कार्यक्रम के दूसरे चरण में डॉ० शरदिंदु ने यात्रा और घुमक्कड़ी के महत्त्व पर प्रकाश डाला और राहुल सांकृत्यायन के ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ की याद ताजा कर दी. यात्रा के स्वरुप के बारे में वीडियो स्लाइड पर उनका कैप्शन था – ‘प्रवाहमान यात्रा ही तो नदी को गति का स्वरूप देती है. जिस जल का हमने स्पर्श किया, वह तो आगे बढ़ गया, दुबारा उसे छूना असम्भव है. नदी के इस प्रवाह से ही यात्रा हमारे सामने एक नए रूप में आती है.’ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का यह कथन भी यात्रा के महत्त्व को प्रतिपादित करता है – ‘यात्रा के लिए जो समय निश्चित था, उसी में सम्भावना थी अनंत और अदृश्य स्थानों पर चले जाने की, एक पतंग की तरह वृक्षों, पहाड़ों, खेत-खलिहानों और नदियों से गुजरते दृश्यों को आँखों में भर लेने की. पुराणों के आख्यान यात्राओं की छवियों से ही तो भरे पड़े हैं. रामायण, महाभारत, वेद और उपनिषद यात्रा प्रसंगों का ही विस्तारित रूप तो हैं. इन ग्रंथों में पुरों, राजप्रासादों, जंगलों, दुर्गम घाटियों तक आने-जाने की अनेक रोचक व रोमांचक यात्राओं की विशाल शृंखला ही तो है. इन्हीं यात्राओं ने हमारे सामने संसार के नए नए तिलिस्म खोले, नए स्थान खोजे, नयी संस्कृतियों से परिचित कराया और इसी घुमक्कड़ी ने यात्रा के नए से नए संसाधनों के विकास का रास्ता दिखाया.’
एक कैप्शन से हमे यह सन्देश भी मिला कि – ‘हम ज़िंदगी से भागने के लिए यात्रा नहीं करते बल्कि इसलिए करते हैं कि कहीं ज़िंदगी हमसे छूट न जाए. दलाई लामा का एक सूत्र वाक्य भी संज्ञान में लाया गया - ‘साल में एक बार ऐसी जगह जाओ जहाँ तुम कभी नहीं गए हो’
डॉ० शरदिंदु स्वयं भी एक बड़े घुमक्कड़ हैं. अभी हाल में उन्होंने जिन स्थानों की यात्रा की उनके मनोरम चित्र प्रोजेक्टर के माध्यम से बड़े परदे पर दिखाए. प. बंगाल के पुरुलिया जिले के पलाश वन, “पलाश बाड़ी” रिसोर्ट, बीरभूम ज़िला में शांतिनिकेतन के पास स्थित फुल्लरा शक्तिपीठ, बाउल संन्यासी, ‘गणदेवता’ उपन्यास के अमर रचनाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय का गाँव - लाभपुर, संथाल गाँव सोनाझूरी का एक घर और चर्च, “सृजनी शिल्पग्राम”, हिमाचल प्रदेश में सेब के बागान, कुल्लू का नग्गर पैलेस आदि तमाम दृश्य जो डॉ० शरदिंदु ने अपनी घुमक्कड़ी के दौरान कैमरे में कैद किये, उन सब का चाक्षुष दर्शन उपस्थित समुदाय को बड़े परदे पर कराते हुए उन्होंने आग्रह किया कि हर इंसान को, विशेष रूप से रचनाकारों को, यात्राएँ करनी चाहिए.
तीसरे चरण में काव्य-पाठ का आयोजन था. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कथाकार एवं कवि डॉ. अशोक शर्मा ने की. वाणी-वंदना से आगाज करते हुए मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने संचालन का सूत्रपात किया. प्रथम पाठ के लिए कवयित्री गरिमा पन्त का आह्वान हुआ .
जीवन को परिभाषित करने के सबके अपने स्वानुभूत तरीके होते हैं. अनेक कवियों ने इस अबूझ पहेली का अर्थवाद किया है. सुश्री गरिमा का अनुभव जीवन को निम्नांकित रूप में देखता है –
जीवन क्या है ?
जीवन प्रभु की एक सुन्दर रचना है
जीवन गीता का उपदेश है
जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है
जीवन चमकता सितारा है
जीवन दुःख की परछाईं है तो
जीवन सुख की छाँव है
कवयित्री कुंती मुकर्जी की कविताओं में प्राय: प्रकृति के साथ संवाद की पृष्ठभूमि में अंतरात्मा की छवि झलकती है. एक बानगी प्रस्तुत है भीड़ और कोलाहल से दूर जाते हुए भी हम कैसे बारंबार उसी कोलाहल में वापस आते हैं...!
मुझे एक आकाश मिलता है
कुछ बादल –
रास्ते में,
हवा भी साथ-साथ चलती है
पत्ते खरखराते हैं;
उनके शोर में उपजता है
फिर एक कोलाहल.
......
मैं पलायनवादी नहीं हूँ
क्योंकि कुछ दिनों बाद
लौट आती हूँ
उसी भीड़ में....!!
इश्क, दर्द, फसाने और आँसू शायद मुहब्बत जैसे अल्फाजों में कैद रहते हैं. कोई माने या न माने पर कवयित्री आभा खरे की ग़ज़ल का यही निष्कर्ष है –
इश्क ये खेल ऐसा है, जिसे जीता नहीं करते
मिले गर दर्द जो यारों उसे बांटा नहीं करते
छुपा लो आँख में भीगे हुए सारे फ़साने को
सरे महफिल कभी खुद पे यहाँ रोया नहीं करते
बात यदि रवायती ग़ज़लों की हो तो कवयित्री भावना मौर्य को कौन भुला सकता है. उनकी ग़ज़ल के इस मकते में ही सवाल का जवाब हाजिर है –
नश्तर वो मेरे दिल पर चुभाने चले आये
फिर चाक जिगर मुझको थमाने चले आये
सुश्री संध्या सिंह तहखाने को बचाने की फ़िक्र में गुम्बदों के महत्व को परिभाषित करते हुए कहती हैं –
गुम्बद ज़रा संभाले रखना
तभी बचेंगे तहखाने भी
किसी की सोच को इज्जत बख्शी जाय, यह सोच के गुरुत्व और सोचने वाले की लियाकत पर निर्भर है. ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य’ के लिहाज से ऐसा नहीं है. उनकी नजर में यह लाजिम है और जो यह नहीं करेगा उसे वे नसीहत ही नहीं देंगे –
जो दूसरों की सोच को इज्जत नहीं देते
हम भूलकर उनको नसीहत नहीं देते
बहुत विरले लोग हैं जो रात के स्तब्ध एकांत में जागकर प्रकृति का वैभव अपनी संवेदनाओं में उतारते हैं. रात से प्रभात का मिलन एक तस्वीर है. रात की लज्जा ओस बनकर फूलों के आंचल में छिपती है और सूरज उसकी अंतिम बूद को अपने आगोश में लेता है तब रात का अवसान रूपायित होता है, यह भी एक तस्वीर है. कभी रात अभिसारिका बनकर आँसू की बूँदें टपकाती है तब वह आवाज किसी की धड़कन बन जाती है. यह एक अन्य तस्वीर है. ऐसी और अनेक तस्वीर हम कल्पना की आँखों से देख सकते हैं. डॉ. शरदिंदु की कविता ‘तस्वीर’ जो रजनी को कवि की आँखों से निस्पृह होकर निहारने का साक्षी बनती है उसकी अंतिम तस्वीर तक हम इस प्रकार पहुँचते हैं .
ज़िंदगी के गली-कूचे से
उठती हुई आवाज़ें,
विचारों को हर मोड़ पर
मोड़ देती हुई आवाज़ें,
मेरे थके हुए कदमों को
पुकारती आवाज़ें -
तुम्हारे निर्वाक होठों पर आकर
थरथरा रही हैं .....
यह अंतिम तसवीर है.
बोगनवेलिया एक बहुत ही खूबसूरत और प्रायशः एकरंगीय पौधा होता है. यह रंग कोई भी हो सकता है. अक्सर इन्हें किसी हाईवे पर आसानी से देखा जा सकता है. प्रसिद्ध कवयित्री पूर्णिमा वर्मन बड़े ही संकेत भरे लहजे में कहती हैं मानो किसी शुभ शकुन को शब्दों में पिरो रही हों -
फूला मुंडेरे पर बोगनवेलिया, ओ पिया !
एक दार्शनिक विचार है कि ब्रह्मांड का जबसे जन्म हुआ है, तब से वह निरंतर तेज गति से फैल रहा है. सौरमंडल, नीहारिकायें, मंदाकिनियां सभी एक दूसरे से दूर होती जा रही हैं. यह विस्तार बताता है कि गति ही जीवन है. गति तो ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में स्पंदन भरती है. मनुष्य का हृदय भी एक आजीवन स्पंदन है. संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने अपनी कविता में जीवन और सत्य के इसी महत्व को उद्घाटित किया -
चलता है समय चक्र तुमको भी प्रतिपल चलते जाना है
जीवन के पथ में सबल पथिक के चक्रव्यूह तो आना है
महाकवि कालिदास की कालजयी कृति ‘मेघदूत’ के अनेकानेक और कई भाषाओँ में काव्यानुवाद हुए है. इस परम्परा की नवीनतम कड़ी है –‘यक्ष का सन्देश’ जिसे डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने ‘ककुभ ‘ छंद में बाँधा है . उन्होंने इस रचना के कुछ चुनिन्दा अंश सुनाये. एक उदाहरण निम्न प्रकार है -
गंभीरा के जल से जो है सटा हुआ भू-जल नीला
उसे झुकी निज डालों से है बेंत चूमता रंगीला
ऐसा जान पड़ेगा मानो पट नितम्ब से सरका जो
उसे पकड़ हाथों से रक्खा अभी नहीं है ढरका जो
ऐसा दृश्य देखकर हटना निश्चित् बहुत कठिन होगा
उसके लिये और भी दुस्तर जिसने है रति-सुख भोगा
स्वाद जानने वाला कोई कब संयम रख पायेगा
जब उघड़ी जंघा को कोई यूँ बरबस दिखलायेगा
मनुष्य के स्वर उसकी मनोदशा को प्रकट करने के स्वाभाविक उपकरण हैं. हर्ष, विषाद, आह्लाद, चिंता और अवसाद आदि सभी मनोदशाएँ मनुष्य के कंठ में निवास करती हैं और अभिव्यक्त होती रहती हैं. अध्यक्ष डॉ. अशोक शर्मा की कविता इस सत्य का साक्ष्य कुछ इस प्रकार बनती है –
कष्ट में हो तुम मुझे ऐसा लगा था
कल तुम्हारा स्वर बड़ा सवेदना पूरित लगा था
एक सुरम्य साहित्य-संध्या सहसा संवेदना का आह्वान करके मौन हो गयी. सभी उपस्थित काव्य मनीषी संयोजक डॉ शरर्दिदु के आत्मीय आतिथ्य में तृप्ति का संधान कर रहे थे पर मेरा मन संवेदना में कुछ इस प्रकार उलझा था -
व्याप्त है संवेदना ही इस जगत में
जीव में चेतन अचेतन में सभी में
नहीं होता यह प्रकृति निष्प्राण होती
मानता फिर कौन कोई है नियन्ता
सृष्टिकर्ता चित्र पर संताप करता
क्यों बिखेरे रंग पश्चाताप करता ?
(सद्यरचित )
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