दोहा षष्ठक. . . . आतंक

 

वहशी दरिन्दे क्या जानें, क्या होता सिन्दूर ।
जिसे मिटाया था किसी ,  आँखों का वह नूर ।।

 

पहलगाम से आ गई, पुलवामा की याद ।
जख्मों से फिर दर्द का, रिसने लगा मवाद ।।

 

कितना खूनी हो गया, आतंकी उन्माद ।
हर दिल में अब गूँजता,बदले का संवाद ।।

 

जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव ।
अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं अलाव ।।

 

भारत ने सीखी नहीं, डर के आगे हार ।
दे डाली आतंक को ,खुलेआम ललकार ।।

 

कर देंगे आतंक के, मंसूबे सब ढेर ।
गीदड़ बन कर भागते , देखे ऐसे शेर ।।

 

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    वहशी दरिन्दे क्या जानें, क्या होता सिन्दूर .. प्रस्तुत पद के विषम चरण का आपने क्या कर दिया है, आदरणीय सुशील सरना जी ? 

    बाकी दोहे शिल्पगत हैं.  

     

    प्रस्तुत दोएह् के लिए विशेष बधाई - 

    जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव 
    अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं अलाव 

    हार्दिक बधाइयाँ .. शुभातिशुभ