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साहित्य-संध्या ओबीओ लखनऊ-चैप्टर माह अक्तूबर 2020–एक प्रतिवेदन        ::    डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य-गोष्ठी 18 अक्टूबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने की I संचालन का दायित्व श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने संभाला I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र का समारंभ डॉ, गोपाल नारायन श्रीवास्तव की एक गजल पर हुए विमर्श से हुआ, जिसमें ओबीओ लखनऊ-चैप्टर के लगभग सभी सदस्य प्रतिभागी बने I इस विमर्श का प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओबीओ एडमिन को भेजा जा चुका है I कार्यक्रम के दूसरे सत्र में संचालक मनुज की सरस्वती-वंदना के बाद लोगों ने अपनी काव्य प्रस्तुतियाँ की I

पहला आह्वान हास्य-सर्जक कवि श्री मृगांक श्रीवास्तव के लिए हुआ I उन्होंने देश को पेड़ का प्रतीक मानकर एक भेदक व्यंग्य प्रस्तुत किया जो हँसी तो नहीं ला सका पर इसका पैना व्यंग्य अंतर्मन को चीर गया i यही वस्तुतः हास्य और व्यंग्य की विभाजन रेखा है I इसमें केवल व्यंग्य है हास्य नहीं है I मुलाहिजा फरमाएं -

एक हरे-भरे पेड़ पर/ कुछ देशी-विदेशी उल्लुओं की / बस्ती हो गयी/ बेचारे शांतिप्रिय पेड़ की  रातों की नींद हराम हो गयी / एक दिन पेड़ कटा और बंटा / तो उसने राहत की सांस ली अगले दिन / उसकी लकड़ियों से/ बन गईं /  संसद-भवन की कुर्सियाँ I

अब एक नमूना हास्य-व्यंग्य का देखिये ‘इनवर्टर’ शब्द का कैसा सुंदर लाक्षणिक प्रयोग है I 

नववधू के आगमन से, घर में मानो लक्ष्मी आयी है।

अंधियारी  रात में भी  सब ओर  रोशनी  छायी है।

रोशनी  का   रहस्यवाद   यह  है  कि  बहूरानी

दहेज   के  साथ-साथ   इनवर्टर  भी  लायी  है।

कवयित्री कौशाम्बरी जी द्वारा प्रस्तुत कविता में वे अपने मन से मुखातिब हैं और मन को तनिक विश्राम करने की सलाह देते-देते जीवन के चरम निष्कर्ष पर जा पहुँचती हैं I परन्तु यहाँ भारतीय दर्शन, आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म के रूप में नये सवेरे का तसव्वुर कविता को नये आयाम देता है I

क्यों नहीं तू समझ पाता/ आ रही है साँझ सुन अब/ तब कहाँ जाएगा रे मन/ उस अँधेरे  में अकेला/ चल मेरे संग उस दिशा में/ दिख रहा जिसमें सवेरा I

गज़लकारआलोक रावत ‘आहत लखनवी’ अपनी नैनाधारित कविता में मंदिर, मस्जिद, गिरजा और गुरूद्वारे का जैसा तसव्वुर किया वह श्लाघनीय है I यह प्रस्तुति गज़ल की तरह जरूर है पर यह हिंदी के मात्रिक छंद ‘वीर’ की तर्ज पर है,जिसे ‘आल्हा भी कहते हैं I आहत जी ने इस वीर रसात्मक छंद में शृंगार को बड़ी ख़ूबसूरती से पिरोया है I उदाहरण निम्नवत है -

चाँद सरीखा सुंदर मुखड़ा  उस पर ये कजरारे नैन I

ना जाने  कितनों  की जानें  लेंगे ये मतवारे नैन II

काली-काली लम्बी पलकें  उठकर गिरना जातीं भूल 

राह किसी की देख रहे हों  जैसे सांझ-सकारे नैन II

जब श्रृद्धा की दीप्ति ह्रदय में करे जाग्रत पावन भाव

हो जाते हैं मंदिर,  मस्जिद,  गिरजा औ गुरूद्वारे नैन II

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘रोटी’ शीर्षक से अपनी कविता प्रस्तुत की I इसमें ‘विचारों के गंगाजल’ जैसे Metaphor हैं पर ‘रोटी’ बिलकुल Alligorical है I कविता की शुरुआत से लगता है मानो वह रोटी का आलंबन लेकर जीवन की कोई परिभाषा गढ़ रहे हों I रोटी तो केवल माध्यम है पर उनकी दृष्टि कहीं और है I परिभाषा का स्वरुप कुछ इस प्रकार है –

अस्तित्व के झुरझुरेपन को/ जब विचारों के गंगाजल से/ मथा जाता है,/ जन्म लेता है जीव -/ ठीक वैसे ही/ जैसे,/ चक्की से

से निकले आटे में/ पानी मिलाकर / बनाई जाती है लोई.

रोटी’ कविता में प्रतीक व्यंजना से झा मानव के अहं का विस्तार दिखता है, वहीं कवि की चेतावनी आती है-

उस समय/ सावधान रहना मित्र,/ नहीं तो रोटी जल जाएगी/ तुम्हारे, उसके फूलने की राह देखने में ही;

कवि की रोटी, भले ही घी-मक्खन से चुपड़ी गई हो/ अथवा,/ किसी ग़रीब के कटोरे में/ एक टुकड़ा प्याज़ और एक हरी मिर्च का साथ पाकर/ इठला रही हो । य

यह उदात्त विचारों का प्रत्निधित्व करती है I

कवयित्री डॉ. अर्चना प्रकाश की कविता ‘वे दिन’ nostalgia की दास्तान है i एक माँ अपने सयाने बेटे के बचपन और तत्कालीन दिनों की याद करती हुयी उसे जीवन में सफल होने का आशीर्वाद देती है Ii कविता का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है -

दर्द तुम्हें न छूने पाए ,

नया सवेरा नित लेकर आये,

आशा की नई किरन ,

देती हूँ दुआएँ अनगिन।

बहुत याद आते हैं वे दिन !

कवयित्री कुंती मुकर्जी द्वारा प्रस्तुत कविता ‘हम सब अपने विचारों के पुतले हैं ‘ का सारा कथ्य प्रतीक-योजना से सधा हुआ है I आज का मानव अहमन्यता का शिकार है I भौतिकता की अंधी दौड़ में वह अपने आप से दूर हो गया है, प्रकृति से दूर हो गया है I कब सवेरा हुआ, कब रात ढली आज के मनुष्य को न इसका पता है और न उसे इसकी चिंता है I -

‘हम सब अपने विचारों के पुतले हैं’

सर से पाँव तक...!!

हम ही हम...तुम ही तुम झलकते हैं...!

हम और तुम की दौड़ में...!

शायद हम बहुत कुछ भूल गये हैं!!

रात ढलना भूल गयी...!

सुबह हम से दूर हो गया...!!

और दिन की खोज में हम भटकते रह गये हैं!!!

 डॉ. अशोक शर्मा आशा और जिजीविषा के कवि है I नित्य नए सकारात्मक सपने गढ़ना उनका व्यसन है I उनकी दुर्दम्य आशावादिता का एक नमूना पेश है - 

उम्र की बात वो करते जो केवल देह को जीते,

मैं प्रतिपल हो रहा नूतन नए सपने जिया करता,

नहीं मैं हूँ पृथक कुछ भी उसी का एक हिस्सा हूँ,

अजन्मा और अविनाशी जो चिर यौवन जिया करता l

उनकी दूसरी कविता में लौकिकता के तार अलौलिकता से जुड़े दीखते हैं I यह इस सत्य पर भी निर्भर करता है कि प्रमाता किरण को किस रूप में ग्रहण करता है I कवि कहता है 

किरणों के पदचिह्न  नहीं होते

किन्तु मैं ढूँढता रहा तुम्हारे पैरों के निशान

भीतर- बाहर सब जगह 

पर तुम बिना पदचिह्नों के आये

असंख्य रूपों में मुस्कराये

सूरज, मौसम और दिन का आलंबन लेकर कवयित्री आभा खरे प्रकृति के चित्रों को अपने गीत ‘सूरज हरकारा सा’ में नये रंगों को जिस प्रकार भरती हैं, यह उनकी अपनी विशेषता है , चाहे वह सूरज के पीले कुरते को नोच कर ले जाने वाली कोई अजूबी शख्सियत हो या फिर खुन्नस में सूरज का छिपना हो I इस कविता की एक झाँकी इस प्रकार है -

बदले मौसम की धारों से

कटा एक दिन जीवन का

साथ रहीं कुछ यादें हर पल

कुछ अब हिस्सा तर्पण का

 

रिश्तों की पाती लेकर

आया है मन का सूरज

हरकारा सा ....!!! 

 ‘सांध्य वेला’ कवयित्री संध्या सिंह के गीत का शीर्षक है, जो उन्होंने साहित्य संध्या में प्रस्तुत की I इसमें संध्या का मानवीकरण तो हुआ है, साथ में बार-बार कविता ‘संध्या के पाँव’ पर आकर ठहर जाती है -

लहरों की पाज़ेब पहन कर

जल के ऊपर थिरक रहे हैं

ये संध्या के पाँव

महामिलन के परिप्रेक्ष्य में संध्या जी की निम्नांकित पंक्तियां किसी भी प्रबुद्ध श्रोता या पाठक को सहसा स्तब्ध कर देने हेतु पर्याप्त है -

नीलगगन पर एक तूलिका

रंग चुरा कर किरन-किरन का

रात गले मिलती जब दिन से

चित्र बनाती महामिलन का

     लाल महावर रचा-रचा कर

     मुड़ते-मुड़ते ठिठक रहे हैं

     ये संध्या के पाँव

कवयित्री नमिता सुंदर द्वारा प्रस्तुत की गयी कविता का चिंतन समय के अनवरत प्रवाह पर है i इस कालचक्र में कितना इतिहास समाया है, कितनी सभ्यताओं के उत्थान और पतन इसमें दफन है पर समय सभी गतिविधियों को लीलता जा रहा है I इस कविता का एक अंश इस प्रकार है -

रवि-शशि का आना-जाना जीवन का अनथक ताना-बाना

इस तट से उस तट तक  छूटे बंद फिर स्नेह मिलन

सभ्यताओं के उत्थान पतन मरूथल होते सघन वन

फिर बदले मौसम का मन प्रस्फुटित हो नवजीवन।

अविरल बहती सरिता धारा लट्टू सा घूमे जग सारा

कभी नहीं होता व्यतिक्रम अविराम बहे है कालचक्र।

 डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने बेटी को याद करते हुए प्रकृति के मानवीकृत स्वरुप पर एक घनाक्षरी प्रस्तुत की, जिसमें बेटी की ससुराल की ओर से आती पुष्पगंध यह बोध कराती है कि बेटी ने बाबुल को याद किया है i एक प्रकार से कवि ने अन्तःप्रज्ञा (intuition) को अपनी  अभिव्यक्ति का आलंबन बनाया है I घनाक्षरी इस प्रकार है -

मंगल की धुन  किसी वाद्य से निकलती है

प्रात आरती के बोल देते हैं  सुनाई  जब I

मलय अनिल  अठखेली  करता  है  मुग्ध 

और  मृदु  शंख-स्वर  लेते अंगड़ाई जब  I

पूरब से आता हुआ  दुति कान्तिमान सूर्य

 करता  धरणि  पर  अपनी चढ़ाई  जब I

दूर कहीं दुहिता ने  बाबुल को याद किया                

 मुझको  प्रतीत हुआ  पुष्प-गंध आई जब I

गज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने एक मुक्त-कविता के रूप में भगवान राम के प्रति अपना एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया,जिसके संबंध में उनका स्वयं का कहना है कि इसमें वर्णित राम मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान राम नहीं हैं अपितु स्वयं को राम का प्रतिनिधि मानने वाला आज का मनुष्य है और रावण उस कल्पित अस्तित्व का प्रतीक है जिसकी निंदा कर दम्भी मनुष्य अपने राम होने के अहम् को तुष्ट करता है I यह कविता आकार में काफी बड़ी है है I इस कविता के कुछ अंश इस प्रकार हैं –

क्यों राम और रामत्व अप्रभावी है?

क्यों रावण और रावणत्व हावी है?

रावणत्व में एकता है, रामत्व विभाजित है - अतः पराजित है.

रावणत्व में एकाग्रता है - लक्ष्य के प्रति गहन लगाव है,

रामत्व में बिखराव है - आपस में टकराव है.     

रावत्व में उपलब्धि की कल्पना का आकर्षण है,

रामत्व में चिंतन का घर्षण, अतः विकर्षण है.

संचालक मनोज शुक्ल ‘मनुज’ बड़े ही अच्छे छंदकार हैं I इनकी घनाक्षरी से लोग परिचित भी है, पर इस बार वे ‘मनोज घनाक्षरी’ लेकर आये I इस नाम की घनाक्षरी काव्यशास्त्र में शायद नहीं है I बेहतर होता प्रस्तुति से पूर्व वे इस छंद पर अपनी बात कहते I छंद इस प्रकार है -

संसार से विलग है, वाणी में भी धार है,

धारदार दृष्टि तीब्र, बुद्धि में प्रहार है।

हार है गले का वही ,पावसी मल्हार है,

है मल्हार ईश का ही, श्रेष्ठ उपहार है।

उपहार है  विशिष्ट ,प्यार , मनुहार  है,

 मनुहार है  सुनो न, पूर्ण अधिकार है।

सत्य प्रेम सत्य,सत्य, मानता संसार है।

अध्यक्ष डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘मनन’ नामक कविता पढ़ी I यह कविता अंजना जी का आत्मचिंतन है i अपने जीवन में उन्होंने कितने स्वप्न सजाये I उन्हें पाने के लिए क्या-क्या जतन किये I ऊंची अभिलाषाओं की पूर्णता हेतु कितने कष्ट सहे -

तरकश में जो तीर सुलभ थे

सबके हुनर आज़माये,

प्रत्यंचा सौ बार खींचा

कार ध्वनित न हो पाये।।

लालच, तृष्णा. प्रेम और प्रेम में पराजय, विश्वासघात और कई तरह के खट्टे-मीठे अनुभव अंत में यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि तमाम उद्योग, श्रम और संकल्प के बाद जीवन ने क्या दिया I तब अंजना जी अपनी बात कुछ इस प्रकार कहती हैं -

जीवन मे जो 'नाम' कमाया

संकट 'खोने का' मोल लिया

पाना  और अपनाना भी

 है गैर  ज़रूरी  तोल लिया।।

जीवन हेतु परितोष ज़रूरी

 जब जब चाहत जाग उठ

ईश्वर ने तो सरहद खींचा

 मानव  नीयत  स्वांग जुटे।।

इसके बाद धन्यवाद ज्ञापन की रस्म निबाही गयी और अगली संध्या में फिर से जुटने का संकल्प लेकर कवि मनीषियों ने विदा ली I मेरे मन में भूपेन्द्र जी की कविता गूँज रही थी I तब दादा मैथिलीशरण गुप्त कुछ इस तरह से याद आये -

राम तुम मानव हो,  ईश्वर नहीं हो क्या ?

विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या ?

तब  मैं  निरीश्वर  हूँ,  ईश्वर क्षमा करे I

तुम  न रमो  तो मन  तुम में रमा करे II   (साकेत महाकाव्य )

 

 (मौलिक व अप्रकाशित )

 

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