ने बहुत सराहा भी किन्तु इन महीन बातों पर आपने ही गौर किया |लेकिन अब जाके संतुष्टि हुई इसे संशोधित करके दुबारा अप्रूव करवाती हूँ .बहुत बहुत आभार आपका
Feb 17, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० सुरेन्द्र नाथ भैया जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ .आद० समर भाई जी ने उचित इस्स्लाह दी है बस अब इसको संशोधित करके दुबार पब्लिश करवाती हूँ |
Feb 17, 2017
indravidyavachaspatitiwari
आ0 राजेश कुमारी जी आपकी गजल ने तो दीवानगी में चांद की हया ही छुड़ादी। वाह!वाह! क्या कहने। इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाईयां।
Feb 18, 2017
Mahendra Kumar
Feb 19, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० indravidyavachaspatitiwari जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया .
Feb 19, 2017
सदस्य कार्यकारिणी
rajesh kumari
आद० महेंद्र कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .
Feb 19, 2017
Dr Ashutosh Mishra
Feb 19, 2017