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स्वप्रज्ञा बुद्धि बलेन चैव,
सर्वेषु नृण्वीय विपुलम् गिरीय।
अज्ञान हंता,ज्ञान प्रदोय: त:
सर्वदोह गुरुवे नमामि।।

आज तकनीकी युग में कम्प्यूटर द्वारा शिक्षा क्षेत्र में एक नई क्रान्ति प्रज्ज्वलित हुई है,परन्तु नौनिहालों के मन में ज्ञान ज्योति प्रदीप्त करने के लिए शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण है। माता-पिता के पश्चात बालकों को सही दिशा देने व उनका सर्वांगीण विकास करने में शिक्षक प्रमुख भूमिका है। शिक्षक सामाजिक परिवेश की वह गरिमामयी मूर्ति है जो हम सभी में ज्ञान का प्रकाश फैलाकर नैतिकता व गतिशीलता को गति प्रदान करते हैं।
ऐसे देवस्वरूप व्यक्तित्व को शत्-शत् नमन!
वस्तुत: गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सदैव प्रकाशमान रहता है,शिक्षार्थी के हृदय में अपने गुरु के प्रति प्रेम व सम्मान सदैव प्रवाहमान रहता है फिर भी शिक्षक-दिवस इस पवित्र सम्बन्ध को मांजने का दिवस है,जिंदगी की भागमभाग में धूमिल हुए रिशते को पुन: स्वच्छ एवं सौम्य बनाने का दिन है।
अतीत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध बड़ा ही दिव्य हुआ करता था,गुरु का स्थान साक्षात् वृह्म स्वरूप था,गुरु के आदेश-निर्देश मन्त्र सदृश्य थे। डा. राधाकृष्णनन जी कहा करते थे कि मात्र जानकारी देना ही शिक्षा नहीं है अपितु शिक्षा द्वारा व्यक्ति के कौशल,बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का विकास करना महत्वपूर्ण है। करुणा,प्रेम,विनय और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।
अब प्रश्न उभरता है कि आज के बदलते परिवेश में उनका वक्तव्य कहां तक प्रासंगिक है? गुरु-शिष्य के सम्बन्ध मे कहां तक परिवर्तित हुआ है? अर्थयुग का प्रभाव इस रिश्ते पर पड़ा है अथवा नहीं?
प्रतिस्पर्धा के चलते इस बन्धन में कुछ कमजोरी अवश्य आयी है परन्तु इसका उत्तरदायी कहीं न कहीं शिक्षक भी है। शिक्षक विद्यालय ही नहीं पूरे समाज का आदर्श होता है,उसके नैतिक गुण,सुदृढ़ चरित्र से उत्तम समाज की आधारशिला निर्मित होती है। आज के अर्थ-बाहुल्य कलयुग में क्या कहा जाय!न शिक्षक को न अपने दायित्व की सुधि है न ही शिष्य को अपनी गरिमा की। यत्र-तत्र तो इस पवित्र सम्बन्ध की हत्या भी हो जाती है,परन्तु शिक्षक दिवस की औपचारिकताओं में कोई कमी नहीं।
ग्रामीण क्षेत्र के प्रथमिक विद्यालयों पर नजर डालें तो कईबार शिक्षा की विदीर्ण तस्वीर सामने आती है। विद्वान और योग्य शिक्षक भी अपने कर्तव्यों से गिरते जा रहे हैं। प्राय: 'यहां के बच्चे डी.एम.नहीं बन जाएंगे चाहे जितना सर पटक दें' जैसी उक्ति सुनने को मिल जाती है। वहां के छात्रों के शिक्षण स्तर की जो बात करें बड़ा ही दुखद है।
इस विलक्षण समय के चलते बुराइयों का कद अवश्य बढ़ा है लेकिन अच्छाइयां भी मृतप्राय नहीं हुई हैं। उतनी ही अच्छाई के बूते राष्ट्र को विश्वफलक पर विकास की राह में गतिशीलता प्राप्त है। इस अराजक समय में भी विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि अनैतिकता चाहे जितनी सीमाएं पार कर गई हो,अस्मिता कितनी भी विस्मृत हो रही हो परन्तु गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज भी बहुत ही गरिमा मय और दिव्य है बशर्ते हम शिक्षकों की रगों में उच्च नैतिक गुण,दृढ चरित्र और निष्ठा का लहू प्रवाहित होता हो। किसी विद्वान ने व्यर्थ ही नहीं कहा है-

''चुकता है कर्तव्यों से ही,
निज सम्बन्धों का कर्जा।
जो जैसा कर्तव्य निभाता,
पाता वैसा दर्जा।।''
अत:शिक्षक दिवस वह अवसर है जब शिक्षक दृढसंकल्पित होकर अज्ञान तम को मिटाने का बीड़ा उठाएं और छात्र भी गुरुओं को केवल उपहार ही नहीं बल्क सम्मान से प्रतिष्ठित करें। पुन: हमें अस्तित्व प्रदान करने वाले गुरुओं और शिष्ट शिक्षकों की बार-बार वन्दना।
सादर
शुभ शुभ
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Replies to This Discussion

आदरणीय वंदना जी ,
बड़ी रूचि से आपकी सुंदर आलोचनात्मक रचना को एक ही सांस में पढ़ डाला .
अधिक दोष भारतीय वर्तमान शिक्षा प्रणाली का है न कि शिक्षकों का .
सरकारी स्कूलों में एक कक्षा में 70- 80 छात्र दाखिल किय जातें है , निर्धारित 50 सीटों के विरुद्ध .
शिक्षा का अधिकार -राईट टू एजुकेशन के अंतर्गत किसी बच्चे को शिक्षा देने से इनकार नहीं किया जा सकता .
चंडीगढ़ जैसे पढ़े लिखे लोगों के नगर में भी सरकारी स्कूलों में 60 % प्रतिशत से भी अधिक विद्यार्थी स्लम एरिया -कालोनी के होते हैं मिड डे मील के कारण ही आते हैं -घरों में भी खाना ले जाते हैं .
प्राइमरी कक्षा के छात्र भी नशा करते हैं ,चाकू रखते हैं ,मोबाइल पर अश्लील देखते हैं .
चोरी करते हैं .अध्यापक ,प्रिंसिपल या पुलिस भी उन्हें हाथ लगाना तू दूर की बात है दांत भी नहीं सकते .
सहेलियाँ बनी हैं .
सभी कुछ मुफ्त है. लडकियो को ,शायद लडकों को भी राशि मिलती है -शिक्षा से घर में वितीय सहायता मिलती है .
इससे अधिक दुःख की बात क्या होगी कि अधिकार मंत्री चोर हैं .इक दिन की रोटी का खर्चा एक रुपया बतलाते .
छात्रों को लैपटॉप ,टेबलेट्स दे कर वोट मांगते हैं . भारत को मधुमाखी का छत्ता बतलाते हैं .राज्यों में पचास पचास हजार लैपटॉप
पानी में भीग जाते हैं .
सरकारी स्कूलों में 1 1 वीं 1 2 वीं के छात्रों के लेक्चरार को कॉलेज के लेक्चरार से ,वही योग्यता ,60 % वेतन मिलता है .स्कूल में लेक्चरार को क्लेरिकल काम भी करना पड़ता है .
मिड डे मील चेक करने की ड्यूटी प्रात: 5 वजे भी लगती है .सर्वे,इलेक्शन ड्यूटी भी ,स्कूल के साथ साथ .
.मेरे लिखने का अभिप्राय किसी भी हालत में आपकी भावनाओं को आहत करने का नहीं है .मेरे विचार मेरे निजी हैं ,गलत भी हो सकते हैं .
ना ही मैं अध्यापक हूँ .

आपने मेरी कविता को पसंद किया .आभार .कृपया मेरे विचारों को बुरा मत मानना .
सादर .

आपने जो विषय उठाया है बड़ा ही समाचीन है , पर मुझे लगता है की मात्र शिक्षक ही जिम्मेदार नही है , पूरी प्रणाली ही सड़ी हुई है अब हर कोई अपने लिए जी रहा है , नोकरी का मतलब दोहन है अधिकतम दोहन अब किसी भी पद पर कोई हो अपना कर्तव्य किसे याद है ? 

जी आदरणीय अमन जी सही कहा आपने। नौकरी,चाहे कोई भी हो, सेवा और अर्थार्जन का समन्वय होती है,लेकिन आज अर्थार्जन ने सब कुछ गौढ़ बना दिया।
विषय में रुचि लेने के लिए आपका बहुत शुक्रिया!
सादर
आदरणीय राजकुमार जिंदल जी आप यहां पधारे,इसके लिए आपका बहुत आभार।
आपके रोष का सम्मान करते हुए मैं भी आपके पक्ष में हूं कि आज की दुर्बलआधारीय नीतियों से सारी व्यवस्था चरमरा गई है। निवेदन करना चाहूंगी कि सरकार द्वारा थोपे गये अन्य दायित्वों से शिक्षा में नकारत्मक प्रभाव तो पड़ा ही है फिर भी शिक्षक और शिष्य के मध्य सम्मान और श्रद्धा का एक व्यक्तिगत बन्ध होता है भले शिक्षक शिष्यों को अधिक समय न दे पाए। इस पवित्र बन्ध के कमजोर होने में यह विसंगत व्यवस्था/नीतियां उत्तरदायी अवश्य है लेकिन इसका अस्तित्व तो समाप्त नहीं होता!
सादर

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