For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ज़िन्दगी से जुड़ी व ज़िन्दगी से जोड़ती राजेश कुमारी की लघुकथाएं

पुस्तक-   ‘गुल्लक’ (लघुकथा संग्रह)

लेखिका-   राजेश कुमारी

प्रकाशक-  अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद

मूल्य-    140-00 रू.

------------------------------------------ 

धुनिकीकरण के दौर में रिश्तों के बीच एक अजनबीपन बढ़ता जा रहा है। सहज मानवीय संबंधों की उष्णता तेज़ी से उदासीनता में बदल रही है। आपाधापी के इस माहौल में एकाकीपन और परायापन आज के जीवन की अनिवार्यता सी बन गई है। जीवन की यह अनिवार्यता वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में सर्वत्र व्याप्त है। धीरे-धीरे संवेदन शून्यता निःसंगता और जड़ता बढ़ रही है जो ‘गुल्लक’ लघुकथा में सहज ही परिलक्षित हो रही है।

 

देखो पापा, मैनें आपको ये पहले भी कहा था कि हमारे पास अभी इतनी बचत नहीं है; मुश्किल से गुजारा होता है, फिर हवाई जहाज से हर साल यहाँ आने-जाने में ही कितना खर्च हो जाता है। ऊपर से मिंटू की पढ़ाई का खर्च, छोटी बेटी का खर्च; बस आप भी ना... फ़ालतू की चिंता करते हो। जब लड़के वाले कुछ माँग नहीं रहे तो जितना है उसमें से ही सिम्पल शादी कर दो।‘ कह कर चन्दन फोन में व्यस्त हो गया।

 

नन्हे मिंटू का अपनी गुल्लक दादा के सामने फोड़ कर ‘ये लो दादा जी! बुआ की शादी के लिए जितने पैसे आपको चाहिए सारे ले लो का प्रसंग इस लघुकथा को भावनाओं के शिखर पर ले जाता है। इस प्रकार ‘गुल्लक  एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जो  हृदयरूपी वीणा के तारों को झंकृत कर देती है और पाठक मानवीय संबंधों की मार्मिकता के द्वंद्व और तनाव के बीच उसकी सहजता को अनुभव करने लगता है।

 

राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि और कथानक अपने आस-पास से रोजाना घटित होने वाली बिल्कुल साधारण सी चीजों, स्थितिओं और घटनाओं से उठाए हैं। जिससे उनकी लघुकथाएं सहज-सरल एवं अनायास रचित जान पड़ती हैं। जैसे कि ‘तितलियाँ  के मुन्ना का कॉलेज में अपनी छोटी बहन की एडमिशन के बाद अन्य लड़कियों को देखने का नज़रिया बदल जाना। ‘प्रतिउत्तर’ में नीतू का मामा की लड़की को चश्मा लगने के बाद ‘मामा फिर तो अब दो-दो चश्मिश, दो-दो चश्मेबद्दूर हो गई घर में।’ तसल्ली  करना।

 

राजेश कुमारी की लघुकथाओं के पात्र जीवन की समस्याओं से घिरे हुए हैं, तनाव से गुजर रहे हैं। निराशा और हताशा उन्हें जड़ बना देने की हद तक ले जाती है लेकिन वे इससे बाहर निकलने का प्रयास करते रहते हैं। उनका रवैया जीवन से भागने का नहीं बल्कि जीवन की ओर भागने का है।

 

और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार-तार हुई थी को साक्षी मानकर रूक जाती है, और अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामी का बोझ उतार झाड़ियों में रखकर दिन के उजाले में फिर से सभ्य समाज की जिस्मभेदी नजरों का सामना करने लिए हिम्मत जुटाती हुई वहाँ से चल देती है।’ (बदनामी का बोझ)

 

आँखों के गीलेपन को छुपाते हुए रामलाल उठ खड़ा हुआ, बोला, ‘बदरी, तेरे यहाँ जो अखबार आता है उसका मेट्रीमोनियल वाला पेज देना।’  (सूखे गमले)

 

मुक्तिबोध’ लघुकथा को इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस लघुकथा में किडनैप से छूटे बालक की मनःस्थिती का मनोवैज्ञानिक चित्रण बहुत कुशलता से उकेरा गया है।

 

"उड़ते हुए तोते को देखकर रोहित के चेहरे की ख़ुशी देखने लायक थी। वो पहले की तरह ताली पीट-पीटकर हँस रहा था।

 

शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो लघुकथा का अंत बहुत महत्वपूर्ण होता है। अंत के विषय में यह ध्यान देना आवश्यक है कि वह कथा के उद्देश्य को भली प्रकार से व्यक्त करता हो। अंत का उद्देश्य ही कथा के लक्ष्य को स्पष्ट करना होता है। यहीं लेखक को पात्रों के सम्बंध में अंतर्निहित समस्त रहस्यों को खोलना होता है और साथ ही अपनी विचारधारा का भी अप्रत्यक्ष ढंग से पाठको को एक संदेश देना होता है। कथान्त पाठकों के मनमस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ने वाला होना चाहिए। इस कथा का अंत ‘किडनैपर्स की कैद से रिहा हुए, करीब एक महीने बाद, आज उनका लाडला हँस रहा था।’ जिससे रोहित की मनःस्थिती का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। यह पाठकीय चेतना को गहन झटका देता है।

‘गजरा’ लघुकथा भी एक अर्थगर्भी व गहन लघुकथा है जिसमें ट्रैफिक सिग्नल पर गजरा बेचने वाले बच्चों का जिक्र किया गया है। ‘साहब’ को रोज़ाना गजरा बेचने वाला बच्चा गजरे का भाव बीस से चालीस कर देता है और साहब के इस बारे में पूछने पर ‘साहब ! जब एक दिन में मेमसाहब बदल जाती है तो भाव नहीं बदल सकते क्या?’- जवाब देता है। ‘अभी मजे देखना गप्पू; यदि ये मेमसाब इनकी घरवाली हुई, तो गजरा अभी बाहर आएगा।’ बच्चों का वक्त से पहले ही ‘मेच्योर’ हो जाने और बच्चों का बचपन छिन जाने की गंभीर समस्या को इस लघुकथा में कुशलता से चित्रित किया गया है।

 

भूमण्डलीकारण, वैश्वीकरण, बाजारवाद और उपभोगतावाद संस्कृति ने इंसान को आत्मकेन्द्री बना दिया है। इनके चलते अपनों से ही निर्वाह करना मुश्किल होता जा रहा है। संबधों के विघटन के कारण आपसी रागात्मकता भी प्रभावित हुई है। आज के दौर में बहुतिकता के कारण आपसी रिश्ते टूट रहे हैं। स्वार्थपरकता बढ़ती जा रही है जिससे मनुष्य के भीतर की संवेदनाएं खत्म होती जा रही है। राजेश कुमारी की बहुचर्चित लघुकथा ‘राखी’ दरकते रिश्तों और स्वार्थपरकता की बेजोड़ उदाहरण है। इस लघुकथा में ननद अपनी भाभी को फोन पर कहती है कि उसने राखी पोस्ट कर दी है यदि राखी न पहुंची तो वो स्वयं परसों तक उनके यहाँ पहुँच जाएगी। अगले दिन भाभी ननद को फोन पर सूचित करती है कि उसकी राखी पहुँच गई है। इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति है:

पर भाभी, मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी....।

 

राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य का तीखा नश्तर लगाया है। इन लघुकथाओं के कथ्य में एक ऐसी तीव्र प्रभावन्विति है कि वे पाठकीय चेतना को सामाजिक चेतना के प्रति झंकझोर देती है। ‘लक्ष्मी’, ‘तितलियाँ’, ‘चश्मा’, ‘महिला उत्थान’, ‘शातिर’, ‘साइकल वाला’ इत्यादि लघुकथाएं इसकी सशक्त उदाहरण हैं।

 

पुरानी पीढ़ी के प्रति आदर और सम्मान के भाव का लगभग नष्ट हो जाना बदलते आधुनिक युग का एक भयानक यथार्थ है। संत्रास, क्षणवादिता, अकेलापन, लाचारी, बेचारगी आदि वृद्ध जीवन की नियती का मानो अनिवार्य फल बन गया है। इस समस्या को राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा ‘बंधन‘ में बुर्जुग ससुर की दयनीय स्थिती के रूप में चित्रित किया है। अमेरिका शिफ्ट हो रहे परिवार में कुत्ते टॉमी की देखभाल के सबंध में जब छोटा मिंटू पापा से पूछता है तो जवाब मिलता है कि उसे चाचा के पास छोड़ देंगे। और पालतू मिट्ठू के बारे में पूछने पर ‘उसको आजाद कर देंगे; बहुत दिनों से कैद में है बेचारा।

 

कैसे जायेंगे जी, इतना आसान है क्या! हमारे साथ एक दो बंधन थोड़े ही हैं।’ तिरछी नजरो से कोने में बैड पर लेटे ससुर को देखते हुए धीमी से कहती हुई सीमा अंदर चली गई।

 

अचानक सहस्त्रों लम्बे-लम्बे काँटे ससुर के बिस्तर में उग आये।

 

यह लघुकथा बुर्जुगों के प्रति असंवेदनशीलता को मुखरता से अभिव्यक्त करने में पूरी तरह सफल रही है।

 

आधुनिकता की रंगीनियों में आज व्यक्ति अनभिज्ञ और अपरिचित की भाँति दिग्भ्रमित सा घूम रहा है। अपनों के बीच भी उसे परायापन महसूस होता है क्योंकि आधुनिक युग की इस भाग-दौड़ में किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है। सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हैं। एक ही परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के कार्यों से अनजान हैं। इन सब का बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। राजेश कुमारी लघुकथाएं ‘परिभाषा’कॉमन’ में वैयक्तिक चेतना, व्यष्टिवाद, सूक्ष्मता और एकरसता की अभिव्यक्ति हैं।

 

कुछ रूक कर प्रियांक आगे बोला, क्योंकि झूठ बोलना पाप है इसलिए मैं सच कहता हूँ, ये आदर्श परिवार मेरे दोस्त गोलू, जो हमारे ड्राइवर का बेटा है उसका है; उसी ने मेरी ये स्पीच तैयार करवाई। मेरे अपने परिवार की परिभाषा क्या है वो मुझे नहीं आती।’ (परिभाषा)

 

हाँ पापा! है न एक चीज कॉमन; उसके पापा भी रोज ड्रिंक करके इतनी रात गए घर में आते हैं और उसकी मम्मी पर इसी तरह चिल्लाते हैं;’ (कॉमन)

 

बाल यौन शोषण एक जघन्य समस्या है। कामान्ध भेड़ियों के इस पाशविक कृत्य से पीड़ित का मात्र शारीरिक शोषण ही नहीं होता अपितु मानसिक दृष्टि से भी उस पर बुरा असर पड़ता है। इस समस्या का हर स्तर पर प्रतिकार होना चाहिए। यौन शोषण पीड़ित को केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से इतना बेबस बना देता है कि वह जीवन पर्यांत उस पीड़ा से मानसिक रूप से उबर नहीं पाता। इसका यथार्थ चित्रण राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा ‘दोपाये’ में मासूम गुड़िया के माध्यम से बहुत मार्मिक ढंग से किया है।

 

‘लेकिन एक बात झूठ निकली आपकी कहानी की दादा, आप तो भेड़ियों को चैपाये कहते थे, पर वो भेड़िये तो दो पाये थे।’ कहते हुए गुड़िया शून्य में अस्पताल के उस कमरे की छत को अपलक देखने लगी।

 

समाज में लिंग के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव आम सी बात है। पुत्र की कामना में कन्या भ्रूण हत्या इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गर्भ में हत्या न भी की जाए तो भी आम जीवन में भी मात्र स्त्री होने के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव भली भांति देखा जा सकता है। जीवन के हरेक क्षेत्र चाहे शिक्षा, खेलकूद, व्यवसाय आदि सभी में पुरूष को स़्त्री से अधिक प्रधानता दिए जाने के असंख्य उदाहरण दिखाई देते हैं। यह एक चिन्तनीय समस्या है जिसके चलते स्त्रियों को पुरूषों के मुकाबले सही अवसर प्रदान नहीं किए जाते और उनकी प्रगति के मार्ग निरंतर अवरूद्ध किए जाते हैं। स्त्रीयों को इसका आभास छोटी उम्र से ही करवा दिया जाता है। राजेश कुमारी ने इस सामाजिक बुराई पर अपनी लघुकथा ‘बुनियाद’ के माध्यम से दृष्टिपात किया है जहां शिलान्यास पूजा में कलावा बाँधने के लिए छः वर्षीय पोती चारू के स्थान पर आठ महीने के पोते को प्राथमिकता दी जाती है।

 

चंद स्वार्थी धर्मान्ध लोग अपने धर्म और उसकी मान्यताओं को अन्य धर्मों से श्रेष्ठ तथा उन्हे निकृष्ठ मानते हैं और उनके प्रति द्वेष भी भावना रखते हुए उनका निरादर करते है जिससे साम्प्रदायिकता जैसी विकट समस्या उत्पन्न हो जाती है जो किसी भी सभ्य समाज के विघटन का मूल बन जाती है। दूसरे धर्मों की अपवर्जिता के कारण सामाजिक एकता विखंडित होती है तथा धार्मिक कट्टड़ता एवं अंधविश्वास के कारण साम्प्रदायिक हिंसा तथा दंगों का जन्म होता है। साम्प्रदायिक दंगों की विभीषका पर राजेश कुमारी की सशक्त लघुकथा ‘दीवार’ एक तीक्ष्ण तंज कसती है । प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा का संवाद देखें:

 

चल मुन्नी बाई के कोठे की छत पर गुटरगूँ करेंगे; सुना है वहाँ धर्म-वर्म का कोई चक्कर नहीं है, वहीं अपना आशियाना बनाएँगे।

 

जाति व्यवस्था समाज में एक अभिशाप है। आदमी-आदमी के बीच गहरे भेदभाव के रूप में जातपात की बुराई हमारे सामाजिक परिवेश में रच-बस चुकी है। जातिवाद और धर्म के मिश्रण की गोली जिसमें नसीब, किस्मत का घोल चढ़ा कर चंद स्वार्थी लोगों ने ऐसी गोली बनाई जिससे मेहनतकश लोगों ने इस गुलामी की व्यवस्था को अपना भाग्य मान लिया और पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी करते आए। हमारे समाज की यह विडंबना है कि जातियों का वर्गीकरण उनके व्यवसायों के अनुसार किया जाता है। व्यक्तिगत बौद्धिकता को मापने का पैमाना भी जातिवाद ही हो गया। जात पात के इस कलंक से मुक्ति का प्रयास राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथा मोची की लड़की‘ और ‘पट्टी’ के माध्यम से सफलतापूर्वक किया है। ‘मोची की लड़की’ के कुछ संवाद देखें:

 

मैनें उनको फोटो दिखाया तो पढ़कर अचानक वे बोली- ‘अरे एक मोची की बेटी आई.ए.एस. टॉपर?

 

अ‘हाँ माँ ! एक स्वाभिमानी बाप की स्वाभिमानी बेटी आई.ए.एस. टॉपर।’ कहते हुए मैं रसोई में पड़े बर्तनों को माँजने चल पड़ी।

 

बच्चों का अपना ही एक संसार होता है, उस संसार में उनके अपने ही सपनों का कलवर होता है, उनके अपने व्यक्तित्व और अस्मिता की ज्योतिर्मय छटा है। आज का बच्चा सिर्फ देखता नहीं सोचता भी है। वह जो कुछ सुन लिया उसे ही सच नहीं मान लेता वरन् उसकी सच्चाई की तह तक जाने की चेष्टा भी करते हैं। आज का बच्चा उम्र, वय, स्वभाव, अनुभव एवं रूचियों की दृष्टि से भले ही बच्चा लगता हो मगर वह अपने आसपास के माहौल के प्रति सजग दृष्टि रखता है। इसका यथार्थ चित्रण ‘फटफटिया’ में आठ वर्षीय बेटे के रूप में नज़र आता है। घर में माँ-बाप के वार्तालाप से बच्चे के बाल मन पर ऐसा असर होता है कि वो पड़ोसी की मोटरसाइकिल को आग लगा देता है।

 

‘अम्मी अम्मी, अ.. अ.. अब तो आ.. आप खुश हैं ना... शकील भाईजान की फटफटिया जल गई... अब तो.. दद्दू को तकलीफ नहीं होगी ना‘? आ...प अब्बू से लड़ाई नहीं करोगी न?

 

‘अम्मी मैं वहाँ खेलने नहीं गया था... मैं घर से माचिस लेकर गया था...।

 

और बोलते-बोलते बच्चे का सिर अम्मी की गोद में लुढ़क गया।

 

डॉ. अनूप सिंह के अनुसार, ‘लघुकथा में वर्णित घटना या व्यवहार की समयावधि अल्प होनी चाहिए। यह समयावधि दिनों, हफ्तों, महीनों या सालों में फैली हुई नहीं होनी चाहिए। कम से कम प्रस्तुत किया जाने वाला या फोक्स किए जाने वाला घटनाक्रम सेकैंडों, मिनटों या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ घंटों तक ही सीमित होना चाहिए।’ यानि उसमें कालांतर न आ जाए। इस बिन्दु को ध्यान में रखते हुए राजेश कुमारी की कई लघुकथाओं में कालखंड दोष नज़र आता है जैसे, ‘राखी’, ‘किराए की कोख’, ‘समझौता’, ‘शक’, ‘प्रायश्चित’, ‘संवासिनी’, ‘एक था भेंडर’ और ‘अंगदान’।

 

इस लघुकथा संकलन में कुछ लघुकथाएं ऐसी भी हैं जो लघुकथा के मूलभूत नियमों का अतिक्रमण करती नज़र आ रहीं है, कुछ अपने आकार की वजह से और कुछ घटनाओं की बहुलता की वजह से । लघुकथा और कहानी में फर्क समझने के लिए डॉ. पुष्पा बंसल के वक्तव्य को गौर से देखना और समझना चाहिए। उनके अनुसार, लघुकथा कहानी की सजातीय है किंतु व्यक्तित्व में इससे भिन्न है। यह मात्र घटना है, परिवेश निर्माण को पूर्णतया छोड़कर, पात्र चरित्र-चित्रण को भी पूर्णतया त्याग कर विश्लेषण से अछूती रहकर मात्र घटना (चरम सीमा) की प्रस्तुति ही लघुकथा है। कहानी में प्रेरणा के बिन्दु का विस्तार होता है। लघुकथा में विस्तार नहीं संकोच होता है, केवल एक बिन्दु ही होता है, अपने घनीभूत रूप में। कहानी का उद्देश्य मनोरंजन करना भी माना जाता रहा है, कुछ अंशों में आज भी माना जाता है। परन्तु लघुकथा मनोरंजन नहीं करती मन पर आघात करती है, चेतना पर ठोकर मारती है और आँखों में उँगली घुसाकर यथार्थ दिखाती है।’ इसके आधार पर ‘शक’, ‘हेप्पी टीचर्स डे’, ‘ज्योति से ज्योति’, ‘एक था भेंडर’ और ‘अंगदान’ लघुकथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।

 

इस संग्रह की कुछ लघुकथाएं जैसे ‘पहिए’, ‘एक ही चिप’, ‘जो कहते न बने’ व्यंग्य की महीन रेखा पार करके हास्य की ओर झुकी नज़र आतीं है। हास्य और व्यंग्य में प्रधान अंतर उसके उद्देश्य की भिन्नता के कारण होता है। पहले का प्रयोजन मनोविनोद होता है तो दूसरे का विकृति। डॉ. शेरजंग गर्ग के अनुसार, ‘हास्य और व्यंग्य का सबसे बड़ा अंतर यही है कि हास्य निष्प्रयोजन होता है यदि उसका कोई प्रयोजन होता भी है तो वह निश्चय ही विशिष्ट नहीं होता, जबकि व्यंग्य निष्प्रयोजन नहीं होता और उसका प्रयोजन वास्तव में गूढ़ और मार्मिक होता है।’

 

हाँ हाँ, क्यों नहीं, लो इसमें मेरा फोटो भी छपा है वो भी देख लो।वो कह ही रहे थे कि महिला ने तुरत-फुरत में एक पेज फाड़ा और अपने बच्चे की पोट्टी साफ़ करने लगी। कविवर के मुँह से एक बार तो चीख ही निकल पड़ी। अखबार के उस पेज में पीले रंग के बीच उनका चेहरा मुस्कुरा रहा था वो मैनें भी देख लिया था।

 

‘फिर भी मैंने चुटकी लेते हुए कहा‘‘कविवर जी अपना फोट दिखाइये न?

जवाब में कविवर की आँखें वो सब कह रही थी जो न कहते न बने। (जो कहते न बने)

 

कुछ लघुकथाएं जैसे कि ‘महिला उत्थान’, ‘जीवन गठरिया’ और ‘गर्भ’ यथार्थ से दूर नज़र आईं।

 

 

शिल्प की दृष्टि से एक नज़र

ग्लैडस्टोन का कथन है कि लेखक समाज से जो कुछ वाष्प रूप में ग्रहण करता है उसे वर्षा के रूप में वापिस कर देता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है। समाज में जो कुछ घटता है तथा जो घटनाएं लेखक के मन को झंकझोरती है उसी की अभिव्यक्ति साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है। सृजन-प्रक्रिया के दौरान लेखक के सोचने व महसूस करने के अदृश्य भाव भाषा का आवरण लेकर ही प्रस्तुत होते हैं। हमारे विचार भाषा से बंधे होते है। बिना भाषा के विचारों का कोई अस्तित्व नहीं होता । चिंतन से लेकर अभिव्यक्ति तक भाषा ही माध्यम रहती है। अभिव्यक्त होकर यही भाषा पाठक तक भी उस अनुभूति को सम्प्रेषति करती है। भाषा जब लेखक या वक्ता से छूटकर पाठक या व श्रोता तक पहुँचती है तो वह जो प्रभाव उत्पन्न करती है वह उसकी रचनात्मक शक्ति का ही इजहार है । राजेश कुमारी के लघुकथा संग्रह ‘गुल्लक’ में प्रकाशित लघुकथाओं की भाषा आधुनिक जीवन की विडंबनाओं का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती हैं। राजेश कुमारी की भाषा सीधी, सहज व प्रवाहमयी है। भाषा पा़त्रों एवं भावों के अनुरूप तथा कथा को सहज बनाने में सक्षम है। उनकी लघुकथाओं की शिल्पगत विशेषता यह है कि वे अपने पात्रों के चारो ओर जिस परिवेश की रचना करती हैं वह उनके पात्रों के समांतर मुखर होता है। वह घटना(ओं) और पात्रों को आलोकित करता है। इन लघुकथाओं के पात्र विविध जातियों, समुदायों, वर्गों तथा भिन्न-भिन्न संस्कारों वाले हैं। उनकी भाषा का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलता है कि राजेश कुमारी में पात्रानुकूल भाषा प्रयोग की अद्भुत क्षमता है। पा़त्रों के अनुसार तत्सम-तद्भव, संस्कुतनिष्ठ, उर्दू-मिश्रित तथा अंग्रेजी शब्दों से युक्त भाषा की विविधता लघुकथाओं में देखी जा सकती है। जैसे:

 

‘इस संडे कहाँ पार्टी करें कोमल? नील ने पूछा

यू लाइक, मॉल चलते हैं।’ (आस्थाः शापिंग मॉल)

‘तीन किलोमीटर होई।

तुम पैदल ही....।

‘हाँ उसमें कौनु बड़ी बात है?’ (जीवन गठरिया)

‘भाई एक बेरी और सोच ले, कहीं लेने के देने न पड़ जांवे, छोरी के चाच्चा को तू जाणे सः बड़ा आदमी सः कुछ.....’

‘भाई तन्ने पता नही है, दोनों भाई एक दूसरे की सूरत भी देखना नी चाहते। सारे गाम कू पता सः और उसे तो ब्याह का न्योता भी नी दिया मुँह फुलाए बैठ्ठा घर में।’ (चाब्बी)

लघुकथा की असफलता-असफलता का गुरुतर दायित्व भाषा-शैली की साम्‍थर्य पर ही निर्भर करता है । भाषा एवं शैली का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। वस्तुतः शैली शिल्प का ही एक अंग है जिसका सम्बंध भाषा में होने वाले प्रयोगों से है। लेखक की शब्द योजना, शब्द चयन और वाक्य को गठित करने की पद्धति शैली के अंतगर्त आती है यानि रचनाकार अपनी अनुभूतियों को किस शैली द्वारा अभिव्यक्त करता है।

 

प्रतीक विधान लघुकथाओं की शिल्पगत विशेषता है। लेखक जब कम से कम शब्दों का प्रयोग करके अधिकाधिक अर्थ को अभिव्यक्त करना चाहता है तो वह प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग करता है। प्रतीक विस्तार को संक्षेप में कहने का सशक्त माध्यम है। कथ्य को अल्प शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति देने के लिए प्रतीकात्मक शैली को अपनाया जाता है। राजेश कुमारी ने अपनी लघुकथाओं में प्रतीकों का प्रयोग इतनी सरलता, सजगता एवं दक्षता से किया है कि उसके अभिप्रेत अर्थ को पाठक सहजता से ग्रहण करता है।

 

‘आत्मग्लानि के घड़ों पानी में भीगा-सा शेखर तुरन्त अन्दर वापस आया....’ (शो आफ़)

अम्बर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी.....’ (बदनामी का बोझ)

सुनते ही उसके आक्रोश के ज्वालामुखी का लावा आँखों से आँसू बनकर बहने लगा।’ (किंकर्तव्यविमूढ़)

राजेश कुमारी जी की भाषा अलंकारिक है। उपमा रूपक दृष्टांत आदि अलंकारो का प्रयोग उन्होनें भाषा के बाह्य रूप को सजाने के लिए ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति को अधिक सशक्त बनने के लिए किए हैं-

 

बोला आज तो बिना सींगो की गाय है तुम भी मजे से.......’ (जहरीले चूहे)

‘हाँ भेड़िया बकरी की खाल में नजर आ रहा है.....’ (तितलियाँ)

‘अब इसके तस्में ढीले होएँगे.....’ (बेटी को बचा लो)

अचानक सहस्त्रों लम्बे-लम्बे काँटे ससुर के बिस्तर में उग आये।’ (बंधन)

 

परिवेश के चित्रण में भी राजेश कुमारी भाषा पर बहुत अच्छी क्षमता रखती हैं। भाषा की सजावट के कारण लघुकथा को एक जीवंतता मिलती है। दृश्य चित्रण की कुशलता उनकी लघुकथाओं में बाखूबी परिलक्षित होती है। जैसेः

 

‘घुप्प अँधेरा। उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं की साँय-साँय, पागल चरमराते दरख्त।’ (बदनामी का बोझ)

 

‘सूखे गमले’ में घर की उदासी का शानदार चित्रणः

डेढ़ साल हो चुका थे नकुल को गये। आज भी उस घर की दीवारों, चैखटों से सिसकियों की आवाज सुनाई देती है। बगीचे के हरे, सफैद, लाल फूल उस तिरंगे झंडे की याद दिलाते हैं जिसमें लिपटा हुआ उस घर का चिराग कुछ वक्त के लिए रूका था। नई दुल्हन की कुछ चूड़ियां आज भी तुलसी के पौधे ने पहन रखी हैं। बीमार माँ की खाँसी की आवाजें कराह में बदलती हुई सुनाई देती हैं।

 

या फिर ‘बस-यात्रा’ में मई की उमस भरी गर्मी का परिवेश चित्रण जिसे पढ़ते वक्त पाठक स्वयं भी उमस भरी दोपहर में यात्रियों से ठूसी बस के यात्रियों के पसीने के बदबू को महसूस करता हैः

 

मई का महीना। आग बरसाता हुआ सूरज। ऊपर से साम्‍र्थ्‍य से ज्यादा भरी हुई खचाखच बस। पसीने से बेहाल लोग... रास्ता भी ऐसा कि कहीं छाया या हवा का नाम निशान नहीं।

 

राजेश कुमारी ने अपनी भाषा में ध्वनियों के सूक्ष्म, सटीक तथा सार्थक ध्वन्यानुकरणात्मक शब्दों के प्रयोग किये है।  आई है। जैसे: ‘ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग़.....!‘ , ‘छन्न...छन्न...छनाकऽऽ!‘ , ‘क्लिक ! क्लिक ! क्लिक !‘, ‘पीं.. पीं.. पीं.. !‘ घुर्र-घर्र.. फट...फट... फट...!’ इससे भाषा की अर्थवत्ता बढ़ी है। इन शब्दों के प्रयोग से भाव उभरकर सामने आए हैं और अनुभूति में तीव्रता आई है!

 

शीर्षक को यदि लघुकथा की आत्मा कह दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। शीर्षक के माध्यम से ही लेखक की योग्यता के प्रथम दर्शन होते हैं। अच्छे शीर्षक की विशेषता उसकी उचितता, उपयुक्ता, संक्षिप्तता, औत्सुक्यता और नवीनता होती है। लघुकथा जीवन के किसी मार्मिक पक्ष का रहस्योद्घाटन करती है। उसके शीर्षक में उसकी प्रतिछाया अवश्य रहनी चाहिए। प्रतिपाद्य के अनुरूप शीर्षक का होना अत्यंत आवश्यक है। शीर्षक लघुकथा में व्यक्त विचार, भाव, तथ्य तथा मर्म की सामूहिक ध्वनि का संदेशवाहन होना चाहिए। बेशक अच्छा शीर्षक आवश्यक है परन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं लेना कि शीर्षक में सनसनी या चैंका देने का तत्व सम्मिलित करना आवश्यक है । शीर्षक लघुकथा की प्रकृति और रोचकता के अनुरूप ही होना चाहिए। तथ्य की गूढ़ व्यंजना करने वाले शीर्षक कल्पना और भावुकता पर आघृत होने के कारण अधिक कलात्मक और सौष्ठवपूर्ण होते हैं। साधारणतयः शीर्षक रखने के लिए केन्द्रीय पात्र, किसी घटना, किसी भावना या विचार को बुनियाद बनाया जाता है। यह भी देखने में आया है कि अंतिम जिज्ञासा को शीर्षक बना दिया जाता है। अंत के भाव पर आघृत शीर्षक लघुकथा की रोचकता को कम करते हैं। शीर्षक संक्षिप्त, कौतूहलजनक, अर्थगर्भी, बहुआयामी, रोचक और नवीन होना चाहिए। इस आधार पर राजेश कुमारी की लघुकथाओं के कुछ शीर्षक जैसे- ‘राखी’, मुक्तिबोध’, गुल्लक’, दोपाये’, बुनियाद’, थप्पड़’, सूखे गमले’, अधखिले’, मगरमच्छ’ एकदम शीर्षक सटीक चयन है।

 

राजेश कुमारी की लघुकथाओं में प्रतिभा, प्रज्ञा और सामथ्र्यमयी अभिव्यक्ति का जो समन्वय दिखाई देता है वह सचमुच अभूतपूर्व है। मानवीय चेतना, जीवन की क्रियाशीलता, अपेक्षित संवेदना, हृदयग्राही मनोविशलेषण, आत्मिक सत्य, पारिवारिक समस्याओं के समाधान, द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में से छुटकारा, मर्मस्थलों की पहचान, अभिव्यक्ति में काव्यात्मकता और बोधात्मक चित्रण की झांकिया उनकी लघुकथाओं में यत्र-तत्र देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाएं भाषा और अभिव्यक्ति में, कथा वस्तु और किरदार के गठन में, संवेदना और सरोकार में ज़िन्दगी के बहुत नज़दीक है। लघुकथा जगत में उनके प्रथम लघुकथा संग्रह ‘गुल्लक’ का दिल खोल कर स्वागत होना चाहिए।

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 3988

Replies to This Discussion

जनाब डॉ.रवि प्रभाकर साहिब आदाब,बहना राजेश कुमारी के लघुकथा संग्रह 'गुल्लक'की समीक्षा पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला,आपने जिस ख़ूबी से एक एक लघुकथा का जिस बारीकी से मुतालिआ किया और एक एक बिंदु पर बात की है वो वाक़ई क़ाबिल-ए-दाद-ओ-सताइश है, अगर मैं किसी सल्तनत का मालिक होता तो आपको यक़ीनन जागीरें अता कर देता,आपके क़लम का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है,मैं आपकी बारीक बीनी का पहले भी मोतरिफ़ रहा हूँ लेकिन आज उसमें अक़ीदत भी शामिल हो गई है,दिल से एक ही दुआ निकल रही है कि :-
'अल्लाह करे ज़ोर-ए-क़लम और ज़ियादा'
इस शानदार और बेमिसाल समीक्षा के लिये दिल की तमामतर गहराइयों से आपकी ख़िदमत में ढेरों मुबारकबाद पेश करता हूँ,जीते रहो सलामत रहो,ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद ।

/ अगर मैं किसी सल्तनत का मालिक होता तो आपको यक़ीनन जागीरें अता कर देता/ आदरणीय समर कबीर सर आप हमारे दिल पर हकूमत करते हो और अापके यह प्‍यारे अल्‍फ़ाज मेरे लिए हज़ारों जागीरों से ज्‍यादा मूल्‍यवान हैं। आपके स्‍नेह और आशीर्वाद के लिए शुक्रगुज़ार हूं । सादर ।

बिजनोर के पेपर पब्लिक इमोशन में छपी ये समीक्षा .पेपर में उन्होंने छोटी कर दी है .

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"वाह बहुत खूबसूरत सृजन है सर जी हार्दिक बधाई"
12 hours ago
Samar kabeer commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, आमीन ! आपकी सुख़न नवाज़ी के लिए बहुत शुक्रिय: अदा करता हूँ,सलामत रहें ।"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 166 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ पचपनवाँ आयोजन है.…See More
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
Sunday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service