ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह मार्च 2017 – एक प्रतिवेदन :: डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
अनुभूति, अहसास, अभिव्यक्ति, उद्गार
करुणा-कलित वेदना भाव-शृंगार
ना मर्त्य होगा यावत थिर धरित्री
कलकंठ काव्यापगा गीत-संसार ( सद्य रचित )
ओबीओ, लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी मार्च 2017 का शब्द-चित्र प्रस्तुत करने से पूर्व मेरे मानस में जो पंक्तियाँ स्वभावतः अचानक उभर आईं, उन्हें प्रमाता गणों से साझा करते हुए मैं सभी को लखनऊ के राम मनोहर लोहिया पार्क की उन वीथियों की ओर ले चलता हूँ जो न केवल विभिन्न वृक्षों के आच्छादन वैविध्य से आप्यायित हैं अपितु उनमें एक शांत, निस्पंद और रहस्यमय जीवन है, जिसकी अनुभूति नागर सभ्यता में पले और कदाचित BLUE MOON में भटके आकस्मिक यात्री शायद ही कर पाते हों. भारतीय रेलवे द्वारा इतिहास बन चुके मीटर-गेज पटरियों पर दौड़ने वाले वाष्पचालित इंजन को पार्क में नमूने के तौर पर स्थापित किये गये स्थल से कुछ ही कदम दूर ओबीओ लखनऊ चैप्टर के दीवाने एक बार फिर रविवार 19 मार्च को समवेत हुए.
संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने माँ सरस्वती के सम्मान में सिंहावलोकन घनाक्षरी पढ़कर कविता की अलख जगाई और काव्य पाठ के लिए कुंती मुकर्जी का आह्वान किया. सुश्री कुंती ने नारी-जीवन और उसकी बिडम्बना को नारी दृष्टि से देख-परख कर उसके अस्तित्व को सर्वथा नए ढंग से परिभाषित किया -
"कभी नील नदी की साम्राज्ञी
कभी प्रकृति की देवी....आईसिस
कभी सौंदर्य की महारानी....क्लियोपेट्रा
हर युग को पार करती
वक़्त के घेरों को लाँघती
मौत को धता देती
आ जाती हूँ हर बार
अपनी ही कब्र खोदने"
दूसरे कवि थे, ओबीओ लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी जो बांग्ला के प्रख्यात कवियों विशेषकर गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की मूल बांग्ला कविताओं का भावानुवाद हिन्दी की समकालीन कविताओं में स्फुट रूप से कर रहे हैं. उन्होंने सर्वप्रथम गुरुदेव की कविता ‘बाहु ‘ का रूपांतरण प्रस्तुत किया. बाहुलता, बाँहों के घेरे अथच आलिंगन का सही नशा वही महसूस सकते हैं, जिन्होंने कभी जयशंकर प्रसाद के ‘परिरंभ-कुम्भ की मदिरा’ का आस्वाद किया हो. ‘बाहु’ कविता में भी वही नशा है, जो हो सकता है भावानुवाद की अपनी विशिष्टता हो.
“किसने सुनी है भुजाओं की
यह आकुलता !
कहाँ से ले आती हैं
हृदय की बातें
लिख देती हैं तन पर
पुलकाक्षर में
स्पर्श दे जाती हैं
मन की व्यथा
मोह से सनी हुयी
हृदय अभ्यंतर में”
डॉ0 शरदिंदु ने एक स्वरचित कविता भी सुनायी, जिसका शीर्षक है – ‘निद्रा भंग’
इस सारगर्भित कविता के कुछ बिम्ब इस प्रकार हैं –
“एक आहट सी सुनकर
उस सुबह मैं जल्दी उठ गया
अन्दर अन्धेरा था
पैर से जमीन को टटोलते हुए
स्याह रंग के भारी परदे को खिसकाकर
देखा मैंने- गुड़हल, कचनार और मालती के पत्तों पर
रोशनी टंगी थी
चाँद अभी भी
बावन नंबर फ्लैट के पीछे
दुबका पड़ा था
पड़ोस के खन्ना साहब
नयी सुबह होने से पहले
पुरानी सुबहों में सुबह ढूँढ़ने निकले थे”
ओबीओ लखनऊ चैप्टर की गोष्ठियों में प्राय: संयोजक द्वारा यह प्रयास रहा है कि सदस्यों को दूसरे कवियों की अच्छी रचनाओं के साथ परिचित कराया जाए. इसी उपक्रम में शरदिंदु जी ने “आलोचना” पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2015 के अंक में प्रकाशित कवि अरुणाभ सौरभ की मार्मिक कविता ‘चाय बागान की औरत’ का पाठ किया –
“ उसे कितना प्यार मिला है
ये तो कोई नहीं बता सकता
कितनी रातें उसने भूख से काटी हैं
कितनी अंगड़ाईयों में......
......
असम की चाय से जागता है देश
जिसकी पत्तियों को तैयार करना
देश का संविधान लिखने जैसा है....”
कवयित्री संध्या सिंह ने ‘प्रेम’ जैसे शाश्वत विषय को बिलकुल नए ढंग से प्रस्तुत कर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया -
“एक तरफ पानी,
जिस पर नहीं लिखा जा सकता -प्रेम
मगर उतर कर
धीमे-धीमे भीगा जा सकता है
दूसरी तरफ पत्थर
जिस पर गोदा जा सकता है – प्रेम
मगर गोता लगाने में
देह हो सकती है लहूलुहान”
संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने अवधी में एक बहुत ही रोचक हास्य कविता पढ़ी और सभी को लोट-पोट होने पर बाध्य कर दिया. सामान्यत: वे बड़ी ओजस्वी कविता पढ़ते हैं पर आज उनका स्वर कुछ रूमानी था, जो उनकी निम्न काव्य पंक्ति से प्रकट होता है –
उठाया जो चिलमन अँधेरे में तुमने
फलक से जमीं तक उजाला हुआ है
ग़ज़लकार कुंवर कुसुमेश ने एक मुक्तक ‘गेहूं के जवारे’ पर सुनाया और उसके औषधीय गुणों को साझा किया. फिर वह ग़ज़ल की अपनी चिर-परिचित अदा में वापस आये और अपनी ग़ज़ल कुछ इस तरह पेश की -
“बुजुर्गों का मेरे सर पर अगर साया नहीं होता
गमे दौराँ से बचने का कोई रस्ता नहीं होता
वही माँ जानती है दर्द बे-औलाद होने का
कि जिसकी गोद में अपना कोई बच्चा नहीं होता”
अंतिम कवि के रूप में डॉ0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने एकाधिक ग़ज़लें सुनाईं उनकी एक गैर मुरद्दफ़ ग़ुज़ल के बोल कुछ इस प्रकार हैं –
“आज तेरी ओढ़नी से खेल रही सर्द हवा
बोल इसे - दूर कहीं और फहर और फहर
मन नहीं भरता है कभी साथ जो होता है तेरा
जाने की तू बात न कर और ठहर और ठहर”
कार्यक्रम के समापन की औपचारिक घोषणा डॉ0 शरदिंदु ने चाय नाश्ते की पेश-कश के साथ की जिसके लिए हमें पार्क के एक छोर से दूसरी छोर तक पैदल जाना पड़ा. ‘पृथ्वी के छोर पर’ के सुधी लेखक पोलर-मैन डॉ0 शरदिंदु के लिए भले यह कैट- वॉक रहा हो पर सुकुमार कवियों को उतनी दूर जाकर फिर वापस आने में कबीर याद आ गये –
‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं
शीश उतारै भुंइ धरै तब पैठे घर माहिं ’
(मौलिक /अप्रकाशित )
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