कैफी आज़मी एकेडमी., लखनऊ में दिनांक 21-7-2019 दिन रविवार को सम्पन्न हुए समारोह में लोकार्पण के पश्चात लेखकीय वक्तव्य देते हुए डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने अपने उपन्यास की सृजन प्रक्रिया पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि 50 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पद्मावत को पढ़ा था। शुरुआती दौर में उनके ऊपर जायसी की भाषा का आतंक छाया रहा। जायसी की जीवनी पढ़ते समय तमाम और रोचक जानकारियां प्राप्त हुईं जिनके फलस्वरूप यह उपन्यास लिखा गया। उपन्यास के कुछ रोचक हिस्सों का उन्होंने पाठ भी किया।
पहले पाठक के तौर पर आलोचक प्रताप दीक्षित ने कहा कि जीवनी परक उपन्यासों में लेखक का अंतर्द्वंद उसे कथा से अलग करता है। इस उपन्यास को उन्होंने जायसी की जीवनी पर पहला उपन्यास बताया। उन्होंने कहा कि जीवन की समग्र वास्तविकताओं को यहाँ लेखक ने दर्शाया है। यहाँ लेखक ने जायसी के माध्यम से श्रम को प्रतिष्ठित किया है। उपन्यास में सूफीवाद का अधिक वर्णन किया गया है। लेखक ने गंभीरता से श्रम के साथ लिखा हैI
कवयित्री सीमा सिंह ने कहा कि उपन्यास में तारतम्यता की थोड़ी कमी आती है। पूर्व पीठिका के रूप में जायसी के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। मुहावरों का सार्थक प्रयोग कथा को रोचक बनाता है।
कवयित्री शालिनी सिंह ने जायसी के जीवन का संपूर्ण वृतांत उपन्यास को वृहद बनने का कारण बताया। गोपाल जी का लेखन बहुत ही शोध परक है। उन्होंने उपन्यास के रोचक अंशो का पाठ किया। उपन्यास के आखिरी समय में उसके रोचक होने पर भी उन्होंने प्रकाश डाला। यह भी कहा कि योग वाले अध्याय में विस्तार अधिक है।
आलोचक नलिन रंजन सिंह ने इस उपन्यास को सान्दर्भिक, आंचलिक, जीवनीपरक और ऐतिहासिक उपन्यास के गुम्फन के रूप में व्याख्यायित किया। उन्होंने कहा कि संदर्भों में लेखक की श्रद्धा भरपूर है। गोपाल नारायण जी अ विस्तार मोह से नहीं बच सके हैं। कुछ प्रसंगों मसलन योग, अघोर पंथ और स्वप्नों द्वारा उपन्यास को वृहद बनाया गया है। गोपाल जी अनसंग हीरो (UNSUNG HERO) हैं। संदर्भों की मिथकीयता और स्थानीयता को ज्यादा विस्तार आवश्यक नही था। नशे का विरोध उपन्यास में किया गया है जो अच्छी बात है।
आलोचक अनिल त्रिपाठी ने कहा कि किंवदंतियों को कथा का आधार बनाया गया है। ग्रियर्सन के पूर्व और जायसी के बाद जायसी का जिक्र बहुत कम होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने त्रिवेणी लिखकर जायसी के महत्व को स्थापित किया। जायसी को कवि के रूप में पढ़ा जाना चाहिए न कि सूफी के रूप में। इस उपन्यास में सूफी सिद्धांत की बहुत अच्छी चर्चा है । जायसी को भक्त के रूप में अधिक चित्रित किया गया है कवि के रूप में कम
कथाकार अनुवादक शकील सिद्दीकी ने कहा कि जायसी की कविता और उनके सूफीवाद को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अब मजारें एक धंधा बन गई हैं लेकिन जायसी के समय में गरीब जनता का मजारों के प्रति आकर्षण बहुत अधिक था। उन्हें वहां सम्मान भी दिया जाता था। उपन्यास में काव्यांश अधिक हैं। प्रेम, समन्वय और सद्भावना ही इस उपन्यास का देय है।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि एक साधारण पाठक के लिए यह उपन्यास महत्वपूर्ण है। ऐतिहासिक विषयों पर लिखना बहुत चुनौती भरा होता है। । यदि इस उपन्यास में देशज आधुनिकता को अपनाया गया होता तो और अच्छा बन पड़ता। यह उपन्यास जायसी को अलग ढंग से प्रस्तुत करता है। लेखक ने उपन्यास लिखने में बहुत श्रम किया है।
कार्यक्रम में नरेश सक्सेना, देवेंद्र, सुभाष राय, अरुण सिंह, डॉ. अशोक शर्मा, डॉ. शरदिंदु मुखर्जी, भूपेन्द्र सिंह, आलो रावत ’आहत लखनवी, मृगांक श्रीवास्तव , डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ‘निर्मला सिंह, अफीफ, राजा सिंह, तनु प्रिया सिंह, शिवम गर्ग, बृजेश, प्रिया, प्रीति सिंह, प्रिया सिंह, आशीष कुमार सिंह और पुस्तक के प्रकाशक समेत भारी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
(मौलिक/अप्रकाशित )
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