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ओबीओ के तृतीय वर्षगाँठ पर हल्द्वानी में आयोजित सम्मेलन // --सौरभ

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति द्वारा आयोजित ’विचार-गोष्ठी एवं कवि-सम्मेलन सह मुशायरा’ ओबीओ-सदस्यों के पारस्परिक सौहार्द्र और आत्मीयता का मुखर गवाह बना. कई-कई क्षण उद्दात्त हुए तथा सभी उपस्थित सदस्यों के स्मृति-पटल का अमिट हिस्सा बन गये.

आभासी दुनिया के वायव्य वृत से साक्षात सदेह एक-दूसरे के सम्मुख होना एक ऐसी घटना होती है जो व्यक्तिगत तौर पर सदस्यों को या सदस्यों के छोटे-छोटे समूहों को एक अरसे से आह्लादित करती रही है. ओबीओ के साहित्य-प्रेमी पारिवारिक सदस्य भी आपस में व्यक्तिगत तौर पर एक-दूसरे से मिलते रहे हैं. लेकिन ओबीओ के पारिवारिक सदस्यों का एक वृहद समूह में एक स्थान पर इकट्ठा होना कई अर्थों में इस परिवार के सदस्यों के लिए ही नहीं, बल्कि ओबीओ प्रबन्धन समूह के लिये भी एक नया ही अनुभव लेकर आया.

उपस्थित सदस्यों में ओबीओ के रचनाकार सदस्य ही नहीं बल्कि विशुद्ध पाठक भी श्रोता के रूप में उपस्थित हो कर सम्मिलन-कार्यक्रम की गरिमा को बहुगुणित करने पहुँचे थे. कहना न होगा, किसी आभासी दुनिया के साहित्यिक परिवार के सदस्यों के लिए यह आत्मीयता संप्रेषित करती अभूतपूर्व घड़ी थी.


साहित्य में अंतर्जाल का महत्व’ विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी में वक्ताओं ने अपने-अपने विचार अभिव्यक्त किये.

इस आयोजन से यह भी स्पष्ट हुआ है कि ओबीओ अपने सदस्यों के मन में रचना-कर्म हेतु साहित्य-संस्कार ही नहीं डालता, बल्कि ऐसे आयोजनो के माध्यम से विचार-संप्रेषण या रचनाओं के पाठ हेतु नवोदितों के लिए उचित वातावरण भी तैयार करने हेतु प्रयासरत रहता है. इस आयोजन के मुख्य उद्येश्यों में से यह भी एक मुख्य विन्दु था. यह इस तथ्य से भी साबित होता है कि इस आयोजन में कई सदस्य ऐसे थे जिन्हों ने पहली दफ़ा किसी भौतिक मंच से अपने विचार रखे या अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की थीं. इस तरह के आत्मीय अवसर वास्तव में नवोदितों के लिए आत्मविश्वास में अभूतपूर्व वृद्धि का कारण होते हैं, यह स्पष्ट दिखा.


ओबीओ का मंच अपनी प्रगति के प्रवाह में ’सीखने-सिखाने’ की अंतर्धारा को बहुत ही महत्त्व देता है.


प्रस्तुत आयोजन की प्रबन्धन-समिति को भी इस प्रथम सम्मिलन-सह-आयोजन के दौरान एक बड़ी सीख मिली. यानि, किसी आयोजन में आमंत्रित ओबीओ से इतर स्थानीय अतिथियों को किसी तथ्य पर बिना पूर्व जानकारी दिये अथवा उपलब्ध कराये मंच साझा न करने देने की सीख ! ई-पत्रिकाओं या साहित्यिक ई-मंचों की अवधारणा कई-कई विद्वानों को कई कारणों से अभी तक स्पष्ट नहीं है. ओबीओ जैसे साहित्यिक ई-मंच को किसी प्रयोक्ता का व्यक्तिगत चिट्ठा या ब्लॉग मात्र समझना और तदनुरूप सुझाव आदि देने लग जाना इसी कारण से हुआ.

ओबीओ के उद्येश्य एवं दर्शन तथा इसकी प्रक्रियाओं के नीम जानकार कतिपय वक्ताओं द्वारा ओबीओ प्रबन्धन को यह ’सुझाव-सलाह’ देना किसी तरह से सुधी श्रोताओं को हज़म नहीं हो पा रहा था कि छंद चूँकि गये जमाने के विधान हैं उन्हें पुनर्ज्जीवित करने के प्रयास को अपनाना आवश्यक है. यानि, ओबीओ को सनातनी छंदों पर भी काम करना चाहिये !

ई-पत्रिकाओं की अवधारणा से पूरी तरह अनजान एक वक्ता ने ओबीओ को समय-समय पर विशेषांक निकालने का सुझाव दे डाला.

कई सदस्य-वक्ता तक मूल विषय से भटके हुए लगे. कतिपय सदस्य-वक्ता भी गोष्ठी में प्रदत्त विषय से सम्बन्धित विन्दुओं को रेखांकित करने के स्थान पर अंतर्जाल के असंयमित उपयोग से समाज को हो रही हानियों पर अपनी चिंता जताने में समय जाया किया.

इन सभी विन्दुओं पर आयोजन के अध्यक्ष और ओबीओ के प्रधान-सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ने संयत शब्दों में ओबीओ की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया. यह स्पष्ट रूप से बताया गया कि ओबीओ कोई ब्लॉग नहीं है जैसा कि कुछ ब्लॉगरों को अनावश्यक भ्रम रहा है. व्यक्तिगत ब्लॉग तो इस साहित्यिक मंच का अत्यंत छोटा हिस्सा मात्र हैं.


प्रथम सत्र का संचालन भाई अभिनव अरुण ने किया. इस सत्र का शुभारम्भ सरस्वती की धातु-प्रतिमा पर माल्यार्पण द्वारा हुआ तथा सत्र की अध्यक्षता ओबीओ के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ने की. इस सत्र के मुख्य-अतिथि रामपुर डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष आदरणीय डॉ. दिलीप पाण्डेय जी थे.

दूसरा सत्र


दूसरा सत्र, जोकि तीन बजे अपराह्न से आहूत था, कवि-सम्मेलन सह मुशायरे का था. इस सत्र की अध्यक्षता का दायित्व भी ओबीओ के प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकरजी को सौंपा गया. मुख्य अतिथि आदरणीय डॉ. सुभाष वर्मा जी, प्रधानाचार्य, पी.जी.कॉलेज, चौबट्टाखाल, थे जोकि स्वयं एक उन्नत रचनाकार तथा अनन्य साहित्यप्रेमी हैं. काव्य-सम्मेलन सह मुशायरे के संचालन का दायित्व ख़ाकसार के मत्थे था.

सत्र का शुभारम्भ डॉ. प्राची सिंह, ओबीओ प्रबन्धन सदस्य, द्वारा रचित सरस्वती-वन्दना के सस्वर पाठ से हुआ.

राग केदार पर आधारित इस सरस्वती-वन्दना को प्रस्तुत किया सुश्री सृष्टि सुधी पाण्डेय ने. सुश्री सृष्टि सुधी की इस सुन्दर प्रस्तुति से आयोजन को आरम्भ में ही आवश्यक गरिमामय ऊँचाइयाँ मिल गयी.

श्री अविनाश उनियाल की अतुकांत किन्तु संवेदनापूरित रचना से आयोजन में रचना पाठ का सिलसिला शुरु हुआ.


धार का पेड़
अपनी ऊँचाइयों से
देख सकता है
दो विपरीत छोर एक साथ.

श्रोताओं की भरपूर तालियों से श्री अविनाश जी की रचना मानों अश-अश कर उठी.


इसके बाद दिल्ली से पधारी ओबीओ सदस्या सुश्री महिमा श्री की पंक्तियों ने जीवन के ऊहापोह को शब्द दिये --

 

चुननी होती हैं
ज़िन्दग़ी में कई राहें
पहचानने होते हैं कई बार चेहरे
पार करने होते हैं
कई आयाम !


छत्तीसगढ़ी भाषा में अपनी रचना प्रस्तुत करते हुए आदरणीया सपना निगम ने मुर्गे को बिम्ब बना कर एक संवेदनशील रचना प्रस्तुत की. इस प्रस्तुति को श्रोताओं की सराहना मिली.

सीतापुर से आये ओबीओ के अत्यंत प्रखर रचनाकार श्री शैलेन्द्र मृदु ने अपनी छंद-रचनाओं से श्रोताओं को आप्लावित किया. शैलेन्द्र मृदु की काव्य प्रतिभा से ओबीओ के सभी सक्रिय सदस्य परिचित हैं.

बात होती रहे हम कहें न कहें
प्रेम के अश्रु मोती बहें न बहें
डोर टूटे न ये तोड़ने से कभी
प्यार निभता रहे हम रहें न रहें

कहना न होगा, आपकी पंक्तियों ओ श्रोताऒं का भरपूर प्यार मिला.


श्रीमती गीतिका वेदिका की ओबीओ पर सकारात्मक सक्रियता तथा उत्साहवर्द्धक सहभागिता से कौन पाठक परिचित न होगा ! आपने अपनी काव्य प्रस्तुतियों के माध्यम से संवेदना के कई आयाम प्रस्तुत किये. श्रोताओं ने स्पष्ट महसूस किया कि आपकी संवेदनशीलता के साथ शब्दों का संतुलित सहयोग लगातार सधता जा रहा है. आपकी रचनाएँ स्व-भावनाओं के प्रस्तुतीकरण का उदाहरण थीं. रचनाकारों द्वारा व्यक्तिगत भावनाओं को जेनेरलाइज कर प्रस्तुत करना ही किसी रचना को व्यापक बनाती है.


ओबीओ सदस्य आदरणीय अजय ’अज्ञात’ ने अपनी ग़ज़ल से श्रोताओं को सम्मोहित कर लिया. आपकी ग़ज़ल को सामयिन की भरपूर दाद मिली. एक बानग़ी --

वो मेरे हौसलों को आज़माना चाहता है
परों में बांध कर पत्थर उड़ाना चाहता है
मुझे पहचानने से कर दिया इंकार उसने
पुराना आईना चेहरा पुराना चाहता है


आदरणीय राज़ सक्सेना की रचनाओं से उद्धृत पंक्तियाँ कुछ यो हैं -

तन बिक गया बाज़ार म्ं थोड़े से धान में
बिखरी पड़ी है लाज एक सूने मकान में
सपना यही था क्या मेरे आज़ाद हिन्द का
जनता का ये भविष्य है भारत महान में


खटीमा से आये वरिष्ठ ब्लॉगर तथा ओबीओ के सदस्य श्री रूपचन्द्र शास्त्री ’मयंक’ बाल-साहित्य में एक प्रसिद्ध नाम हैं. किन्तु आपने बाल-रचनाएँ प्रस्तुत नहीं कीं. आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से मानवसुलभ मज़बूरियों और कमियों को ही अभिव्यक्त किया--


कटी है उम्र गीतों में मगर लिखना नहीं आया
तभी तो हाट में हमको अभी बिकना नहीं आया.

आदरणीय रूपचंद्र शास्त्री ’मयंक’ जी अपने काव्य-पाठ के उपरांत शीघ्र प्रस्थान कर गये. अपेक्षा थी कि अन्य युवा रचनाकारों को उनका सहृदय आशीर्वचन मिलता. आपके प्रस्थान का मुख्य कारण बरसाती मौसम का लगातार बिगड़ने लगना भी था. वैसे, सभी आगंतुकों के साथ-साथ आपके भी रुकने की अच्छी व्यवस्था की गयी थी.

धनबाद के श्री दिनेश गुप्ता ’रविकर फ़ैज़ाबादी’ की कुण्डलियों से ओबीओ के सदस्य पूर्णतः परिचित हैं. श्लेष और यमक से पगी आपकी कुण्डलियाँ कई बार रहस्य गढ़ती प्रतीत होती हैं. आपने इस मंच को भी अपनी कुण्डलियों से चकित किया --

जीवन खुली किताब पर, पंक्ति-पंक्ति में पेंच
सच्चा सौदा गुरुकृपा, चल रविकर चल बेच
चल रविकर चल बेच, रेंच सुरपेंच छोड़ दे
विध्वंसी अवशेष, सृजन हित पुनः जोड़ दे
खोल ओपेनबुक्स, आनलाइन हैं गुरुजन
तालमेल सुरताल, समर्पित तन-मन जीवन

आदरणीय रविकर जी के बाद क्रम आया ग्वालियर से पधारे श्री राजेश शर्मा जी का. आपने अपने नवगीतों से तो बस समां ही बांध दिया. अधिकांश सदस्यों ने आपको पहली बार सस्वर पाठ करते सुना था. सुगढ़ शब्दों और उन्नत भावों से पगे आपके गीतों ने वातावरण को गीतमय कर दिया. आपकी सधी हुई आवाज़ ने सभी को वस्तुतः सम्मोहित कर लिया था. गीतों के भाव उचित शब्दों से कथ्य को अन्यतम बना रहे थे --


क्यों छुएँ हम दौड़ कर कुछ नये
जबकि हर इक पल हमारे साथ हैं
खोजती पीछे फिरेंगीं मंज़िलें
कौन सा सम्बल हमारे साथ है

आदरणीय राजेश शर्मा जी अबतक पाठ कर चुके कवियों में पहले कवि हुए जिन्हें श्रोताओं की मांग पर मंच पर दुबारा आना पड़ा. आपकी पंक्तियो और आपके पाठ को बार-बार भरपूर वाहवाहियां मिलीं.

देहरादून से पधारीं आदरणीया कल्पना बहुगुणा की पंक्तियाँ समुदाय से सीधा सवाल करती नज़र आयीं. सुनने में आया कि आदरणीया कल्पना जी द्वारा किसी सम्मेलन में किया गया यह पहला रचना-पाठ था --
मैं एक शब्द बनूँ तो तुम उसका अर्थ बन जाओ
मैं एक नदी बनूँ तो तुम एक सागर बन जाओ
आज हर शब्द अपने में एक सवाल है, क्यों ?
आज हर आदमी सपने बुनने से डर रहा है, क्यों ?


रचनाकर्म में मात्र पद्यात्मकता ही को मान्यता देना ओबीओ का आशय कभी नहीं रहा है. हास्य-व्यंग्य की विधा को गंभीरता से प्रोत्साहित करना किसी उत्तरदायी मंच की सार्थक पहल हुआ करती है. इलाहाबाद से पधारे श्री शुभ्रांशु पाण्डेय के हास्यप्रधान व्यंग्य ’..और मैं कवि बन गया’ का सुगढ़ पाठ जहाँ श्रोताओं को गुदगुदाता लगा, वहीं ऑनलाइन कवियों की आत्ममुग्धता को सुन्दरता से साझा कर रहा था. आज के पद्य रचनाकार बिना आवश्यक स्वाध्याय या पद्य-व्याकरण की जानकारी के ’रचनाकार’ कहलाना चाहते हैं. दूसरे, सोशल साइटों पर पढ़े-बिनापढ़े ’वाह-वाह’ करने की भेड़चाल और आत्ममुग्धता की मनोदशा पर भी अच्छा कटाक्ष प्रस्तुत किया श्री शुभ्रांशु जी ने.

रचना से कुछ वाक्यांश --

".. तो मैं इतना बड़ा कवि हूँ और ये मुझे ही पता नहीं था. भाई लोगो ने ऐसी-ऐसी टिप्पणियाँ और भाव व्यक्त किये थे कि मैं भी अवाक् था. मेरे नेट दुनिया के कुछ मित्रों ने मुझे आधुनिक कविता का उदयीमान सितारा घोषित कर दिया था. .."

महाकाल की नगरी उज्जैन से पधारे आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी के सतत अभ्यास से कौन ओबीओ सक्रिय सदस्य अनभिज्ञ होगा ! अपने पाठ से आपने श्रोताओं से भरपूर तालियाँ बटोरीं. आज के माहौल में आम आदमी की विवशता को शब्द देती आपकी पंक्तियाँ कितनी सटीक बन पड़ती हैं, इसकी एक बानग़ी --
बताना भी मुसीबत है, कोई चर्चा है मुश्किल
तकाज़ा है उमर का अब खुदा खर्चा भी है मुश्किल
बचे हैं और दिन कितने खुदा पैग़ाम दे देना
हुई हैं तंग सब खीसें, इन्हें भरना भी है मुश्किल

देहरादून से एलोपैथिक चिकित्सिका और ब्लॉगिंग की दुनिया में प्रसिद्ध नाम हो चुकीं डॉ. नूतन गैरोला की रचनाओं से स्त्री-सुलभ कोमलता उमड़ती है. रचनाओं में सामाजिक वर्जनाओं के प्रति नकार है. किन्तु इस संप्रेषण में सार्थक सबल निवेदन ही है, न कि आज के फैशन की तरह व्याप्त उच्छृंखल भावनाएँ व शब्दावलियाँ. आपकी रचनाएँ संयत ढंग से श्रोताओं से सम्बन्ध बना लेती हैं. आपकी पंक्तियों को खूब सराहना मिली.

देह्ररादून से ही आयीं, ओबीओ को अपनी ऊर्जस्विता से प्रेरित करने वाली आदरणीया राजेश कुमारी जी की रचनाओं को भी भरपूर सराहना मिली.

आपके गीत ’साथी रे, बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर’ को बार-बार वाहवाहियाँ मिलती रहीं. आप द्वारा प्रस्तुत एक नज़्म की बानग़ी प्रस्तुत है --

जख्म कांटो से खायें  हैं हमें फूलों को सताना  नहीं आता 

इश्क सफीने  डुबायें हैं हमे तूफाँ से बचाना नहीं आता

कभी  ना  बेरुखी भायी    कभी ना नफरतें पाली 

दिलों में घर बसाए  हैं हमें महलात बनाना नहीं आता

इसके बाद छत्तीसगढ़ से आये आदरणीय अरुण निगम जी ने नवगीत प्रस्तुत किया. आपकी आशु रचनाओं से ओबीओ के पाठक भली-भाँति परिचित हैं. ओबीओ के ऑनलाइन आयोजनों में आपकी सहभागिता कई सदस्यों के लिए सदा से प्रेरणा का कारण रही है. आपने अपने निवेदन में अन्यतम ऊँचाइयों की बात की. कविता-प्रयास मात्र भाव-संप्रेषण न हो कर दायित्वपूर्ण समर्पण भी है. इसे कितनी खूबसूरती से शब्द मिले हैं --


तुम्हीं प्रेरणा कवि हृदय की
कविता का शृंगार न छीनो
तुम पर ही अब गीत रचूँगा
मुझसे ये अधिकार न छीनॊ
जलने दो तुम अरुण-हृदय को
तब ही जग आलोकित होगा
आदिकाल से नियति यही है
तुम मेरे संस्कार न छीनो

मीठू या तोते को ’तपतकुरु’ कहते हुए मानव की मशीनी ज़िन्दग़ी पर भी आपने छत्तीसगढ़ की लोकभाषा में एक बिम्बात्मक रचना सुनायी.

इसके बाद आह्वान हुआ वाराणसी नगरी के आदरणीय अभिनव अरुण का. आपकी ग़ज़लों के कथ्य और इंगितों से लगभग सभी ओबीओ सदस्य मुग्ध रहे हैं. ग़ज़ल के तकनीकी पक्ष के प्रति आपके आग्रह ने आपकी ग़ज़लों को आवश्यक ऊँची मेयार दे दी है. आपके अश’आर सामाजिक विसंगतियों का आईना तो हैं ही, मानसिक संताप का मुखर उद्घोष भी हैं. 


झूठ जब भी सर उठाये, वार होना चाहिए
सच को सिंहासन पे ही हर बार होना चाहिए
बात की गाँठें ज़रा ढीली ही रहने दो मियाँ
हो किला मज़बूत लेकिन द्वार होना वाहिये

भाई अभिनव अरुण के उद्घोषकीय स्वर में ग़ज़लों और नज़्मों को सुनना एक अनुभव होता है. श्रोताओं की मुखर वाह-वाहियों ने आपकी ग़ज़लों को स्वीकार किया.  


जिस अदम्य विश्वास ने इस आयोजन को सफल भौतिक स्वरूप दिया और व्यवस्था सुचारू रूप से इतनी सधी हुई कि सम्मिलन हेतु सम्मेलन में आये सभी सदस्य कृतकृत्य हो गये, उन विदुषी कवयित्री का काव्य-पाठ मन और मस्तिष्क दोनों के लिए अनुभव था. डॉ. प्राची सिंह की नैसर्गिक प्रतिभा ने सतत अभ्यास और आवश्यक अध्ययन से इन थोड़े दिनों में कितनी प्रगति की है यह ओबीओ का हर सदस्य जानता है. आपकी सरस्वती-वन्दना इस आयोजन का स्वर हुई, तो आयोजन की व्यवस्था आपके कुशल-प्रबन्धन का उन्नत एवं अनुकरणीय उदाहरण !


ओबीओ के मंच पर तरही-मुशायरे को सफलतापूर्वक चलाने वाले भाई राणा प्रताप ने अपनी ग़ज़लों से सभी श्रोताओं को बाँध लिया. आपकी इस विधा की तकनीक पर पकड़ चकित करती है. इस तथ्य की संस्तुति ग़ज़ल के सभी जानकार करते हैं. आपकी ग़ज़ल की संवेदनशीलता को इन पंक्तियों से समझा जा सक्ता है --

तुमने जबकुछ बात कही थी चुपके से
तबसे बिन संग रात गयी थी चुपके से
आँगन की क्यारी में फिर दो फूल खिले
मेरे घर बरसात हुई थी चुपके से
दुश्मन दोनों घर थे बहुत बड़े लेकिन
थोड़ी सी आवाजाही थी चुपके से

श्री राणा प्रतापजी के बाद ख़ाकसार ने भी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं. श्रोताओं के मुखर आशीष से दोहरा हुआ मन लगातार नत होता रहा. एक-दो भावमय अतुकांत रचनाओं के बाद मुझे छंदबद्ध रचनाएँ तथा नवगीत प्रस्तुत करने का आदेश हुआ. जिसे सिर झुका कर मैंने स्वीकार करते हुए दुर्मिल सवैया में ’फुलकी’ तथा अपना एक नवगीत ’आओ गटकें पान-सुपारी..’ को सस्वर प्रस्तुत किया.

मिली तालियों की अनुगूँज अभी तक मेरी धमनियों में तरंगित है. यह पुरस्कार मेरी थाती है.

इलाहाबाद के भाई वीनस केसरी ग़ज़ल की दुनिया में आज एक ऐसा नाम है जिसकी उपस्थिति किसी मंच को आप्लावित कर देती है. ग़ज़ल के अरुज़ पर आपकी समझ बड़े-बड़ों को चकित करती है. आपकी ग़ज़लों को श्रोताओं की भरपूर सराहना मिली. आपकी संवेदना कितनी अपीलिंग और प्वाइण्टेड है, इसकी वकालत करती आपकी प्रस्तुत कुछ पंक्तियों से ज़ाहिर है --


दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं
फैसले को खाप की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं
ये हवस का दौर है, इन्सानियत शर्मसार है
आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

ओबीओ के मुख्य-प्रबन्धक तथा इस मंच के संस्थापक भाई गणेशजी ’बाग़ी’ की साहित्यिक यात्रा इस तथ्य को पुनर्स्थापित करती है कि सतत अभ्यास का कोई तोड़ नहीं हुआ करता. आपने अपनी कई रचनाओं से श्रोताओं के मनस का रंजन किया. बरसाती माहौल में कजरी की सस्वर प्रस्तुति आयोजन की उपलब्धि रही. आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल से कुछ बानग़ी --


बने अफ़सर सभी बेटे जो अब तालीम पा कर के,
अकेले बाप को झबरा सहारा अब भी लगता है. 
इधर मुफ़लिस के मारों की ख़बर कोई नहीं लेता
उधर खाँसी भी ग़र आये तो वह अख़बार होता है. 

मुख्य अतिथि डॉ. सुभाष वर्माजी ने ओबीओ की प्रतिभाओं की उपस्थिति से चकित थे. आपने मंच के प्रति आभार जताया. आपकी रचनाएँ सांकेतिक तो थीं ही, संप्रेषणीयता की कसौटियों को भी संतुष्ट कर रही थीं.


आयोजन के अध्यक्ष आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, जैसा कि विदित है, एक लम्बी बीमारी के बाद ओबीओ के मंच पर महीनों बाद पुनः सक्रिय हुए हैं.

आपका आयोजन में उपस्थित होना सभी सदस्यों के लिए न केवल आह्लाद का कारण था बल्कि आशीर्वाद सदृश था. आपकी प्रखर समीक्षाओं से सभी धन्य होते रहे. इन पंक्तियों पर किस श्रोता ने बार-बार दाद न दिया होगा --

रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यक़ीन से
कोई तो मिले इश्क़ जिसे पापलीन से
मैं चाँद सितारों के ज़िक़्र में हूँ अनाड़ी
इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से


अध्यक्षीय निवेदन के बाद डॉ. प्राची सिंह ने सभी रचनाकारों, आगंतुकों, श्रोताओं का आभार व्यक्त किया. आपने इंजिनियरिंग कॉलेज एमआइईटी-कुमाऊँ के प्रबन्धन के प्रति विशेषरूप से कृतज्ञता ज्ञापित की. जिन छात्रों ने इंतज़ामात में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था उनके प्रति भी हृदय से धन्यवाद संप्रेषित हुआ.

सभी उपस्थित सदस्यों को आदरणीय योगराज प्रभाकर जी के हाथों स्मृति-पत्र प्रदान कर इस आयोजन में उनकी सहभागिता और उपस्थिति को मान्य किया गया. अंत में आयोजन में उपस्थित सभी सदस्यों के साथ ग्रुप फोटो हुआ.  
 
आयोजन की इस प्रस्तुति में इंतज़ाम और भोजन व्यवस्था की बात न की जाय तो अपार कृतघ्नता होगी.

दो सुबहों के नाश्ते, दोपहर के भोजन का गांभीर्य, बादलों से आच्छादित साँझ में काव्य-गंगा में गोते लगाते हुए चाय-पकौड़ों के सोंधे-स्वाद का मज़ा, रात्रि के भोजन का साग्रही-स्वाद, हरकुछ.. हरकुछ की व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि व्यवस्था के अति उच्च मानकों को संतुष्ट कर रही थी.

गर्मागर्म पूरियों का सोंधापन हो या भोजन के समय उपलब्ध शाही पनीर का अनुपम स्वाद, दाल फ्राई का तड़का लगा गाढ़ापन हो या मिक्स्ड वेजिटेबल का पचरंगा स्वाद, गुलाब जामुनों की मीठी मुलामियत हो या गर्मागर्म जलेबियों का मधुर करारापन, आइसक्रीम के प्यालों की मनोहारी ठढई हो या भावभीने सलाद की मनोहारी छटा.. . ओह्होह, उँगलियाँ स्वतः हरकत में थीं, दंत-पंक्तियाँ स्वयं जिह्वा के साथ ताल मिला रही थीं, उधर आनन्द पेट को मिल रहा था ! मन बारम्बार मारे भाव के दोहरा-तिहरा हुआ जा रहा था !


हर सदस्य के लिए अलग-अलग पलंग की व्यवस्था तो थी ही, यह भी व्यवस्था भी थी कि कोई पलंग पर न सोना चाहे तो अन्य हॉल में बिछे हुए गद्दों का मजा ले सकता था. उन गद्दों पर ओबीओ के प्रबन्धन-सदस्यों ने रात्रि में आसन जमाया, जहाँ दूसरे दिन सुबह-सुबह स्वतःस्फूर्त काव्य-वातावरण बन गया ! 

हल्द्वानी स्टेशन और हलद्वानी बस-स्टैण्ड से एमआइईटी-कुमाऊँ परिसर तक लाने-ले जाने के लिए आमंत्रित सदस्यों के लिए निःशुक्ल कैब की व्यवस्था थी. जिसकी सभी आमंत्रित सदस्यों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की.  वातावरण इतना आत्मीय था कि दूसरे दिन सुबह नाश्ता के बाद विदाई के समय आँखें नम पर नम हुई जाती थीं. मुख से निकलते शब्द-वाक्य बार-बार अवरुद्ध हुए जाते थे.

 

 

 

ओबीओ द्वारा साहित्यिक-परिवार की अवधारणा को इतना सशक्त भौतिक स्वरूप मिलना प्रबन्धन और कार्यकारिणी से जुड़े सभी के लिए आश्वस्ति का कारण रहा.

इस आत्मीय वातावरण, कुशल प्रबन्धन और हार्दिक संलग्नता का ही असर था कि सभी उपस्थित सदस्यों की ओर से आदरणीय अरुण निगम जी ने कार्यक्रम समाप्ति के उपरांत धन्यवाद प्रस्ताव के मध्य यह मुखर निवेदन किया कि ओबीओ प्रबन्धन क्यों न सभी उपस्थित सदस्यों के यथासंभव आर्थिक योगदान को स्वीकार करे जिस हेतु सभी उपस्थित सदस्य तैयार हैं. 

 

ओबीओ के प्रबन्धन के सभी सदस्य इस आत्मीय और साग्रह अनुरोध से अभिभूत हो गये. किन्तु, इस तरह के किसी प्रस्ताव को इस आयोजन से अलग रखा गया था. अतः इस पर चर्चा तक करना उचित प्रतीत नहीं हुआ. कार्यक्रम के अध्यक्ष तथा ओबीओ के प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर जी तथा ओबीओ के मुख्य प्रबन्धक श्री गणेशजी बाग़ी जी  ने सदस्यों द्वारा ऐसे किसी अनुरोध पर सादर क्षमा मांग ली.

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-सौरभ

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इस रिपोर्ट को पढ़ने से सकारात्मक भाव का आना ही इसकी सफलता है, आदरणीया.

सादर

परम आदरणीय सौरभ जी सादर,

        सारगर्भित एवं सचित्र रिपोर्ट पढ़कर मन सचमुच अभिभूत हो गया है.  रिपोर्ट साझा करने हेतु कोटि कोटि धन्यवाद.

सादर धन्यवाद, आदरणीय सत्यनारायणजी.. .

हल्द्वानी में अयोजित कार्यक्रम में सम्मिलित होना अपने आप में एक गौरव की बात थी. उसे एक प्रकार से अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरा कहा जा सकता है. लेकिन हम उसे ओबीओ परिवार ही कहते हैं...... इससे अपनापन आता है.

ओबीओ परिवार के लोगों को देखना, उन लोगों से मिलना, फ़िर उन्हे सुनना.. मन की यादों की किताब में कई पन्ने भर गये. उन लमहों को कई दिनों तक पन्ने पलट पलट कर अनुभव करता रहा.....

रास्ते की हैरानी-परेशानी वहां के कार्यक्रम स्थल की सुन्दरता ने दूर कर दिया. फ़िर प्राची जी और ओबीओ के वरिष्ठ सदस्यों ने जो कार्यक्रम की जो रूपरेखा तैयार की थी, उसमें एक प्रवाह था, जो कहीं से भी उसे बोझिल नहीं होने दिया. दोपहर के भोजन के बाद शाम के पकौडों ने सम्मेलन के साथ अपने आप को एकाकार कर लिया था. उसने न तो वक्ता के न ही श्रोताओं के आनन्द में व्यवधान डाला.  सबके साथ-साथ भोजन वितरण करने वाले भी उस पल की सार्थकता को समझते थे, इसके लिये वो भी धन्यवाद के पात्र हैं. ..वैसे इतने सुस्वादु और मधुर भोजन के उपरांत भी हम सभी ने दो तीन प्लेटों को शहीद तो कर ही दिया था. क्या करते हर बार एक नये स्वाद का पता चला आता था. कार्यक्रम के बाद कुछ लोग तो चले गये लेकिन जो रुक गये थे उन्होने हर पल का आनन्द लिया. दूसरे दिन सुबह-सुबह की काव्य गोष्ठी ने तो आनन्द को और भी बढ़ा दिया था.

आशा है, हम फ़िर से किसी और जगह पर मिलेंगे और कार्यक्रम था उसमें सहभागिता को ले कर किसी के मन में अब संशय नहीं रहेगा ......

सादर

बेहद सटीक ढंग से तथ्यों को सामने लाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.

सही है, अपना विलम्ब हम पर भी बहुत भारी पड़ा था.

इस एक टिप्पणी में कई छूट गयी बातें अपना सार्थक आधार पा गयी हैं ..

बहुत-बहुत धन्यवाद,शुभ्रांशुजी..

आदरणीय गुरु जी सचित्र संस्मरण साझा करने के लिए हार्दिक आभार , आयोजन मे न पंहुच पाने का बहुत अफसोस हो रहा है आप जैसे सभी महान हस्तियों से न मिल पाने का मलाल भी है । मै हृदय से दुआ करूंगी कि पुनः कहीं और ऐसा आयोजन हो और आप सब से मुलाक़ात हो ।

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, किसी कार्य का होना या न होना केवल स्वयं के साधने से नहीं होता, कई अन्य तथा बाह्य कारक भी प्रभावी होते हैं. वैसे हम सभी जिस कारण एक परिवार के सदस्यवत व्यवहार करते हैं, वह रचनाकर्म ही है. हम तदनुरूप साधना करें ताकि संप्रेष्य सतत सुगठित हो.

कार्यक्रम भविष्य में पुनः आयोजित होंगे.

सादर

वाह! कितने बड़भागी हैं, वे लोग जो इस महाकुम्भ की बहुवेणी में आकंठ डूब सके। आह! कितना हतभागी हूँ, मैं जो इस पुण्य- लाभ से वंचित रहा।
यद्यपि सहभागिता लाभ से वंचित होना मेरे लिये अत्यंत खेदकारी है तथापि उस महाकुम्भ का जीवंत वर्ण सुनकर मन आनन्द से आप्लावित है।
काव्य- सुरसरिता से में जिन्होंने अवगाहन किया वे धन्य तो हैं ही हमारे पूज्य गुरुदेव अति धन्य है जिन्होंने हम जैसे लाभ- वंचित हतभागियों हेतु पीपे में सुरसरिता का जल ले आये। और जल ही नहीं मौसम का मिजाज, व्यंजनों का स्वाद, बिस्तर की नरमाई, आपसी प्रेम और सौहार्द को भी लाये। मैं इस उपकार से कृतकृत्य हूँ।
ईश्वर से कामना करता हूँ, हे! मुझे आगामी महाकुम्भ के इस पुण्य- लाभ से कदापि वंचित न करना।

भाई विंध्येश्वरी प्रसादजी, हलद्वानी के कार्यक्रम पर प्रस्तुत आलेख पर आपकी प्रतिक्रिया और आपकी शुभकामनाएँ एकतार हमतक पहुँचीं. भविष्य के आयोजनों में आप अवश्य शिरकत करेंगे इसकी आश्वस्ति भी हुई.

कार्यक्रम उपस्थित सदस्यों के मन में चलचित्र की भांति हमेशा चलता रहता है, इसमें संशय नहीं.
शुभ-शुभ

ओ०बी०ओ० विचार गोष्ठी सह कवि सम्मेलन एवं मुशायरा की संक्षिप्त रिपोर्ट से आयोजन की भव्यता और ओबीओ की यात्रा के पड़ाओं मससूस कर रहा हूँ. साहित्य के इस महायज्ञ की, नित नई जानकारी पढ़कर असीम सुख और आनंद की अनुभूति होती है और स्वयं के विलम्ब से सक्रीय होने का पछतावा भी.  रोज़ देर रात्रि, किसी न किसी पुरानी पोस्ट को पढ़ता हूँ. आज इस रपट को पढ़कर अभिभूत हूँ. आदरणीय सौरभ सर , आयोजन को सचित्र रपट के रूप में संधारित करने और नए सदस्यों को ऐसे गरिमामयी पलों से रूबरू कराने के लिए साधुवाद, हार्दिक आभार, नमन.

भाई मिथिलेश वामनकर जी, आज भी जब मैं इस आयोजन को याद करता हूँ तो ह्रदय एक विचित्र रोमांच से भर जाता है । बीमार शरीर, लगभग साढ़े चार सौ किलोमीटर की नीरस और थकाऊ बस यात्रा ऊपर से गर्मी का मौसम - उफ़। इस आयोजन से तक़रीबन तीन महीने पहले आ० सौरभ भाई जी एवं भाई राणा प्रताप सिंह जी मेरी मिजाज़ पुर्सी हेतु जब पटिआला पधारे थे, तब मुझे यह यक़ीन नहीं था कि मैं इन्हें दोबारा फिर से देखने के लिए जीवित भी रहूँगा या नहीं। आयोजन के पास आते आते आते मेरी सेहत में थोड़ा सा सुधार हुआ, हालांकि यमराज ने मेरे लिए जो फ़्लैट बुक किया था उसकी कैंसलेशन अभी तक भी नहीं हुई थी। मेरे आयोजन में न पहुंचने की विवशता से सभी साथी वाक़िफ़ थे,  और मैं अपनी शारीरिक हालत से। बस एक इच्छा थी मन में कि इस दुनिया को अलविदा कहने से पहले मैं अपने सब साथियों को अंतिम बार देख लूँ। इसी जूनून में मैं अपने छोटे सुपुत्र राहुल को साथ लेकर पटिआला से हल्द्वानी जा पहुंचा। हरेक से गले लगकर मिला, साथियोँ को शायद यह मेरा स्नेह लगा हो लेकिन अंदर से मैं उनसे अंतिम विदाई ले रहा था। हँसी-मज़ाक से शायद मैं अपनी शारीरिक कमज़ोरी छिपाने में काफी हद तक सफल भी रहा। सभी मेरे स्वास्थ्य की वजह से चिंतित थे, सभी ने न केवल कुशल-क्षेम की पूछी बल्कि मुझे हौसला भी दिया।

अपनी फूलती सांस तथा लड़खड़ाते पाँवों पर जैसे-तैसे काबू पाता रहा। दो सफल सत्रों के आयोजन के बाद, आ० सौरभ भाई जी एवं भाई गणेश बागी जी हमें में अपने साथ जगेश्वर और नैनीताल यात्रा पर ले गए। वह दो दिन मेरे लिए अविस्मरणीय रहे। आ० सौरभ जी, उनके अनुज भाई शुभ्रांशु जी, उनकी प्यारी सी बिटिया सृष्टि सुधी पाण्डेय, भाई गणेश बागी एवं उनका प्यारा सा परिवार और पहाड़ का खुशनुमा माहौल। यह अनुभव शायद शब्दों में ब्यान नहीं किया जा सकता।

पूरे रास्ते में घने काले बादल हमारे साथ-साथ रहे, जहाँ जाते बारिश हमारे स्वागत को मौजूद होती। तब मैं बे-साख्ता "मेरा साया" फिल्म के एक गीत की पंक्ति की पैरोडी  "तू जहाँ जहाँ चलेगा - मेरा ताया साथ होगा" गाना शुरू कर देता।  जिसे (विशेषकर साया की जगह "ताया" शब्द) सुनकर आ० सौरभ भाई जी की बिटिया खिलखिलाकर हंसने लगती। शायद यह इसी मिलाप का परिणाम था कि मुझ में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ और मौत का साया दिन-प्रतिदिन मुझ से दूर होता चला गया ।

हिम्मते मर्दे मददे खुदा अर्थात बुलंद होंसलों की जीत और  स्नेहिल  मित्रों के सहयोग ये खुशनुमा यादगार बन गई  आपके लिए आदरणीय योगराज जी  | आपकी  टिपण्णी ने मेरा भी  उत्सावर्धन किया है | बहुत बहुत बधाई 

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