सदस्य कार्यकारिणी

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है  
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२१२२    २१२२     २१२२ 

'मन के कोने में इक इच्छा पल रही है'

पर वो चुप है, आज तक निश्चल रही है

 

एक  चुप्पी  सालती है रोज़ मुझको

एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है

 

बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे    

सच यही है बूंद कल बादल रही है

 

इक समस्या कोशिशों से हल बनी तब 

इक समस्या फिर से पीछे चल रही है

 

चाँद पूरा है मगर लगता है धुँधला

क्या कोई बदली उसे फिर छल रही है

 

'तुम हँसे, तो फिर हँसी लौटी मेरी भी 

जो हँसी अब तक कहीं ओझल रही है'

 

कर्म-फल-पट और इच्छा-पट से मिल के

है बनी चक्की जो सबको दल रही है 

 

एक है सूरज जो तपता है सदा ही

एक धरती जो सदा से जल रही है

 

वो बना है नीव का पत्थर खुशी से

इसलिए उसकी खुशी बस टल रही है 

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मौलिक एवं  अप्रकाशित

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  • बृजेश कुमार 'ब्रज'

    बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही आदरणीय

    एक  चुप्पी  सालती है रोज़ मुझको

    एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है

    इक समस्या कोशिशों से हल बनी तब 

    इक समस्या फिर से पीछे चल रही है

     

    चाँद पूरा है मगर लगता है धुँधला

    क्या कोई बदली उसे फिर छल रही है

     

    'तुम हँसे, तो फिर हँसी लौटी मेरी भी 

    जो हँसी अब तक कहीं ओझल रही है

    एक है सूरज जो तपता है सदा ही

    एक धरती जो सदा से जल रही है

    विशेष तौर पे पसंद आये धन्यवाद....


  • सदस्य कार्यकारिणी

    गिरिराज भंडारी

    अनुज ब्रिजेश , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका  हार्दिक  आभार 

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल के फीचर किए जाने की हार्दिक बधाई।