विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल' - Open Books Online2024-03-29T09:53:31Zhttp://openbooks.ning.com/forum/topics/5170231:Topic:302144?commentId=5170231%3AComment%3A303681&x=1&feed=yes&xn_auth=noअजय जी!आप की बात सही है. संयम…tag:openbooks.ning.com,2012-12-26:5170231:Comment:3036812012-12-26T04:42:03.697Zsanjiv verma 'salil'http://openbooks.ning.com/profile/sanjivvermasalil
<p>अजय जी!<br></br>आप की बात सही है. संयम दोनों और जरूरी है. दोषी को दंड भी मिले पर दंड देने की प्रक्रिया है. दंड देना न्यायलय का काम है. हर नागरिक को दंड देने की छूट मिल जाए तो शायद देश में कोई जिन्दा ही नहीं बचेगा. हर व्यक्ति अपने विरोधी को समाप्त होता देखना चाहेगा. <br></br>वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दिल्ली की दुर्घटना के सामान दुर्घटनाएं और सामान अपराध देश के अन्य हिस्सों में भी हुए... और हो रहे हैं किन्तु उनकी चर्चा कहीं नहीं है. क्या दिल्लीनिवासी महिला की अस्मिता गाँव की मजदूर स्त्री से अधिक…</p>
<p>अजय जी!<br/>आप की बात सही है. संयम दोनों और जरूरी है. दोषी को दंड भी मिले पर दंड देने की प्रक्रिया है. दंड देना न्यायलय का काम है. हर नागरिक को दंड देने की छूट मिल जाए तो शायद देश में कोई जिन्दा ही नहीं बचेगा. हर व्यक्ति अपने विरोधी को समाप्त होता देखना चाहेगा. <br/>वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दिल्ली की दुर्घटना के सामान दुर्घटनाएं और सामान अपराध देश के अन्य हिस्सों में भी हुए... और हो रहे हैं किन्तु उनकी चर्चा कहीं नहीं है. क्या दिल्लीनिवासी महिला की अस्मिता गाँव की मजदूर स्त्री से अधिक महत्वपूर्ण है? <br/>यदि दुर्घटना की शिकार इतनी गंभीर स्थिति में न होती... सामान्य रूप से चल-फिर पाती तो क्या इतनी चर्चा होती? <br/>अपराधी कोई बड़ा नेता या उसका स्वजन होता तो भी यह वातावरण न होता. क्या अपराधी कमजोर तबके का हो तो अपराध की गंभीरता बढ़ जायेगी?<br/>यदि अख़बारों और न्यूज चैनलों ने इतनी उत्तेजना न फैलाई होती तो क्या जनता का यह आक्रोश भड़कता?<br/>जनाक्रोश को नियंत्रित करने में शहीद हुए पुलिस जवान की मौत और राष्ट्रीय संपत्ति की हानि का जिम्मेदार मीडिया नहीं है तो कौन है? मीडिया का काम घटनाओं की सूचना देना है या जनता से सडक पर उतरने का आव्हान करना?<br/>सभी बिन्दुओं पर चिंतन होना ही चाहिए. क्या सहभागिता की सीमित संख्या से यह बिम्बित नहीं होता की ओबीओ परिवार के प्रबुद्ध सदस्य इस संवेदनशील मुद्दे पर भीड़ लगाने के खिलाफ हैं?<br/><br/></p> महिलायों के प्रति इक खास किस्…tag:openbooks.ning.com,2012-12-25:5170231:Comment:3037652012-12-25T18:43:28.821Zajay sharmahttp://openbooks.ning.com/profile/ajaysharma234
<div><span>महिलायों के प्रति इक खास किस्म के मानसिक रूप से विक्षिप्त पुरुषों का दुराचरण असहनीय है ऐसे रेअरेस्त ऑफ़ रेयर केसेस </span></div>
<div><span>में सजा तो निश्चित तौर पर मौत से कम तो नहीं स्वीकार्य होगी परन्तु बात की जड़ में जाये तो कारण भी देखने होंगे हमें ,,,,,</span></div>
<div><span>महिलोयों को आज़ादी मिले कौन नहीं चाहता है , कृपया बताएं , घर , समाज कहा विरोध है इसका ,परन्तु आज़ादी का पैमाना क्या होगा कितनी आज़ादी और किस तरह की आज़ादी की मांग होनी चाहिए </span></div>
<div><span>अगर आज़ादी…</span></div>
<div><span>महिलायों के प्रति इक खास किस्म के मानसिक रूप से विक्षिप्त पुरुषों का दुराचरण असहनीय है ऐसे रेअरेस्त ऑफ़ रेयर केसेस </span></div>
<div><span>में सजा तो निश्चित तौर पर मौत से कम तो नहीं स्वीकार्य होगी परन्तु बात की जड़ में जाये तो कारण भी देखने होंगे हमें ,,,,,</span></div>
<div><span>महिलोयों को आज़ादी मिले कौन नहीं चाहता है , कृपया बताएं , घर , समाज कहा विरोध है इसका ,परन्तु आज़ादी का पैमाना क्या होगा कितनी आज़ादी और किस तरह की आज़ादी की मांग होनी चाहिए </span></div>
<div><span>अगर आज़ादी यह है तो ऐतराज है मुझे ,,,"इक साबुन के विज्ञापन ले लेकर , पुरुषों के कपड़ों के विज्ञापन में महिलाओं का बेवज़ह कपड़ें उतरना ", </span></div>
<div><span>खुद को ऐसा ड्रेस्ड करना की समाज में निकलना तो दूर किसी पार्टी वगैरह में भी खुद ही अपमानित होती लगती है , </span><span>अब यदि यहाँ महिलोयों को अधिकारों की और ज़रुरत है तो हमें विचार करना होगा ,</span></div>
<div><span>आज़ादी विचार की है तो कहाँ रोक है , आज़ादी समानता की है तो किसे विरोध है , राजनीतिक जगत में आज देश की रूलिंग पार्टी से लेकर राष्ट्रीय पार्टियों की महिला सदस्य सम्मानजनक पदों इन आरूड़ हैं , इक नहीं जाने कितने ही उदाहरण हैं कार्पोरेट जगत में हाईएस्ट पेड सीईओ महिलाएं है , खेल जगत में पुरुषों के साथ साथ करणं मल्लेश्वरी हैं , तो यहाँ मेरी कौम भी है , साइना मिर्ज़ा और सैनी नेहवाल महिला ही तो हैं , जहाँ तक घर से लेकर बाहर तक महिलायों पर अनवश्यक मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना और दबाव की बात है तो यहाँ हमें सुधार की बहुत ज़रुरत है कानून के अपेक्षित संशोधन के साथ साथ पारिवारिक संबंधों में शुचिता और संस्कारों के अलावा बच्चों को उनके माता पिता का ज़रूरी मार्गदर्शन और इन सबका समिल्लन ढेर आवश्यक होगा ,,,,,,,,इक लड़के का इक लड़की या फिर उल्टा ,,और उनका आकर्षण और संबंधों की गति पर इक पेरेंट्स को भी दृष्टि रखनी चाहिए , विरोधी लिंगों में आकर्षण और बिना रुकावटों के उनकी गति आज प्रायः पेरेंट्स के लिए चिंता और चिता का कारण बन रहे है ,,,क्योकि उन्हें इन्टरनेट , मोबाइल और इस राह पे मार्ग दर्शक के तौर पे सिर्फ और सिर्फ शाहरुक और सलमान या फिर मुन्ना भाई उपलब्ध हैं ........मुझे भय है कि आप मेरी इस बात से </span><span>इत्तिफाक रखेंगे या नहीं पर </span><span>..................निश्चित तौर पर इक लड़की के लिए उसकी परेशानी और ज़िल्लत </span><span>का पहला सबब उनका उकसाऊ </span><span>ड्रेस सेंस है ,,,,, पर हालिया सवाल पैर सजाके तौर पे आरोपी तो कड़ी कड़ी सजा होनी ही चाहिए </span><span>,,सबीना अदीब जी का इक शेर अर्ज करूंगा .अपनी बहनों की खातिर .........</span></div>
<div><font color="#FF9900"><u><b><span>वतन बचाने का वक़्त है ये ,</span><span> </span></b></u></font></div>
<div><font color="#FF9900"><u><b><span>शहर </span></b></u></font><u><b><span>बचाने की फिक्र छोडो , </span></b></u></div>
<div><u><b><span>मेरे भी हांथों में दे दो खंज़र , </span></b></u></div>
<div><span><u>मेरे बुजुर्गों हिना से पहले .............</u></span></div>
<div><span>बात तो ऐसे बनेगी ...................</span></div> सौरभ जी, महिमा जी, राजेश जी!स…tag:openbooks.ning.com,2012-12-24:5170231:Comment:3034032012-12-24T13:21:49.521Zsanjiv verma 'salil'http://openbooks.ning.com/profile/sanjivvermasalil
<p>सौरभ जी, महिमा जी, राजेश जी!<br></br><br></br>सारगर्भित विचारों हेतु आभार. वर्तमान प्रसंग में कुछ प्रतिप्रश्न खड़े होते हैं:<br></br><br></br>क्या यह आज ही हो रहा है?<br></br><br></br>इंद्र-अहल्या प्रकरण तो आज का नहीं है. इंद्र सुरेश जिसके पास जवानी, आर्थिक सम्पन्नता, प्रभुत्व या बल और अविवेक ये चारों बिना संयम इकट्ठे थे. दिल्ली का यह प्रकरण किसी सत्ताधीश या उसके परिजन द्वारा होता क्या तब भी मीडिया की यही भूमिका होती? <br></br><br></br>ब्रम्हा और सरस्वती ('या ब्रम्हाच्युत...') के प्रकरण में क्या ब्रम्हा में भी आदिमकाल काल…</p>
<p>सौरभ जी, महिमा जी, राजेश जी!<br/><br/>सारगर्भित विचारों हेतु आभार. वर्तमान प्रसंग में कुछ प्रतिप्रश्न खड़े होते हैं:<br/><br/>क्या यह आज ही हो रहा है?<br/><br/>इंद्र-अहल्या प्रकरण तो आज का नहीं है. इंद्र सुरेश जिसके पास जवानी, आर्थिक सम्पन्नता, प्रभुत्व या बल और अविवेक ये चारों बिना संयम इकट्ठे थे. दिल्ली का यह प्रकरण किसी सत्ताधीश या उसके परिजन द्वारा होता क्या तब भी मीडिया की यही भूमिका होती? <br/><br/>ब्रम्हा और सरस्वती ('या ब्रम्हाच्युत...') के प्रकरण में क्या ब्रम्हा में भी आदिमकाल काल के संस्कार यानी कि शिकार और शिकारी की अवधारणा थी? <br/><br/>'भारतीय समाज उन्हें भोग्या ही समझता है ' समाज में स्त्रियों की कुल संख्या और दुराचार की शिकार स्त्रियों की संख्या का अनुपात या प्रतिशत क्या है? पूर्वापेक्षा अधिक या कम? अन्य देशों में यह प्रतिशत क्या है? <br/><br/>यदि भारतीय समाज स्त्रियों को वाकई भोग्या ही समझता तो अनाचार उँगलियों पर गिनने लायक ही होते या अनगिनत? क्या यह बयान अतिशयोक्तिकारक नहीं है? <br/><br/>'हर बार नारी ही आखेट का शिकार क्यों होती?' यह विचारणीय है... क्या पुरुष कभी शिकार नहीं होता? शूर्पनखा ने प्रयास तो किया ही था भले ही असफल हो गयी हो. क्या ऋषि अप्सराओं के शिकार नहीं हुए? क्या आज भी पुरुष नारी के आगे विवश नहीं है? नर-नारी संबंधों की विवेचना संभवतः यहाँ उपयुक्त न हो... अलग से की जाए तो बेहतर होगा.... नर या नारी योजनाबद्ध आखेट करते हैं या यह आकस्मिक पारिस्थितिक परिणति होती है? <br/><br/>'नैतिक, सामाजिक , राजनैतिक पतन हमारा हो चुका है हम चाहे जितने आधुनिक जीवन जी लें' हो चुका या हो रहा है, या आगे और अधिक होने की सम्भावना है? हो चुका तो क्या अब नहीं होगा? इस वक्तव्य का आधार क्या है. किस मानक से तुलना कर ऐसा निष्कर्ष निकाला गया है? क्या यह विशिष्ट का सामान्यीकरण नहीं है?<br/><br/>'कुत्ता पागल हो जाता है तो क्या उन्हें शूट नहीं किया जाता? / अंग खराब हो जाए तो उसे काट दिया जाता है' संभवतः आशय कड़ी सजा से है... इससे असहमति का कोइ प्रश्न नहीं है किन्तु क्या सजा देने की विधि सम्मत प्रक्रिया न अपनाकर प्रेस और मीडिया द्वारा बनाये गए उत्तेजक वातावरण में हर एक को सजा तय करने का अधिकार देना उचित होगा? फिर सिर्फ नारी अवमानना प्रकरण में क्यों?... भ्रष्टाचार या अन्य प्रकरणों में भी ऐसा क्यों न हो? क्या यह मांग इस वजह से नहीं है कि न्याय प्रक्रिया अत्यंत धीमी और निष्प्रभावी हो रही है और आम लोग उससे आस्था खो रहे हैं? यदि ऐसा है तो यह अलग से विचार का मसला है. <br/><br/>'बदलाव हमे घरों में बच्चों की परवरिश में लाना है' पूरी सहमति है... इसके लिए सरकार या न्यायालय या पुलिस को कम आम आदमी को अधिक काम करना है. <br/><br/>'शिक्षण संस्थानों में सेक्स शिक्षा पर अक्सर बातें होती हैं, पहले सब संस्थानों में नैतिक शिक्षा अनिवार्य करो' यह एक अच्छा सुझाव है... किन्तु इसका प्रभाव तत्काल तो सामने नहीं आयेगा. इसे तत्काल किया जाना चाहिए. <br/><br/>'पोर्न फिल्मे उन पर बैन क्यूँ नहीं लगते घर घर में' इससे सहमति है किन्तु इस कारण अनाचार की घटनाएँ हुईं ऐसा कोई अध्ययन देखने में नहीं आया. वर्तमान घटना, या पिछले एक माह में अख़बारों में छपी घटनाओं में से किसी में भी यह नहीं सामने आया कि अपराधी ने पोर्न फिल्म देखी हो. अतः, इस दिशा में अध्ययन किया जाना चाहिए. <br/><br/>'इन घटनाओं को जो अंजाम देते हैं उनमें बेरोजगार, अनाथ,गुंडे ज्यादा शामिल हैं... अब जाकर सही बिंदु सामने आया... दिल्ली घटना के अपराधी भी इसी श्रेणी के हैं. चिंता का विषय यह है कि समाज में बेरोजगार, अर्ध बेरोजगार, अशिक्षित या अल्प शिक्षित लोग अपनी कुंठा, अंतर्द्वंद आदि से निजात नहीं पाते तो अपराध करते हैं... शिकार कोई भी हो सकता है. इसके साथ ही सत्ता, धन, बल आदि का आधिक्य भी अपराध करने की प्रवृत्ति को बढ़ाता है. इसका उपाय नैतिक शिक्षा, कड़ा तथा त्वरित दंड, पर्याप्त शिक्षा, रोजगार और आय की प्रभावी योजनायें हो सकती हैं. <br/><br/>'निडर होना' तथा 'स्वरक्षा' में समर्थ होना ही एकमात्र समाधान है. क्यों न हर स्तर पर लड़कियों को जुडो, कराते आदि आत्म रक्षात्मक युद्ध प्रणाली सिखाई जाए? इस हेतु सरकार से अब तक किसी भी व्यक्ति या संस्था ने मांग क्यों नहीं की? क्या हर स्त्री-पुरुष को आकस्मिक आक्रमण या आपदा से निबटने की कला सिखाई नहीं जाना चाहिए? हम शोहदों द्वारा आक्रमण ही नहीं भूकंप, तूफ़ान, महामारी आदि आपदाओं के सामने भी असहाय क्यों होते हैं? <br/><br/>इस मंच पर एक से बढ़कर एक विचारक, विद्वान और बुद्धिजीवी हैं किन्तु अब तक मात्र ६-७ सदस्यों की सहभागिता क्या दर्शाती है? <br/><br/>सभी सदस्यों से निवेदन कि अन्य पक्ष भी सामने लाये जाएँ ताकि समस्या और उसका समाधान स्पष्ट हो सके. </p>
<p></p> आदरणीया राजेश जी
व्यभिचार के…tag:openbooks.ning.com,2012-12-24:5170231:Comment:3033652012-12-24T07:08:11.891ZDr.Prachi Singhhttp://openbooks.ning.com/profile/DrPrachiSingh376
<p>आदरणीया राजेश जी </p>
<p>व्यभिचार के कितने मामले ऐसे हैं जो कभी सामने ही नहीं आते,</p>
<p>बलात्कार क्या सिर्फ शारीरिक होता है , क्या समाज में ऐसे वाकिये व्याप्त नहीं जहां कुछ पुरुषों की नज़रें ही इतनी गंदी हों कि औरत शर्म से गढ़ जाए....क्या समाज में ऐसे लोग व्याप्त नहीं जो अपनी घर की ही कन्याओं पर कुदृष्टि डालते हों ( ऐसे कितने उदाहरण हैं जहां कितने पिता तक अपनी पुत्रियों को नहीं छोड़ते ), क्या उन्हें फांसी हो सकती है.. औरत पर उसकी इच्छा के विरुद्द होती ज़बरदस्ती भी इसी श्रेणी में आती है, तो…</p>
<p>आदरणीया राजेश जी </p>
<p>व्यभिचार के कितने मामले ऐसे हैं जो कभी सामने ही नहीं आते,</p>
<p>बलात्कार क्या सिर्फ शारीरिक होता है , क्या समाज में ऐसे वाकिये व्याप्त नहीं जहां कुछ पुरुषों की नज़रें ही इतनी गंदी हों कि औरत शर्म से गढ़ जाए....क्या समाज में ऐसे लोग व्याप्त नहीं जो अपनी घर की ही कन्याओं पर कुदृष्टि डालते हों ( ऐसे कितने उदाहरण हैं जहां कितने पिता तक अपनी पुत्रियों को नहीं छोड़ते ), क्या उन्हें फांसी हो सकती है.. औरत पर उसकी इच्छा के विरुद्द होती ज़बरदस्ती भी इसी श्रेणी में आती है, तो क्या विवाह पुरुष को यह अधिकार देता है कि वो अपनी पत्नी का बलात्कार करे....ऐसे में क्या कोइ सजा या कहें तो यह अपराध माना भी नहीं जाता.</p>
<p>शायद सहमत होंगी.</p>
<p>क्या कोई अस्त्र काम आ सकता है....???</p>
<p>सादर.</p>
<p></p>
<p></p>
<p></p> आदरणीय सलिल जी कई दिनों से मन…tag:openbooks.ning.com,2012-12-22:5170231:Comment:3032222012-12-22T14:47:23.849Zrajesh kumarihttp://openbooks.ning.com/profile/rajeshkumari
<p>आदरणीय सलिल जी कई दिनों से मन बहुत अशांत है कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा जैसे आत्मा तक घायल हो गई है बहुत कुछ सोच कर मन मंथन के बाद कुछ इस तरह के सुझाव मेरे दिमाग में आये साझा कर रही हूँ…</p>
<p>आदरणीय सलिल जी कई दिनों से मन बहुत अशांत है कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा जैसे आत्मा तक घायल हो गई है बहुत कुछ सोच कर मन मंथन के बाद कुछ इस तरह के सुझाव मेरे दिमाग में आये साझा कर रही हूँ ----</p>
<p>(1) आग किसी के घर में लगी हो तो दूसरा यही सोचता है अरे मैं क्यूँ जाऊं बुझाने ,अरे ये आग तो घर घर में लगी है सभी की माँ, बहन ,बेटियाँ हैं , एक जुट होकर इस गंदगी को साफ़ करें | </p>
<p>(2) उम्र कैद में क्या हमें नहीं पता कुछ सालों बाद ये कुत्ते फिर बाहर आयेंगे फिर हड्डियां तलाशेंगे एक बलात्कार की भी वो सजा दस बीस करेंगे तो भी वही सजा ,और जेल में भी अपनी सुविधाएं मिल जुल कर बना लेते हैं तो क्या सजा हुई ,इनको तो उसी तरह टार्चर करके मौत के घात उतरना चाहिए ,सरे आम फांसी दे सरकार|</p>
<p>(3) जब कुत्ता पागल हो जाता है तो क्या उन्हें शूट नहीं किया जाता ? यही हो इन अपराधियों की सजा</p>
<p>(4) शरीर का कोई अंग खराब हो जाए तो उसे काट दिया जाता है, ये भी समाज के संक्रमित अंग हैं |</p>
<p>(5) बदलाव हमे घरों में बच्चों की परवरिश में लाना है पहले हम लड्के लड़कियों को घर में सबके सुबह सुबह चरण स्पर्श सिखाया जाता था ,आज के वक़्त में जो ऐसा करता है उसे पुराने विचारो का कहकर उपहास बनाते हैं ,फिर नारियों का, बड़ों का सम्मान बच्चों के दिलों में कहाँ से आएगा ?</p>
<p>(6) शिक्षण संस्थानों में सेक्स शिक्षा पर अक्सर बाते होती हैं ,अरे पहले सब संस्थानों में नैतिक शिक्षा अनिवार्य करो |</p>
<div>(7) , हमारे समाज में गन्दी सोच पैदा कर रही हैं वो हैं पोर्न फिल्मे उन पर बैन क्यूँ नहीं लगते घर घर में ,साइबर कैफे पर इंटरनेट से बच्चे कौन सी साईट देखते हैं कभी सोचा ?? क्यूँ अपने देश में इन साईट पर बैन नहीं ??</div>
<p>(8) इन घटनाओं को जो अंजाम देते हैं उनमे बेरोजगार ,अनाथ ,गुंडे प्रवार्तियों लोग ज्यादा शामिल हैं उन्हें तो कानून का कोई डर खौफ है ही नहीं, क़ानून, पुलिस ऐसे लोगों पर विशेष पैनी नजर रखे |</p>
<p>(9) स्त्रियों को भी निडर होना पड़ेगा आत्म रक्षा के लिए चाहे कोई अस्त्र ही साथ में लेकर चलना पड़े अगर सरकार नारियों की सुरक्षा नहीं कर सकती तो उन्हें अस्त्र रखने की इजाजत दे जिससे वो एकांत में भी स्वरक्षा कर सके |</p>
<p>(10) क़ानून में बदलाव कर प्रशासन ,निष्पक्ष होकर ऐसे न्रशंस अत्याचारियों ,बलात्कारियों को सरे आम फांसी दे। </p>
<div> राजेश कुमारी </div> आदरणीय संजीव सर ..
आपने वर्तम…tag:openbooks.ning.com,2012-12-22:5170231:Comment:3029652012-12-22T11:21:30.562ZMAHIMA SHREEhttp://openbooks.ning.com/profile/MAHIMASHREE
<p>आदरणीय संजीव सर ..</p>
<p>आपने वर्तमान समस्या जो मिडिया के द्वारा पहली बार मुखरित होकर बार -2 सारे टीवी पे आ रहे है उसके लिए विचार विमर्श के लिए आपने आगे बढ़ कर ओबिओ पे कमान संभाली है .उसके लिए आपको धन्यवाद / मैं बहुत ही दुखी थी , कुछ कहने सुनने को भी मन नहीं कर रहा था पर आज जब विचार विमर्श जारी है आप विद्वानों द्वारा तो मैंने आपकी बात को ही बढ़ाना चाहूंगी ...</p>
<p>घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युअव अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?…</p>
<p>आदरणीय संजीव सर ..</p>
<p>आपने वर्तमान समस्या जो मिडिया के द्वारा पहली बार मुखरित होकर बार -2 सारे टीवी पे आ रहे है उसके लिए विचार विमर्श के लिए आपने आगे बढ़ कर ओबिओ पे कमान संभाली है .उसके लिए आपको धन्यवाद / मैं बहुत ही दुखी थी , कुछ कहने सुनने को भी मन नहीं कर रहा था पर आज जब विचार विमर्श जारी है आप विद्वानों द्वारा तो मैंने आपकी बात को ही बढ़ाना चाहूंगी ...</p>
<p>घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युअव अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है? .....</p>
<p>मेरा मानना है समाज कितना भी आधुनिक क्यों न हो गया हो पर अभी भी उसके अंदर आदिमकाल काल के संस्कार यानी की शिकार और शिकारी की अवधारणा उसके मन के गहरे में बैठी हुयी है / वो जब भी किसी स्त्री को अकेले में उस की उम्र चाहे जो भी हो 3 साल की , 23 साल की या 45 साल की उसे वो हिरनी या मेमने के भांति दिखती है और वो खुद को भेड़िया सा ताकतवर और चालाक समझता है और अपने कुंद पड़े नाखुनो को इस्तेमाल करने के लिए मचल उठता है / और ये शिकार करने की लालसा किसी में भी कभी भी मचल उठता है .. हम ये नहीं कह सकते ये आधुनिक युग का भेड़िया सिर्फ अशिक्षित वर्ग का ही होगा / कोई भी हो सकता है /</p>
<p>और जो लोग ये कहते है की स्त्री का वस्त्र विन्यास उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करता है उसे तमीज वाले कपडे पहने चाहिए / तो मैंने ये पूछना चाहती हूँ / 3 और 5 साल की बच्ची ने कौन सा अंग प्रदर्शन कर दिया की उसे ये सजा मिली / या 40, 50 साल की महिला ने कौन सा अपराध किया की 16 से 25 साल के विक्षिप्त लडको ने बलात्कार करने की कोशिश की / 25 -30 सालों से आधुनिक कपड़ो का चलन बढ़ा है पर क्या उसके पहले जब भारतीय नारी साड़ी या सलवार कमीज पहनती थी तो क्या उस वक्त बलात्कार या और दुसरे तरह की प्रताड़ना नहीं होती थी /</p>
<p>सच तो ये यहाँ देवियों की पूजा अवस्य होती है .. पर अंतकरण से भारतीय समाज उन्हें भोग्या ही समझता है / नहीं तो हर बार नारी ही आखेट का शिकार क्यों होती /</p>
<p>जैसा की आदरणीय सौरभ सर ने कहा है नैतिक, सामाजिक , राजनितिक पतन हमारा हो चूका है हम चाहे जितने आधुनिक जीवन जी लें /</p>
<p>और इन मानसिक रूप से विक्षिप्त आपराधियों को कड़ी से -2 सजा मिले /</p> सामयिक संदर्भ कह कर पूरे प्रक…tag:openbooks.ning.com,2012-12-21:5170231:Comment:3027652012-12-21T07:03:35.511ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>सामयिक संदर्भ कह कर पूरे प्रक्रम को समयबद्ध करने की कुचेष्टा नहीं करूँगा. लेकिन जिस वातावरण में यह प्रश्न आया है वह इससे जुड़े अन्य कई आयाम की अनदेखी कर देगा इसका डर अवश्य है. हम किसी अपराध को एकांगी रूप से न देखें. यह अवश्य है कि विकास और भौतिक-प्रगति का रास्ता कई ऐसे मोड़ों से हो कर जाता है जिसकी सतह उस जगह दलदली होती है. फिरभी उस रास्ते का उन मोड़ों से होकर प्रयोग करना अपरिहार्य होने से उसका प्रयोग कई ऐसे राही करते हैं जिनकी सोच, समझ, मानसिक अवस्था, नैतिक विचार एक समान नहीं होते हैं. ऐसे में…</p>
<p>सामयिक संदर्भ कह कर पूरे प्रक्रम को समयबद्ध करने की कुचेष्टा नहीं करूँगा. लेकिन जिस वातावरण में यह प्रश्न आया है वह इससे जुड़े अन्य कई आयाम की अनदेखी कर देगा इसका डर अवश्य है. हम किसी अपराध को एकांगी रूप से न देखें. यह अवश्य है कि विकास और भौतिक-प्रगति का रास्ता कई ऐसे मोड़ों से हो कर जाता है जिसकी सतह उस जगह दलदली होती है. फिरभी उस रास्ते का उन मोड़ों से होकर प्रयोग करना अपरिहार्य होने से उसका प्रयोग कई ऐसे राही करते हैं जिनकी सोच, समझ, मानसिक अवस्था, नैतिक विचार एक समान नहीं होते हैं. ऐसे में एक स्थान पर विभिन्न मानसिक अवस्था के लोगों का आपसी व्यवहार अपराध को बढ़ावा ही नहीं देता उसकी विभीषिका भी कई गुनी बड़ी दीखती है</p>
<p>फिर, मानसिक रूप से शिक्षित (जहाँ विद्या का प्रभाव परिलक्षित है) एक परिवार का सदस्य ऐसी कोई घिनौनी या हेठी हरकत करने की सोच तक नहीं सकता जहाँ उसके परिवार के संस्कार आड़े आते हों. लेकिन शिक्षा के नाम पर डिग्री बटोरू संस्कृति से प्रभावित परिवार का एक युवा शिक्षा को मात्र एक जरिया समझता है जिससे उसे भौतिक सम्पन्नता की कुंजी मिलती है. इस डिग्री बटोरू संस्कृति ने शिक्षा के मायने तक बदल कर रख दिये हैं और विद्या हाशिये पर चली गयी है. यह वैचारिक सोच में आमूल-चूल अंतर का सबसे बड़ा कारण है. विद्या से नीति संपुष्ट होती है और यह नीति ही शिशुओं और किशोरों में नैतिकता के बीजारोपण करती है. यह भी अवश्य है कि कोरे आदर्श और अपनाये गये व्यवहार में दिखता हुआ अंतर किशोरों और युवाओं को भ्रमित अधिक करता है. जिसकी ओर आचार्य सलिल जी ने इशारा भी किया है.</p>
<p>दूसरे, किसी समाज में अनुशासन का अभाव और परंपराओंके प्रति लापरवाही नैतिक रूप से नागरिकों को हल्का करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है. कुछ परंपरायें एवं सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति नम्रता तथा झुकाव (यही धर्म नहीं है क्या?) लोगों को मानसिक रूप से संयत रखती है. चाहे हम कितने ही समझदार और जानकार क्यों न हो जायँ परिपाटियों के प्रति हल्की या लापरवाह सोच हमें उच्छृंखल ही बनाती है. यही उच्छृंखलता आज हमें समाज में कई रूपों में दीखती है. जिसकी एक परिणति अपराधों में बेतहाशा वृद्धि के रूप में सामने है.</p>
<p>कहते भी हैं --</p>
<p><strong>यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता</strong><br/> <strong>एकैकम्यपि अनर्थाय किं तत्र चतुष्टयम् !!</strong></p>
<p>अर्थात्, जवानी, आर्थिक सम्पन्नता, प्रभुत्व या बल और अविवेक ये चारों एक-एक कर अपने आप में अनर्थकारी हैं (यदि अनुशासित और संयत न रखे गये). वहाँ क्या, जहाँ ये चारों बिना संयम इकट्ठे हों ?!!</p>
<p></p>
<p><strong>फिर ऐसे में दण्ड क्या ?</strong></p>
<p><strong>उत्तर :</strong> जैसे देवता वैसी पूजा.</p>
<p>विकृत और घिनौनी मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति पशु-व्यवहार को जीता है. लेकिन जिस समाज में हर तरह का भ्रष्टाचार (आर्थिक, मानसिक, नैतिक, लौकिक, धार्मिक) अपनी बेलें अबाध गति से फैलता जा रहा हो, वहाँ किसी सभ्य आचरण और अनुशासन तथा व्यवस्था के प्रति नकार भाव पैदा हो जाता है. यही नकार का भाव स्त्रियों के प्रति पुरुष को असहज बना देता है.</p>
<p><strong>लेकिन एक प्रतिप्रश्न भी है.</strong> महिलाएँ सफल और प्रगतिशील होने का अर्थ क्या समझती हैं ? क्या स्त्रियों पर हुई कई-कई घटनाओं में महिलाओं द्वारा स्त्रीत्व के प्रति भयंकर नकार भी कारण नहीं है ? पुरुषों की पाशविकता को बूँद-बूँद पोस कर भड़काने का नृशंस कार्य करता कौन है ? चाहे परिवार में या समाज में ? हम हरकुछ सम्पूर्णता में देखें तो अधिक उचित. लेकिन यह अवश्य है कि नृशंस पशु के प्रति कोई दया भाव समाज का अहित अधिक करेगा.</p>
<p>सादर</p> सीमा जी!
अपने रोग की सही पहचा…tag:openbooks.ning.com,2012-12-20:5170231:Comment:3026172012-12-20T15:09:05.730Zsanjiv verma 'salil'http://openbooks.ning.com/profile/sanjivvermasalil
सीमा जी!<br />
अपने रोग की सही पहचान की है... सोच में बदलाव... किन्तु कैसे, यही यक्ष प्रश्न है? स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं. पुत्र-पुत्री में भेद का आरंभ करने, कन्या को कम महत्त्व देने, बहू को प्रताड़ित करने आदि में स्त्री की भूमिका पुरुष से अधिक ही है, कम नहीं. बच्चे में जन्म से ही पुरुष होने का दंभ भरनेवाली स्त्री ही अंत में उससे प्रताड़ित होती है.<br />
<br />
दिल्ली में अनाचार हो तो राष्ट्रीय चर्चा का विषय... गाँव में हो तो पुलिस रिपोर्ट तक नहीं लिखती अपितु अनाचारी पूरे परिवार का जीना मुश्किल कर देता है.…
सीमा जी!<br />
अपने रोग की सही पहचान की है... सोच में बदलाव... किन्तु कैसे, यही यक्ष प्रश्न है? स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं. पुत्र-पुत्री में भेद का आरंभ करने, कन्या को कम महत्त्व देने, बहू को प्रताड़ित करने आदि में स्त्री की भूमिका पुरुष से अधिक ही है, कम नहीं. बच्चे में जन्म से ही पुरुष होने का दंभ भरनेवाली स्त्री ही अंत में उससे प्रताड़ित होती है.<br />
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दिल्ली में अनाचार हो तो राष्ट्रीय चर्चा का विषय... गाँव में हो तो पुलिस रिपोर्ट तक नहीं लिखती अपितु अनाचारी पूरे परिवार का जीना मुश्किल कर देता है. क्या गरीबी-अमीरी, गाँव-शहर, पढ़े-अनपढ़ के आधार पर नारी की अस्मिता भी मूल्यवान या मूल्यहीन हो?<br />
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क्या इस सिर्फ इसलिए कि टी.आर.पी, बढ़ाना है अपराध या दुर्घटना को सप्ताहों तक नमक-मिर्च लगाकर प्रदर्शित किया जाना उचित है? क्या इससे लोगों में अनावश्यक भय नहीं उपजता? इसी तरह इससे अन्य लोगों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए समान कार्य करने की प्रेरणा नहीं मिलती. जानकारी, सजगता या बचाव की प्रवृत्ति जगाने के लिए दुर्घटना या अपराध को सामान्य रूप से शांति के साथ सम्बंधित विधिक प्रावधानों या कार्यवाही की जानकारी दी जा सकती है किन्तु समाचार प्रस्तोता की वाणी में अति उत्तेजना, डराने, उकसाने या भड़कानेवाली शब्दावली का प्रयोग साथ में वीभत्स चित्र आदि का प्रयोग उचित है? क्या इसे भी रोकने की जरूरत नहीं है. ऐसे अवसरों पर जनता को बरगला कर कानून को हाथ में लेने की बातें कहलवाना क्या ठीक है? यह सब सिर्फ नारी अत्याचार के समय नहीं होता... कश्मीर के आतंकवाद या संसद पर हमले के समय भी प्रेस का रवैया ऐसा ही था... क्या प्रेस पर ऐसे समाचारों को भुनाने से रोकने की प्रक्रिया नहीं होना चाहिए?<br />
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प्राची जी!<br />
स्त्री की सुरक्षा हम सबकी चिंता का विषय है. हमारी बहिन, पत्नी या बेटी हर दिन कहीं न कहीं काम से सार्वजनिक स्थानों पर जाती हैं. यह आज की समस्या नहीं है. अहल्या को इंद्र का शिकार आज नहीं होना पड़ा है. यह समस्या आदि काल से है. इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह काल या आज का पुरुष या व्यवस्था पूरी तरह दोषी है, यह भी नहीं कि स्त्रियाँ निकलना ही छोड़ दें या स्त्री-पुरुष के मध्य लौह प्राचीर हो. ऐसी दुर्घटनाएं आज भी लाखों में एक से भी कम हैं. दिल्ली में प्रतिदिन लाखों महिलाये लाखों पुरुषों के संपर्क में आती हैं और सुरक्षित लौटती हैं... यहाँ तक कि कई बार पुरुषों द्वारा ही सहायता भी पाती हैं... ऐसे अवसरों पर यह याद रखा और बार-बार कहा जाना चाहिए ताकि दोनों और सदाशयता बढ़े संदेह नहीं. यह अंतिम सत्य है कि स्त्री-पुरुष को कदम-कदम पर साथ चलना ही होगा. कुछ गलत लोग दोनों और हैं. पुरुष अत्याचार को हमेशा निंदा और दंड मिलना ही चाहिए किन्तु स्त्री को गलत करने पर मात्र इसलिए सहानुभूति क्यों मिलना चाहिए कि वह स्त्री है? इससे निरपराध पुरुष भी दण्डित होता है. क्या शूर्पणखा प्रकरण में उसकी शिकायत पर राम-लक्षमण को दोषी माना जाए? आज यह भी हो रहा है.<br />
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कोई शक नहीं कि अपराधी दण्डित हो किन्तु उसकी प्रक्रिया है जिसे जितनी जल्दी हो सके पूरा कर सख्त-सख्त दंड दिया जाय किन्तु माइक पर उद्घोषक कुछ उत्तेजक वाक्य कहकर नासमझदार श्रोताओं से बिना मुकदमा कायम किये फांसी देने या जनता द्वारा न्याय किये जाने के नारे लगवाये यह कितना उचित है? क्या इससे कानून को हाथ में लेने या तोड़ने की मानसिकता नहीं बनती? क्या यह मानसिकता किसी अन्य अकेली स्त्री की प्रताड़ना का कारण नहीं बन जायेगी? और इस सबसे पीड़ित को क्या राहत मिलेगी? यह सोचना प्रेस का धर्म नहीं है क्या?<br />
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हर अपराधी किसी न किसी परिवार का सदस्य है, अपराध एक करे और सजा पूरा परिवार पाए ऐसी अवधारणा भी भारतीय क्या विश्व के किसी भी देश के न्याय-विधान में नहीं है. इस पर पुनः सोचा जाना चाहिए. अपराधी का सामाजिक बहिष्कार उचित उपाय हो सकता है... कारावास का दंड यही तो करता है... अपराधी को समाज से दूर कर देता है.<br />
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राजेश जी<br />
जन्म से नैतिक शिक्षा तो देश में हर पाठशाला में, हर कक्षा में, हर मंदिर में, हर भाषण में दी जा रही है किन्तु गणमान्यों का आचरण सर्वथा विपरीत होने से वह निष्प्रभावी हो गयी है. फिर भी इसे अधिक महत्त्व दिया जाए- यह उचित ही है.<br />
स्त्री को अस्त्र रखने से सुरक्षा हो सकेगी क्या? क्या वह समय पर अस्त्र सञ्चालन कर सकेगी? क्या अपराध जगत से जुडी स्त्रियाँ इसका दुरूपयोग नहीं करेंगी? भली-बुरी स्त्री की पहचान कर उन्हें अस्त्र देना या न देना कैसे और कौन तय करेगा? आत्मरक्षा के लिए जुडो-करते जैसी विधाओं में दक्षता पाना क्या बेहतर विकल्प न होगा?<br />
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आप तीनों का बहुत आभार कि अपने इस विषय पर चर्चा को आवश्यक समझ और कुछ नए पहलू सामने आये. हमारे अन्य साथियों के विचार सामने आने पर इससे जुड़े कुछ अन्य पहलू सामने आयेंगे-<br />
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प्रस्तुत है एक कुसुम वीर जी की एक सामयिक रचना<br />
सुर्खियाँ<br />
कुसुम वीर<br />
*<br />
अच्छा लगता है सुबह - सुबह<br />
हरी घास पर टहलना<br />
शबनम की बूंदों का<br />
पावों को सहलाना<br />
<br />
भाते हैं ठंडी हवाओं के झोंके<br />
पेड़ों की शाखों पर मचलते पत्ते<br />
नीरवता से अठखेलियाँ करते<br />
पक्षियों के सुमधुर नाद<br />
<br />
तभी सिहर उठता है मन<br />
चाय की प्याली के साथ<br />
पढ़ती हूँ जब<br />
हत्या, बलात्कार, डकैती, मारकाट<br />
<br />
कांप जाती है रूह<br />
फिर किसी दंपत्ति को<br />
पाकर अकेला<br />
किसी कसाई ने बेरहमी से<br />
दबाया था उनका गला<br />
<br />
किन्हीं खूंखार भेड़ियों ने<br />
किसी मासूम अल्हड़ बाला को<br />
बनाया था शिकार<br />
अपनी हवस का<br />
<br />
सुबह की शीतल सुहानी मलय<br />
गर्म हो चुकी है<br />
अखबार के सुर्ख पन्नों की धूप से<br />
घास के शबनमी मोती भी<br />
अब सूख चुके हैं<br />
<br />
दूर कहीं कोमल निश्छल शाखें<br />
ताक रहीं हैं टुकुर - टुकुर<br />
उस वहशी आदमी को<br />
औ, पूछ रही हैं उससे<br />
कब वह इंसान बनेगा<br />
<br />
कब बंद होगा कत्लेआम<br />
हत्या, डकैती औ, बलात्कार<br />
माँ,बहनों, बच्चों, बुज़ुर्गों पर अत्याचार<br />
जिनका दोष सिर्फ इतना है<br />
कि, वे निर्दोष हैं<br />
----------------------------------- इस तरह के आलेख की आवश्यकता अभ…tag:openbooks.ning.com,2012-12-20:5170231:Comment:3024622012-12-20T07:06:21.657Zrajesh kumarihttp://openbooks.ning.com/profile/rajeshkumari
<p><font face="Mangal, serif" size="4">इस तरह के आलेख की आवश्यकता अभी तो है ही ,हमेशा से थी और इस समाज को जागरूक करने के लिए एक वातावरण तैयार करने के लिए हमेशा रहेगी इस के लिए सर्वप्रथम तो आदरणीय सलिल जी आपका आभार प्रकट करती हूँ ।आज हर जगह हर क्षेत्र में </font><span>स्त्री</span><span> की स्थिति इतनी असुरक्षित हो गई है की उसका अस्तित्व ही ख़त्म होने की कगार पर है पहले सिर्फ कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण दहेज़ ही माना जाता रहा है अब लगता है ये कारण /स्त्री सुरक्षा मुख्य कारण बनता जा रहा…</span></p>
<p><font face="Mangal, serif" size="4">इस तरह के आलेख की आवश्यकता अभी तो है ही ,हमेशा से थी और इस समाज को जागरूक करने के लिए एक वातावरण तैयार करने के लिए हमेशा रहेगी इस के लिए सर्वप्रथम तो आदरणीय सलिल जी आपका आभार प्रकट करती हूँ ।आज हर जगह हर क्षेत्र में </font><span>स्त्री</span><span> की स्थिति इतनी असुरक्षित हो गई है की उसका अस्तित्व ही ख़त्म होने की कगार पर है पहले सिर्फ कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण दहेज़ ही माना जाता रहा है अब लगता है ये कारण /स्त्री सुरक्षा मुख्य कारण बनता जा रहा है,रोज आये दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं ,इनका कारण ,और उनका निवारण दोनों सोचने के विषय हैं।जब तक क़ानून का भय नहीं होगा ये घटनाएं होती रहेंगी स्थिति हाथों से निकल चुकी है शरीर का जब कोई अंग सड़ जाता है उसे भी काटना पड़ता है तथा दुसरे अंग में जहर ना फैले उसके लिए औषधि भी जरूरी है वो औषधि हमें अपने बच्चों को जन्म से देनी होगी नैतिक शिक्षा अनिवार्य विषय करना होगा स्कूलों में शुरू से ही ,माता पिता को बेटो को शुरू से ही बहन माता और सभी बाहरी नारियों की इज्जत करने की शिक्षा देनी होगी,ये तो हमारा उत्तरदायित्व है जो हमें निभाना चाहिए फिर प्रशासन को नए कदम उठाने चाहिए क़ानून सक्षम और कड़े हों यदि क़ानून कुछ नहीं कर सकता तो स्त्रियों को अस्त्र रखने की स्वीकृति दें जिससे वो अपनी सुरक्षा एकांत में भी कर सके बहुत कुछ सोचने की जरूरत है अब नहीं जागेंगे तो लड़कियों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा ,<span>देखते हैं प्रशासन फास्ट ट्रेक बनाकर क्या तीर मारने वाली है वेट एंड वाच !!!</span></span></p> महिला किसी भी देश की, वर्ग की…tag:openbooks.ning.com,2012-12-20:5170231:Comment:3024492012-12-20T04:46:30.907ZDr.Prachi Singhhttp://openbooks.ning.com/profile/DrPrachiSingh376
<p>महिला किसी भी देश की, वर्ग की, उम्र की हो आज सुरक्षित नहीं.</p>
<p>विकृत मानसिकता के अपराधियों की गाज कब कहाँ कैसे किस रूप में गिरे एक डर मन-मस्तिष्क में प्रायःव्याप्त रहता है. नन्ही नन्ही बच्चियां भी हमारे समाज में सुरक्षित नहीं.</p>
<p>इस घृणित अपराध को अंजाम देने के पीछे के कारणों पर चर्चा की जानी बहुत ज़रूरी है क्योंकि ये हमारे समाज में परिवारों में हम किस तरह की परवरिश दे रहे हैं इस से जुडी है... </p>
<p>अनजाने ही बचपन से हर पुरुष को ये सिखा दिया जाता है कि वो नारी से श्रेष्ठ…</p>
<p>महिला किसी भी देश की, वर्ग की, उम्र की हो आज सुरक्षित नहीं.</p>
<p>विकृत मानसिकता के अपराधियों की गाज कब कहाँ कैसे किस रूप में गिरे एक डर मन-मस्तिष्क में प्रायःव्याप्त रहता है. नन्ही नन्ही बच्चियां भी हमारे समाज में सुरक्षित नहीं.</p>
<p>इस घृणित अपराध को अंजाम देने के पीछे के कारणों पर चर्चा की जानी बहुत ज़रूरी है क्योंकि ये हमारे समाज में परिवारों में हम किस तरह की परवरिश दे रहे हैं इस से जुडी है... </p>
<p>अनजाने ही बचपन से हर पुरुष को ये सिखा दिया जाता है कि वो नारी से श्रेष्ठ है...</p>
<p>जैसे..</p>
<p>१. क्या लड़कियों की तरह रो रहा है?...और ऐसी कई कई बातें ..</p>
<p>२. घर में माताओं को निर्णय ना लेते देख पिता के प्रभुत्व को देखना..</p>
<p>३. लड़कियों पर कई कई तरह के प्रतिबंधों को देखना </p>
<p>उनके मनों में यह समा जाता है कि लडकियों को तो जैसे चाहे वो दबा सकते हैं ....और अपने लड़का होने पर दंभ होता है उन्हें. और वो मौक़ा पा कर ऐसे अपराधों को करने की हिम्मत करते हैं.</p>
<p>वहीं हमारी सुरक्षा व्यस्था की ढील भी उत्तरदायी है ऐसे अपराधों के लिए.</p>
<p>जहां तक ऐसे अपराधियों को दंड दिए जाने की बात है, तो दंड इतना कडा होना चाहिए की उनकी मन आत्मा छलनी हो जाए, न की फांसी की सजा. क्योंकि फांसी कितने अपराधियों को दी जा सकती है , और न्याय व्यस्था की सुस्ती एक लंबा समय लेती है..</p>
<p>ऐसे अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार पूरी दृढ़ता के साथ किया जाना चाहिए, उन्हें किसी जगह नौकरी नहीं मिलनी चाहिए, किसी सामजिक आयोजन में जाने की इजाज़त नहीं होनी चाहिए, उनकी सारी डिग्री कैंसल कर दी जानी चाहिए, धार्मिक संस्थानों में उनके प्रवेश पर प्रतिबन्ध होना चाहिए, अगर कोई विद्यार्थी है तो उसे ब्लैक लिस्ट कर दिया जाना चाहिए, और जिन परिवारों के सदस्य ऐसे अपराधी है, यदि वो ऐसे सदस्यों को घर में आश्रय देते हैं तो उन परिवारों को बहिष्कार किया जाना चाहिए, ताकि सामाजिक दबाव के चलते ऐसे लोग बेघर हो जाएं. उनके बड़े बड़े पोस्टर पूरे शहर भर में लगवा देने चाहिए ताकि उन्हें असहनीय जिल्लत महसूस हो.</p>
<p>क्यों कोइ लडकी पूरी ज़िंदगी बिना किसी गलती के अपराधी होने की सजा भोगे ? क्यों वो इतनी बहिष्कृत हो कि आत्महत्या कर ले , इस कुप्रवाह को उलटना होगा.</p>
<p></p>