"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-148 - Open Books Online2024-03-29T09:20:10Zhttp://openbooks.ning.com/forum/topics/148-1?feed=yes&xn_auth=noआ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवाद…tag:openbooks.ning.com,2023-02-12:5170231:Comment:10988542023-02-12T10:29:39.862Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p>आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थित और प्रशंसा के लिए आभार।</p>
<p>आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थित और प्रशंसा के लिए आभार।</p> गीतिका छंद
प्यार का मौसम बसन्…tag:openbooks.ning.com,2023-02-12:5170231:Comment:10986742023-02-12T09:23:24.977ZChetan Prakashhttp://openbooks.ning.com/profile/ChetanPrakash68
<p>गीतिका छंद</p>
<p>प्यार का मौसम बसन्ती हैं बहारें अब प्रकृति<br></br> फूल खिलते हाल रंगों गंग लहरों है विकृति <br></br> स्वर्ण किरणें सूर्य बँटती सात रंगों धूप में<br></br> प्रिज्म बनते हैं नदी - नालों तटों बहु रूप में</p>
<p>बह रही बादे सबा है बागवाँ खुशहाल है<br></br> फागुनी है कहकशाँयें और लाली गाल है<br></br> बज रहे हैं ढोल ताशे फाग की धुन शोर है<br></br> अठखेलियाँ तरु तले अरु नाचता वो मोर है</p>
<p>पर्व मनता प्रेम का है काम वेला शाम की ।<br></br> साधते भगवान बाणों भावनायें काम की ।।<br></br> है युवा भी मस्त सारे…</p>
<p>गीतिका छंद</p>
<p>प्यार का मौसम बसन्ती हैं बहारें अब प्रकृति<br/> फूल खिलते हाल रंगों गंग लहरों है विकृति <br/> स्वर्ण किरणें सूर्य बँटती सात रंगों धूप में<br/> प्रिज्म बनते हैं नदी - नालों तटों बहु रूप में</p>
<p>बह रही बादे सबा है बागवाँ खुशहाल है<br/> फागुनी है कहकशाँयें और लाली गाल है<br/> बज रहे हैं ढोल ताशे फाग की धुन शोर है<br/> अठखेलियाँ तरु तले अरु नाचता वो मोर है</p>
<p>पर्व मनता प्रेम का है काम वेला शाम की ।<br/> साधते भगवान बाणों भावनायें काम की ।।<br/> है युवा भी मस्त सारे युवतियाँ अंगार सी ।<br/> खेलती खुल वासनायें चंचला संसार सी ।।</p>
<p>रूप-यौवन खिलखिलाता जीवनी जो पास है ।<br/> रंग का त्यौहार होली है निकट उल्लास है ।।<br/> मस्त शिव हैं घुट रही जो भाँग भी मधुमास है।<br/> प्यार मौसम घुल रहा आनंद सबके पास है ।।</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p> आ. नयना जी, अभिवादन। प्रदत्त…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10989172023-02-11T14:06:53.914Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p>आ. नयना जी, अभिवादन। प्रदत्त विषय पर अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।</p>
<p>आ. नयना जी, अभिवादन। प्रदत्त विषय पर अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।</p> आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रो…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10986672023-02-11T13:56:53.919ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
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<p>आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार।</p>
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<p>आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार।</p> आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रद…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10987412023-02-11T13:55:16.294ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
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<p>आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रदत्त विषय पर सुन्दर गीत हेतु बहुत बहुत बधाई।</p>
<p></p>
<p>आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रदत्त विषय पर सुन्दर गीत हेतु बहुत बहुत बधाई।</p> आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवाद…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10987392023-02-11T12:38:26.849Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p>आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुन्दर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।</p>
<p>आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुन्दर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।</p> ← मेरे बसंत
चाय का घूँट तो र…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10988482023-02-11T12:07:51.623Zनयना(आरती)कानिटकरhttp://openbooks.ning.com/profile/NayanaAratiKanitkar
<p><span style="font-weight: 400;">← मेरे बसंत</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">चाय का घूँट तो रोज</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">भरती हूँ धीरे धीरे </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सुबह शाम</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">घर के बगीचे में या</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">छत पर गुनगुनी धूप के साथ </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">फिर भी आज शाम कि चाय</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;"> कुछ…</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">← मेरे बसंत</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-weight: 400;">चाय का घूँट तो रोज</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">भरती हूँ धीरे धीरे </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सुबह शाम</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">घर के बगीचे में या</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">छत पर गुनगुनी धूप के साथ </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">फिर भी आज शाम कि चाय</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;"> कुछ खास थी</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">चुसकी भरते ही</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">कई दिनों से</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">निस्तेज पडी मेरी देह में</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">सरसराहट दौड़ गई</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बागीचे मे बहती मंद बयार</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">नव कोंपल पत्तों की सरसराहट</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बसंती फूलों की मधुर सुगंध</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">देह मे नव संचार कर गई </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">एहसास दिला गई उसके आने का, </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">जिसके</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">इंतजार में प्रकृति गर्मी, बारिश </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">ठंड के थपेडे झेलती है और फिर </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">बसंत की गोद मे बैठ नवांकुरो को देख </span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">आल्हादित होती है.</span></p>
<p><span style="font-weight: 400;">मौलिक व अप्रकाशित </span></p>
<p></p> छंद मुक्त रचना
प्यार का मौसम…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10986632023-02-11T09:33:49.276ZDayaram Methanihttp://openbooks.ning.com/profile/DayaramMethani
<p><strong>छंद मुक्त रचना</strong></p>
<p></p>
<p>प्यार का मौसम<br></br>क्या होता है<br></br>ये कहाँ होता है<br></br>हमने कभी सुना नहीं<br></br>कभी कहीं देखा भी नहीं<br></br>हमने तो देखे है<br></br>नफरत के बड़े बड़े बाग<br></br>पेड़ पौधे और उनकी घास।</p>
<p></p>
<p>घर घर में तकरार है<br></br>वतन का भी बंटाढार है<br></br>सारा विश्व नफरत के <br></br>आगे लाचार है।<br></br>जो भी मुँह खोलता है<br></br>जहर भरे शब्द बोलता है।<br></br>मीठे बोल सुने तो<br></br>सदिया बीत गई।</p>
<p></p>
<p>आज प्यार के नाम होता है <br></br>नाटक <br></br>छलावा<br></br>या फिर वासना<br></br>का…</p>
<p><strong>छंद मुक्त रचना</strong></p>
<p></p>
<p>प्यार का मौसम<br/>क्या होता है<br/>ये कहाँ होता है<br/>हमने कभी सुना नहीं<br/>कभी कहीं देखा भी नहीं<br/>हमने तो देखे है<br/>नफरत के बड़े बड़े बाग<br/>पेड़ पौधे और उनकी घास।</p>
<p></p>
<p>घर घर में तकरार है<br/>वतन का भी बंटाढार है<br/>सारा विश्व नफरत के <br/>आगे लाचार है।<br/>जो भी मुँह खोलता है<br/>जहर भरे शब्द बोलता है।<br/>मीठे बोल सुने तो<br/>सदिया बीत गई।</p>
<p></p>
<p>आज प्यार के नाम होता है <br/>नाटक <br/>छलावा<br/>या फिर वासना<br/>का व्यवहार है।<br/>प्यार तो समर्पण है<br/>पर आज तो खूसूरत जिस्म<br/>के होते है टुकड़े टुकड़े<br/>वाह! क्या प्यार है?</p>
<p></p>
<p>आज कहीं नहीं प्यार है<br/>प्यार बना ठगों का व्यापार है<br/>प्रेम करने वाले लुटते है<br/>पिसते है, पिटते है<br/>पर<br/>प्यार को सदा तरसते है।</p>
<p><br/>एक प्रेम दीवानी<br/>प्रेम प्याले के नाम<br/>पी गई थी जहर का प्याला<br/>और कहा<br/>जो मैं जानती प्रेम किये दुख होय<br/>नगर ढिंढोरा पीटती प्यार न करियो कोय।<br/>- दयाराम मेठानी<br/>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p> गीत*****खो गया है अब कहीं वो…tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10987382023-02-11T01:37:10.234Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p>गीत<br></br>*****<br></br>खो गया है अब कहीं वो प्यार का मौसम।<br></br>शेष जो वह देह के व्यापार का मौसम।।<br></br>*<br></br>अब समय से पूर्व कलियाँ डाल पर चटकीं।<br></br>और आँखें लोक की बस देह पर अटकीं।।</p>
<p><br></br>तू न तो क्या, और तो हैं सोचकर बैठा<br></br>अब कहाँ बस एक को शृंगार का मौसम।।<br></br>*<br></br>है रिझाता कौन मन को आज मन परिमित।<br></br>कौन हो पाया भला अब आत्म से परिचित।।</p>
<p><br></br>रूठने की रीत बिसरी हर कली इस युग।<br></br>अब कहाँ दिखता भला मनुहार का मौसम।।<br></br>*<br></br>अब कहाँ हैं भर नगर में पींग के…</p>
<p>गीत<br/>*****<br/>खो गया है अब कहीं वो प्यार का मौसम।<br/>शेष जो वह देह के व्यापार का मौसम।।<br/>*<br/>अब समय से पूर्व कलियाँ डाल पर चटकीं।<br/>और आँखें लोक की बस देह पर अटकीं।।</p>
<p><br/>तू न तो क्या, और तो हैं सोचकर बैठा<br/>अब कहाँ बस एक को शृंगार का मौसम।।<br/>*<br/>है रिझाता कौन मन को आज मन परिमित।<br/>कौन हो पाया भला अब आत्म से परिचित।।</p>
<p><br/>रूठने की रीत बिसरी हर कली इस युग।<br/>अब कहाँ दिखता भला मनुहार का मौसम।।<br/>*<br/>अब कहाँ हैं भर नगर में पींग के अवसर।<br/>रख रहे सम्बंध जैसे लोग हों नभचर।।</p>
<p><br/>सात जन्मों की कथा तज गाँव भी बदला।<br/>भा रहा हर ओर यूँ पतझार का मौसम।।<br/>*<br/>मौलिक/अप्रकाशित</p>
<p></p> सादर अभिवादन।tag:openbooks.ning.com,2023-02-11:5170231:Comment:10988402023-02-11T01:34:09.743Zलक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'http://openbooks.ning.com/profile/laxmandhami
<p>सादर अभिवादन।</p>
<p>सादर अभिवादन।</p>