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‘साहित्य में सृजन की प्रेरणा और विकास का उत्स’ - एक परिचर्चा   :: प्रस्तुति डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव

 दिनांक 23 दिसम्बर, दिन रविवार को ओ.बी.ओ लखनऊ-चैप्टर की ‘साहित्य संध्या‘ वर्ष 2018 में सभी प्रतिभागियों को परिचर्चा कि लिए एक विषय दिया गया थ – “साहित्य में सृजन की प्रेरणा और विकास का उत्स“ I इस विषय पर प्रतिभागियों ने जोशो खरोश से भाग लिया उनके विचार यहाँ पर प्रस्तुत हैं i

 

डा. शरदिंदु मुकर्जी  ने कहा , “ अपने अन्टार्टिक अभियानों में समय काटने के लिये मैं  किसी  न किसी सहकर्मी के बर्थ डे या मैरिज एनीवर्सरी अदि अवसरों पर कुछ साहित्यिक गतिविधि करता था I वह लोगों को बहुत पसंद आया I ऐसा नहीं कि सब लोग साहित्य प्रेमी थे I लेकिन वह सबको पसंद आया I जब पसंद आया तो वह एक आदत बन गयी मेरी I  खासकर बच्चों के जन्म दिन पर मैं जरूर लिखता था I वह आज भी पूरा कलेक्शन मेरे पास है I उस समय तो मैं तुकबन्दी करता था I तुक में ही लिखता था I तब से मुझमे रूचि जागी  I जब रूचि जागी तो वह देखते हुए मुझको जो अपनी किताब ‘पृथ्वी के छोर ‘ में भी मैंने लिखा है I   हमारे जो लीडर थे उन्होंने मुझे जिम्मेदारी दी कि स्टेशन की जो मैगज़ीन है, वह आप निकालोगे I वह  पूरी कहानी मेरी किताब में लोग पढेंगे I बस यह शुरुआत हुई वहां से और जहाँ तक एक बात और बता दूं कि मुझे साहित्य में किसी भी विधा से परहेज नहीं है I किसी भी विधा से I तीनों भाषाओँ में ( हिन्दी, अंगरेजी, बाग्ला ) अंगरेजी मैं बहुत कम जानता हूँ  लेकिन जितना जानता हूँ उसमे जो भी किताब मिल जाती है पढ़ने का मन करता है I पढता हूँ I नही अच्छा लगता है,  पीछे छोड़ दिया वह बात अलग है I  लेकिन पढता जरूर हूँ,  कुछ न कुछ I बांग्ला में भी ऐसे ही और हिन्दी में भी और जबसे यहाँ मैं आया 2011 में उसके बाद यह कुंती जी का आग्रह था कि हम लोगों को किसी साहित्यिक समूह से जुड़ना चाहिए और जब इंटरेस्ट है , उनको भी इंटरेस्ट है बहुत,  तो हम लोगों को कुछ न कुछ लिखते रहना चाहिए I उन्होंने ही मुझे सबसे पहले ओबीओ की बात बतायी थी कि ओबीओ करके एक ऐसा ग्रुप है, इन्टरनेट में I तो मैंने देखा कि ठीक है इसमें कुछ पैसा तो देना नहीं है, सदस्य बन सकते हैं तो हम लोगों ने भरा और सदस्य भी बन गए तो हमने उसमे लिखना शुरू किया I यह भी जानती थी अपनी कविता, मैं भी जानता था I कविता से ज्यादा --- मैंने देखा सब लोग कुछ गद्य भी लिखते हैं I छोटी-छोटी यात्राओं का वर्णन देते हैं I मैंने सोचा मैं क्यों न दूं ? मैंने एक छोटा सा लिखा अंटार्कटिका के बारे में I उसको जब लिखा तो डा. साहिब की ---- मुझे आयी थी I इंशा और सौरभ पाण्डेय का  बहुत अच्छा कमेन्ट आया I उन्होंने कहा इसे कांटीन्यू रखिये हम इसे पढ़ना चाहते हैं I तो इस तरह इस किताब की नींव पडी I तो लगभग वही चीज, उसी का संकलन करके मैने यह किताब लिखी I तो यह रहा गद्य की तरफ बाकी जो है आपके सामने ही है I ” 

डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने कहा, “ मेरे माता-पिता दोनों ही कवि हृदय थे I माँ चूंकि बचपन में ही गुजर गयी थी अतः उनकी कोई  रचना मुझे देखने को नहीं मिली पर पिता की तुकबन्दियाँ मुझे बचपन में बहुत भाती थी Iआज भी मुझे याद है कि गांधी जी पर तब उन्होंने लिखा था- ‘शान्ति अहिसा का सेनानी मार्ग दिखाकर चला गया है I  कठिन गुलामी की पाशों से देश छुडा कर चला गया है II’ नेहरू जी पर उन्होंने लिखा था –‘पं० नेहरू के तन-मन में मानवता का सार भरा था i’ वगैरह वगैरह I  हिन्दी के प्रति मेरा रुझान नैसर्गिक था किन्तु कल्पना शक्ति का विकास उन उपन्यासों को चोरी से पढने पर हुआ जो मेरे पिता जी पढ़ा करते थे I उनमे इब्ने शफी के जासूसी उपन्यास भी थे I प्रेमचन्द को भी मैंने तभी पढ़ा था मुझे ‘रंगभूमि’ उपन्यास के नायक सूरदास की आज भी याद है I अपने कालेज के दिनों में ही मैं अच्छी तुकबन्दिया करने लगा था I पिटा जी के रिटायर हो जाने के कारण मुझे इंटर    पास करने के बाद ही सरकारी नौकरी में आना पड़ा I उस समय मेरे सहकर्मी मेरी तुकबंदियों को ख़ारिज कर देते थे और कहते कि यह तुम्हारी रचना हो ही नही सकती  i एक दिन आहत होकर मैंने इसी बात पर एक कविता लिखी- ‘उत्प्रेरक मानव‘ जो उन दिनों रायबरेली से निकलने वाली पत्रिका ‘पूर्वापर’ में 1980 के आस-पास छपी I प्रकाशित होने वाली यह मेरी  पहली कविता थी I यह कविता प्रसाद जी की अमर कृति ‘आंसू’ में प्रयुक्त और प्रसाद जी द्वारा निर्मित ‘आंसू ‘ छंद में लिखी गयी थी i कविता की अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार थीं –

बन्दे उत्प्रेरक मानव !

कवि मं में पैदा भरते I

सुमनों में कंटक बिंधता

मधुमय मकरंद बिखरते II

हिन्दी के प्रति मेरी रूचि ने ही मुझे हिदी का विद्यार्थी बनाया i राजकीय सेवा में रहकर ही मैंने बी ए से पी.यच-डी तक की शिक्षा पूरी की I मेरी प्रकशित रचनायें हैं- मनस विहंगम आतुर डैने (कविता संग्रह ), नौ लाख का टूटा हाथी (इतिहास कथा संग्रह ) और ‘यक्ष का संदेश “ {मेघदूत का भावानुवाद ) I  आज भी मैं अपने को महज एक स्टूडेंट ही समझता हूँ I ” 

गजलकार भूपेन्द्र सिंह ने कहा, “ मेरे पिता जी बम्बई में रेलवे हॉस्पिटल में अधिकारी थे और फिल्म गीतकार शैलेन्द्र से उनका परिचय था I वे दोनों प्रायः चौपाटी में समुद्री रेत पर वाक करते थे और शैलेन्द्र ‘जाये तो जाये कहाँ ‘ जैसे गाना गाया करते I मेरे पिता जी जो होली का कार्यक्रम अपने यहाँ करते थे, उसमे शैलेन्द्र जी आया करते थे i उन दिनों जब उन्होंने फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है‘ के गाने लिखे तो उन्होंने स्टेज पर उसे सुनाया I वह मैंने सुना I अच्छा लगा पर अंदर कोई बीज-वीज नही जगा I मेरे एक मित्र थे मि० राम उपाध्याय उनका कुछ ऐसा वातावरण था कि वे अच्छी रचना करते थे I मेरा एक और क्लास मेट था, जिसके बहनोई फिल्म निर्माता थे, वे 1958 के आस-पास ‘तीर्थयात्रा’ नाम की फिल्म बना रहे थे I आजकल जो फ़िल्मी गीतकार समीर है उनके पिता ‘अनजान’ फिल्म गीतकार थे I  उन्होंने उस फिल्म के गाने लिखे थे I चूंकि हम तीनों मित्र थे अतः यह योजना बनी कि एक सिचुएशन पर मि० राम भी गीत लिखें और कुछ ऐसा इत्तिफाक हुआ कि प्रोड्यूसर्स को वह गाना ज्यादा पसंद आया जो मि० राम ने लिखा था, अनजान की गीत की तुलना में I तो उनका नाम-वाम तो नहीं आया पर वह गाना फिल्म में शामिल कर लिया गया i वह  गाना था -  मेरी प्रीति मेरा प्यार बोले आज बार-बार I बोले क्या ? बोले जाने दे जो दिल गया I मेरा साजन मुझे मिल गया II ‘  जब मैंने इसे सुना और जाना तो बड़ा चमत्कृत हुआ कि क्या बढ़िया गाना है तो अन्दर से यह हुआ कि भई लिखना चाहिए यह भावना मेरे मन में उपजी, लेकिन बम्बई में ऐसा वातावरण मुझे मिला नहीं I

पिता जी के तबादले के कारण फिर हम बनारस आ गए I  पिता जी मेडिकल अधिकारी थे ही तो वहाँ भी खूब कार्यक्रम हुआ करते थे – संगीत के भी और काव्य के भी i तो काव्य में भी रूचि जगी I संगीत में तो रूचि पहले से ही थी I लेकिन फिर वही हमारे मित्र-मंडली में काव्य और साहित्य का तो कोई स्थान ही नहीं था I थोड़ा खेल-कूद का था I संगीत का फिर भी थोड़ा सा था तो मैंने शास्त्रीय संगीत सीखा भी इसी वातावरण में और ग्रेजुएशन की पढाई भी साथ-साथ पूरी की  I लेकिन साहित्य के लिए यही है कि कवि  सम्मलेन हुए, मुशायरे हुए I गीतकार नीरज से चार-पांच बार मैं मिला i श्याम नारायण पाण्डेय जो ओज की कविता पढ़ते थे उनको सामने से सुना I शायरों में शम्सी मीनाई और कवियों में गीतकार सोम ठाकुर इन सबको सामने से सुना है मैंने और कवि सम्मलेन हो या मुशायरा मैं वहां शुरू से आखिर तक रहता था I यह सब अच्छा तो लगता ही था फिर धीरे-धीरे मैंने कलम चलाना शुरू किया I मेरे ख्याल से सन 1966 या 1967 का समय रहा होगा I मैंने रेडियो स्टेशन पर गाना भी गाया पर यह बात आगे न बढ़ सकी I मेरा लेखन बड़ा गुपचुप था लेकिन लोगों को लगता था कि कुछ लिखने का शौक रखते है, Iपर किसी की रूचि नही थी तो कोई सुनता नहीं था I शायद जो मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि मैंने कुछ पंक्तियाँ किसी को सुनाईं, वह भी इत्तिफाक की बात है, 1970 में मेरी शादी हुयी थी I मेरी पत्नी मायके गयी थी और वहां से वापस आ रही थी I बलरामपुर की रहने वाली थी i तो हम ट्रेन में बैठे थे i हमारी नई-नई शादी हुयी थी I पत्नी ने अचानक पूछा –सुना है आप कुछ लिखते-विखते भी है ? मैंने कहा – हां लिखते हैं ऐसे ही i ‘तो क्या आप किसी भी चीज पर कविता लिख सकते है ? मैंने कहा –हाँ. लिखने में क्या है I विचार आना चाहिए i लिख देते है i तो वह बोली, आप मेरी सहेली पर कविता लिख दीजिये I तो मैंने कहा भई मैं तो आपकी सहेली से मिला ही नहीं I तुम अपनी भावना बताओ उसके प्रति तो मैं कोशिश करता हूँ I तो उसने मुझे उसके बारे में कुछ बताया I उसका नाम चित्रा था I मैं यह इसलिए बता रहा हूँ कि वह मेरी पहली कविता थी जो मैंने किसी को सुनाई I मैंने ये लाईने लिखी सिर्फ दो लाइनें – कभी रात्रि की नीरवता में व्यथित हृदय ढूढ़े इक मित्र I जग उठता मानस मे मेरे चित्रलिखित चित्रा का चित्र II ये दो लाईने पहली बार मैंने किसी को नही केवल अपनी पत्नी को ही सुनाई और आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि उनकी भी साहित्य में कोई रूचि नही थी I वह पहली थी जो उन्होंने सुनी, उसके बाद कभी नहीं I फिर ऐसे ही चलता रहा I  मुखर होने का वातावरण कभी बना ही नहीं I

जब फेस बुक की संस्कृति शुरू हुई I मेरे भतीजे ने मेरी उसमे इंट्री करा दी तो जब मैं साईट पर जाता था तो पढने को मिलता था I तो मेरठ से एक डा. सरोजनी तनहा थी i वह बहुत अच्छ लिखती थी I  मैं उको पढता था और देखता था कि लोग उसमे कमेन्ट करते थे तो मैं फिर भी कमेन्ट कर देता था और कमेन्ट में कभी कभी क्या होता था कि जो दो लाइनें लिखती थी उससे मैचिंग दो  लाईने मैं जवाब में लिख देता था i यह प्रक्रिया जब शुरू हुयी उन्होंने एप्रिशिएट करना शुरू किया I  कालांतर में सुश्री सरोज परिहार ने अपने ग्रुप से मुझे जोड़ लिया i संध्या जी भी उस ग्रुप में थीं I सरोज परिहार बहुत एक्टिव थी I उहोने कहा कि मेरी सौवीं फिल-बदीह हो रही है, इसमें शिरकत कीजिएगा तो फिर उसमे मैंने एक दिन में चौबीस शेर लिखे और इसके बाद यह सिलसिला शुरू हो गया I  मैं लिखता था तो लोग चाहे मरे मन से ही पर तारीफ करते थे I फिर यह क्रम चलता रहा i हाँ एक बात जो मैं कहना भूल गया वह यह कि मुझे पढने का बड़ा शौक था I खासकर शायरों का मसलन फ़िराक गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी आदि सबकी किताबे मेरे पास हैं I तो पढता तो था ही और अच्छा भी बहुत लगता था और साहित्य अर्थात गद्य भी पढता था i फिर धीरे-धीरे साहित्य की यह रूचि जो है, वह  ‘काव्योदय’ और काव्य को जो ग्रुप है इनके माध्यम से फिर चीजे ऐसी हो गयीं कि जब जाना तो यह भी जाना कि क्या नही जानते हैं, तो वह प्रक्रिया सीखने की हुयी I फिर गजल की बात आयी तो देखा लोग गलती /कमिया बहुत निकालते थे और टाँगे बहुत खीचते थे I मेरी टांग भी लोग खींचे यह मैं नहीं चाहता था इसलिए अरुज का मैंने बड़े ध्यान से अध्ययन किया तो आज की तारीख में ठीक है मैं कहूंगा कि अरूज की --- मैं यह नहीं कहूंगा कि मुझे अच्छी जानकारी है पर पर्याप्त जानकारी है कि मैं गजल रचना कर सकता हूँ अब फिर धीरे-धीरे 1917 ई०  मी लोगों ने आग्रह करके कहा कि आप अपना गजल संग्रह निकाल दीजिये तो मेरी इच्छा नहीं थी मगर वह भी हो गया I  अब साहब जैसे भी टेढ़े-टाढ़े , आधे-अधूरे जैसे भी हम हैं, वैसे हैं I “      

 

कथाकार डा. अशोक शर्मा ने कहा, “ मैंने  वयस्क  होने पर कुछ लिखना शुरू किया थोड़ा-बहुत  उसको जो कविता कह लीजिये हम तो यह जानते हैं कि हमको न कोई गणित आता है  कविता करने का और न कुछ आता है  हम तो जो मन में आता है लिख देते हैं, जिसको समझ में आये तो कह दे कविता और न समझ में आये तो न कहे कविता और जहाँ तक गद्य की बात है, उसका मुझे ध्यान है कि  सन 2012 में ‘श्रीकृष्ण’ करके एक किताब है स्वामी प्रतिवेदांत जो ‘हरे राम हरे कृष्ण’ वाले हैं, उनकी जो किताब है वो पढ़ रहा था I उसको पढ़ते-पढ़ते लगा कि आखिर जब भगवान ने सोचा होगा कि अब तो सारे काम हो गए अब चलें तो फिर कैसे , क्या उनके मन में गुजरी होगी, जब किसी आदमी को यह लगने लगे कि अब दुनिया से चलना है तो क्या लगता होगा, तो कैसे क्या-क्या स्मृतियों में आया होगा उनकी तो 2013 में मैंने उसको लिखना शुरू किया पहली किताब थी -‘कृष्ण’  I बस वो लिखा फिर एक दिन लगा कि यह  सीता जी क्या सोचती रही होंगी पूरी रामायण में तो फिर ‘सीता सोचती थीं’ उसमे उनके स्वयम्बर से भूमि में समाने तक की,  तो मैंने कोशिश की चित्रण करने की I फिर उसके बाद एक दिन लगा कि अच्छा तो जब वो चली गयी होंगी तो भनवान राम का समय कैसे क्या उनको कैसे याद आती होगी, कैसे क्या कुछ होता होगा उनके मन में तो फिर वो लिखा ‘सीता के जाने के बाद राम’ I वह सीता जी के प्रयाण से उनके अपने प्रयाण तक I बस यही है और अब जो मिल जाता है , कुछ दिमाग में आ जाता है जैसे मन को लगा कि शिव जी पर कुछ लिखें तो लिख डाला I वह  प्रकाशित हो चुकी है पर प्रति अभी मुझे नीं मिली  --और तो कोई खास उपलब्धि नहीं है I बस यही है I “ 

मैं अंजना मुखोपाध्याय, मेरे घर में सब लोग मुख़र्जी लिखते हैं,  मैं मुखोपाध्याय लिखती हूँ I उसकी वजह यह है कि मैंने अपनी हायर सेकेंडरी या फर्स्ट बोर्ड बंगाल से किया था i फादर का ट्रान्सफर हुआ था I  हम वहां पढ़ रहे थे  I साहित्य का जहाँ तक सवाल है उसकी शुरुआत स्कूल के लेटर्स डेज में ज्यादा होती है या रूचि वहां से विकसित होती है तो मुझे बांग्ला में रूचि ज्यादा थी और बांग्ला में लिखती भी हूँ मैं i मेरे ख्याल से थोड़ा आत्मविश्वास भी ज्यादा है उसमें I थोड़ा पढ़ा हुआ है I थोड़ा मैं पारदर्शी रहना चाहती हूँ  I जब डा. शरदिंदु मुकर्जी ने कहा कि आपको ओबीओ में ज्वाइन करेंगे , तो मैंने मना तो नहीं किया  लेकिन मेरे मन के अन्दर एक दुविधा थी, क्योंकि हिन्दी मैंने कभी पढ़ा नहीं था i स्कूल में जहाँ एक्चुएल पढ़ाई होती है हिन्दी की या एक बेस या एक आधार बनता, वह मैंने पढ़ा नहीं था I मुझे यह थोड़ा सा एक बैक डोर इंट्री लगी I कैसे घराने से हम आ रहे हैं और आप सब लोग जानते हैं, तो हम भी यदि इससे जुड़े तो हमारा ऐसा कोई कॉन्ट्रिब्यूशन या अवदान होना चाहिए I लेकिन साहित्य की रूचि में रही हूँ मैं इसमें संदेह नहीं I साहित्यिक रूचि जैसा कि डा. शरदिंदु  ने बताया कि अपने एंटार्कटिक अभियानों में समय काटने के लिये वे किसी  का बर्थ डे, किसी की मैरिज एनीवर्सरी अदि अवसरों पर कुछ साहित्यिक गतिविधि करते थे  I वे  अभी कह रहे थे कि बचपन में हमे एक ऐसा माहौल दिया गया था I हमारे पेरेंट्स ने बहुत सारा हमे कोशिश करके दिया था I 1960 के बाद के दशक में जब फादर यहाँ पोस्टेड थे लखनऊ में तब हम लोग प्राथमिक कक्षा में थे I  फोर्थ . फिफ्थ और सिक्स्थ यही क्लासेज थ हमलोगों के, तो उस वक्त सन डेज को पिता जी रवीन्द्रनाथ टैगोर की कवितायेँ पढ़कर सुनाते थे और मीनिंग भी बोलते थे उसके बारे में,  क्या मीन कर रहे हैं रवीन्द्रनाथ I उनकी फिलासफी क्या मीन कर रही है I मुझे आज भी याद है ‘जेतना ही देबो –‘ उनकी एक कविता है I बहुत बड़ी कविता है, पांच–छह पेज की ऐट लीस्ट जिसका अर्थ है -जाने नही दूंगा I उसका एक-एक पीस उन्होंने हमें इतनी बार सुनाया होगा कि केवल सुनते हुए मैंने उसे पढ़ा नहीं केवल सुनकर ही वह पूरी कविता मुझे याद हो गयी थी और इतना ज्यादा उसकी फीलिंग उसकी अनुभूतियाँ--- एक छोटी सी सिंपल सी कहानी से शुरुआत है उस कविता की जिसमे बगाल में रहते हुए, घर बंगाल में है और जैसे पति जा रहां है I वह छुट्टियों में आया था और अब बाहर जा रहा है तो उसकी तैयारी चल रही है I  स्त्री उसकी पत्नी तैयारी कर रही है लेकिन दिल लगाताए कह रहा है कि जाने नहीं दूंगी I न जांए, मंन कर रहा है कि न जांए और इस चीज को कवि देख रहा है हर छोटी-छोटी चीजों में, दिए की बुझती लौ I आधार उसको रोकने की कोशिश कर रहा है I एक घास जिसको बसुमती पकड़े हुए है, जाने नहीं दे रही है तो एक-एक चीज का वर्णन इतनी अच्छी तरह से है उसमें  I कालेज डेज में जब मैंने पढ़ाना शुरू किया I उस वक्त रिफ्रेशर    कोर्सेस होते थे  तो मैंने रिफ्रेशर कोर्स ज्वाइन किया I करीब तीस लोगों का ग्रुप था और मेरी आदत था ऑब्जर्व करने की क्योंकि साइकोलोजी था तो एक बिहैवियर को ऑब्जर्व कर उसके नेचर को, उसके कैरेक्टर या ट्रेड्स को समझने की कोशिश करती थी I रिफ्रेशर एक महीने का कोर्स था तो उसमे जब हम लोगों का परिचय हो रहा था, उसमें मैंने हर एक के बारे में चार-चार लाइन की कविता लिखी I शुरू में मजाक में ही शुरू हुआ था किसी ने कोई बदमाशी की, सभी कलीग्स थे रिफ्रेशर में I तो उसमें किया लेकिन धीरे-धीरे वह सीरियस हो गया और बहुत अच्छी तरह से बन गयी तो तो दो–चार लोगों ने देख लिया तो कहा सबके बारे में लिखो और इसको सबके सामने प्रेजेंट करो i तो मैंने सबके बारे में लिखा और बहुत एप्रीशिएट किया गया तो यह पब्लिकली जैसे लोगो ने इसको एप्रीशिएट किया जो कविता में छंद में था I छोटी-छोटी थी चार लाइन की कविता, जो लोगों ने एप्रीशिएट किया और उसको शायद स्वीकृति मान सकते हैं I अर्थात हिन्दी मे भी शायद मैं लिख सकती हूँ जो  मैंने कभी सोचा नहीं था क्योंकि पढ़ा ही नहीं था I उसके छंद, उसके व्याकरण यह सब चीजे कुछ नहीं आती थीं मुझे I मैंने चूंकि बंगाल में पढ़ा था तो बांग्ला में कमांड था I पर यहाँ नेचुरली ग्रेजुएशन से पढ़ रही थी तो वह शुरुआत थी और उसके बाद वह  चीज छूट गयी I छूट गयी तो अभी थोड़े दिन पहले मेरे ख्याल से दसेक साल पहले एक फंक्शन में किसे ने मुझसे कहा कि अपनी एक कविता सुना दो I उसे पता था यह रिफ्रेशर कोर्से वाला i तो वहां काव्य गोष्ठी हो रही थीI अपने ही कालेज के टीचर्स और एलुमनीज की तो उसमे मैंने कविता सुनायी I उसको भी बहुत सराहा गया I मुझे शौक तो था I जब कभी हिदी के कार्यक्रम होते थे  , कवि सम्मलेन होते थे , बी यच यू में सुनती थी , जब मौक़ा मिलता था सुनती थी I हिन्दी लिटरेचर या साहित्य की दृष्टि से शायद मैंने अभी पढ़ना शुरू किया है, जो अच्छी  किताबे हैं आफ्टर रिटायरमेंट  I  तो देखती हूँ, अगर आप लोगों को पसंद आए तो हो सकता है यह कांटीन्यू हो जाय  नही तो यह पड़ा ही रह जाएगा  I मगर मेरी एक पाजिटिव चीज कि मुझमे धैर्य बहुत ज्यादा है, पेशेंस बहुत ज्यादा है I मैं सुनना बहुत पसंद करती हूँ क्योंकि प्रैक्टिस में भी मैंने काउंसिलिंग की है तो इसलिए लोगों का सुनना मुझे बहुत पसंद है  और फिर उसकी व्याख्या करना और उसे अनालाइज करना मुझे बहुत पसंद है I ”      

मैं कुंती मुकर्जी जब स्कूल में थी तो हमारे परिजन हमे सिखाते थे I प्रोज बताते थे और पोयम्स जो होता था और कहते थे तुम लोग जो सोचते हैं, जैसे फूल देखा है या जो कुछ भी देखा है, उस पर कुछ बोलो तो हम लोग बोलते थे I वह सब फ्रेंच में होता था i फिर इसी प्रकार छठी कक्षा तक सिक्स्थ तक हम लोग पढ़ते गए I फिर एक दिन हमारे स्कूल में वो जो हाई कमीशन का जो राजदूत था वह आया तो जैसे कार्यक्रम होते हैं I सभी लोग कार्यक्रम करते हैं तो बच्चे लोग घूम रहे हैं तो उन्होंने देखा कि कुछ इंटेलीजेंट बच्चे हैं, तो उन्होंने कहा   कि कौन बच्चे मैग्जीन पढ़ना चाहते हैं तो जो लोग तो हाथ उठाये उन्हे मौका मिला I  हम लोगों के घरों में, ह्म लोग ज्योइंट फॅमिली थे तो जितने बड़े भाई बहन, चाचा-चाची थे तो सब बहुत पढ़ते थे I  पहले तो घर में किताबें बहुत आती थीं I  मैग्जीन आती थीं I सभी लोग पढ़ते थे I  तो कहानी पढने का हम लोगों को बचपन से सिखाया गया था I  ये जो इन्द्रभूषण राजदूत थे ,  कुछ बच्चों को छाँटकर वे हर शनिवार को एक कोर्ट करने लगे और हिन्दी पढ़ाने  लगे I  वहां पर एक मैगजीन आती थी – बाल भारती  I लोगों ने इसका नाम सुना होगाI I  यह बहुत प्रचलित मैग्जीन थी I  वह हम लोगों को पढने को बहुत सहज होती थी i छोटी- छोटी कवितायें होती थीं, बच्चों की I वह पढ़कर हम लोगों को सुनाते थे I उन राजदूत का एक असिस्टेंट था I  वह भी हमको बताते थे- शब्दों का बनाना और किस प्रकार से कवितायें लिखना  I मैं जो पढ़ती थी, वह घर पर आकर सुनाती थी तो जैसे कि बच्चों का शौक होता है प्रश्न पूछना, मैं सवाल बहुत करती थी I मेरे पिता जी आते थे,  वे रात को काम करके आ रहे हैं तो उनसे सवाल पूछती थी I अब सवालों का जवाब तो देना है बच्चों को  I अब नहीं देते हैं तो परेशान करेंगे I तो उन्होंने मुझे कहा अच्छा ठीक है, तुम अपने सवाल, इतना सवाल करती हो, मुझे एक नोट बुक दिया और एक कलम दिया कि तुम इसमें लिखा करो I  मैंने कहा कि मैं क्या लिखूँ तो उन्होंने कहां कि  जो तुम देखती हो, जो तुम सोचती हो, वही लिखो i बड़ी  खुश हुयी I इसलिए मैं लिखने लगी I जो कुछ देख रही हूँ या रास्ते में आदमी चल रहा है, उसने क्या बोला और लोग बात करते हैं तो लोगों के संवाद I यह मैं बचपन से ही मैं लिखती थी I दो बच्चे क्या बोल रहे हैं I  दो औरतें क्या बोल रहे हैं I  दो आदमी क्या बोल रहे हैं I वही मैं लिखने लगी I कहा कि ठीक है I मैं लिखती  और पिता पढ़ते थे I  सन डे को जब उनको छुट्टी मिलती थे तो वहः देखते थे कि हाँ यह ठीक है  I फिर मैं फ्रेंच में लिखती गयी i तब इन्द्रभूषण जी ने कहा अब तुम कविता हिन्दी में करो  i तो हिन्दी में क्या, जो कुछ छोटी लडकी के  दिमाग में आयेगा, वही बोलेगी  तो जब उन्होंने कहा हिन्दी में कविता लिखो तो मैं हिन्दी में कविता लिखने लगी I  मेरी पहली कविता थी कि- ‘ मैं नील गगन की परी हूँ बादलों पर होती हुयी सवार –I’  एक बच्ची  की सबसे प्यारी चीज उसकी गुडिया होती है I  तो मैंने अपनी गुडिया पर हिन्दी में कविता लिखी तो जो कुछ मैं लिखती थी वो अपने बैग में ले जाती थी वो सभी स्कूल में जाती थीं और जब कालेज गई गयी तो वो सब चोरी हो जाती थीं I साथी लोग चोरी कर लेते थे कि देखें क्या-क्या लिखती है ये I इस प्रकार इतना तो रोज लिखते-लिखते,  इतनी पढाई करती थी लिटरेचर की और जो वहां हाई-कमीशन आफ इंडिया की बहुत बड़ी लाइब्रेरी थी, उसमे हिन्दी की बहुत सारी किताबें थीं तो शुरू-शुरू में समझ में नहीं आता था I, समझ में नही आ रहा है, तब भी पढ़ रहे हैं i इतने शब्दों का मैंने बाद में अभी  मुझे मेरे पति ने मतलब समझाया I बहुत सारे शब्दों का मतलब नहीं आता था I उच्चारण नहीं जानती थी I फिर भी पढ़ती थी i मोटा-मोटी यह बात समझ में आ जाती थी कि कहानी की थीम क्या है I तो हिन्दी में था  --- फ्रेंच में तो मैं लिखती ही थी I  तो फिर कहानी में मेरे बहुत रूचि थी तो जो मैंने अपनी डायरी लिखी वह  पूरी-पूरी कहानी बन गयी I  उसको कहानी में मैंने जोड़ दिया I तभी से मुझे लिखना आया I  मुझे किताब मिली थी अमृता प्रीतम की – ‘एक थी अनीता I’ उस किताब के बाद पूरी सीरीज मैंने पढ़ा I तब मुझे बहुत अच्छा लगा  I मैने सोचा कि यह उपन्यास तो लिखा बहुत अच्छा है और ‘और नदी बहती रही ‘ हमारे देश (मारीशस ) के एक लेखक बहुत बड़े लेखक (अभिमन्यु अनत ) की थी तो वह उपन्यास जब पढ़ी तो मैंने देखा कि किस प्रकार से उसकी भाषा-शैली है I इतने सहजता से कैसे लिखते है तो जब वो हमारे स्कूल आये तो मैंने पूछा कैसे लिखा जाता है, थीम कैसे बनाया जाता है ? तो उन्होंने बताया कि इस प्रकार लिखा जाता है तो जब मैंने लिखना शुरू किया तो धारा प्रवाह में, बहुत से उपन्यास मैंने अब तक लिखे हैं, कहानियाँ लिखे हैं और कविता तब जब मैं थक जाती हूँ i कविता लिखने का मेरा कोई ये नहीं है, थक जाती हूँ तभी कविता लिखती हूँ I तो यही मेंरी अध्ययन यात्रा है आपने देखा किताबे हैं और उपन्यास हैं i ये सब हैं और मेरी आदत थी  और डायरीज हैं, मेरी हैं जो आजतक चल रहा है फिर खोजने की इतनी प्रवृत्ति थी कि नेट आ गया और जब नेट आ गया I हमारे देश  मारीशस में साहित्य का इतना विस्तार नहीं है I जैसे यहाँ भारत में साहित्य गोष्ठी होती है , वहां पर नहीं होती I वहां पर जो स्कूल कालेज में होती है वही तक होती हैं फिर मैंने कहा  कि शादी के बाद फिर मैंने पढ़ना शुरू किया हिन्दी अच्छी तरह से I जो गलतियां थे. मेरे हसबैंड ने सुधारी I उसके बाद मैंने कहा चलो नेट में देखते हैं अगर हम अपने साहित्य से जुड़ जायेंगे, जो भावनाएं व्यक्त करेंगे वह अच्छा रहेगा,  लोगों को सुनेंगे कैसे वे लोग होते हैं I हम लोग अपनी सुनायेंगे  और इसी प्रकार खोजते खोजते हम लोग ओबीओ से जुड़ गए और वास्तव में सबसे पहले मैंने पूर्णिमा वर्मन को खोजना शुरू लिया I अपने देश मारीशास में उसको सुना था I मैं उसको ढूंढ रही थी I उन्होंने कहा था कि भक्ति-शक्ति उमकी पत्रिका है I फिर उनको ढूंढते-ढूंढते हम लोग ओबीओ तक पहुंच गए I  फिर वहीं से आप देख रहे हैं, जो मेरी किताबें आप पढ़े हैं I “

आलोक रावत ‘आहत लखनवी ‘ ने कहा – “ मेरा बचपन एक ऐसे माहौल में गुजरा है, जहाँ शुरू से ही सबको पढने और गाने का शौक था I पिता जी को भी पढने का बड़ा शौक था और घर में माता जी, बीबी और सब I हम चार बहने और दो भाई थे I मैं सबसे छोटा हूँ घर में I सब सिस्टर्स हमसे बड़ी I भाई लोग सब हमसे बड़े थे I जब भी घर में कुछ होता, फंक्शन होता तो सब अपना गाने का शौकपूरा करते I यह गॉड गिफ्ट है कि हमारे परिवार में सबको गाने का शौक है, तो मुझको भी हो गया  I मैं भी जब स्कूल में कोई फंक्शन होता तो  वहां  देश भक्ति का गाना गाने के लिए खडा हो जाता था I धीरे-घीरे यह प्रैक्टिस स्कूल से शुरू हुयी और फिर मैं कालेज में आया I पोस्ट ग्रेजूएशन लखनऊ यूनिवार्सिटी से मैंने किया I तब तक मुझे लिखने का कोई  शौक नहीं था I मैं सिर्फ उस समय पढने और गाने का शौक रखता था  और साहित्य में आने का तो मुझे कोई वही नहीं था I पढने का शौक इस तरह का था कि हर तरह की किताबे जैसा कि डा. श्रीवास्तव ने अभी बताया छिपछिप के पढने वाला I इब्ने शफी को मैंने भी बहुत छिप-छिपके पढ़ा है I इब्ने शफी और क्या कहते हैं कर्नल विनोद , कैप्टन हमीद ये सब उनके कैरेक्टर्स हुआ करते थे, तो पढ़ते थे  I गाने का तो यह था कि कालेज टाइम जब हम फ्री होते थे तो हम गाने बैठ जाते थे I मैं बैठा हूँ और मेरे सब क्लासमेट बैठे हुए गा रहे हैं I  जिन्दगी का सबसे पहला शेर मैंने तब लिखा जब मेरा पी जी खत्म हो गया और  क्या कहते हैं सब विदा होने लगे, एक दूसरे से I सब ने कहा चलो एक दूसरे के फ्यूचर के लिए कमेंट्स लिखते हैं, सब लोग डायरी में I सबके पास एक छोटी डायरी थी I तो मेरी तो समझ में नहीं आया कि क्या लिखूँ I फिर मैंने एक शेर, तो सबकी डायरी में वही एक शेर मैंने लिखा कि –‘यादों के दायरे में घिर जाओगे कभी जब , धुंधला सा एक साया उसमे भी मेरा होगा i’ तब मुझे नहीं पता था कि मैं क्या लिख रहा हूँ I उस समय जो समझ में आया तो मैंने लिखा I उसके बाद फिर इक्जाम की तैयारी करते रहे कांपटीशन की और फिर जाब लग गयी और पोस्टिंग हुयी तो ऐसे गाँव में हुयी कि मैं अकेले रहता था तो कभी –लिखने का मन हुआ कि चलो खाली बैठे हैं तो कुछ लिखें और उस समय तक मैं कहीं जाता नहीं था I फिर ऐसा हुआ कि एक पुराना दोस्त मिल गया क्या कहते हैं ब्रज किशोर शुक्ला I ‘ब्रज’ के नाम से वो लिखते हैं यहाँ पर I जी पी ओ में पोस्टिंग है उनकी I  उनके बड़े भाई भी हैं महेंद्र किशोर शुक्ला I वो भी कवितायेँ वगैरह लिखते हैं I  हम लोग एक दोस्त की शादी में मिले I बारात में जा रहे थे तो – मैंने एक दिन पेपर में उसकी लाइने पढी थीं छपी हुयी – ‘बोली कोयल कि  अब तो बसंत आ गया I’ तो मुझे लगा यह उसी का लिखा हुआ है I मैंने पूछा यार वह पेपर में मैंने यह लाइन पढी वह क्या तुम्हीं ने लिखी थी ? उसने कहा कि हाँ मैंने ही लिखी थी तो बोले कि अच्छा तो क्या तुम भी लिखते हो ? तो हमने कहा कि हाँ थोड़ा बहुत ऐसे ही लिख लेते हैं I कोई बहुत वो नहीं है I उसने खा कि घर में गोष्ठी है और क्या कहते हैं कि तुम्हें बुलाते है I उसमे डा. अजय प्रसून, उनका नाम आप लोगों ने सुना होगा I उनकी एक संस्था था ‘अनागत साहित्य संस्थान’ I तो उस बैनर के अंडर में यह काव्य गोष्ठी हो रही थी I मुझको भी इनवाईट किया कि आओ तुम भी आओ I मैंने कहा कि अच्छा आते है I बहुत डरते-डरते हुए कि वहां पर पता नही कैसे-कैसे, अच्छे-अच्छे पढने –लिखने वाले लोग आये होंगे I मैंने सोचा चलो बैठते हैं अपना सुनकर चले आयेंगे I मुझसे कहा गया , चलो तुम भी सुनाओ I कुछ लिखा है ? मैंने कहा, हाँ लिखा है तो वहां पर एक गजल मैंने पढी थी I उसके दो शेर आपको सुनाता हूँ कि – खूँ के आंसू न पियें तो क्या करें ? बेबसी में न जियें तो क्या करें ? हर कदम पर साजिशों का जाल है i होंठ हम भी न सियें तो क्या करें ? और हुआ यह कि अगले दिन वह पेपर में मोटी-मोटी लाइन में छप गया – कि हर कदम पर साजिशो का जाल है I तो मुझे भैया ने तुरंत वहा बताया कि देखो तुम्हारी कविता जो है बिलकुल हेडिंग के साथ में छप गयी है तो बहुत अच्छा लगा मैंने कहा अरे यह तो बहुत – चलो मैंने कुछ काम किया I बड़ा अच्छा लगा कि यहाँ एप्रीशियेट किया गया I  डा, प्रसून जी ने – उन्होंने भी काफी क्या कहते हैं, आशीर्वाद दिया अपना I इस प्रकार धीरे-धीरे करके लखनऊ की तमाम गोष्ठियों को हम लोग अटेंड करते रहे i लोगों को सुनते रहे सीखते रहे I और फिर बाहर भी लोगों के साथ जाना हुआ I बनारस में, मुगलसराय में I गजल की बारीकियां सीखी, धीरे-धीरे I फिर उनको लिखना शुरू किया I मुगलसराय में बहुत अच्छा तबका है शायरों का I वहां पर जब मैंने गजल पढी थी तो वहां लोगों ने बहुत एप्रीशियेट किया था और फिर जब हम लोग दोबारा गए तो वहां के लोगों ने मुझसे वह गजल फिर आग्रह करके सुनी जो मैं पहली बार पढ़कर गया था तो फिर वह मैंने वहां दोबारा पढी  I कई बार फिर हम लोग ऐसे गए महराजगंज, बरेली और फिर दिल्ली भी जाना हुआ और तमाम ऐसी यात्रा चलती रही, तो चलते-चलते एक दिन ट्रेन में डा, साहिब (गोपाल नारायण श्रीवास्तव) मिल गए तो इनसे परिचय हुआ तो वह क्या कहते हैं इनकी किताब ‘यक्ष का संदेश’ की भूमिका में यह वृत्तांत पूरा आ गया है कि कैसे उनसे मुलाक़ात हुयी I फिर धीरे धीरे डा. साहेब का गाइडेंस मिलता रहा i फिर क्या कहते हैं ओबीओ से जुड़ गए I ओबीओ से जुड़े तो फिर आप लोगों से सपर्क हुआ I इसी प्रकार धीरे-धीरे और भी अच्छे लोगों से मुलाकात का अवसर मिला i आप लोग सराहना करते हैं अच्छा लगता है i ऐसे ही यह यात्रा चल रही है धीरे-धीरे I”

मृगांक श्रीवास्तव ने कहा, “मैं साइंस का विद्यार्थी रहा I इंजीनियरिंग में ऐडमीशन हो गया था, नहीं हुआ I  पैसे के अभाव में नही गया तो फिर बैंक में जो उस समय नेशनलाईज्ड हुए थे , हो गया तो मैंने ज्वाइन कर लियाi लेकिन उसमे जूझता रहा और कहते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी का बैर होता है तो मैं लक्ष्मी की सेवा में रहा चालीस साल I लेकिन एक बात मेरे साथ यह रही कि पत्नी मेरी बहुत विदुषी थी, बहुत पढी-लिखी थी I संस्कृत से एम ए, हिन्दी से एम ए --- फिर इंग्लिश से भी एम. ए. करने वाली थी तो मेरा ट्रान्सफर बनारस हो गया I उनका रजिस्ट्रेशन हो गया हिन्दी से पी.यच-डी में स्कालरशिप के सहित i तो पी.यच-डी उन्होंने वहां से कर ली  I तो उनकी वजह से जो है घर में पढ़ाई का माहौल रहता था और उनकी किताबों की डाईट थी I मैं हमेंशा किसी लाइब्रेरी या उससे जरूर लाता एक किताब और दूसरे दिन हाँ ख़तम हो गयी, तो इससे क्या होता था मेरे बच्चे-वच्चे बहुत पढ़ते था और हमारे घर  में उनकी वजह से पति का प्रभाव—  I पति का प्रभाव --- प्रभाव होता क्या है ? पत्नी प्रभाव डालती है, तो उनका प्रभाव रहता था I छोटा बच्छा तो बिना किताब कोई लिए पढ़े कुछ खाता ही नहीं था I वो लिताब को ले के बैठता था कोई पढेगा तब खायेगा I हमारे घर यह उसका कुछ असर रहा है और शुरू से क्या होता था कि हास्य-व्यंग्य में मुझे बड़ी रूचि रहती थी और पहले देखते थे होली दीवाली में --- होली में बहुत अच्छे हास्य के होते थे तो मैं उसको पता लगाकर उसको जरूर सुनता था या कहीं पर भी होता था कवि सम्मलेन, उसमे कोई अच्छा  हास्य-रचना का कवि आता था, तो मैं जरूर जाता था I  मेरी रूचि थी और चूंकि बैंक में था तो रिटायरमेंट होने के बाद –डा. अशोक शर्मा जी जो बनारस में मेरे साथ रहे i यह भी मैंनेजर थे सेंट्रल बैंक ऑफ़ इडिया में और मैं भी मैंनेजर था I तो जब मैं रिटायर हुआ तो ये मुझको  कवि  गोष्ठियों में ले जाने लगे और ‘अनंत अनुनाद ‘ संस्था में मेरा रजिस्ट्रेशन भी हुआ, तो मेम्बर-वेम्बेर भी बना दिया इन्होने ले जाकर  I  पहले मै सुनता था लेकिन हरी जी संचालक होते थे और वो हर बार हमको भी खड़े कर देते थे कि कुछ सुनाओ, कुछ भी सुनाओ, तो बाद मे मैं उनसे कहता था कि यार क्या गाऊँगा और क्या सुनाऊँगा तो इन्होने कहा तुम कुछ भी लिखो i फिर कुछ उलटा-सीधा, पहले पहले यही लिखा कि कविता लिखो , लिखो कविता I ‘अनंत अनुनाद’ में लिखना है तो लिखो कविता i पहली कविता यह थी I छंद गीत अनत अनुनाद की धुरी है कविता I इसी तरह और इन लोगों ने और कई उसमे बंद जोड़े जैसे डा. शर्मा ने बहुत अच्छी कविता लिखी थी कि- ‘ईश्वर भी कविता लिखता है I ‘ तो उसका भी ट्रीटमेंट दो लाइन उसमे लाये और अध्यक्ष जी के वहां पर वो लिखते थे कि ‘बात-बात पर हो जाती है कविता ‘ तो वो कविता पूरी--जब मैंने पहली बार सुनायी तो लोगों ने कहा , अरे यह तो बहुत अच्छी है तो यहाँ हौसला बढ़ गया, तो मुझे हास्य-व्यग्य पसंद आता है I  वह अलग रहता है I आदमी सुन लेता है और ज्यादातर हास्य-व्यंग्य करेंट होता है I तो मैं उसी पर लिखने लगा I  कभी विषय मिले, अच्छे विषय जैसे देश पर तो मैंने एक अच्छी कविता लिखी जिसको बहुत लोगों ने बहुत अचछा कहा –‘ बापू तुम टेंशन मत लेना I’ बहुत साहित्यिक है वो और वो  ‘बापू तुम टेंशन मत लेना ‘ थोड़ा हटकर लिखी तो लोगों को अच्छी लगी I एक भैंस किसी की खो गयी, उस पर कविता लिखी I इसी तरह हौसला बढ़ता रहा I  फिर नोट-बंदी पर लिखी – ‘नोट बंदी में मोदी ने देश को कडक चाय पिलाई I’  तो यह वहा उनके यहाँ हुआ था, सुंदरगढ़ में तो यह हेडिंग बनी थी I  इसी तरह हौसला बढ़ता गया तो मैं यह हास्य –व्यंग्य वाली सुना देता हूँ और उसी में आप लोगों के पास बैठने का मौक़ा मिल जाता है I”

कवयित्री आभा खरे ने कहा, “  ------बचपन से ही कुछ अन्दर था, वह ही अक्सर निकलता था जैसे निबंध –विवंध लिखना होता था I  जब हम अपने लिए लिखते थे तब भी ---- बच्चों को जब लिखवाये तो उन्हें भी --- वे फर्स्ट आते थे I बच्चे तो एक लिखने का जरिया था I  उसके बाद बच्चे बाहर गए सबसे पहले बेटा बाहर गया  i फिर हसबैंड का प्रमोशन हुआ. वे गए बाहर I फिर बेटी गयी बाहर I बेटी जब जा रही थी तो उसको लगा कि मम्मी यहाँ अकेली रहेंगी, क्या करेंगी ? तो बहुत पीछे पड़कर फेस-बुक मेरा बनवाया I तो उसमे पता नहीं क्यों मेरे दिमाग में आया कि हमने सबसे पहले उनको जोड़ा जो मेरी क्लास मेट भी थी और रिश्तेदार भी –मीनू खरे I हो सकता है आप लोग उनसे परिचित हों I वे आकाशवाणी से जुडी हुयी हैं I अब वे इस समय बरेली में हैं I इस समय तो मतलब  हेड हैं वहां की I तरक्की हुयी है I हमने सबसे पहले उसको सर्च किया तो वह मुझे मिली और हम ऐसे ही अपना वन-लाइनर डालते रहे i तो वह हमे कहती थी कि आभा तुम्हारे साथ क्या है, तुम लिखा करो I इसको प्रैक्टिस में लाओ और सीरियसली लो I फिर उसके बाद उसकी लिस्ट से हमे पूर्णिमा जी ने जोड़ा i उन्होंने खुद हमे रिक्वेस्ट भेजी,  पूर्णिमा वर्मन जी ने I फिर उन्होंने हमसे बात की कि आभा तुम क्या लिखती भी हो, तो मैंने कहा –  ऐसे ही थोड़ा-बहुत I तो उन्होंने कहां- भेजो I तो मैंने इनबॉक्स में भेजी , कविता जो छोटी-छोटी थी I उन्होंने कहा, अच्छी तो है और कोशिश करोगी तो और अच्छी हो जायेगी , तो उन्होंने फिर हमे अभिव्यक्ति से जोड़ा I उस समय तक हम हिन्दी में कुछ नहीं लिख पाते थे मतलब हिन्दी कम्प्यूटर पर नही लिख पाते थे I तो उनसे चैट भी करते थे तो रोमन में करते थे तो उन्होंने हमे टूल्स बताये कि टूल्स डाउनलोड करो, तब तुम हिन्दी लिख पाओगी और उस समय कम्प्यूटर मेरे लिए नया था  I बनाकर चली गयी थी बेटी I तो हम कैसे उसको डाउनलोड करें? कैसे अप्लाई करें ? सब वह हमे ऐरो बना-बनाकर इनबॉक्स में देती थीं कि आभा ऐसे- ऐसे करो इसको I बस फिर हिदी का चल पडा और हम ग्रुप में लिखने लगे I  वहां से एप्रीशियेशन मिलने लगी I और बढ़ा फिर जब वह इंडिया आयीं तो उन्होंने गोष्ठी रखी अपने यहाँ तो हमे भी बुलाया I वहां पे हमे संध्या जी मिलीं i संध्या सिंह जी मिलीं I रामशंकर वर्मा जी मिले I वहीं  पर शरदिंदु जी भी हमे मिले I बस इन लोगों को पढ़ते-सुनते ---करते यह सिलसिला चल पडा I मतलब – अच्छे लोग मिलते चले गए I कुछ न कुछ किसी न किसी दिशा में मदद करते रहे, बताते रहे i आसान होता गया I 

(मौलिक / अप्रकाशित )

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