परों को खोलते हुये-1 - Open Books Online2024-03-28T17:46:01Zhttp://openbooks.ning.com/forum/topics/1-1?groupUrl=Pustak_samiksha&commentId=5170231%3AComment%3A478341&groupId=5170231%3AGroup%3A17766&feed=yes&xn_auth=noसत्य! tag:openbooks.ning.com,2013-11-27:5170231:Comment:4784312013-11-27T16:46:45.066Zबृजेश नीरजhttp://openbooks.ning.com/profile/BrijeshKumarSingh
<p>सत्य! </p>
<p>सत्य! </p> इस संग्रह से सम्बन्धित एक और…tag:openbooks.ning.com,2013-11-27:5170231:Comment:4784302013-11-27T16:45:11.202ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p>इस संग्रह से सम्बन्धित एक और तथ्य स्पष्ट है. और, वह ये है कि इस संग्रह के रचनाकारों में सब के सब ओबीओ के साहित्यिक मंच पर अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. साथ ही इस संग्रह के प्रकाशक और सम्पादक तथा भूमिका लेखकद्वय का विद्यालय भी ओबीओ ही है.</p>
<p>सादर</p>
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<p>इस संग्रह से सम्बन्धित एक और तथ्य स्पष्ट है. और, वह ये है कि इस संग्रह के रचनाकारों में सब के सब ओबीओ के साहित्यिक मंच पर अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. साथ ही इस संग्रह के प्रकाशक और सम्पादक तथा भूमिका लेखकद्वय का विद्यालय भी ओबीओ ही है.</p>
<p>सादर</p>
<p></p> किसी पाठक की नज़र से गुजरने के…tag:openbooks.ning.com,2013-11-27:5170231:Comment:4783412013-11-27T16:32:49.912Zबृजेश नीरजhttp://openbooks.ning.com/profile/BrijeshKumarSingh
<p>किसी पाठक की नज़र से गुजरने के बाद ऐसे शब्द मिलना, रचनाकार के रूप में आत्म-संतुष्ट करता है! आपके एक-एक शब्द ने रोमांच और उत्साह से भर दिया! आपकी इस प्रतिक्रिया पर इससे अधिक कुछ नहीं कह सकता-आँखें नम हैं और मन गदगद!</p>
<p>आपका बहुत बहुत आभार!</p>
<p>सादर!</p>
<p>किसी पाठक की नज़र से गुजरने के बाद ऐसे शब्द मिलना, रचनाकार के रूप में आत्म-संतुष्ट करता है! आपके एक-एक शब्द ने रोमांच और उत्साह से भर दिया! आपकी इस प्रतिक्रिया पर इससे अधिक कुछ नहीं कह सकता-आँखें नम हैं और मन गदगद!</p>
<p>आपका बहुत बहुत आभार!</p>
<p>सादर!</p> परों को खोलते हुए, भाग १, पर…tag:openbooks.ning.com,2013-11-27:5170231:Comment:4782562013-11-27T14:25:57.879ZSaurabh Pandeyhttp://openbooks.ning.com/profile/SaurabhPandey
<p><strong>परों को खोलते हुए, भाग १,</strong> पर पाठकीय टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार, भाई शिज्जू जी. </p>
<p>आपका पाठक जिस गहराई से इस पुस्तक को आत्मसात कर रहा है उस पर इस संग्रह के सम्पादक होने के तौर पर मुझे आत्मीय संतोष हो रहा है. यह अवश्य है कि सभी रचनाकारों ने गहरे डूब कर मेहनत की है. और प्रतिफल यह संग्रह है.</p>
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<p><strong>परों को खोलते हुए, भाग १,</strong> पर पाठकीय टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार, भाई शिज्जू जी. </p>
<p>आपका पाठक जिस गहराई से इस पुस्तक को आत्मसात कर रहा है उस पर इस संग्रह के सम्पादक होने के तौर पर मुझे आत्मीय संतोष हो रहा है. यह अवश्य है कि सभी रचनाकारों ने गहरे डूब कर मेहनत की है. और प्रतिफल यह संग्रह है.</p>
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