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ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – जून 2018 : एक प्रतिवेदन

    ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – जून  2018 : एक  प्रतिवेदन

                                                                                                             डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव

 

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या का आयोजन लोकप्रिय कवयित्री आभा खरे के सौजन्य से उन्हीं के आवास ‘दीप-लोक’ MDH / 1, SEC. H, जानकीपुरम, लखनऊ में रविवार दिनांक 24 जून 2018 को हुआ. कार्यक्रम की अध्यक्षता कथाकार डॉ. अशोक शर्मा ने की और संचालन मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ द्वारा किया गया .

 

निजकृत वाणी वंदना के बाद संचालक मनोज कुमार ‘मनुज’  द्वारा काव्यपाठ का पह्ला आह्वान हास्य-रस को व्यंग्य में पिरोकर प्रस्तुत करने वाले कवि मृगांक श्रीवास्तव के लिए हुआ. इन्होने अपनी रचनाओं से न केवल उपस्थित सुधीजनो को गुदगुदाया अपितु सोचने के लिए भी बाध्य  किया. इनकी कविता की एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है, जिसमें उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी डॉ. आशा श्रीवास्तव का स्मरण किया है -

 

सबसे बड़ा दीन तो वह है जिसके पास नहीं है एक आशा

रहे  ढूंढ़ते  रहे भटकते  सबसे बड़ी  कौन है आशा ?’

 

ओबीओ की  मासिक गोष्ठी में पहली बार पधारी लखनऊ की सुपरिचित कवयित्री त्रिलोचना कौर ने साहित्य की वस्तु और शैली के बदलते परिवेश पर प्रहार करते हुए अपनी भावनायें कुछ इस तरह व्यक्त की –

 

काट-छांट कर अब शब्दों ने पहनी है दहशत की वर्दी

नहीं  मचलती अब पन्नों पर स्याही की आवारागर्दी

 

मुहब्बत की जिद ने कितनी तबाही मचाई है इसका साक्षी भारत ही नहीं समूचे विश्व का इतिहास है. मधुर स्वरों के साधक और जनरंजक ग़ज़लकार आलोक रावत जिन्हें लोग अधिकतर ‘आहत लखनवी’  के उपनाम से जानते है, उनका दावा है कि मुहब्बत की जिद के सामने बादशाह अकबर भले न झुका हो पर भगवान जरूर झुकता है. हमारे आर्ष-ग्रन्थ भी यही मानते हैं कि – प्रभु सर्वत्र सकल जग जाना I प्रेम ते प्रकट होंहि भगवाना II ग़ज़ल का मतला और शेर इस प्रकार है –

 

मुहब्बत में हमीं मुजरिम हैं हम यह मान लेते हैं

चलो अब तुम कहो तुमसे तुम्हारी जान लेते हैं

तो फिर दुनिया क्या इस दुनिया का रखवाला भी झुकता है

मुहब्बत करने वाले भी अगर जिद ठान लेते हैं

 

कवयित्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ का कहना है कि कोई भी अंतर (हृदय) यदि भावों से परिपूर्ण नहीं है तो वह हृदय ही नहीं है. इसके लिए उन्होंने जो प्रतीक लिया है वह इस प्रकार है –

 

भरा जो भाव से अंतर नहीं है

उगे जो रात में दिनकर नहीं है

 

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने सर्वप्रथम कवयित्री एवं कथाकार कुंती मुकर्जी की एक बहुत ही  भावपूर्ण रचना सुनाई. मन की छटपटाहट को शब्दों में बांधने के प्रयास में कवयित्री कितने अनुभवों से गुजरती हुयी अंततः चिंतन की एक मानक ऊँचाई तक पहुंचती है.   कविता इस निष्कर्ष का एक प्रमाणिक दस्तावेज है –

 

दूर कहीं से एक सूफ़ी तितली- उड़कर आयी

 न बात की न कुछ कहा..

होंठ जब खुले... जबान से फूल झड़े..! .

मैंने रोका उसे..

लेकिन दिन अनमना उलाहना देता

जिन्दगी कुछ बहकी सी  मैंने देखा..

पाँव तले - ज़मीन

रीता जीवन-सफ़र की कुछ अनकही दास्तां अधूरी और जुदा सी..

जब शब्दों में बाँधने चली..

तब तक मन साधु हो चुका था

 

सुश्री कुंती मुकर्जी  की इस कविता से जैसे समय की धारा ही थम गयी . मन अगर साधु हो जाय तो फिर वीतराग स्वतः एक परिणामी अवस्था है. इस चिंतन-बोध से अभी लोग उबर भी नही पाए थे कि डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी अद्भुत ‘एहसास ‘ शीर्षक  कविता से सभी को स्तब्ध कर दिया. कवि अपने अंतस में हर तरफ से आती हुयी गिरने की आवाजें सुनता है – शब्द, चरित्र, फिसलते मित्र, गहन सन्नाटे की आवाजें और कमाल यह कि इन सबको उठाने के प्रयास में उसे स्वयं के गिरने की आवाज सुनायी नही देती पर असली करिश्मा तो यह है कि इन सब के बीच से सहसा शीश उठाकर एक ‘एहसास’ प्रकट होता है इस तरह -

 

इसी के साथ बज उठते हैं नगाड़े,

झनझना उठती हैं मंजीरें

मेरे भीतर के अंधेरे मंदिर में ;

 मन कहता है यही एहसास

शायद गिरकर उठ पाने की पहली निशानी है

 

शरदिंदु जी ने एक लघुकथा “एक फोटो” का भी पाठ किया. किसी अनाम बांग्ला रचनाकार की मूल बांग्ला कहानी का भाषान्तर कर उन्होंने श्रोताओं को एक बार और बांग्ला साहित्य के झरोखे के सामने ला दिया.

 

सुख्यात कवयित्री संध्या सिंह जो अपनी सम्प्रेषण-क्षमता से श्रोताओं को कायल कर देने में सदैव समर्थ रहती है, जब कहती हैं – ऊबे दिन, बासी रातों में, कैसे बहता पानी लिख दें - तो इसमें ऊबे दिन और बासी रातों के निहितार्थ भी होते है और समस्या का यही अंत नहीं है  कवयित्री की दुविधा बताती है कि अभी कुछ और भी है और वह यह कि –

 

पाँव तले पिघला लावा है

तुम कहते हो पानी लिख दें 

 

संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ सीधे नियंता से ही दो-दो हाथ करने को प्रस्तुत हैं, उनके ये तथाकथित नियन्ता ईश्वर नहीं हैं. जगत में मनुष्य के रूप में जो निरंकुश शक्तियाँ काम कर रही हैं, यह आघात उनके लिए है. मनुज कहते हैं-

 

है तुम्हे लगता अगर होकर नियन्ता

कर रहे हम पर बड़ा अहसान हो तुम

हुक्म देने के लिए ही तुम बने हो

इसलिए निर्द्वंद्व हो भगवान हो तुम

 

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य’ ने कुछ मुक्तक सुनाये. कुण्डलिया-रचना प्रयास के कुछ सुन्दर नमूने पेश किये और अंत में अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत की –

 

लक्ष्य तो मानस पटल पर झिलमिलाते रह गए

कर्महीनों को सुअवसर मुंह चिढ़ाते रह गए

 

आयोजिका कवयित्री आभा खरे अपने गीतों में ईश्वर को प्रतिबिंबित मानते हुए कहती हैं कि –

 

साँवला सलोना रूप , मिसरी सी बोली-बानी

गीतों में घुली हो जैसे  ईश-वाणी जानिये

 

डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने अपना विछोह-गीत पढ़ते हुए कहा-

 

यह तो सच है इस उपवन से हे विहंग ! तुम उड़ जाओगे

प्रबल समय की धारा में बह किसी मार्ग पर मुड़ जाओगे

     पर यह सब  इतना आकस्मिक इतना सत्वर हो जाएगा

     दूर गगन पर जाने वाले  ऐसा कभी नहीं सोचा था .

 

अध्यक्ष डॉ. अशोक शर्मा ने दार्शनिक अंदाज़ में जीवन जीने का नया मंत्र दिया -

 

छोडिये भी अब ये आईने दिखाना

क्या पता कब हो जाय चलना चलाना ?

 

इसी के साथ साहित्य-संध्या रूपी सरगम के तार शिथिल हुए. कार्यक्रम में यदि बहुत से स्वर थे तो सुश्री आभा खरे के आतिथ्य में भी व्यंजन कम नहीं थे, एक कवि  के लिए व्यंजना का कितना महत्व है यह सुधीगण जानते हैं.

 

लक्षणा - व्यंजना और अभिधा सखे

ये  सहायक सृजन  में रही सर्वदा  

शब्द की शक्तियाँ है प्रखर बाण सी

हम इन्ही का है संधान करते सदा

( 212   212   212    212 )  -सद्यरचित

 

(मौलिक / अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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