All Discussions Tagged 'लघुकथा' - Open Books Online2024-03-28T13:50:58Zhttp://openbooks.ning.com/forum/topic/listForTag?tag=%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE&feed=yes&xn_auth=noओबीओ साहित्योत्सव भोपाल 2023tag:openbooks.ning.com,2023-05-11:5170231:Topic:11032292023-05-11T12:25:27.901Zमिथिलेश वामनकरhttp://openbooks.ning.com/profile/mw
<p>ओपन बुक्स ऑनलाइन की भोपाल इकाई का वार्षिकोत्सव 'ओबीओ साहित्योत्सव 2023' दिनांक 7 मई 2023 दिन रविवार को भोपाल की होटल रेवा रीजेंसी, एमपी नगर में सम्पन्न हुआ। यह आयोजन तीन सत्रों में आयोजित किया गया था। प्रथम सत्र में व्याख्यान व विमोचन, द्वितीय सत्र में लघुकथा पाता और तृतीय सत्र में कविता एवं मुशायरा संपन्न हुआ। वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय तिलक राज कपूर जी ने स्वागत उद्बोधन दिया। आदरणीया विशाखा राजुरकर जी ने प्रथम सत्र यानी उद्घाटन व्याख्यान व विमोचन सत्र का सफल संचालन किया।…</p>
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<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075507266?profile=RESIZE_710x"></img></p>
<p>ओपन बुक्स ऑनलाइन की भोपाल इकाई का वार्षिकोत्सव 'ओबीओ साहित्योत्सव 2023' दिनांक 7 मई 2023 दिन रविवार को भोपाल की होटल रेवा रीजेंसी, एमपी नगर में सम्पन्न हुआ। यह आयोजन तीन सत्रों में आयोजित किया गया था। प्रथम सत्र में व्याख्यान व विमोचन, द्वितीय सत्र में लघुकथा पाता और तृतीय सत्र में कविता एवं मुशायरा संपन्न हुआ। वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय तिलक राज कपूर जी ने स्वागत उद्बोधन दिया। आदरणीया विशाखा राजुरकर जी ने प्रथम सत्र यानी उद्घाटन व्याख्यान व विमोचन सत्र का सफल संचालन किया।</p>
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<p>"बदलते सामाजिक राजनीतिक संदर्भों में हिंदी कहानी" विषय पर बोलते हुए प्रमुख कहानीकार और सत्र के मुख्य अतिथि आदरणीय मुकेश वर्मा जी ने अपने विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा कि वो लेखन जो आपके दिल को छू ले वही साहित्य है। ओबीओ भोपाल चैप्टर के संरक्षक, ओबीओ मुख्य पटल के टीम प्रबंधक और ओबीओ चित्र से काव्य तक छान्दोत्सव के मंच संचालक वरिष्ठ गीतकार आदरणीय सौरभ पांडे जी ने "गीतिकाव्य का पुनरुत्थान और छंदों की प्रासंगिकता" पर अपने विचार रखते हुए कहा कि हम जब क्यों से कैसे की तरफ आये, तभी काव्य का व्याकरण और शिल्प आया, शिल्प यदि त्रुटिपूर्ण हो तो रचनाकार पाठक के साथ-साथ समाज को भी बिगाड़ देता है।</p>
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<p>कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि आदरणीय बद्र वास्ती जी ने "नई नज़्म एक अध्ययन" विषय पर बोलते हुए नज़्म विधा की व्याख्या विस्तार से की। उन्होंने बताया कि नज़्म ने भी और विधाओं की तरह नया लिबास पहना है। इसमें भी बहुत प्रयोग हो रहे हैं, जो बदलते समय के साथ आवश्यक भी है। विशिष्ट अतिथि व वरिष्ठ शायर आदरणीय डॉ अशोक गोयल जी ने "ग़ज़ल की शेरियत" पर बोलते हुए शे'र के कहन की बारीकियों से परिचय कराया। प्रथम सत्र ओबीओ भोपाल चैप्टर के कार्यकारी अध्यक्ष आदरणीय अशोक निर्मल जी की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। इस सत्र के अंत में देश भर के साहित्यकारों जो ओबीओ के सदस्य हैं, की रचनाओं से पुस्तक "शब्द शिल्पी " (संपादक-मिथिलेश वामनकर) का विमोचन किया गया।</p>
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<p>दूसरे सत्र लघुकथा पाठ किया गया और इस सत्र का सञ्चालन आदरणीया कल्पना भट्ट जी ने किया जिसमें आदरणीया नयना 'आरती' कानिटकरजी, आदरणीया कल्पना भट्टजी, आदरणीया शशि बंसल जी, आदरणीया अभिलाषा श्रीवास्तव जी, आदरणीया प्रियंका श्रीवास्तव जी, आदरणीय मनीष बादलजी, आदरणीया अंशु वर्माजी, और आदरणीय कपिल शास्त्रीजी ने लघुकथा का पाठ किया वहीँ आदरणीया अर्पणा शर्मा जी ने अपनी एक छंद मुक्त कविता का पाठ किया। इस सत्र की अध्यक्षता आदरणीय अशोक निर्मल ने की एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में आदरणीय अजय वर्मा जी और आदरणीय भुवनेश दशोत्तर जी उपस्थित थे जिन्होनें सत्र के अंत में लघुकथाओं पर अपने विचार व्यक्त किये।</p>
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<p>तृतीय और अंतिम सत्र काव्य पाठ और मुशायरे का था जिसकी अध्यक्षता आदरणीय अशोक निर्मल ने की और मुख्य अतिथि के रूप में ओबीओ के नवीनतम सदस्य व वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय अशोक गोयल जी मंचासीन थे। यह सत्र ओबीओ के वरिष्ठ सदस्यों आदरणीय रवि शुक्ल जी और आदरणीय नीलेश नूर जी के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न हुआ। लगभग चार घंटे चले इस सत्र में आदरणीय ऋषि श्रृंगारी जी, आदरणीय आबिद काज़मी जी, आ. रामराव वामनकर जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों ने मंच सुशोभित किया।</p>
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<p>इस सत्र में तीस से अधिक रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया जिनमें आ.गौरव गर्वित, आ.डॉ अशोक गोयल, गुना , आ.तिलक राज कपूर, आ.देवेश देव, आ.निलेश नूर, इंदौर, आ.प्रतिभा पाण्डे, रतलाम, आ.बलराम धाकड़, मिथिलेश वामनकर, आ.रवि शुक्ल, बीकानेर , आ.सीमा 'सुशी', आ.सौरभ पाण्डेय, आ.महेश अग्रवाल, आ.आबिद काज़मी, आ.ऋषि शृंगारी, आ.कमलेश नूर, आ.चरणजीत सिंह कुकरेजा, आ.डॉ किशन तिवारी, आ.डॉ मुबारक़ खान 'शाहीन', आ.डॉ राधेश्याम पनवरिया, आ.डॉ शरद यायावर, आ.डॉ सुधीर शर्मा, आ.दिनेश भदौरिया 'शेष', आ.प्रशांत दीक्षित, आ.प्रियेश गुप्ता, आ.प्रेम चंद गुप्त, आ.मनोरमा चोपड़ा 'मन्नू', आ.रामराव वामनकर, आ.लता स्वराञ्जलि, आ.शोएब अली खान, आ.संतोष खिरवड़कर, आ.अशोक व्यग्र, आ.प्रियंका श्रीवास्तव, आ.अशोक निर्मल जी आदि ने अपनी रचनाओं से कार्यक्रम को ऊंचाईयां प्रदान की। कार्यक्रम का सफल संचालन आदरणीय बलराम धाकड़ जी और आदरणीय देवेश देव जी ने किया।</p>
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<p>अंत मे सभी अतिथि साहित्यकारों और ओबीओ सदस्यों आयोजन की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के लिए स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।</p>
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<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075510655?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075510655?profile=RESIZE_710x" width="200" class="align-full"/></a></p>
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<p>ध्यातव्य हैं कि देश भर के साहित्यकारों और ओबीओ के सदस्यों की रचनाओं का संकलन पुस्तक "शब्द शिल्पी " (संपादक-मिथिलेश वामनकर) में किया गया है। दो सौ पृष्ठ के इस संकलन में आलेख, कहानी, लघुकथा, पुस्तक समीक्षा, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, कविता, छंद आदि विधाओं की रचनाएँ है। यह पुस्तक अमेजन (Amazon) पर उपलब्ध है जिसकी लिंक दी जा रही है-<a href="https://www.amazon.in/dp/B0C4K2HPRS">https://www.amazon.in/dp/B0C4K2HPRS</a><br/> सुलभ सन्दर्भ हेतु "शब्द शिल्पी " का कवर पेज और अनुक्रमणिका दी जा रही है-</p>
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511663?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511663?profile=RESIZE_710x" width="500" class="align-full"/></a><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511300?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511300?profile=RESIZE_710x" width="500" class="align-left"/></a></p> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-53 (विषय अधिकार)tag:openbooks.ning.com,2019-08-11:5170231:Topic:9899852019-08-11T05:32:53.538ZAdminhttp://openbooks.ning.com/profile/Admin
<div class="discussion"><div class="description"><div class="xg_user_generated"><p><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">आदरणीय साथिओ,<br></br></font></p>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">सादर नमन।</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">.</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">"ओबीओ लाइव लघुकथा…</font></div>
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<div class="discussion"><div class="description"><div class="xg_user_generated"><p><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">आदरणीय साथिओ,<br/></font></p>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">सादर नमन।</font></div>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">.</font></div>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी"<span> </span><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>अंक-53</strong></span><span> </span>में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है: </font></div>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">.</font></div>
<div><strong><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">"ओ</font>बीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-53</strong></div>
<div><strong>विषय: अधिकार</strong></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>अवधि : 30-08-2019 से 31-08-</strong></span><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>2019 </strong></span></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>.</strong></span></div>
<div><b>अति आवश्यक सूचना :-</b></div>
<div>1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी<span> </span><b>एक</b><span> लघुकथा</span> पोस्ट कर सकते हैं। </div>
<div>2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।</div>
<div>3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। </div>
<div>4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। <span>गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI</span></div>
<div>5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.<br/><div>6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।</div>
<div>7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार <strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong> अवश्य लिखें।</div>
<div>8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। </div>
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<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">.</font></div>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो <a href="http://www.openbooksonline.com/" rel="noopener" target="_blank">www.openbooksonline.com</a> पर जाकर प्रथम बार <a href="http://www.openbooksonline.com/main/authorization/signUp?" rel="noopener" target="_blank">sign up</a> कर लें.</font></div>
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<div><a href="http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:637805" rel="noopener" target="_blank">लघुकथा के नियम, शिल्प एवं संरचना सम्बन्धी जानकारी हेतु यहाँ क्लिक करें</a></div>
<div><font face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif" color="#000000">.</font></div>
<div>मंच संचालक</div>
<div><strong>योगराज प्रभाकर</strong></div>
<div>(प्रधान संपादक)</div>
<div>ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम</div>
</div>
</div>
</div> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-52 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2019-08-08:5170231:Topic:9897452019-08-08T07:29:20.039Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><strong>(1) . डॉ० टी.आर सुकुल जी</strong><br></br><strong>घड़ी</strong><br></br><span>.</span><br></br><span>उस समय की चौथी क्लास तक पढ़े ‘भदईं’, गाॅंव के कुछ इने-गिने पढ़े लिखे लोगों में माने जाते थे। शहर के किसी बीड़ी उद्योगपति ने गाॅंव में खोली कंपनी की ब्राॅंच में भदईं को मुनीम के सहायक के काम में लगा लिया। रोज़ सही समय पर कंपनी में पहुँच सकें इसलिए भदईं ने एक कलाई घड़ी खरीदी जो गाँव में शायद उन्हीं के पास सबसे पहले आई थी। घर से कंपनी तक जाते आते समय भदईं से रास्ते भर बुज़ुर्ग और बच्चे सभी पूछा करते, “काय…</span></p>
<p><strong>(1) . डॉ० टी.आर सुकुल जी</strong><br/><strong>घड़ी</strong><br/><span>.</span><br/><span>उस समय की चौथी क्लास तक पढ़े ‘भदईं’, गाॅंव के कुछ इने-गिने पढ़े लिखे लोगों में माने जाते थे। शहर के किसी बीड़ी उद्योगपति ने गाॅंव में खोली कंपनी की ब्राॅंच में भदईं को मुनीम के सहायक के काम में लगा लिया। रोज़ सही समय पर कंपनी में पहुँच सकें इसलिए भदईं ने एक कलाई घड़ी खरीदी जो गाँव में शायद उन्हीं के पास सबसे पहले आई थी। घर से कंपनी तक जाते आते समय भदईं से रास्ते भर बुज़ुर्ग और बच्चे सभी पूछा करते, “काय भदईं! कित्ते बज गए?” और भदई बड़ी शान से घड़ी को देखते, थोड़ी देर कुछ गणना करते फिर समय बता दिया करते। जबसे भदईं ने घड़ी खरीदी लोग रास्ते में तो समय पूछते ही थे कभी किसी के यहाॅं किसी बच्चे का जन्म होता तो उसी समय दौड़कर भदईं के घर जाकर समय पूछता। इसी क्रम में एक दिन, रास्ते में “गिल्ली डन्डा” खेल रहे लड़कों में से एक ने, वहीं से जाते हुए भदईं से पूछा, “काय भदईं! कित्ते बज गए?” भदईं समय बताने के लिए अपनी घड़ी देख ही रहे थे कि खेल देख रहे एक बुज़ुर्ग बोले, “काय रे! का तोय कोरट में पेशी पे जाने है जो कित्ते बजे हैं, पूछ रव है?” </span><br/><span>यह सुनते ही अन्य लड़के हँसने लगे और भदईं भी हँसते हुए आगे बढ़ गए। लड़का तुरंत घर आकर अपनी माॅं से बोला, </span><br/><span>“काय बउ! जा कोरट की पेशी का कहाउत?” </span><br/><span>माॅं इसे सुनते ही दस साल पहले हुई घटना को चलचित्र की तरह देखने लगी जिसमें भाइयों में ज़मीन के बंटवारे संबंधी झगड़े में कोर्ट-कचहरी और बकीलों के चक्कर लगाते उसके पति को ज़ेवर बेचना पड़े और इतना तक कि गाँव के धनी लोगों से कर्ज़ा लेना पड़ा फिर भी उसे अपना हक़ नहीं मिला तब आत्महत्या जैसा क़दम उठाना पड़ा था। आँखों में उमड़ती आँसुओं की धारा को रोकने का प्रयास करते हुए उसने लड़के को अपने पास खींचकर कहा, </span><br/><span>“देख रे! कोरट और पेशी के चक्कर में नें परिए और नें कबऊं बकीलों के फेर में रइए। मेंनत मंजूरी करकें आदे पेट रइए मनों कबऊं कर्ज़ा नें करिए, समज रव है के नईं?” </span><br/><span>इसी बीच भदई बापस लौटते हुए वहाॅं से निकले, लड़के की माॅं ने घूँघट की ओट लेते हुए कहा, </span><br/><span>“दाउ जू! तनक ए लरका खों समजाव और कछु काम में लगा ले, कहॅुं दंद फंद नें कर बैठे?” </span><br/><span>भदईं घड़ी वाले हाथ से कान खुजलाते अपने स्वभावानुसार कुछ सोचकर बोलने वाले ही थे कि “घड़ी” चमकते हुए बोल पड़ी, </span><br/><span>“गम्म खाव बहू! तनक पढ़ लिख कें मोड़ा खों कछु बड़ो तो हो जान दे फिर हिल्ले सें लगई जैहे।” </span><br/><span>--</span><br/><span>(बुंदेली शब्द, काय= क्यों। कित्ते=कितने। कोरट= कोर्ट। बउ= माॅं। जा= यह। नें= नहीं। मेंनत मंजूरी= मेंहनत और मज़दूरी। आदे पेट रइए= भर पेट भोजन न भी मिले तब भी। मनों कबऊं= लेकिन कभी। करिए= करना। समज= समझ। रव= रहा। तनक= थोड़ा। मोंड़ा= लड़का। दंद फंद= झगड़ा झंझट। गम्म खाव= धीरज रखो। हिल्ले= स्थायी काम। लगई जैहे= लग ही जाएगा) </span><br/><span>----</span><br/><strong>(2) . कनक हरलालका जी</strong><br/><strong>चूड़ियों वाले हाथ</strong><br/><span>.</span><br/><span>“भाई, ज़रा वे हरे रंग वाली चूड़ियाँ देना। और हाँ ज़रा ध्यान से, टूटी हुई न हो।” </span><br/><span>“अरे, वीरेंद्र, यार बहुत दिनों बाद दिखलाई पड़े। क्या ख़बर है? और तुम!! चूड़ियाँ ख़रीद रहे हो!! पुरुषत्व की बहादुरी बखानने वाले, औरतों की ऐसी तैसी करनेवाले, चूड़ियों को औरतों की कमज़ोरी की निशानी समझने वाले। बात-बात में चूड़ियाँ पहन लो कहनेवाला आज चूड़ियाँ ख़रीद रहा है!!” </span><br/><span>“हाँ दोस्त, अपनी दौलत और ताक़त के नशे में ऐय्याश मैं अपनी धन, दौलत, सेहत, रुतबा सब खो बैठा था। बच्चे, माँ, बाप, परिवार सभी के सड़क पर आने के से हालात बन गए थे। ऐसे में तेरी भाभी ने ही अपनी बुद्धि, त्याग और साहस से सब संभाला। यहाँ तक कि एक बार शराब के नशे में कुछ गुण्डों के जानलेवा हमले से भी उनकी बहादुरी के कारण मेरी प्राणरक्षा हुई। उसीदिन मुझे पता चला कि चूड़ियाँ पहनने वाले हाथ ख़ूबसूरत ही नहीं ताक़तवर भी होते हैं। और हाँ ये चूड़ियाँ नहीं वीरता का मैडल हैं।” </span><br/><span>--------</span><br/><strong>(3) . मनन कुमार सिंह जी</strong><br/><strong>प्रेयसी</strong><br/><span>----</span><br/><span>प्रेयसी रसोद्वेलित होगी, ऐसा पुरुष को यदा-कदा एहसास होता। ऐसा प्रायः दैहिक साहचर्य-क्रिया के शिखर पर होता था। वह ख़ुद को निहाल महसूस करता। समय गुज़रता गया। आग जलती, बुझती। फिर जल जाती। वह सुलगता। उसे बुझाने की लालसा बलवती होती जाती। और वह धरती अपने आकाश से टपकती ज्वलित बूँदों के प्रहार से आहत होती। ओह! और हाय का यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। </span><br/><span>फिर धीरे-धीरे अंग-संघर्ष कृत्योपरांत की मलिनता प्रेयसी ने उजागर की। उसका तथ्य था कि वह कृत्य भला ग्राह्य क्यों हो, जिसका अवसान मालिन्य जनक है। ख़ैर संतानोत्पत्ति की हद तक उसे मान्यता देने में उसे कोई ज़्यादा आपत्ति नहीं थी। </span><br/><span>फिर कुछ अर्से बाद स्पष्ट हुआ कि रति-क्रिया तो उसके लिए नितांत पीड़ादायी है। वह तो अपने प्रियतम की ख़ातिर सब कुछ झेलती जाती है। हाँ, उमगते उद्गार से उमंगों का पारावार पा लेने की उत्कंठा कभी-कभार ज़रूर मुखर हो हो जाया करती थी। अब नहीं होती। उम्र भी तो कोई चीज़ है। </span><br/><span>अब प्रियतम के आहत महसूस करने की बारी है। वह सोचता है कि सिर्फ़ मेरे लिए उसने काफ़ी कष्ट झेल लिए। मैंने किया ही क्या उसके लिए? बस उसके मनोभावों की आड़ में उसके जिस्म से खेला हूँ अबतक। पर अब ऐसा नहीं होगा। प्रण है मेरा। और अरमानों के कुलाँचे भरने पँर वह मुँह फिराकर सोने की कोशिश करता है, गुड नाईट कहकर। जवाब में भी गुड नाईट मिलती है। पर जब वह ऊँघता होता है, तो छोटा तकिया या छोटी तौलिया मुँह पर हल्के-से पड़ जाते हैं। स्नेह-सूचना का सन्दर्भ है यह सब। फिर सब कुछ यथावत् चलता रहता है। अनुरक्ति-विरक्ति मनोभावों की अनुगामिनी हैं। वे सदा बरक़रार रहती हैं। हाँ, हर चीज़ के मुखर होने का अपना समय होता है। </span><br/><span>पार्क में बैठा प्रियतम यही सोच रहा था कि मोबाइल घनघना उठा। </span><br/><span>‘कहाँ हो?’, प्रेयसी की आवाज़ आई। </span><br/><span>‘बस आ रहा हूँ। पार्क में था।’ </span><br/><span>‘रात की बाते भुला देना। वह वक़्त का झोंका था, और कुछ नहीं।’ </span><br/><span>वह बोला कुछ नहीं। घर की ओर चल पड़ा। </span><br/><span>-----</span><br/><strong>(4) . मोहन बेगोवाल जी</strong><br/><strong>अस्तित्व</strong><br/><span>.</span><br/><span>इंटरव्यू चल रही थी। कमरे के बाहर खड़ा मुलाज़िम लिस्ट में लिखे नाम के अनुसार आवाज़ देकर इक-इक कैंडिडेट को अंदर भेज रहा था। इंटरव्यू लेने वाले लोग, कैंडिडेट से उसकी योग्यता व् काम करने की क्षमता के बारे सवाल पूछ रहे थे। </span><br/><span>साथ-साथ इक मैंबर प्राथना पत्र के साथ लगे दस्तावेज़ देखकर उनको कह रहा था रिज़ल्ट आपको शाम तक बता दिया जाएगा और सिलेक्ट होने वालों की लिस्ट नोटिस बोर्ड पर लगा दी जाएगी। इस जब दरवाज़े पर खड़े मुलाज़िम ने आवाज़ लगाई तो इक साथ दो लोग कमरे में तेज़ी से दाखल हुए, मर्द और औरत, दरवाज़े पर खड़े दूसरे मुलाजिम ने उन्हें रोकने की कोशिश की, “देख भाई, आप अपनी बारी पर इक-इक क अंदर आएँ।” </span><br/><span>“बीबी, मैंने आपका नाम पुकारा था, ये आपके साथ कौन हैं?, आप बाहर रहें।”, उसको मुलाज़िम ने कहा</span><br/><span>“जी, ये मेरे घर वाले हैं।” औरत ने जवाब दिया</span><br/><span>“मगर इंटरव्यू तो आपकी है।”, सेंटर वाली कुर्सी पर बैठे अफ़सर ने कहा</span><br/><span>“भाई साहिब, आप बाहर जाएँ।”, दरवाज़े पर खड़े मुलाज़िम ने फिर कहा</span><br/><span>मगर वह वहीं खड़ा रहा, उसकी औरत भी कह रही थी जी, “इस को यहीं रहने दो।”, सर जी</span><br/><span>इंटरव्यू लेने वालों ने उसका रिकार्ड देखा और उनसे कुछ सवाल किए, उन्होंने उससे भी वही सवाल पूछा के जो औरत केंडिडेट से पूछा जा रहा थ। </span><br/><span>अगर आपको हम सिलेक्ट कर लेते हैं, तो तुम वहाँ जा कर नौकरी करने को तैयार हो। </span><br/><span>औरत कुछ देर चुप खड़ी सोचती रही, मगर तभी उसका पति बोला। </span><br/><span>“जी, में भी तो पढ़ा लिखा हूँ, आप इस सिलेक्ट कर लो, काम तो मैं भी कर दिया करूँगा।” </span><br/><span>“नौकरी इसकी, ड्यूटी आप कैसे करंगे।” </span><br/><span>“क्यों नहीं, सर जी, मेरी भाभी भी तो सरपंच है, उसका सारा काम भी तो मेरा भाई ही करता है, कभी कोई एतराज़ नहीं करता। </span><br/><span>हम भी तो आपको अच्छा काम करके दिखाएंगे, कमरे में सभी लोग उसकी तरफ़ हैरान होकर देखने लगे। </span><br/><span>----------</span><br/><strong>(5) . विनय कुमार जी</strong><br/><strong>अपनी पहचान</strong><br/><span>.</span><br/><span>बादल तो कई घंटों से छाये हुए थे लेकिन बूँदें बरसने का नाम ही नहीं ले रही थीं. पूरा महीना बीतने को आया, इस बार धान का बेहन तक नहीं पड़ पाया है, राजन खेत के मेड़ पर बैठा यही सब सोच रहा था. घर में जाने पर घरवाली का चिंतित चेहरा देखकर उसको सहन नहीं होता था. दरअसल वह कुछ कहती नहीं थी, बस ख़ामोशी से उसका मुँह देखती. और उसका कुछ नहीं बोलना ही उसे अंदर तक सालता था. पिछले साल तो फिर भी जुलाई के आख़िर में बारिश हो गई थी और उसने धान का बेहन डाल दिया था.</span><br/><span>“तुम भी आ जाओ शहर, गाँव में कुछ नहीं रक्खा है. कम-से-कम यहाँ दिनभर की मेहनत के बाद रोटी तो नसीब हो जाती है, रहने के लिए भले नर्क जैसी जगह है”, पिछले हफ़्ते भी उसके दोस्त हरी ने फ़ोन पर कहा था. उसने मना कर दिया था, यहाँ उसकी पहचान तो है, वहाँ कौन पहचानेगा. घरवाली से भी जब उसने बात की तो उसने भी हामी नहीं भरी. वह भी एक किसान की बेटी थी और अब तक के जीवन में उसने खेती बाड़ी के इलावा कुछ नहीं देखा था.</span><br/><span>“थोड़ी दिक्कत तो है लेकिन चला लेंगे गृहस्थी किसी तरह. मेरे मामा भी शहर रहते हैं, मैं एक बार कुछ दिनों के लिए वहाँ गई थी लेकिन उस बदबू और घुटन में मैं जी नहीं पाऊँगी”, घरवाली ने धीरे-से कहा था.</span><br/><span>एक ही तो गाय है घर में और दो लोग, चला लेंगे किसी तरह से, सोचते हुए वह उठा. कुछ क़दम ही चला होगा कि बरसात शुरू हो गई और घर तक पहुँचते पहुँचते जम के बारिश हो रही थी. दरवाज़े पर एक तरह उसकी गाय तो दूसरी तरफ़ घरवाली बरसात में भींग रहे थे, मानो पिछले कई महीने के सूखे को शरीर से निकाल फेंकना चाहते हों. उसने धीरे-से घरवाली का हाथ पकड़ा और दोनों देर तक उस बरसात में भीगते रहे.</span><br/><span>-------</span><br/><strong>(6) . आसिफ़ ज़ैदी</strong><br/><strong>अस्तित्व</strong><br/><span>.</span><br/><span>वृद्धाश्रम मैं रवि अपने पिता किशन जी और माता सुमित्रा देवी से कह रहा था। ‘अपने घर चलो हम से ग़लती हुई, इसलिए तुम्हारी बहू भी शर्म के मारे तुम्हारा सामना नहीं कर पा रही है उसने मुझे लेने भेजा है कि माँ बाबूजी को लेकर ज़रूर आना “। </span><br/><span>किशन जी कह रहे थे। </span><br/><span>‘ मुझमें अब वह ताक़त नहीं रही कि मैं घर का सौदा सुलूक ठीक से कर सकूँ और वह शक्ति भी नहीं कि तेरी पत्नी की बातें सुनकर बर्दाश्त कर सकूँ, “अगर तेरी माँ जाना चाहे तो मैं नहीं रोकूंगा’! </span><br/><span>माँ ने उनकी तरफ़ देखा और नज़रें नीची कर लीं। </span><br/><span>रवि के लाख आग्रह करने के बाद भी किशन जी नहीं माने और रवि मजबूर होकर लोट गया। </span><br/><span>(यह परिवर्तन आख़िर क्यों आया) </span><br/><span>वह भी 15 महीने के बाद? </span><br/><span>रवि के बेटे प्रकाश ने मासूमियत से माँ-बाप से पूछा। </span><br/><span>“दादा-दादी वृद्धा आश्रम में क्यों रह रहे हैं ‘? </span><br/><span>दोनों पति पत्नी ने बात बनाते हुए कहा:-</span><br/><span>“हमारे घर से ज़्यादा अच्छा जीवन वे वृद्धा आश्रम में जी रहे हैं वहाँ उन्हें बहुत आराम है और उनके नए दोस्त व साथी भी वहाँ उनको मिल गए हैं, इसलिए बाक़ी का जीवन वहीं बीते तो ठीक है”! इसपर भोलेपन से प्रकाश ने कहा:</span><br/><span>“तो क्या आपको भी बुढ़ापे में वहीं रहना पड़ेगा ‘? क्या मेरे साथ नहीं रहेंगे, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा”? </span><br/><span>यही बात थी के रवि को और उसकी पत्नी को अपना अस्तित्व ख़तरे में नज़र आया और बहू जो बहुत ज़्यादती कर चुकी थी, अपने सास-ससुर से नज़रें मिलाने के लायक़ भी नहीं रही थी, इसलिए उसने रवि को भेजा था उनको ले आने! </span><br/><span>लेकिन वो नहीं आए....। </span><br/><span>---------</span><br/><strong>(7). तेजवीर सिंह जी</strong><br/><strong>नया फ़रमान</strong><br/><span>.</span><br/><span>बीती रात लाल कृष्ण जी का स्वर्गवास हो गया। दोपहर तक दाह-संस्कार का इंतज़ाम करके लोग शव को श्मशान लेकर पहुँचे। श्मशान की व्यवस्था देख सब चकित हो गए। मुख्य द्वार पर इलेक्ट्रोनिक गेट। चार चार वर्दीधारी तैनात। लोगों ने उनसे गेट खोलने के लिए कहा। उन्होंने गेट के साथ वाले कार्यालय से संपर्क करने को बोला। कुछ लोग कार्यालय पहुँच गए। उन्हें कार्यालय के बाहर लगे बोर्ड पर नियम क़ायदे पढ़ने और उनके अनुसार कार्य करने को कहा। जिसे पढ़कर कुछ लोग उग्र होने लगे। कुछ बुज़ुर्ग भी थे। उन्होंने समझाया, “सब्र से काम लो। उतावली से काम नहीं बनेगा।” </span><br/><span>“बाबूजी, आपको पता है कि बोर्ड पर क्या नियम लिखे हैं?” </span><br/><span>“बेटा जो भी लिखा है सरकारी आदेश है। मानना तो पड़ेगा ही।” </span><br/><span>“इसमें लिखा है कि अब दाह-संस्कार केवल सरकार द्वारा अनुबंधित शव दाह गृह में ही होगा। अन्यत्र दाह-संस्कार करना ग़ैर क़ानूनी होगा। जिसकी सज़ा पाँच साल जेल और बीस हज़ार रुपये जुर्माना होगा।” </span><br/><span>“यानी कि अब शव दाह गृह भी सरकारी हो गए।” </span><br/><span>“नहीं बाबूजी, यह भी प्राइवेट कंपनी को बीस साल के लिए ठेके पर दिये गए हैं।” </span><br/><span>“बेटा फिर तो भारी फ़ीस भी लगेगी।” </span><br/><span>“जी बिल्कुल, बिजली से दाह-संस्कार कराने पर दस हज़ार और लकड़ी कंडे की आग से कराने पर बीस हज़ार रुपये लगेंगे।” </span><br/><span>“और भी कुछ क़ायदे क़ानून हैं इसके अतिरिक्त।” </span><br/><span>“जी हाँ, और भी बहुत कुछ है। मृत व्यक्ति के समस्त डॉक्यूमेंट जैसे वोटर आई डी, आधार कार्ड, पेन कार्ड, राशन कार्ड और पासपोर्ट आदि मूल रूप में यहाँ ले लिए जाएँगे।” </span><br/><span>“वह सब किसलिये?” </span><br/><span>“व्यक्ति की मृत्यु के बाद ये कागज़ात सरकारी संपत्ति होंगे जिन्हें वापस करना अनिवार्य होगा ताकि अन्य कोई इनका दुरुपयोग न कर सके।” </span><br/><span>“और भी कुछ है क्या?” </span><br/><span>“आगे तो और भी कठिन नियम हैं।” </span><br/><span>“वह भी बता दे बेटा जल्दी से। वैसे ही दाह-संस्कार में बहुत देरी हो चुकी है। सूरज छिपने वाला है।” </span><br/><span>“मृत व्यक्ति का दाह-संस्कार केवल उसका पुरुष वारिस ही कर सकता है। उसके लिए वारिस को सबूत के तौर पर अपने आई डी और निवास प्रमाण पत्र एक शपथ पत्र के साथ जमा कराने होंगे। जिससे कि भविष्य में कोई क़ानूनी अड़चन आने पर उसे जिम्मेदार ठहराया जा सके|” </span><br/><span>“और जिसका कोई पुरुष वारिस ना हो उस मामले में क्या होगा।” </span><br/><span>“ऐसे मामलों में मृत व्यक्ति को अपने जीवित रहते ही नोटरी से एक शपथ पत्र बनवाना होगा कि उसका दाह-संस्कार का अधिकारी कौन होगा। शपथ पत्र के साथ में उस अधिकृत व्यक्ति का सहमति पत्र भी लगाना होगा| उसपर दो सम्मानित व्यक्तियों को गवाह के रूप में हस्ताक्षर भी कराने होंगे।” </span><br/><span>“लेकिन बेटा लाल कृष्ण जी का तो कोई वारिस भी नहीं था। और उन्होंने जीते-जी शपथ पत्र भी नहीं बनवाया था।” </span><br/><span>-----</span><br/><strong>(8) . बरखा शुक्ला जी</strong><br/><strong>एहसास</strong><br/><br/><span>रेवती व उनके पति ने नाश्ता ख़त्म ही किया था कि, बहू ने आकर पूछा,</span><br/><span>“मम्मीजीआज खाने में क्या बनवा लूँ। “</span><br/><span>“ओह! कमलाआ गई क्या?” रेवतीनेपूछा। </span><br/><span>“जी मम्मीजी।” बहू ने बताया। </span><br/><span>“बहू तुम्हारे ससुर जी कल कढ़ी खाने का बोल रहे थे, वो बनवा लोऔर सब्ज़ी जो तुम्हारा मन हो बनवा लो। “रेवती बोली। </span><br/><span>“तो फिर मम्मी जी गोभी की सब्ज़ी बनवा लेती हूँ, रोटीऔर चावल तो बनेंगे ही,और हाँ मम्मीजी, कमला कुछ रुपये बढ़ाने का बोल रही थी, आप कहें तो २०० रुपए बढ़ा दूँ? “बहू बोली। </span><br/><span>“हाँ बहू बढ़ा दो, महँगाई कितनी बढ़ गई है।" रेवती ने कहा। </span><br/><span>“अच्छा मम्मीजी, मैं खाने का कमला को बताती हूँ, व आपके लिए व पापाजी के लिए दूध भिजवाती हूँ। “ऐसा कहकर बहू चली गई। </span><br/><span>बहू के जाते हीअबतक चुप बैठे रेवती के पति बोले,</span><br/><span>“ये बहू रोज़ खाने के लिए तुमसे क्यों पूछतीहै, बोल क्यों नहीं देती उससे, इतनेअच्छे से सब संभालें है, खाना भी सबकी पसंद का बनवा लेगी। “</span><br/><span>“मैं उसे इसलिए मना नहीं करती, क्योंकि उसका मुझसे पूछना मुझे घर में मेरे वजूद काअहसास करा जाता है। “रेवती बोली।</span><br/><span>“तुम्हारी बातें तो मुझे समझ में ही नहीं आती। “पति बोले। </span><br/><span>“हम स्त्रियों को इन छोटी-छोटी बातों में जो ख़ुशी मिलती है, उसे आप पुरुष कभी नहीं समझोगे।" रेवती मुस्कुराकर बोली। </span><br/><span>“तुम्हारी बातें तुम्हीं जानो।” ये कहकर पति ने अख़बार उठा लिया।</span><br/><span>-------------</span><br/><strong>(9) . प्रतिभा पाण्डेय</strong><br/><strong>ढाई आखर प्रेम का ‘</strong><br/><span>.</span><br/><span>आकाश मार्ग से भ्रमण करते हुए नारायण ने साथ चलते नारद से पूछा “नारद ये कैसा उत्सव सा माहौल है पृथ्वी लोक में? सब एक-दूसरे को पुष्प दे रहे हैं। अपने बच्चों को प्रेममय देखकर अच्छा लगता है।” </span><br/><span>“प्रेम तो निश्चय ही अत्यन्त मधुर भावना है प्रभु, पर ये सब जो दिख रहा है ये हल्का फुल्का समय व्यतीत मात्र है बस।” नारद धीरे-से बोले। </span><br/><span>“नहीं नारद मैं नहीं मानता।” नारायण आहत हो गए थे। </span><br/><span>“एक क्षण ठहरिए प्रभु सब स्पष्ट हो जाएगा।” नारद मन-ही-मन कुछ बुदबुदाने लगे। </span><br/><span>“क्या कर रहे हो नारद?” प्रभु अधीर हो रहे थे। </span><br/><span>“मैंने एक मन्त्र फेर दिया है। हल्का फुल्का समय व्यतीत या स्वार्थ की भावना से प्रेम दिखाने वाले के हाथ में आते ही सारे पुष्प मुरझा जाएँगे और. ‘</span><br/><span>“फिर पृथ्वीलोक की मेरी संतानों में कितना प्रेम बचा है इसका निर्णय हो जायगा।” प्रभु ने नारद की बात पूर्ण की। </span><br/><span>अचनाक ही पृथ्वीलोक का माहौल बदल गया। पार्क रेस्तराँ हर जगह जोड़े झगड़ रहे थे और मुरझाए पुष्प और गुलदस्ते एक-दूसरे पर मार रहे थे। मुरझाए पुष्पों से धरती पटने लगी थी। </span><br/><span>विजेता के भाव लिए नारद प्रभु से कुछ कहने ही जा रहे थे कि उनके उतरे चेहरे को देख चुप हो गए। </span><br/><span>“चलिए प्रभु घर लौटते हैं। देवी लक्ष्मी आपकी प्रतीक्षा में होंगी।” नारद हाथ जोड़कर बोले। </span><br/><span>“क्या पता।” प्रभु धीरे-से बोले। </span><br/><span>“वाह पृथ्वीलोक वासियों! तुमने तो नारायण के मन में भी प्रेम के प्रति शंका के बीज बो दिये ‘.” .नारद धीरे-से बुदबुदाए। </span><br/><span>“देखो नारद” प्रभु की वाणी का उत्साह भाँप नारद उस तरफ़ देखने लगे। एक छोटा बच्चा धीरे-धीरे अपने घर के एक अँधेरे कमरे की तरफ़ बढ़ रहा था। कमरा पुराना, उपेक्षित और सीलन भरा था। वहाँ पर पलंग में पड़ी एक बूढ़ी स्त्री के पास जाकर बच्चा ज़मीन पर बैठ गया। </span><br/><span>“दादी आपके लिए फूल लाया हूँ” बच्चे ने वृद्धा का हाथ पकड़ लिया। </span><br/><span>“कहाँ से लाया बिट्टू?” </span><br/><span>“मम्मी के कमरे में ऐसे ही ज़मीन पर पड़े थे। सब सूखे थे। पर अब देखो एकदम खिले हुए और सुंदर हो गए।” </span><br/><span>“कितने ताजे और सुंदर हैं। बिल्कुल मेरे बिट्टू जैसे।” वृद्धा ने बच्चे को चूम लिया। </span><br/><span>नारायण अब आश्वस्त भाव से मुस्कुराते हुए नारद को देख रहे थे.</span><br/><span>“समझ गया प्रभु! आपकी बनायी धरती में प्रेम का अस्तित्व कभी समाप्त हो ही नहीं सकता। ‘नारद ने प्रसन्नता से खड़ताल बजा दी</span><br/><span>------</span><br/><strong>(10) . शेख़ शहज़ादउस्मानी जी</strong><br/><strong>अपनों का वजूद</strong><br/><span>.</span><br/><span>पंडित शर्माजी अपने बेटे पवन और मिर्ज़ा मासाब अपनी बिटिया शाहीन को उनके मनचाहे बहुत ही मशहूर भव्य अशासकीय विश्वविद्यालय में उनके प्रवेश व पंजीकरण की औपचारिकतायें पूरी कराने पहुँचे थे। उनकी पुश्तैनी दोस्ती की अगली पीढ़ी अपनी ज़िद पर नए ज़माने की पढ़ाई, करिअर और दोस्ती की राह में क़दम बढ़ा रही थी। </span><br/><span>शाहीन और पवन की आँखें चौंधिया रहीं थीं; नए सपने बुन रहीं थीं मनचाहे महानगर और विश्वविद्यालय में पदार्पण से। लेकिन बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना करते हुए धार्मिक प्रवृत्ति के पंडित जी और मिर्ज़ा जी दोनों के मन में एक अजीब सी घबराहट और डर का भी वजूद था। </span><br/><span>“ये अपने मुल्क की यूनिवर्सिटी है या कोई विदेशी जगह, पंडित जी!” मिर्ज़ा मासाब ने आँखें फाड़ते हुए कहा। </span><br/><span>“अपने आज़ाद मुल्क की तरक़्क़ियाँ हैं मासाब! मुल्क में ही परदेस है! जैसी तरक़्क़ियाँ, वैसी वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान और मौज़-मस्ती! ... शिक्षा की जगह ही सुपर मार्केट है, चौपाटी है, सब कुछ है; देशी कम विदेशी ज़्यादा!” पंडित जी ने मिर्ज़ा जी को बच्चों से थोड़ा दूर ले जाते हुए कहा, “देखो, देह-दर्शना फैशनेबल लड़कियाँ और मॉडर्न गेटअप में पढ़ने वाले हिंदुस्तानी लड़के!” </span><br/><span>“भाई पंडित जी, मैं तो खोज रहा हूँ कि इन मॉडर्न छात्र-छात्राओं में कोई हिंदुस्तानी लिबास और तहज़ीब वाला कोई तो नौजवां दिख जाए!” </span><br/><span>“यहाँ सबरंग मिलेंगे दोस्त! उधर देखो, वो बुरके वाली छात्रा और उधर वो सलवार-कुर्ते वाली अपनी माँ का हाथ थामें फ़ॉर्म भरने जा रही है!” </span><br/><span>“वजूद तो बरकरार है मियाँ!” यह कहते हुए मिर्ज़ा मासाब का चेहरा खिल उठा। तभी उन्हें शाहीन का ख़्याल आया, जो आज जीन्स-टॉप पहने हुए पवन के साथ फ़ॉर्म भरने में व्यस्त थी। </span><br/><span>“मिर्ज़ा, बुरा मत मानना! आज तुम्हारी बिटिया जितनी ख़ुश और चहकती नज़र आ रही है, मैंने कभी नहीं देखा, न ही तुमने कभी देखा होगा!” </span><br/><span>“सही कहते हो! पवन भी आज बेइंतहां ख़ुश नज़र आ रहा है! दोनों भाई-बहन को आज आज़ाद छोड़ दो। घूम लेने दो पूरी यूनिवर्सिटी!” मिर्ज़ा जी ने बेटे का पिट्ठू बैग पीठ पर संभालते हुए कहा। </span><br/><span>तभी पंडित जी को याद आया कि शायद हलफ़नामों या फ़ॉर्म वगै़रह में उनके दस्तख़त की भी ज़रूरत पड़ सकती है। वे दोनों संबंधित काउंटर के पास पहुँच कर अपने-अपने दस्तख़त कर शाहीन-पवन को वहीं छोड़कर थोड़े दूर खड़े हो गए। खिड़की से उनकी गतिविधियों को देखते रहे। </span><br/><span>फ़ॉर्म वगै़रह जमा करने के बाद पवन शाहीन से कुछ कह रहा था। </span><br/><span>“देखो, कोर्स और होस्टल की पूरी फीस जमा हो गई, फॉर्मेलिटीज पूरी हो गईं! अपने पेरेंट्स का काम अब ख़त्म। अपना काम और मेहनत अब शुरू!” पवन शाहीन का हाथ पकड़कर बोला, “अपने घर, मुहल्ले और शहर में मैंने बहुत पंडिताई का माहौल झेल लिया और तुमने कठमुल्लयाई का! अपने पेरेंट्स भले दोस्त हैं, लेकिन धार्मिक बातों से हमारा दम घुटता रहा!” </span><br/><span>“पवन भैया, मुझे भी अजीब सी आज़ादी महसूस हो रही है! तुमने हमेशा मेरी हौसला अफ़जाई की है। अब हम यहाँ मनमाने माहौल में मनचाहे तरीक़े से जीकर अपना मनचाहा करिअर बनायेंगे, है न!” </span><br/><span>यह सुनकर पंडित शर्माजी और मिर्ज़ा मासाब को अपने सारे वजूद समझ में आ गए। </span><br/><span>------</span><br/><strong>(11) . अंजलि गुप्ता जी</strong><br/><strong>अस्तित्व</strong><br/><span>.</span><br/><span>मेज़ पर पड़े मोबाइल में बड़ी सुंदर धुन बज रही थी। जैसे ही बंद हुई, अलार्म घड़ी बोली, “मोबाइल जी, फिर से बजाइये न, बड़ा ही प्यारा गीत है”। मोबाइल उसी समय उसे हड़काते हुए बोला, “चलो चलो, ख़ुद तो किसी काम की हो नहीं। मुझे और भी बहुत काम होते हैं सिवा गीत बजाने के”। </span><br/><span>अलार्म घड़ी अपना सा मुँह लेकर रह गई। दीवार पर टंगे कैलेंडर ने मोबाइल से कहा, “हम मानते हैं भाई, तुम्हें बहुत काम होते हैं मगर यह तरीका तो ठीक नहीं बात करने का”। </span><br/><span>“तुम तो चुप ही रहो कैलेंडर भैया। अगर इस घड़ी में रोहन भैया की फ़ोटो ना होती और तुम उनको स्कूल से मुफ़्त में न मिले होते तो यह टेबल पर और तुम दीवार पर नज़र नहीं आते। तुम दोनों का ही क्या, मैं तो हाथ घड़ी, केलकुलेटर और आजकल तो कंप्यूटर का भी काम करने लगा हूँ। रोहन भैया का तो एक पल भी नहीं गुज़रता मेरे बिना। तुम लोग तो यूँ ही उसके कमरे में जगह घेरे हो”। </span><br/><span>वो सब तो हम मानते हैं मोबाइल भैया लेकिन इतना गुरुर भी ठीक नहीं। माना कि तुम समय भी बताते हो, लेकिन हाथ पर तो मैं ही जँचती हूँ। हर चीज़ का अपना महत्त्व होता ही है “, हाथ घड़ी भी चुप ना रह सकी। </span><br/><span>मोबाइल ने तुरंत ही फ़िल्मी अंदाज़ में इतराते हुए कहा, “मेरे पास अपना एक नंबर है, पहचान है, नाम है, तुम्हारे पास क्या है?” </span><br/><span>तभी एक हाथ बढ़ा और उसने मोबाइल को पीछे से खोला। बैटरी और सिम हटाये जाने से पहले रोहन की इतनी ही आवाज़ सुन पाया मोबाइल, “थैंक यू पापा मेरे लिए नया स्मार्ट फ़ोन लाने के लिए। मैं अभी इसमें सिम चेंज करता हूँ”। </span><br/><span>----</span><br/><strong>(12) . रचना भाटिया</strong><br/><strong>अस्तित्व</strong><br/><span>.</span><br/><span>आज एन.जी.ओ.में काम ख़त्म करते करते सुबोध को बहुत देर हो गई थी। थके हुए सुबोध ने रास्तेमें ही डिनर करने के विचार से एक ढाबे पर गाड़ी रोक दी। उसे देखकर मालिक ने आवाज़ दी, ‘छोटू ..कहाँ मर गया। सामने वाली टेबल पर कपड़ा मार, और साहेब से आर्डर ले।’ </span><br/><span>‘जी मालिक’। प्लेटें धोना छोड़ कर दस साल का छोटू कपड़ा उठाकर टेबल की तरफ़ दौड़ पड़ा। मालिक का ग़ुस्सा वो जानता था। ‘साहेब क्या लाऊँ’? टेबल पर कपड़ा मारता हुए छोटू ने पूछा। </span><br/><span>‘पहले बता, कपड़े कबसे नहीं धोए? हाथ का कपड़ा ज़्यादा साफ़ है’। </span><br/><span>छोटू सकपका गया। ‘साहेब ग़लती हो गई। आज रात को ही धो लूँगा। </span><br/><span>‘छोओटूऊऊ’ नाम सुनते ही छोटू के हाथ तेज़ी से चलने लगे। </span><br/><span>‘साहेब क्या लाऊँ’। </span><br/><span>‘तुम कितने साल के हो? </span><br/><span>‘साहेब बात करना मना है।’ </span><br/><span>इतने में उसे पीछे से लात पड़ी। जितनी तेज़ी से गिरा, उतनी ही तेज़ी से खड़ा भी हो गया। </span><br/><span>तभी सुबोध की कड़क आवाज़ कानों में आई, “क्यों मार रहे हो”? </span><br/><span>“साहेब पक्का कामचोर है”। कहता हुआ मालिक अपनी सीट की ओर चल पड़ा। पर छोटू जानता था कि आज उसे रात का खाना नहीं मिलेगा और मार पड़ेगी सो अलग। </span><br/><span>“साहेब बताओ खाने में क्या लाऊँ?” </span><br/><span>“एक दाल, चार रोटी और सलाद”। छोटू ने रसोई में जा कर बताया और दूसरी टेबल पर आर्डर लेने चला गया। </span><br/><span>सुबोध छोटू को ध्यान से देख रहा था। लड़के, छोटू, छोरे, ओये जैसी आवाज़ आने पर वह भाग कर वहीं चला जाता। दुबला, पतला, पपड़ी जमे होंठ...ऐसा लग रहा था कि सुबह से कुछ खाया ही न हो। छोटू अब उसकी टेबल पर खाना लगा रहा था। अचानक सुबोध ने मालिक को कहा “एक दाल और चार रोटी और।” इससे पहले मालिक छोटू को कहता, </span><br/><span>सुबोध बोल पड़ा, “यह मेरे साथ खाना खाएगा।” छोटू को ज़बरदस्ती पास बिठा लिया, और अपनी प्लेट उसकी ओर खिसका दी, “खा लो”। छोटू के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था। एक तरफ़ मालिक का ग़ुस्सा दूसरी तरफ़ साफ़ प्लेट..जिसमें जूठन नहीं थी। </span><br/><span>“साहेब, जाने दो”। पर सुबोध ने कस के हाथ पकड़ लिया, “बैठे रहो”। </span><br/><span>“क्या नाम है तुम्हारा”? छोटू ने कोई जवाब नहीं दिया। </span><br/><span>“डरो मत, मालिक कुछ नहीं कहेगा, मैं बात कर लूँगा। बताओ क्या नाम है? सुबोध ने प्यार से पूछा। हालाँकि छोटू जानता था कि आज उसे बहुत मार पड़ने वाली है पर, प्लेट में रोटी का मोह छोड़ नहीं पाया। इसलिए प्लेट अपनी ओर थोड़ी और खिसका कर धीरे-से बोला” जी, जो मर्ज़ी कह लो। “</span><br/><span>“कुछ तो नाम होगा, परिवार कहाँ है?” </span><br/><span>“जी, कोई नहीं है।” कहकर जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा। एक तो सुबह का भूखा और अब क्या पता आगे क्या हो। </span><br/><span>“आराम से खाओ, कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।” यहाँ कबसे हो “? </span><br/><span>मेरे साथ चलोगे? छोटू का हाथ मुँह में ही रुक गया। </span><br/><span>“कहाँ? मालिक नहीं जाने देगा। माई ने दो साल पहले तीन सौ रुपये उधार लिए थे। कर्ज़ा दिया नहीं, और मर गई। मैं कहीं नहीं जा सकता।” </span><br/><span>“अगर उसे मैं पैसे दे दूँ तो? बस जब मैं उससे बात करूँ तो मेरा हाथ मत छोड़ना। उसे मनाना मुश्किल है पर वो मान जाएगा। तुम डरना नहीं।” छोटू की आँखों में चमक आ कर चली गई। “साहेब आपका भी ढाबा है?” सुबोध मुस्कुराया और बोला नहीं, तुम्हें पढ़ने स्कूल भेजूंगा। जाओगे? “छोटू की आँखों की चमक वापस आ गई। </span><br/><span>“साहेब, माई ‘रमेस’ कहती थी”। </span><br/><span>जल्दी से पानी के गिलास से वहीं हाथ धोए, और साहेब का हाथ कस के पकड़ लिया। </span><br/><span>----</span><br/><strong>(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं)</strong></p> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-51 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2019-08-08:5170231:Topic:9899442019-08-08T07:07:52.051Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><strong>(1) . बबिता गुप्ता जी</strong><br></br> <strong>मुसाफ़िर</strong><br></br> <br></br> <span>दोपहर के समय वृद्धाश्रम में सभी महिलाएँ कुनकुनी धूप का आनंद ले रही थी। कोई अख़बार, किताब पढ़कर अपना समय व्यतीत कर रहा था, तो कोई दूरदर्शन देख या रेडियो पर महिला जगत कार्यक्रम सुनकर अपने सुखद दिनों को स्मरण कर आनन्दित हो रहा था। तभी किसी स्त्रोता की फर्माईश पर गाना बजने लगा, मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर हैं ना ठिकाना हैं, बस ....चलते....जाना.....जिसे सुनकर सुमन की ऑखें भर आई। गाने का मुसाफ़िर शब्द सुन वो बीते दिनों…</span></p>
<p><strong>(1) . बबिता गुप्ता जी</strong><br/> <strong>मुसाफ़िर</strong><br/> <br/> <span>दोपहर के समय वृद्धाश्रम में सभी महिलाएँ कुनकुनी धूप का आनंद ले रही थी। कोई अख़बार, किताब पढ़कर अपना समय व्यतीत कर रहा था, तो कोई दूरदर्शन देख या रेडियो पर महिला जगत कार्यक्रम सुनकर अपने सुखद दिनों को स्मरण कर आनन्दित हो रहा था। तभी किसी स्त्रोता की फर्माईश पर गाना बजने लगा, मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर हैं ना ठिकाना हैं, बस ....चलते....जाना.....जिसे सुनकर सुमन की ऑखें भर आई। गाने का मुसाफ़िर शब्द सुन वो बीते दिनों में चली गई। तीन बहन भाईयो में सबसे छोटी थी, पर भाई से लङाई-झगङा होने पर दादी की डाँट का शिकार वो ही होती। विरोध करती तो लड़की होने की समझाईश देकर शांत कर दिया जाता कि क्यों भाई से पंगा लेती हैं, कुछ दिनों बाद ससुराल चली जाएगी तो क्या वहा भी ऐसे ही झगङेगी। ‘मैं कभी ससुराल ही नहीं जाऊँगी,’ तुनककर कहती। ‘बेटी तो मुसाफ़िर की तरह होती हैं, जन्म कही लेती हैं, तो अर्थी कही उठती।’ तब दादी की बात मुझे समझ नहीं आती। मायके छूटा, तो ससुराल को घर समझा। नाती पोते वाली हो गई। सब ठीक चल रहा था। जब कभी दादी की बात याद आती तो सोचती, दादी ग़लत कहती थी। पर पति के स्वर्गवासी होने के कुछ ही दिनों बाद दोनों बहुओं-बेटों में मेरी ज़िम्मेदारी उठाने को लेकर बहस आए दिन होती, कभी इसके घर तो कभी उसके घर दिन काटतीऔर एक दिन दोनों ने मेरी सुरक्षित देखरेख को लेकर निर्णय ले लिया और मुझे....-ऑखों से अश्रुधारा बहते देख पास बैठी हमदर्द सखी के पूछने पर ऑसू पोछते हुए बस यही कहा कि दादी सही कहती थी। </span><br/> <span>-----------</span><br/> <strong>(2) . ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी</strong><br/> <strong>मुसाफ़िर हूँ यारों</strong><br/> <br/> <span>खाली बोतल को देखकर साहब ने आँखें मली. फिर ज़ोर से चिल्लाए, “रामू! वह लड़की कहाँ गई?” </span><br/> <span>“जी साहब!” रामू ने कमरे में आते ही कहा तो साहब ने अपने खाली अंगुली और गले पर हाथ फेरते हुए कहा, “और मेरी सोने की अँगूठी और चैन कहाँ गई?” </span><br/> <span>“जी साहब!” रामू को सहसा विश्वास नहीं हुआ. यहाँ का परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ था. “साहब! आपके कमरे से लड़किया रोती हुई निकलती है. इसलिए हम ने ध्यान नहीं दिया.” </span><br/> <span>“क्या कह रहे हो?” साहब ने आँखें तरैर कर पूछा, “वह कब और कहाँ गई?” </span><br/> <span>“साहब! सुबह बहुत जल्दी चली गई थी,” रामू ने कहा, “जाते वक़्त कह गई थी. साहब से कहना कि जग के नीचे एक चिट्ठ पड़ी है. उसे पढ़ लें.” </span><br/> <span>“क्या!” साहब ने झट से जग उठाया. उसके नीचे से चिट्ठ निकाली और पढ़ी. फिर माथे पर हाथ रखकर धम्म से पलंग पर बैठ गए.</span><br/> <span>रामू ने साहब के हाथ में पकड़ी चिट्ठ पर निगाहे डाली, उसपर बड़ीबड़ी लिखावट में लिखा था, “मेरे हम सफर! पैसे लेकर जा रही हूँ. एक रात मुसाफ़िर थी! तुम जैसे नामर्द बलात्कारियों को एड्स बाँटती हूँ.” </span><br/> <span>---------</span><br/> <strong>(3) . डॉ० अंजू लता सिंह जी</strong><br/> <br/> <span>वसुंधरा की कोख में निरंतर बहने वाला जल विभिन्न रूप धरकर अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु हमेशा सचेत रहता उसे कुछ गर्व था इस बात का कि वह जीवन के लिए अपरिहार्य बन चुका है .</span><br/> <span>कूप, झील, ताल-तलैया, बावड़ी, जोहड़, नदी, समन्दरऔर बर्फीले पर्वतों से पिघलती शिलाएं सभी उसकी आन-बान शान बनकर साथ-साथ चलते रहे मीठे और खारे जल का अपना अपना स्थान मानव मन में जगह बनाने में सफल रहा.पर हाय री कीस्मत! धरा के अंतःमार्ग से बाहर निकलकर जल दीर्घ निश्वासें भरने लगा था भू का पथरीला, माटीमसृण, हरियाला, जलजीवजंतुओं की पनाहगार वाला रास्ताउसे थकाने लगा था.लहरों की चंचलता, नमक निर्मिति का पुनीत दानकर्म, द्रव्य खनिजों की बहुलता जैसे गुण तिरोहित हो रहे थे.</span><br/> <span>नेत्र बंद किए जल ने अपने पालक वरूण देवको याद किया.अपनी विशिष्टताओं का हवाला देकर शपथ ली धरा गगन के बीच सृष्टि के अंत तक साथ देगा उस मानवका, जो उसे सजाता, संवारता, पूजता और</span><br/> <span>उपयोग में लाता है.</span><br/> <span>अपनी खूबियों की गठरी लिए फिर चल पड़ा ‘जल’ ..अब उसे क़ैद करने के नाम पर बांधों में बाँधा गया, </span><br/> <span>नलों, पाइपों, वाटर हार्वेस्टिंग यंत्रों में रोका गया, बोतलों में पैक किया गया, पर्वतों को काट वृक्षों को धराशायी कर नन्ही छिटपुट धाराओं में झलक दिखाने भर का अवसर मानव अपनी खुशफहमी क़ायम रखकर देने लगा था.</span><br/> <span>कहीं छायादार पेड़ मिलते तो दो पल आराम ही कर लेता..तपती धूप में बेहाल वह ख़ुद को ही ढूँढने का प्रयास कर रहा था.कहीं कोई माटी का घड़ा या प्याऊ नहीं..ओफ्फ! मूर्च्छित हालत में देर तक उसांसे भरता वह संभला तो खेतिहर किसान के घर में हैंड पंप से फिसलते कनखियों से देख कान उधर ही लगा दिये.</span><br/> <span>किसान चार पाँच पियक्कड़ों से घिरा जुआ खेलता हुआ बीवी पर चीख़ रहा था-‘जा! टैंकर आ गओ.</span><br/> <span>ले आ पानी! चार दिन हो गए बिन न्हाए सबने.</span><br/> <span>-कुएँ, बावड़ी, ताल, जोहड़ सारे पाट राखे हैं तम मानुसों ने...के करै धरती मैया भी...मजबूर है.</span><br/> <span>धरती मैया की कोख से बाहर निकालके तमनै बड़े जुलुम करे हैं जी! इस पवित्तर जल पै रहम करो नई तो कहर बरसैगा..योई पानी बहाके ले जागा सारी दुनिया नै जी.</span><br/> <span>बूँद बूँद भर लो अंजुरी में अपनी...जे हाथ ही हैं म्हारे जो अच्छे करम कर सकै हैं...</span><br/> <span>यो बहता पानी थक लिया अब...इसनै हाथों से संभाल लो बस.</span><br/> <span>मत करो इसका दोहन...नई पीढ़ी नै भी साथ जान दो.</span><br/> <span>जल पानी की ठेली को देखकर कुछ पल के लिए ठिठक गया था ...उसे एहसास हो रहा था मानो</span><br/> <span>उसके थके हारे तपते तन पर किसी भले मानस ने ठंडे छींटे मार दिये हैं अपनी कोमल हथेलियों की अंजुरी में भरकर...</span><br/> <span>-------</span><br/> <strong>(4) . शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी</strong><br/> <strong>दुहाई रिमिक्स्ड</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>“मैं क़ाफ़िर हूँ यारो; न धरम है, न ठिकाना! ....</span><br/> <span>इबादत कर दिखाना है, पाखण्ड करते जाना है! बस, जीते जाना है! “</span><br/> <span>“तुम बेवफ़ा हरग़िज़ न थे; पर तुम वफ़ा कर न सके!” </span><br/> <span>“कितनी भलीं थीं, वो राहें हम जिन पे बाप-दादा संग थे चलते रहे!” </span><br/> <span>“तो फिर .. तू क़ाफ़िर तो नहीं! मग़र बदनसीब ये जग तूने देखा; तुझको काफ़िरी आ गई!” </span><br/> <span>“हाँ, प्यार का नाम मैंने सुना था मग़र; प्यार स्वार्थ है, ये जग ने दी है ख़बर!” </span><br/> <span>“जबसे धन से मुहब्बत तू करने लगा! तू उसी की इबादत करने लगा!” </span><br/> <span>“मैं शातिर हूँ यारो; न घर है, न ठिकाना! धन कमाते जाना है, बस मॉडर्न होते जाना है!” </span><br/> <span>“होठों पे असली बात, ये कैसे अब आई! सुधर जा मेरे भाई; दुहाई है दुहाई!” </span><br/> <span>महानगर के अत्याधुनिक अपार्टमेंट्स की पाँचवी मंज़िल के अत्यंत महँगे किराए के फ़्लैट के अत्याधुनिक वॉशरुम में पूर्णनग्नावस्था में स्नान-आनंद लेते हुए तुकबंदी के ये स्वर गूँज रहे थे। लिव-इन-रिलेशनशिप के सफ़र में सब कुछ था उन दोनों स्मार्ट धनवान युवा युगल के पास; असंतोष और कुंठा भी! </span><br/> <span>---------</span><br/> <strong>(5) . मनन कुमार सिंह जी</strong><br/> <strong>लोक-संस्कार</strong><br/> <span>---</span><br/> <span>वह विदा हो गई। सुहागन थी, पर नैहर में थी। पीहर वालों को तीसरे पक्ष से ख़बर हुई। सब लोग दूर-दूर नौकरी पर तैनात थे। नैहरवाले ज़रा भी प्रतीक्षा को तैयार न थे। उन्हें उसे जल्दी से जल्दी निपटाने की पड़ी थी। ख़ैर पीहरवाले उतरी लेकर उसका संस्कार करने से संतुष्ट हो सकते थे। उसके आकांक्षी थे। दूसरी तरफ़ से झिड़क दिया गया। कहा गया कि जो करना था, किया जा रहा है। प्राकृतिक मौत हुई है। एलर्जी हो गई थी बस। इधर लोग कहते कि सुहागन थी। उसका सब संस्कार ससुराल में होना चाहिए। सो पुतला-दहन-प्रक्रिया अपनाई गई। फिर श्राद्ध-कर्म इधर भी शुरू हुआ। उधर चाहे जो हो रहा हो, सो हो। बूढ़ी काकी कह रही थीं कि मुसाफ़िर तो चला गया। अब जिसे जो करना हो, करे। </span><br/> <span>-----------</span><br/> <strong>(6) . तेजवीर सिंह जी</strong><br/> <strong>मुसाफ़िरखाना</strong><br/> <br/> <span>देश के महान नेता अंतिम साँसें ले रहे थे। उन्हें अस्पताल ले जाने की जगह उनके महलनुमा बंगले को गहन चिकित्सा इकाई में तब्दील कर दिया था। ऐसा इसलिए कि आम जनता को वास्तविकता का पता ना चले। देश में बगावत होने का ख़तरा था। चिकित्सा के साथ-साथ महा मृत्युंजय मंत्र का जाप भी चल रहा था। संपूर्ण गोपनीयता बरती जा रही थी। फिर भी कुछ छुट पुट बातें लीक हो रहीं थीं। अफ़वाहें फैल रही थीं। आवास के आस पास पार्टी के ख़ास लोगों का जमावड़ा लगा था। उत्तराधिकारी की खोज जारी थी। वातावरण में खुसुर पुसुर भी जारी थी। कोई कह रहा था कि निपट गया लगता है। कोई कह रहा था कि बड़ी मोटी चमड़ी है, इतनी आसानी से मरने वाला नहीं है। </span><br/> <span>उधर यमदूत आ चुके थे। </span><br/> <span>“चलिए नेताजी, आपका समय पूरा हो गया।” </span><br/> <span>“क्या बकवास कर रहे हो? अभी तो मेरा कार्यकाल शेष है।” </span><br/> <span>“हम आपके मंत्रित्व के कार्यकाल की बात नहीं कर रहे। हम आपके जीवन काल के सफ़रनामे की बात कर रहे हैं।” </span><br/> <span>“कौन हो तुम लोग?” </span><br/> <span>“हम लोग यमदूत हैं। आपको यमराज ने बुलाया है।” </span><br/> <span>“अभी तो मेरा बहुत व्यस्त कार्यक्रम है। बिल्कुल भी समय नहीं है। बाद में आना।” </span><br/> <span>“हम आपके अधीन नहीं है। हम केवल यमराज के आदेश मानते हैं?” </span><br/> <span>“अच्छा ठीक है, यह लो मेरा मोबाइल, मेरी बात कराओ अपने मालिक से।” </span><br/> <span>“आपके इस यंत्र से उनसे बात नहीं हो सकती।” </span><br/> <span>“तो जैसे हो सकती है वैसे करा दो।” </span><br/> <span>“ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।” </span><br/> <span>“एक काम करो, कुछ ले देकर अभी इस मामले को टाल दो।” </span><br/> <span>“आपका आशय क्या है श्रीमान?” </span><br/> <span>नेताजी ने ढेर सारी नोटों की गड्डियाँ निकालकर उनके आगे रख दीं। </span><br/> <span>“श्रीमान, हमारे यहाँ यह नहीं चलते।” </span><br/> <span>“तो सोना चाँदी ले लो।” </span><br/> <span>“महोदय यह प्रलोभन व्यर्थ है।” </span><br/> <span>“इस घड़ी को टालने का कोई तो मार्ग होगा? अभी मुझे कुछ अनिवार्य कार्य करने हैं। इधर-उधर बहुत माल फ़ंसा पड़ा है। कुछ लोगों को भी ठिकाने लगाना है।” </span><br/> <span>उन यमदूतों में एक बुज़ुर्ग और कुछ समझदार सा दिखनेवाला यमदूत आगे आया, </span><br/> <span>“नेताजी, हम आपकी मंशा और परेशानी बख़ूबी समझ गए हैं। एक तरीका है। हम आपकी जगह किसी और को ले जा सकते हैं। ऐसा पहले भी भूल वश होता रहा है। भूल सुधारने में समय लगता है। तब तक लोग उसकी देह को जला देते हैं। तब वह भूल कागज़ों में ही दबा दी जाती है।” </span><br/> <span>नेताजी ने उसकी युक्ति पर ठहाका लगाया, “भाई क्या दिमाग़ पाया है? तुम्हें तो मेरा सेक्रेटरी होना चाहिए।” </span><br/> <span>“श्रीमान, इसमें एक समस्या और है। हम जिस इनसान को लेकर जाएँगे वह बीमार हो और यमराज के आगे मुँह ना खोले।” </span><br/> <span>“ऐसा क्यों?” </span><br/> <span>“ऐसा इसलिए कि बीमार आदमी की लाश तुरंत जला दी जाती है। दूसरा यमराज को वह कुछ नहीं बतायेगा तो छान बीन में अधिक समय लगेगा।” </span><br/> <span>“तो क्या मेरी जगह किसी अबोध बच्चे को ले जा सकते हो?” </span><br/> <span>“अबोध बच्चे तो आपकी आयु के अनुपात में अधिक ले जाने पड़ेंगे।” </span><br/> <span>“वह कोई समस्या नहीं है। हमारा ख़ुद का शिशु चिकित्सालय है। जितने बच्चे चाहिए उठा ले जाओ।” </span><br/> <span>------------</span><br/> <strong>(7). अर्चना त्रिपाठी जी</strong><br/> <strong>मंज़िल</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>दरवाज़े पर सामना एक लड़के से हुआ निश्चित ही वह अक्षत था, देखते ही कह उठा, “मैं पापा को बुलाता हूँ।” </span><br/> <span>निलय (पापा) व्हील चेयर पर ही बाहर आए। उम्र होने के बावजूद तेज यूँ ही बरकरार था, “कैसे आना हुआ?” </span><br/> <span>सपाट से शब्द सुन मैं पूरी तरह हिल उठी फिर भी मैंने हिम्मत बटोरते हुए कहा, “तुम्हारी बेटी सृष्टि, अब मुझसे सम्हाली नहीं जा रही” </span><br/> <span>“क्यों?” </span><br/> <span>नहीं कह सकी कि, “जिस राह पर मैं चली वहाँ जब तक पैसा हैं तबतक चमक, उसके बाद फिसलन और दलदल ही हैं। तुमसे अलग होकर मैं निर्बाध आकाश में विचरती रही लेकिन वही निर्बाध आकाश अपनी बेटी को नहीं दे सकती। क्योकि उस राह की कोई मंज़िल ही नहीं।” प्रत्यक्ष में : “तुमने कहा था कि एक दिन तुम अवश्य लौटोगी और आज मैं वापस आ गई।” </span><br/> <span>“बहुत देर कर दी तुमने लौटने में, मैं ज़िंदगी के कई पड़ाव पार कर आगे निकल चुका हूँ। रही सृष्टि की बात, उसकी ज़िम्मेदारी से मैं कभी भी पिछे नहीं हटा।” </span><br/> <span>उस देहरी पर मैं पूर्णतः काँप उठी जो कभी मेरी थी, “और मैं! </span><br/> <span>“वो तुम जानो, अगर उसके जीवन में तुम्हारी दख़ल होगी तो इस घर में उसके लिए भी जगह नहीं होगी क्योंकि यह घर बहू-बेटी वाला हैं।” </span><br/> <span>--------</span><br/> <strong>(8) . वीरेंद्र वीर मेहता जी</strong><br/> <strong>मंज़िल</strong></p>
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<p><span>नहीं आज नहीं। “कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।” ‘बार’ के बाहर खड़ा गार्ड भी हैरान था, सातों दिन पीने वाला शख़्स आज बिना पिए आगे निकल गया! </span><br/> <span>वह आगे बढ़ रहा था लेकिन उसके दिमाग़ में बेटी की बात घूम रही थी। “पापा, आज आप ड्रिंक नहीं करेंगें और चर्च में हमारे लिए ‘प्रेयर’ भी करेंगें।” </span><br/> <span>आख़िर वह उस दोराहे पर आ खड़ा हुआ, जिधर से एक रास्ता उस रैन-बसेरे की ओर से जाता था, जहाँ के गंदे-अधनंगे बच्चों के कुछ माँगने के लिए पीछे पड़ जाने की आदत के चलते, वह उधर जाने से कतराता था। और दूसरा रास्ता उस सर्वशक्तिमान के दरवाज़े पर जाता था जिस ओर जाना उसने महीनों पहले बंद कर दिया था, क्योंकि ठीक एक वर्ष पहले उसके हाथों हुई दुर्घटना में अपने परिवार को खोने का जिम्मेदार वह इस सर्वशक्तिमान को ही मानता था। </span><br/> <span>‘क्या करे और क्या न करे’ की स्थिति में वह कुछ देर सोचता रहा और फिर एक ठंडी साँस लेकर बुदबुदाते हुए रैन बसेरे की ओर चल पड़ा। “नहीं बिटिया नहीं! मैं जीवन भर भटकता रहूँगा इन्हीं गलियों में, लेकिन अब ‘उधर’ कभी नहीं जाऊँगा।” . . .</span><br/> <span>“अरे बाबू, कछु खाने को दे ना।” जिस बात से वह डर रहा था, वही हुआ। रैन बसेरे के ठीक सामने शोर मचाते बच्चों में से कुछ बच्चों के साथ वह बच्ची भी उसकी टाँगों से आ चिपकी। </span><br/> <span>“अरे चलो, दूर हटो।” सहज प्रतिक्रियावश उसने बच्चों को दूर धकेल दिया और तेज क़दमों से वहाँ से निकलना चाहा, लेकिन नीचे गिरे बच्चों में से बच्ची के रोने की आवाज़ से उसके पाँव अनायास ही थम गए। </span><br/> <span>“कहीं लगी तो नहीं? बोल न, क्या खाएगी बिटिया?” वह ख़ुद भी नहीं जानता था कि आज ऐसा क्यों हुआ लेकिन कुछ क्षणों में ही वह उस बच्ची के साथ और बच्चों को भी ब्रेड लेकर बाँट रहा था। </span><br/> <span>रोने वाला बच्ची अब मुस्करा रही थी और वह उसे एक टक देख रहा था। महीनों के बाद उसने आज ‘नैंसी’ को हँसते देखा था। “नैंसी मेरी नैंसी! वह बुदबुदाया। </span><br/> <span>“क्या देख रहे हो पापा? आज मैं बहुत ख़ुश हूँ, आज आपने मेरी दोनों बातें मान ली।” </span><br/> <span>“पापा! ... दोनों बातें।” वह सोते से जाग गया जैसे। “हाँ, मान ही तो ली मैंने दोनों बातें! ये ब्रेड खाते बच्चे भी तो नन्हें-नन्हें ‘ईसा’ ही हैं और ये बच्ची मेरी नैंसी. . ., सुनो बेटी।” उसने जाती हुई बच्ची को पुकारा। </span><br/> <span>“आज तुमने अपनी ही दुनिया में भटकते मुसाफ़िर को उसकी मंज़िल का पता दे दिया है। थैंक्यू... नैंसी, थैंक्यू।” </span><br/> <span>बच्ची कुछ नहीं समझी थी पर वह मुस्कराता हुआ आगे बढ़ चला था। </span><br/> <span>--------</span><br/> <strong>(9) . रचना भाटिया जी</strong><br/> <strong>मुसाफ़िर</strong><br/> <br/> <span>शिवानी की जबसे सगाई हुई थी उसे एक सपना अक्सर आने लगा था। यहाँ तक कि वो सोते में हड़बड़ा कर उठ जाया करती थी। माँ के समझाने के बाद भी डर कम नहीं हो रहा था। आज भी ऐसा ही हुआ जैसे ही शिवानी उठी पास में सोई माँ और दादी भी जग गईं। </span><br/> <span>“सो जा, सब डर चिंता दिमाग़ से निकाल दे, सब अच्छा ही होगा।” कहकर माँ शिवानी के बाल सहलाने लगी। </span><br/> <span>क्या हुआ बिट्टो, कोई बुरा सपना देखा क्या? </span><br/> <span>“हाँ, माँ जी, जबसे सगाई हुई तबसे दो तीन बार देख चुकी”। माँ ने जवाब दिया। </span><br/> <span>“बहू, मायके की आदतें छोड़ दो। बेटी ब्याहने लायक़ हो गई कुछ तौर-तरीके सीख लो, हमारे यहाँ जिससे पूछा जाता है, वही जवाब देता है”। बोल, बिट्टो “। </span><br/> <span>“हाँ दादी, सपने में मैं रेलगाड़ी का डिब्बा होती हूँ, आगे-पीछे जाने अंजाने चेहरे, कुछ बड़ों के, कुछ बच्चों के। रेलगाड़ी सिर्फ़ दो स्टेशन पर ही आती जाती है। एक स्टेशन पर मायके और दूसरे पर ससुराल लिखा है और दादी, मायके पर तो बहुत कम रुकती है। क्यों दादी”। </span><br/> <span>सुन बिट्टो, इसमें डरने वाली बात न है, लड़की मुसाफ़िर है और, मंज़िल मायके से ससुराल ही है। जो पुराने डिब्बे हैं वो रीति-रिवाज़ हैं जो तुम्हें ससुराल जा कर निभाने हैं, और नए डिब्बे आने वाला वंश है जो तुम लाओगी। “दादी मुस्कराते हुए बोली। </span><br/> <span>“दोनों स्टेशनों के बीच संबंध ठीक रखने के लिए तुम्हारा यानी मुसाफ़िर का कर्तव्य है हाँ, मायके में ज़्यादा दिन ठहरी लड़कियाँ भी अच्छी नहीं लगती। कहकर दादी ने करवट ले ली। माँ की आँखों से आँसू बह रहे थे। शिवानी ने भी सुबकते हुए कहा कि दादी जब सब मैं ही ठीक करूँगी तो मैं मुसाफ़िर क्यों। मैं तो मज़बूत डोरी हुई।” </span><br/> <span>अब दादी की आवाज़ में भी दर्द था। उठकर शिवानी के सिर पर हाथ फेरा, कहने को मायका ससुराल दोनों अपने घर हैं पर ….दादी वाक्य पूरा न कर सकी। </span><br/> <span>इसलिए ससुराल में ही निभाओ। साथ ही बहू के सर पर भी हाथ फेर दिया। </span><br/> <span>------</span></p>
<p><span><strong>(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं) </strong></span></p> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-50 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2019-08-08:5170231:Topic:9900282019-08-08T06:57:48.860Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><strong>(1) . महेंद्र कुमार जी</strong><br></br><span>ट्रॉली की समस्या</span><br></br><span>.</span><br></br><span>सालों पहले पूछा गया सवाल आज सच बनकर उसकी ज़िन्दगी के सामने खड़ा था। “रेलवे ट्रैक पर एक अनियन्त्रित ट्रॉली तेज़ गति से आ रही है। जिस ट्रैक पर ट्रॉली आ रही है उसपर पाँच व्यक्ति इस प्रकार बंधे हैं कि हिल भी नहीं सकते। आप वहीं लीवर के पास खड़े हैं। अगर आप लीवर खींच देंगे तो ट्रॉली दूसरे ट्रैक पर चली जाएगी। पर समस्या यह है कि उस दूसरे ट्रैक पर भी एक व्यक्ति बँधा है। आप क्या करेंगे? बिना कुछ किए पाँच…</span></p>
<p><strong>(1) . महेंद्र कुमार जी</strong><br/><span>ट्रॉली की समस्या</span><br/><span>.</span><br/><span>सालों पहले पूछा गया सवाल आज सच बनकर उसकी ज़िन्दगी के सामने खड़ा था। “रेलवे ट्रैक पर एक अनियन्त्रित ट्रॉली तेज़ गति से आ रही है। जिस ट्रैक पर ट्रॉली आ रही है उसपर पाँच व्यक्ति इस प्रकार बंधे हैं कि हिल भी नहीं सकते। आप वहीं लीवर के पास खड़े हैं। अगर आप लीवर खींच देंगे तो ट्रॉली दूसरे ट्रैक पर चली जाएगी। पर समस्या यह है कि उस दूसरे ट्रैक पर भी एक व्यक्ति बँधा है। आप क्या करेंगे? बिना कुछ किए पाँच लोगों को मर जाने देंगे या लीवर खींच कर एक की जगह पाँच को बचाएँगे?” सवाल ख़त्म होते ही सबसे पहले उसने उत्तर दिया, “वैरी सिम्पल प्रोफेसर! मैं एक की जगह पाँच को बचाऊँगा।” आज वही छात्र पटरियों के बीच लीवर के पास खड़ा था और ट्रॉली सचमुच उसकी तरफ़ आ रही थी। उसे जल्द ही कोई फ़ैसला लेना था। </span><br/><br/><span>एक साँस में शराब की बची हुई बोतल ख़त्म करने के बाद उसने उस पटरी की तरफ़ देखा जहाँ पाँच लोग बंधे थे। उन्हें देखते ही वो चौंक गया। उनमें से एक उसकी प्रेमिका थी। उसने फिर से वही दोहराया, “मुझ शादीशुदा औरत से प्यार करके तुम्हें क्या मिलेगा? किसी अच्छी लड़की को ढूँढो और उससे शादी कर लो। दो लोगों के मिलने से अगर सौ लोगों को तकलीफ़ पहुँचे तो ऐसे मिलने से न मिलना बेहतर।” और उसने फिर से वही सोचा, ‘बलि हमेशा प्यार करने वाले की ही क्यों ली जाती है?’ </span><br/><br/><span>उसने दूसरी वाली पटरी की तरफ़ देखा। वहाँ पर उसकी माँ बँधी थी। उसे यक़ीन नहीं हुआ। ‘ये कैसे हो सकता है? माँ तो मर चुकी है।’ पर उसका चौंकना अभी और बाक़ी था। माँ के पास ही उसके पिता जी बैठे थे जो माँ की रस्सियाँ खोलने का अथक प्रयास कर रहे थे। ‘पर पिताजी ने तो ख़ुदकुशी कर ली थी?’ </span><br/><br/><span>उसका सर चकरा गया। उसने फिर से दूसरी वाली पटरी की तरफ़ देखा। वहाँ उसका दोस्त खड़ा था। वो हमेशा की तरह चिल्लाया, “तेरी माँ तेरा हाल देखकर सदमे से मर गई और तेरे पिता ने इस ग़म से फाँसी लगा ली कि तू एक शादीशुदा औरत से प्यार करता है। पर उसने क्या किया? एक बार तेरा हाल तक न पूछा? उसके घरवालों को तुम दोनों के बारे में पता क्या चल गया उसने डर के मारे तुझसे रिश्ता ही ख़त्म कर लिया?” उसने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए पर फिर भी उसकी आवाज़ आती रही। “तू बेवक़ूफ़ है और वो ख़ुदगर्ज़। उसे मालूम था कि तुझ फटेहाल के साथ उसे बदनामी के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। इसीलिए उसने अपने पति और बच्चों को चुना, तुझे नहीं। अभी तो तू सिर्फ़ पागल हुआ है अगर तू मर भी जाए तो उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।” </span><br/><br/><span>ट्रॉली बिल्कुल पास आ चुकी थी और समय बेहद कम था। उसने अपना हाथ लीवर पर रख दिया। इससे पहले कि वो लीवर खींचता उसने आख़िरी बार माँ की तरफ़ देखा। इस बार उधर सिर्फ़ उसकी माँ ही नहीं बल्कि कुछ और लोग भी बंधे थे जिनकी शक्ल हू-ब-हू उसके जैसी थी। उसने दूसरी पटरी की तरफ़ देखा। उधर अब पाँच नहीं बल्कि पूरा ज़माना बँधा था। उसमें हर वो शख़्स शामिल था जिसके कारण वो आज अकेला था चाहे वो उसकी प्रेमिका के घरवाले हों या उसके यार-रिश्तेदार। </span><br/><br/><span>समय लगभग ख़त्म हो चुका था। उसने अपना हाथ लीवर से हटा लिया और ट्रॉली उस तरफ़ बढ़ गई जिधर पाँच लोग बंधे थे। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(2) . भूपिंदर कौर जी</strong><br/><span>(i) स्मृति</span><br/><span>.</span><br/><br/><span>कोयल की कूक में उसे मन में उठती हूक भी साफ़ सुनाई दे रही थी। आज वृद्धाश्रम में उसे पूरा साल होने को आया है। यदा-कदा उसे देखने उसके बहू बेटा आ जाता हैं और दिखावटी प्रेम की रसमी फुहार से तनिक मन को शांति देते हुए कहते हैं कि माँ बस कुछ और देर और घर में थोड़ा सा काम चल रहा है हो जाने दो फिर हम पहले जैसे साथ ही रहेंगे। अरे हाँ याद आया अब तो इस साल घर में ख़ूब आम लगे होंगे सुना है इस साल फल बहुत आया है। देखो शायद फल देखकर ही उन्हें मेरी घर वापसी की इच्छा जाग जाए। अभी वह सोच रही थी कि उसके कानों में आवाज़ पड़ी। अम्माँ चलो अब घर हमारे साथ आम का पेड़ भी तुम्हारे स्पर्श व प्यार का इंतज़ार कर रहा है। घर लौटाने के लिए पूरा परिवार ही उसे मनुहार कर रहा था और वह सुखद एहसास में खो........। </span><br/><span>---</span><br/><span>(ii). इन्सानियत</span><br/><br/><span>एक घंटा पहले सोनू का एक्सीडेंट बीच सड़क में ट्राली से टकरा के हुआ। कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया। तड़पता हुआ आखरी साँस गिन रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ सुअर के बच्चे को अकेला जानकर कर कुत्तों ने घेर लिया था। माँ उसकी थोड़ी दूर थी पर उसकी आवाज़ और चीख़-पुकार सुनकर वो एकदम दौड़ी आई और अपने बच्चे को बचाने की नाकाम कोशिश करने लगी जिसे देख और पास ही चर रहीं गाय और भैंस भी बच्चे को बचाने के लिए सब एकजुट हो दौड़ पड़े और उन्होंने हिम्मत करके कुत्तों को बहुत दूर भगा दिया था। अब बच्चा अपनी माँ के पास सुरक्षित हो सुख की साँस ले रहा था। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(3) . अर्चना त्रिपाठी जी</strong><br/><span>(i) दोगला</span><br/><span>.</span><br/><span>“क्यों? मज़ा नहीं आया? लगता हैं नीरस हो गया हैं मुझसे तुम्हारा मन” प्रतिदिन के निलय के राग को पुनः सुन विनीता के तनबदन में आग लग गई विक्षिप्त सी बड़बड़ाने लगी:</span><br/><span>“ना जाने तुमने भी क्या सोच रखा था? ब्याह किया तो सारी दुनिया ने तुम्हें सिर पर बैठा लिया। आवश्यक ही नहीं आरामतलबी के सामान से घर सुसज्जित हो गया। और पढ़ीलिखी मैं, बनकर रह गई माटी की गुड़िया। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रेम स्नेह के शब्द मुझे गाली लगने लगे क्योकि तुम भी उँगली उठाते थे मगर चाशनी में डुबो के!” आज उसने फ़ैसला कर लिया दो-टूक बात करने का</span><br/><span>“निलय, जो तुम हमेशा हमारे अंतरंग क्षण को उस रात के साथ तोलते हो मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मुझे लगता हैं तुम गाली दे रहे हो।” </span><br/><span>“जो मुझे सच लगता हैं, वही कहता हूँ।” </span><br/><span>“निलय्य्य!! क्या बक रहे हो? वो मेरी ज़िंदगी की स्याह रात थी जिसे अनदेखा कर कर ही तुमने मुझसे ब्याह किया था।” </span><br/><span>“नहीं कर सकता अनदेखा, उस समय मैं भी नारी मुक्ति के झंडे तले नाम कमाना चाहता था जिसका मौक़ा मुझे मिल गया था।” </span><br/><span>“ओह!! और नहीं बर्दाश्त कर सकती तुम जैसे दोगले को। उन पांचों ने मेरा चिरहरण एक बार किया लेकिन तुम हर पल कर रहे हो।” </span><br/><span>.</span><br/><span>(iii). नया पैतरा</span><br/><br/><span>.</span><br/><span>बेटी श्रेया को सरप्राइज़ देने पहुँची रेवती को बेडरूम में युवक और उसकी अस्तव्यस्तता सारी कहानी बयान कर गया था। </span><br/><span>“माँ, आप शाश्वत को लेकर परेशान हो?” बूत बनी रेवती से श्रेया ने सवाल कर ही दिया। </span><br/><span>“सुनिए, मैं और शाश्वत लिव इन रिलेशनशिप में हैं। यही हमारी वक्ति ज़रूरत भी हैं।” </span><br/><span>“वक्ति ज़रूरत? ये सब कुछ नहीं हैं बल्कि स्वयं की ग़लती पर पर्दा डालने के शब्द हैं। बेहतर हैं कि तुम दोनों शादी कर लो।” </span><br/><span>“नहीं, माँ हम किसी भी बंधन में नहीं बंधना चाहते। फिर ऐसे रहने में कोई परेशानी भी नहीं हैं।” </span><br/><span>“कैसे समझाऊं तुझे!” बड़बड़ाती रेवती अपने में ही खोती चली गई। अलग नहीं थे उसके विचार श्रेया से और उस समय नारी मुक्ति का झंडा भी बड़ी तेज़ी से फरफरा रहा था। सबकी राय और भय को परे कर वह भी चल पड़ी नारी मुक्ति की राह पर। तीसरी बार गर्भपात करने का सुझाव वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और परिणामस्वरूप वे नदी के दो किनारे हो गए थे। </span><br/><span>“माँ, फिर कहाँ गुम हो गई आप?” </span><br/><span>बेटी की आवाज़ सुन प्रत्यक्ष में रेवती बेटी को समझाने का प्रयास करने लगी, “लिव इन वैगरह कुछ नहीं हैं, यह स्त्री को छलने के लिए पुरुष का नया पैतरा हैं।” </span><br/><span>“ऐसा नहीं हैं माँ, यह आपका मुझे लेकर अत्यधिक प्रेम और भय हैं।” </span><br/><span>“अगर ऐसा नहीं हैं, तब ना ही कोई श्रेया पितृविहीन होती और ना ही कोई स्त्री रखैल।”</span><br/><br/><span>**************</span><br/><strong>(4) . मोहन बेगोवाल जी</strong><br/><span>(i) कल आज नहीं</span><br/><span>.</span><br/><span>जब भी घर में मैं अपने बाप के बारे में बात करता, तो इक अजीब-सा माहौल बन जाता कई बार तो बच्चे मेरी बात की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देते, तब मुझे लगता, मैंने कोई अनहोनी बात कह दी हो, ऐसा होने बाद मैं अक्सर ही उदास हो जाता हूँ और मेरी ये उदासी फिर कई दिन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती। </span><br/><span>आज तो हद हो गई, छोटे बेटे का ग़ुस्सा सातवें असमान पर था और उसकी ज़ुबान आग उगलने लगी थी, मेरी ये बात सुन कि “आज कल के बच्चे तो...?।” </span><br/><span>उनकी कही बात जगह मैंने अपने बाप की बात कहने की कोशिश की थी। </span><br/><span>“बस अपने बाप के बारे ही तो कहा था, उस ने अनपढ होते हुए भी हम सभी भाई बहनों को पढ़ाने की कोशिश की थी। </span><br/><span>हमारे लिए रहने को घर बनाकर दिया, अब समाज में जो हमें रुतबा है उन्ही की बदौलत है और इनका भी जो उसका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करते। </span><br/><span>पर पता नहीं, क्यूँ मेरे बाप के बारे सुनना क्यों नहीं चाहते, क्याँ ऐसे से उनके मन में हींन भावना पैदा होती है। </span><br/><span>“क्या मेरे बाप की मेहनत और जैसे उन्होंने ज़िन्दगी को गुज़रा क्या मुझे बात नहीं करनी चाहिए?” </span><br/><span>क्याँ उन राहों की बात करना पाप है, जिन पर चल हम इस महल्ले के आलीशान घर में रह रहें हैं और बेटों को अच्छे कालजों में पढ़ाई कराई थी। </span><br/><span>क्या बुज़ुर्गों का इतिहास उनके जाने के साथ ही दफ़न कर देना चाहिए.। </span><br/><span>पर जब उस दिन छोटे ने कहा था “अगर पुरानी बातें दफ़न करंगे तो तभी नया ख़याल दिमाग़ आएगा।” </span><br/><span>“तभी तो नई बातें आएँगी”, यही बात बेटे ने इक बार फिर कही। “</span><br/><span>“अगर नई बातें होगी तो तभी नई तब्दीली आएगी।” </span><br/><span>“आज कल नहीं और कल होने वाला आज नहीं बन सकता।” मगर ...</span><br/><span>आज मुझे भी ये महसूस हो रहा था कि ऐसा तभी होता है, “जब मैं कहता हूँ कि मेरे बाप के समय ऐसा होता था, ऐसा तो कभी नहीं हुआ करता था, तो आज ख़ुद ही मुझ को जवाब मिल गया था। अब समय वह नहीं रहा तो समय तब्दीली का दूसरा नाम है, अगर आज उस तरह का काम तुम करके दिखाएँ जब नहीं हीं सकता। </span><br/><span>“पर सवाल तो ये भी है, बहुत कुछ तो वैसा ही चल रहा है, जैसा सदियों से चलता रहा है, तो क्या ऐसा भी पुराना होना चाहिए जो नए से टकराने से हमेंशा ही डरता रहा है, तभी तो बीते के साथ प्यार पालता है।” और मैं बेटे के चेहरे से अपने सवाल का जवाब ढूंढ़ने लगा। </span><br/><span>.</span><br/><span>(ii).जख़्मी सपने</span><br/><span>.</span><br/><span>आज कल बाहर के मुल्क जाने के रुझान ने हमारे शहर भी लपेटे में ले लिया है। </span><br/><span>यही सुनने को मिल रहा है, कोई यहाँ रह कर, करे भी तो क्या पढ़ने के बाद भी ढंग की नौकरी न ही तनखाह मिलती है। </span><br/><span>फलाईट पकड़ने को हर कोई तैयार खड़ा हैं और इसके लिए हर तरह की जायज़-नजायज़ कोशिश हो रही है। </span><br/><span>बच्चे तो क्या आज कल माँ-बाप भी यही चाहते हैं बच्चे किसी तरह बाहर के मुल्क सेट हो जाएँ। ख़ासकर मध्य वर्गीय परिवार तो यही निशाना पाल रखा है। </span><br/><span>सुनीता को भी घर में अक्सर ऐसा ही सुनने को मिल रहा था, यहाँ तो कुछ नहीं? सुनीता पढ़ने में होशियार थी, और दोस्तों के कहने पर उस ने भी आइलेट्स के बैंड प्राप्त कर रखे थे...। </span><br/><span>मगर पढ़ने जाने के लिए तो पैसे भी चाहिए और वो भी डालरों में, जो उसके माँ-बाप के पास नहीं था, मगर उसके माँ-बाप भी चाहते कि सुनीता किसी तरह़़? </span><br/><span>जब यहाँ का पैसा डालर में तब्दील होता है, रुपये की क़ीमत डालर के मुकाबले तो कुछ नहीं रह जाती। </span><br/><span>रौशन ने इक दिन सुनीता के बाप बख़्शीश से कहा, “देख तेरी लड़की बहुत होशियार और इस ने आइलेट्स भी किया है, हम आपकी लड़की के लिए वीजा, पढ़ाई के लिए फीस के लिए पैसा लगाने को तैयार हैं। आप अपनी लड़की का रिश्ता मेरे बेटे से कर दो” </span><br/><span>बख़्शीश ने इक दम कहा, “पर ये कैसे हो सकता है?” आप अपनी लड़की को बाहर भेजना चाहते हैं, मगर इस लिए पैसा तो चाहिए। </span><br/><span>बख़्शीश ने घर आकर बात की, “ऐसा ही तो होता है, आजकल।” </span><br/><span>घर वाली ने कहा, “कोई बात नहीं, सुनीता ने विवाह तो उसे बाहर जाने के लिए करना है.” </span><br/><span>“ये तो कागज़ी विवाह होगा, वहाँ जा कर ये कोई अच्छा-सा लड़का देख विवाह कर लेगी। यही तो बस करना है ... उसको और सुनीता को बाहर भेजने के लिए। </span><br/><span>“ऐसा उसको अपनी लड़की के लिए करना होगा”, बख़्शीश हैरान होने लगा। </span><br/><span>कुछ दिनों में ही विवाह हो गया, कोर्ट से भी इसका प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया गया वीजा और फ़्लाइट की टिकटें भी बुक हो गई. अचानक ही इक शाम पहले अचानक ही रौशन के घर से चीके आने लगी, दबी ज़ुबान में हर कोई कह रहा था ये कैसे हो गया..........? </span><br/><span>लड़के ने ऐसा क्यों किया? हर इक की ज़ुबान पे था। </span><br/><span>उसकी आत्म हत्या पर सभी लोग हैरान थे, इक ने कहा, “कहाँ जाना चाहता था, उसको</span><br/><span>पर ऱौशन भेजना चाहता था, कह सके कि मेरा बेटा भी बाहर गया है और भेज दिया। “ये ख़बर सुनीता के घर भी पहुँच गई और उसका सपना भी ज़ख़्मी हो चुका था। </span><br/><span>**************</span><br/><span> (5) . शेख़ सहजाद उस्मानी जी</span><br/><span>“नंगों की होड़-दौड़!”</span><br/><br/><span>.</span><br/><span>(i)-दौर या दौरा :</span><br/><span>दर्शक ने प्रतिभागियों व सहभागियों की गतिविधियां देखकर अपने साथी से कहा, “समारोह का ड्रेस-कोड भले साड़ी ही क्यों न हो, जिस्म उघाड़ने की गुंजाइश और विधाओं की कलायें हर एक के पास हैं!” </span><br/><span>साथी ने मुस्करा कर कहा, “हर इनसान, हर प्रतिभागी और हर सहभागी की नज़र और नज़रिए में फ़र्क तो है ही! .. नंगेपन की होड़ और दौड़ से स्वयं को न रोकने का दौर भी तो है न!” </span><br/><span>...</span><br/><span>(ii)-मानसिकता :</span><br/><span>एक युवा दर्शक ने प्रतिभागियों व सहभागियों की गतिविधियां देखकर अपने युवा साथी से कहा, “ऐसे समारोह देखकर एक ही बार में देश-विदेश की औरतों के जिस्म की वैरायटी बाख़ूबी समझ में आ जाती है, है न!” </span><br/><span>उस साथी ने मुस्कुरा कर कहा, “फ़ैशन, वस्त्र-व्यवसाय, अंधानुकरण और औरतों की ही नहीं, मर्दों की ज़हनियत भी बाख़ूबी समझ में आ जाती है दोस्त!” </span><br/><span>.</span><br/><span>(iii)-हमाम (हम्माम) :</span><br/><span>एक शिक्षा-व्यवसायी बनाम आधुनिक शिक्षक से उसके दोस्त ने कहा, “सुना है कि तुम्हारे इकलौते बेटे के बॉडी-बिल्डर बनने के बाद तुम्हारी इकलौती जवान बेटी भी एक नामी जिम में कसरत करने जाने लगी है!” </span><br/><span>“तो!” </span><br/><span>“तो क्या? कुछ तो संस्कृति, धर्म और अपने कुटुम्ब की लाज का ख़्याल रखोगे या नहीं?” </span><br/><span>“पहले अपने गिरेबाँ में झांको मियाँ! गटर के कीड़े तो हो नहीं! ज़माने की दौड़ में तुम और तुम्हारा परिवार भी कहीं-न-कहीं, किसी न किसी तरह से शामिल दिखाई देगा तुम्हें!” </span><br/><span>.</span><br/><span>(iv) .‘अवलोकन व मूल्यांकन’ </span><br/><span>.</span><br/><span>एक मशहूर चित्रकार द्वारा सृजित एक पेंटिंग पर आधारित विश्लेषणात्मक चर्चा का नवीनतम आयोजन था। सभागार में प्रबुद्धजन उस चित्रकार के साथ ही उस बड़े से चित्र के समक्ष विचारमग्न थे। चित्र में हरा-भरा जंगल था या बाग़ान। बीच में कच्चे रास्ते पर कमर झुकाए एक बुज़ुर्ग लाठी के सहारे आगे की ओर बढ़ा चला जा रहा था। उपस्थित हर दृष्टि के साथ भिन्न नज़रिया था :</span><br/><span>“गांधी जी अत्याधुनिक ऑर्गेनिक वस्त्र पहने हुए अपने डिजिटल वतन की तरक़्क़ी का मुआयना करने निकले हैं!” एक बुद्धिजीवी ने कहा। </span><br/><span>“अपनों से ही प्रताड़ित बुज़ुर्ग सुख-शांति की तलाश में वॉकिंग करता हुआ साधना के लिए कहीं जा रहा है!” दूसरे ने कहा। </span><br/><span>“नहीं भाई, ये समस्याओं और परिवर्तनों से बोझिल अपना ही लोकतांत्रिक देश है! विकसित देशों का मुआयना कर रहा है! डील्स की जुगाड़ में है अपने वतन की ‘विरासत और सम्पदा’ रूपी लाठी के सहारे!” एक प्रबुद्ध युवा उद्योगपति ने पूरे विश्वास और आस्था के साथ अपनी छाती तानकर कहा। </span><br/><span>“मुझे तो भैया ये अपने योग-विशेषज्ञ प्रतीत हो रहे हैं! औषधीय-वृक्षों और जड़ी बूटियों के भण्डार की जाँच-पड़ताल पर निकले हैं अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए!” एक सुयोग्य योग-शिक्षक ने कहा। </span><br/><span>तभी एक पुरस्कृत एन.जी.ओ. के समाज सेवी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “भाईयो, सच तो ये है कि यह डिमेंशिया या अल्ज़ाइमर्स जैसे सिंड्रोम से पीड़ित बुज़ुर्ग है, जो अतीत में खोकर विशाल भवनों और कारख़ानों में हरे-भरे पेड़ देख पा रहा है और बड़े सवेरे शौच आदि के लिए कोई नदी तलाश रहा है!” </span><br/><span>इस तरह कइयों ने अपने पक्ष विश्लेषण करते हुए रखे। चित्रकार भौंचक्का सा रह गया। उसको अपने द्वारा ही बनाई सामान्य पेंटिंग में अपने ही मुल्क और दुनिया के सारे दृश्य नज़र आने लगे। उसकी भी एक राय बनी। माइक संभालते हुए, सबको शुक्रिया अदा करते हुए अब उसने कहा, “दरअसल यह कम उम्र में बूढ़ी सी हो चुकी नई पीढ़ी है, जो ‘अत्याधुनिक उच्च शिक्षा, डिजिटल दुनिया और फ़ैशन’ रूपी लाठी के सहारे ‘बढ़िया पैकेज वाले बड़े ओहदे, धन व ऐश्वर्य’ आदि की तलाश में घर-परिवार व धर्म-संस्कृति से पलायन कर देश-विदेश के ‘तकनीकी और औद्योगिक’ जंगल में भटक रही है!” </span><br/><span>अब सबकी निर्जल आँखें पुन: उस चित्र पर गहराई तक घुसी जा रहीं थीं। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(6) . मनन कुमार सिंह जी</strong><br/><span>(i) चीख़ का उत्सव</span><br/><span>.</span><br/><span>प्रतापी राजा देश के रिवाज़ के अनुसार जनता द्वारा फिर राजा चुन लिया गया। राज-पद के आकांक्षी अन्य लोग खिन्न हुए। क़ानून के स्थापित राज में हत्याएँ होने लगीं। मारा गया शख़्स कभी राज-पक्ष का होता, तो कभी कोई विरोधी या बेहशतगर्द। आज राजतिलक के पहले का जलसा हो रहा है। ख़ूब कोलाहल, शोर-शराबा है। बालाएँ नृत्य कर रही हैं। सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व मनोनीत राजा समर्थक जनता को संदेश दे रहा है। लोगों की बाँछें खिली हुई हैं। उधर बिल्लू की गोली लगने से जीवन-लीला समाप्त हो चुकी है। उसकी घरवाली को राजा की दूती सँवरी ढ़ाढस बँधा रही है.... “जाने दो मालकिन, बिल्लूजी स्वर्ग सिधारे हैं। राजमुकुट सही सिर पर सुशोभित कराने में उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा। राजा ने ख़ास उनके सत्कार्यों की याद दिलाने के लिए मुझे यहाँ भेजा है।” </span><br/><span>-बहुरिया, यह ढ़ोल-मृदंग अभी बंद करा दो। बहुत सालती हैं इनकी आवाज़ें “, बिल्लू की पत्नी बोली। </span><br/><span>-नहीं मालकिन, ऐसा मत कहिए। यह तो जनता का अपमान होगा, बिल्लूजी का भी। </span><br/><span>-कैसे? </span><br/><span>-यह बिल्लूजी की जीत है, मालकिन। इसे नहीं रोका जा सकता। आप ख़ुद को संभालिये। </span><br/><span>-मैं तो अपने अरमानों को थाम चुकी हूँ, सँवरी। तुम सब अपने उछाह को थाम सको, तो थाम लो। जाओ। यह ख़ुशी हमेशा थोड़े ही मिलती है। किसी के अरमानों की चीख़ का उत्सव ऐसा ही होता है, सँवारो! हाहाहा......हाहाहा! </span><br/><span>.</span><br/><span>(ii). पुनश्च</span><br/><span>.....</span><br/><span>सत्तासीन कबीले ने नई जीत का जश्न मनाया। विज़िट कबीले हार पर मंथन करने लगे। हार की वजहों में ख़ानदान परस्ती पर ज़्यादा उँगलियाँ उठीं। हुआ कि कबीले नए लोगों के सुपुर्द किए जाएँ। संगठन मज़बूत हों। जन-आकांक्षा-आधारित कार्य प्राथमिकता में रहें। प्रतिनिधियों के भाषणों से लगता जैसे प्रदेश के अलावे कबीलों में भी जनतंत्र दस्तक देने लगा है। एक कबीले ने हार का ठीकरा समूह के सिर फोड़ा। सरदार बचा रहा। फिर दूसरे, </span><br/><span>तीसरे कबीले यथाक्रम चलते रहे। सरदारनी वाले कबीले में ऐसी चर्चा होती ही न थी। अतः, वहाँ चुप्पी क़ायम रही। हाँ, सबसे पुराने पर लुप्तप्राय कबीले से पुरज़ोर आवाज़ें आतीं.....सरदार ने पराजय का ज़िम्मा अपने सिर लिया है। यह उनकी महानता है....कोई कहता कि हार हम सबकी है...। फिर हुआ कि समय की नजाकत को देखते हुए नेतृत्व-परिवर्तन लाज़िमी है। तब आवाज़ें आने लगीं कि कुछ समय में नए नेतृत्व की पहचान कर ली जाए, फिर पुराने को छुट्टी दे दी जाए। फिर समवेत स्वर में लोग चिल्लाने लगे कि यदि वर्त्तमान नेतृत्व बदला, तो फिर कबीला तितर-बितर हो जाएगा। इस ख़ानदान का बड़ा योगदान है इस कबीले के निर्माण में और प्रदेश की आज़ादी हासिल करने में भी। जनता के लोग मूक-बधिर-से थे। वे अपना निर्णय दे चुके थे। कुछ बच्चे शोर मचा रहे थे--</span><br/><span>फिर वही बात, फिर वही बात! </span><br/><span>तेरे घर अँधेरी रात, अँधेरी रात!! </span><br/><span>उस कबीले के लोग कहते, “पुनश्च, पुनश्च दासोहं”। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(7) . बबीता गुप्ता जी</strong><br/><span>निर्णय</span><br/><br/><span>देश की सरहद पर अचानक दुश्मनों द्वारा हमला किए जाने के कारण छुट्टी पर गए सैनिकों तुरंत पोस्ट पर हाज़िर होने के आदेश प्रेषित कर दिये गए.</span><br/><span>सायरन की आवाज़ सुनते ही सभी सैनिक अपनी ड्यूटी स्थल पर प्रस्थान कर गए, चारों ओर अरफा-तरफ़ी मची हुई थी, दिल दहला देने वाली गोला बारूदों की आवाज़ें आसमान को फाड़े जा रही थी. घायल सैनिको को उपचार के लिए कैंप की ओर ले जाया जा रहा था और शहीद हुए सैनिको को राजकीय सम्मान के साथ राष्ट्रीय झंडे में लपेट कर घर पहुचाने की व्यवस्था की जा रही थी, साथ ही सरकार की ओर से शहीदों के परिवार के लिए राहत राशि की घोषणा की गई.</span><br/><span>टेलीवीजन पर चल रहे समाचार को देख नलिनी को पुरानी यादों में खड़ा कर दिया. वो, तिवारी जी के पड़ोस में अपने फ़ौजी पति, धीरज के साथ रहती थी. मिश्रा जी का बेटा धीरज फ़ौज में था, वो भी आदेश मिलते ही सरहद पर देश की रक्षा के लिए अपनी पत्नी नलिनी और दूध मुंही बच्ची पीहू को, मुझसे देख-रेख की कहकर चला गया था. धीरज ने अपनी मर्ज़ी की शादी करने पर, उसके घर वालों ने अपने से बेदखल कर दिया था.</span><br/><span>आज तड़के सुबह सरकारी आदमी द्वारा तार नलिनी को दिया, तो उसके पढ़ते ही वही चक्कर खाकर गिर पड़ी. धीरज के शहीद होने की ख़बर हवा की तरह पूरे गाँव में फ़ेल गई और पता लगते ही धीरज और नलिनी के माँ-बापू भी सब कुछ भूलकर एक पैर पर दौड़े चले आए.</span><br/><span>पूरे राजकीय सम्मान के साथ धीरज का अंतिम संस्कार किया गया। तत्पश्चात नलिनी के पिताजी, उसके पिताजी के सामने आग्रह पूर्वक कह रहे थे,-‘नहीं हो तो कुछ दिनों के लिए मैं अपनी बेटी को घर ले जाना चाहता हूँ’ . ‘</span><br/><span>‘अरे आप कैसी बातें करते हैं! वो हमारी बहूँ हैं. नातिनी हमारे घर की रौनक हैं, वो काही नहीं जाएगी.’ </span><br/><span>‘लेकिन साहब, दोनों अकेली कैसे रहेगी? वहा भैया-भाभी हैं, मन लगा रहेगा.’ </span><br/><span>‘वाह! साहब जी आपने अपना सोचा. हमारी बिटिया कुछ दिनों बाद ससुराल चली जाएगी. फिर हम बुड्डे – बुड्डी को कौन सहारा हैं.’ </span><br/><span>दरवाज़े के पीछे खड़ी दोनों का अचानक से उत्पन्न असीम स्नेह को देख सोच रही थी, अनायास ये नफ़रत में प्यार का गुड़ कैसे समा गया? अपनी खीचा-तानी सुन उसका सब्र टूट गया और सामने आकर किसी के साथ ना जाने का मन जता दिया .</span><br/><span>‘पर, बेटी, क्या हम तुम्हारे कोई नहीं हैं?’ नलिनी के पिताजी ने याचना भरे लहज़े में कहा.</span><br/><span>‘उस दिन आपका ये अधिकार कहा चला गया था, जब ससुराल से ठुकराने के बाद मैं, आपके पास आई थी.जब आपने ससुराल ही तेरा घर हैं, कहकर मुँह छिपा लिया था.’ </span><br/><span>अपने श्वसुर की तरफ़ मुतालिब होकर बोली, ‘और पिताजी आपने तो कलंकिनी कहा था, आज कैसे गृहलक्ष्मी बन गई?’ </span><br/><span>दोनों नलिनी की बात सुन, सिर झुका, आगा-पीछा सब भूलकर, साथ चलने का आग्रह करने लगे. बात पूरी सुने बिना नलिनी तपाक से बोली, ‘कही यह मोह सरकार के दान ने तो नहीं जागृत कर दिया?’ </span><br/><span>दोनों अपने मन के चोर पकड़े जाने पर, लड़खड़ाती जुवान से कहने लगे, ‘कैसी बात करती हो? हम तो तुम्हारे अपने...........’ </span><br/><span>‘मुझे किसी की ज़रूरत नहीं, ज़िंदगी की सच्चाई का पाठ सीख लिया हैं, ख़ुद निर्वाह कर लूँगी।’ अपना अंतिम निर्णय सुना अंदर चली गई.</span><br/><span>विचारों में खोई नलिनी की तंद्रा पीहू की आवाज़ ने तोड़ी, नज़र उठाकर देखा, तो मिलिट्री की ड्रेस पहने पीहू खड़ी मुस्करा रही थी, उसमें धीरज की परछाई..देख आँखें एसजेएल हो गई, उसे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं, फख्र था.</span><br/><span>----</span><br/><strong>(8) . आसिफ जैदी</strong><br/><span>‘क्या लाया’ *</span><br/><span>.</span><br/><span>सवेरे उसकी पत्नी की चीख़ने चिल्लाने, कोसने की आवाज़ ने उसकी नींद उड़ा दी पता नहीं रात देर कब नींद लगी थी, सोचने लगा अब मैं क्या करूँ, पत्नी के ताने, लोगों के सवाल, क्या ख़ुद से लड़ूं, मैं तो जीवन भर का मज़ाक बनकर रह गया, ‘हे भगवान! मुझे इतना मूर्ख क्यों बनाया के अपनी क़बर ख़ुद खोद ली’। </span><br/><span>हुआ युूं के रामू बढ़ाई ने परिवार को पालते हुए तंगी से लड़ते हुए बड़ी मुश्किल से पंद्रह सौ रुपया जमा किया था, कि एक दूध वाली गाय ले आए ताकि बच्चों को दूध घी मिल सके, और कुछ गोबर कंडे भी हो जाए, रुपया लेकर कल पास के गाँव में हाट-बाज़ार करने गया था हाट ज़रा तेज चल रहा था सोचा आधे दिन बाद कुछ ठंडा हो तो मोलभाव करें, पेड़ की छाँव में सुस्ताने बैठ गया, कई मनक बैठे थे, एक मनक आया और पास बैठ गया बीड़ी निकाली रामू की तरफ़ बढ़ा दी रामू ने बिना संकोच के ले ली और मुँह में लगा ली, उसने पहले रामू की बीड़ी सुलगाई फिर अपनी, लंबा कश मारा और बोला: कौन गाँव के हो? </span><br/><span>रामू: “ई कालू खेड़ा..भाव तेज है गाबण गय्या लेनो है, तमारे कईं लेनो है”? </span><br/><span>बीड़ी वाला: “का बतऊं दादा एक बेल मरी गयो है जोड़ी बनानो है, सामने बेल वाले से भाव पटियो नी, मगजमारी हुई गई म्हारे बेल देने को राज़ी कोणी, बोल रियो है दूसरा को फ़्री दइ दूँ, पर थारे को नी दूँ, जोड़ी तो उसी से बने म्हारे बेल की”। और उसने रामू से मदद माँगी। रामू ने मोल-भाव करके पन्द्रह सौ रुपये में बेल ले लिया, और उस बीड़ी वाले के बताई जगह पर पुल के पास में बैल को ले गया! </span><br/><span>बीड़ी वाले ने कहा था “मैं सत्रह सौ रुप्या में बेल ले लूँगा, तम-भी बढ़िया गाय लइ-ली जो ‘, रामू बढ़ाई को इंतज़ार करते-करते शाम से रात हो गई लेकिन वह बीड़ी वाला नहीं आया, थक-हार कर रामू बेल घर ले आया और बाड़े में बांध दिया। बस फिर क्या था, सवेरे पत्नी की चिल्ला चोट” गाय लेवाणे गयो थो, बैल उठा लायो... “। गाँव वालों की जिज्ञासा पत्नी की जुबानी..और रामू बेचारा...। </span><br/><span>---</span><br/><strong>(9) . प्रतिभा पाण्डेय जी</strong><br/><span>दृष्टिहीन</span><br/><br/><span>धृतराष्ट्र को आभास हो रहा था कि संजय आज विचलित है। </span><br/><span>“उस भयावह युद्ध का वर्णन मुझे सुनाते हुए भी तुम विचलित नहीं हुए थे संजय। आज क्यों विचलित हो? ‘धृतराष्ट्र ने संजय का हाथ थाम लिया। </span><br/><span>“युद्ध कहाँ समाप्त होते हैं महाराज। दिव्यदृष्टि मुझ अभागे का पीछा ही नहीं छोड़ती।” </span><br/><span>“क्या देख रहे हो तुम इस भारत भूमि में?” धृतराष्ट्र उतावले हो उठे। </span><br/><span>“खेमे ही खेमे। कभी एक-दूसरे में गड्डमड्ड दिखते हैं तो कभी अलग-अलग।” </span><br/><span>“धर्म अधर्म के अलग-अलग खेमे होंगे ना?” धृतराष्ट्र की आवाज़ में अपने पुत्रों को अधर्म से अलग नहीं रख पाने की पीड़ा स्पष्ट थी। </span><br/><span>‘नहीं महाराज यहाँ तो धर्म की परिभाषा ही बदली दिख रही है। “</span><br/><span>“और वो छलिया चालाक कृष्ण वो कहाँ है? उसने तो हर युग में आने की बात कही थी ना।” धृतराष्ट्र की आवाज़ में पीड़ा के साथ दबा हुआ रोष भी था। </span><br/><span>“कृष्ण कहीं नहीं है महाराज। हाँ उनका भेस धरे अलग-अलग खेमों में ज्ञान बाँटते हुए लोग अवश्य दिख रहे हैं। और... और महाराज संजय भी हैं।” संजय की आवाज़ में पीड़ा मिश्रित व्यंग्य था। </span><br/><span>“तुम जैसी दिव्यदृष्टि वाला संजय यहाँ भी है! इस युग में भी! असंभव।” धृतराष्ट्र अचंभित थे। </span><br/><span>“एक नहीं कई संजय हैं राजन। हर खेमे में अलग-अलग। अपने खेमे के अनुसार युद्ध का वर्णन सुनाते हुए।” </span><br/><span>कुछ पल के मौन के बाद धृतराष्ट्र ने काँपते हाथों से संजय का हाथ थाम लिया और पूछा “क्या मुझ जैसा अभागा दृष्टिहीन धृतराष्ट्र भी है?” </span><br/><span>“हाँ वो भी है। कई हैं। वस्तुतः हर युग में युद्ध का कारक दृष्टिहीन मोहग्रसित विवेक ही तो होता है। आप हर युग में हैं राजन।” </span><br/><span>धृतराष्ट्र के काँपते हाथों को थपथपाते हुए संजय के हाथों में दो अश्रु बूँदें गिर पड़ीं। </span><br/><span>----------</span><br/><strong>(10) . कनक हरलालका जी</strong><br/><span>(i) काँटे</span><br/><span>......</span><br/><span>“सुनो, प्रिया, मेरी बात ध्यान रखना। आज से तुम्हारी और ज्योति के परिवार की दोस्ती ख़त्म। अब न तो उससे मिलने जाओगी न कोई सम्बन्ध रखोगी।” “क्यों क्या हो गया?” “जब बिज़नेस साथ में शुरू किया तो फ़ैसला दोनों का चलेगा। उसने मुझसे पूछा नहीं। वह अपने को सर्वोपर समझता है तो करे अकेले काम। मुझे उन लोगों से नहीं रखने रिलेशन्श। और तुम भी सुन लो, ख़बरदार जो एक-दूसरे से मिली या बात की। अब से दोनों का मिलना जुलना, घर आना जाना, पार्टी मुलाकात सब ख़त्म।” “पर वह मेरी बचपन की सहेली है, तुम्हारी उनकी दोस्ती तो अपनी शादी के बाद हुई है। मैं उसे ऐसे कैसे छोड़ दूँ।” “मैं नहीं जानता। वह अपने आपको समझता क्या है। नहीं, अब उनसे कोई संबंध नहीं....। बस....।” बचपन से आज तक प्रिया की हर समस्या का हल ज्योति के पास रहता था चाहे माँ की डाँट हो या भाई बहन का झगड़ा, बाग़ से आम चुराने हों या मैथ्स के सवाल गूगल की तरह हर समय ज्योति मौजूद। आज भी ज्योति ही रास्ता थी। “हलो ज्योति ..मैं... ये कैसे हो सकता है... मुझे बताओ...। आखिरकार दोस्ती हमारी, पहचान हमारी, प्रेम हमारा। ये लोग तो बाद में आए। इनका मनमुटाव हमारा मनमुटाव कैसे बन गया। हमारे पतियों की लड़ाई हमारी लड़ाई कैसे बन सकती है। अब तू ही बता।” ज्योति के घर भी यही फ़रमान जारी था और इस बार उसके पास भी कोई समाधान नहीं था। उसने भी हथियार डाल दिए थे। </span><br/><span>---------</span><br/><span>(ii). नया इन्कलाब</span><br/><span>.</span><br/><span>आजकल भेड़ों में जागृति की हवा में साँस लेने का नया शौक़ चल पड़ा था। सभी भेड़ें इकट्ठा होकर अपने भविष्य की जागृति के लिए चिंतित अपने अपने मत प्रकट करने के लिए मीटिंग कर रहीं थीं। जो कि उनकी फ़ितरत के लिए एक नया इन्कलाब था। “पर यह तो हमारा धर्म नहीं है, हमें अपने गडेरिए के दिखाए रास्ते पर ही चलना चाहिए।” “हाँ जी, हमारी बुज़ुर्ग भेड़ जिधर चलेगी हम भी उधर ही तो चलेंगी।” “वे हमेशा हमारा भला करती रही हैं।” “हमें भरपेट घास मिल जाए और क्या चाहिए। ये पेट कभी भरता ही नहीं है।” “वह नया गडेरिया कहता है हमें नरम और ताज़ा घास खिलाएगा।” “ऐसे रास्ते पर चराने ले जाएगा जो पहाड़ी की तलहटी में है।” “जहाँ की पहाड़ी से रास्ता सीधे स्वर्ग की ओर जाता है।” “वहाँ ठंडी हवा भी मिलेगी, क्योंकि केवल खाना ही नहीं प्रकृति की अन्य सुविधाओं पर भी हमारा हक़ है।” “हम हरियाली के रस्ते वालों के साथ जाएँगी” “हमारा गडेरिया फूलों की घाटी से ले जाएगा।” “ठीक हैजी जिसका जिधर मन हो जाए।” बाहर खड़े गडेरिए भेड़ों को जितना हो सके अपने दल की रेवड़ में हांक ले गए। आगे गडेरिए पीछे भेड़चाल में रेवड़। उस शाम गडेरियों ने भेड़ों के मांस की शानदार दावत की। आखिरकार कटना भी उनकी फ़ितरत थी और उसमें कोई नया इन्कलाब नहीं आया था। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(11) . ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश</strong><br/><span>नसीहत</span><br/><span>.</span><br/><span>थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, “तू मेरी बात मान लें. तू रोज़ घूमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहाँ मानती है?” माँ ने नाराज़गी व्यक्त की.</span><br/><span>“वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.” </span><br/><span>“अरे! मैं तुझे जलील कर रही हूँ,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, “तेरे भले के लिए कह रही हूँ. इससे तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.” </span><br/><span>“तब तो तू भी इसके साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, “आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आपको क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूँ. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूँ. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.” </span><br/><span>“और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, “आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है.......” </span><br/><span>बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, “और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आपको मेरे इलावा कोई काम-धंधा नहीं है क्या?” </span><br/><span>यह सुनकर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देखकर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, “मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथपैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएँगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.” </span><br/><span>इसपर पत्नी चिढ़ पड़ी, “आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इसपर पति के मुँह से अचानक निकल गया, “आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.</span><br/><span>“क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखें लाल हो गई .</span><br/><span>**************</span><br/><strong>(१२) . केशव</strong><br/><span>(i). चरित्रहीन</span><br/><span>.</span><br/><span>“इस कॉलेज की सभी लड़कियाँ चरित्रहीन हैं।” </span><br/><span>“मुझे तो आप चरित्रहीन लगते हैं, आप यँहा चाय बेचते हैं या लड़कियों को देखते हैं।” </span><br/><span>‘देखते थोड़े न हैं दिख जाती है, आँख तो नहीं मूँद सकते। “</span><br/><span>“दिख जाती हैं का क्या मतलब, लड़कियाँ हैं कोई सपना तो नहीं।” </span><br/><span>“अरे आप तो भरक गए, अपने कस्टमर पर तो गूगल और फसेबूक भी नज़र रखते हैं। उन्हें तो सरकार ने भी छूट दे रखी है।” </span><br/><span>लेकिन ...</span><br/><span>“लेकिन क्या? हम कोई उनके निज़ी ज़िन्दगी में तो नहीं झाँक रहे, </span><br/><span>जो वो सड़क पर सार्वजनिक करतेे हैं बस वही देखते और कहते हैं। “</span><br/><span>“मैं ये कह रहा हूँ कि फसेबूक नहीं होता, फ़ेसबुक होता है।” </span><br/><span>“नाम फ़ेसबुक है, काम फसेबूक। सब बुक आप ख़त्म कर सकते है, फसेबूक में जो फसता है फिर नहीं निकलता।” </span><br/><span>“वाह भैया! ये बात तो क्लासिक जैसी कड़क है, लाइए इसी बात पर एक। माचिस भी दीजिएगा।” </span><br/><span>“आज बीड़ी नहीं?” </span><br/><span>“नहीं। अब साहब बनने वाले हैं, बीड़ी स्टेटस के हिसाब से ठीक नहीं। अब सिगरेट की आदत डालनी पड़ेगी।” </span><br/><span>“तो अब दारू भी...” </span><br/><span>“वो छोड़िए, आप क्या कह रहे थे लड़कियाँ कैरेक्टर लेस हैं!” </span><br/><span>“हाँ” </span><br/><span>“वो कैसे?” </span><br/><span>“हर दिन किसी दूसरे लड़के के साथ, हाथ में हाथ डाले घूमतीं है। ऐसे लिप्ट कर चलतीं हैं जैसे मनी प्लांट हो। हाथ छुटा तो ज़मीन पर गिर जाएँ।” </span><br/><span>“तो इससे आपको क्या परेशानी है।” </span><br/><span>“परेशानी! हे हे, हमें तो फ़ायदा है, ग़म के मारे लड़के दो चार ज़्यादा सिगरेट खींचते है। </span><br/><span>और कुछ लड़कियाँ तो मेरी</span><br/><span>ब्रांड एम्बेसडर हैं वो आतीं हैं</span><br/><span>भीड़ बढ़ जाती है दुकान पर। “</span><br/><span>“मैंने सोचा आप उनके कपड़े की बात...?” </span><br/><span>“अजी कपड़ों से हमें कोई आपत्ति नहीं, </span><br/><span>जितने छोटे होंगे, लड़के उतना ज़्यादा घूरेंगे, घूरने के लिए दुकान पर बैठेंगे। बैठेे तो कुछ ख़र्च भी करंगे। </span><br/><span>इसी तो धंधा... “</span><br/><span>“बढ़िया है। ख़ैर मैं अब चलता हूँ। पैसे खाते में...” </span><br/><span>पर जाते-जाते एक बात कहे जाता हूँ। एक हीं लड़की के साथ बारी-बारी से घूमने वाले कई लड़के भी तो कैरेक्टर लेस हो सकते हैं? “</span><br/><span>.</span><br/><span>(ii). संभ्रांत लोग</span><br/><span>.</span><br/><span>बिहार में दो तरह के लोग ही आम बोलचाल में खड़ी हिंदी बोलते है| एक तो दिल्ली पंजाब से लौटे मज़दूर, जिनकी पेट की आग ने उनकी बोली, संस्कृति उनसे छीन ली है | दूसरे वो तथाकथित संभ्रांत लोग, जिनको अपनी बोली या संस्कृति में कुछ रखने लायक़ ही नहीं लगता | ये कहानी पहले टाइप वालों की है|</span><br/><span>मुजफ्फरपु रेलवे स्टेशन से बैरिया बस स्टैंड जाने वाले ऑटो में बैठा हूँ | रात काफ़ी हो गई है|</span><br/><span>चुस्त जीन्स और टीशर्ट पहने, कंधे पर बैग लटकाये दो लड़के ड्राइवर से अशुद्ध लेकिन खड़ी हिंदी में बात कर रहे है |</span><br/><span>ऑटो ड्राइवर : कँहा जाना है? </span><br/><span>लड़का : सीतामढ़ी जाऊँगा |</span><br/><span>ऑटो ड्राइवर : बईठो |</span><br/><span>लड़का : सीट कँहा है, दो आदमी हूँ? </span><br/><span>ऑटो ड्राइवर : पूरा टेम्पो तो खाली है। (ये ऑटो वालों का पसंदीदा तकियाकलाम है) </span><br/><span>ऑटो ड्राइवर मेरी तरफ़ इशारा करते हुए “ए भईया तनी घसक जाइए” </span><br/><span>ड्राइवर के आदेश का पालन करते दोनों लड़के ऑटो की अगली सीट पर बैठ गए | जी हाँ कुल चार लोग, दिल्ली मुंबई में जँहा सिर्फ़ एक ड्राइवर बैठता है, वँहा चार बिहारी आसानी से बैठते है|</span><br/><span>मेरे दाहिनी तरफ़ ड्राइवर बाईं तरफ़ जीन्स टीशर्ट धारी लड़का| ऊपर से वो अपना बैग अपनी गोद में यूँ लेकर बैठा है जैसे जोंक शरीर से चिपकता है। निचे रखने को तैयार नहीं। </span><br/><span>अब जब पसीने और बदबू से मेरे नाक में दम होना शुरू हुआ तब मैंने बगल वाले लड़के को ध्यान से देखा। </span><br/><span>उसके कपड़ों की हालत बता रही थी कि पश्चिम से पूरब की यात्रा उसने भारतीय रेलवे के जनरल डब्बे के फ़र्श पर की है| उसके चेहरे पर घर लौटने की ख़ुशी नहीं है, एक दर्द है, मुझे लगा मैं इस दर्द को जनता हूँ|</span><br/><span>मैं : कँहा से आ रहे हो, दिल्ली? </span><br/><span>लड़का : नहीं अमृतसर। </span><br/><span>मैं (मुस्कुराता हुआ) : बैग बहुत कस के पड़के हो, बहुत कमाये हो लगता है? </span><br/><span>लड़का (और उदास होता हुआ) : किसी तरह भाग कर आया हूँ। </span><br/><span>मैं (अपनी हँसी पर झेंपता हुआ) : अरे, का हो गया था? कौन पकड़ लिया था? </span><br/><span>लड़का : मालिक</span><br/><span>मैं: कौन मालिक? क्या काम करते थे? </span><br/><span>लड़का: नहीं बता सकते। </span><br/><span>मैं (आश्चर्य मिश्रित कौतूहल से) : ऐसा क्या काम करते थे? आज कल तो लोग क्या-क्या कर के नहीं शर्माते, तुम ऐसा क्या कर आए! </span><br/><span>लड़का (बहुत देर चुप रहने के बाद) : गोदाम में इलक्ट्रोनिक सामान अंदर बहार करता था। </span><br/><span>मैं : तो इसमें बुरा क्या है? छोड़कर काहे आ गए? </span><br/><span>लड़का : मालिक दो महीना से पैसा नहीं दिया। जितना पैसा लेकर गया था ख़त्म हो गया। खाने का भी पैसा नहीं था। </span><br/><span>मैं : वँहा कैसे फँस गए? </span><br/><span>लड़का : गाँव का ही एक आदमी ले गया था। अब जब वो वापस आएगा तब उसी से सारा वसूलेंगे। </span><br/><span>पहली बार उसे चेहरे पर थोड़ा तेज आया। शायद यह इस बात का संकेत था कि वसूली सिर्फ़ पैसे की नहीं होगी। खाली हाथ लौटने पर जो गाँव भर में जग हसाई होगी उसकी भी होगी, धोखे और अपमान की भी होगी। </span><br/><span>बातचीत के बिच उसने मुझे एक नंबर मिलाने को कहा, किसी दोस्त को ये बताने के लिए की वो बस स्टैंड पहुँचने वाला है, वो भी आ जाए। आज कल जिओ से फ़्री कालिंग होती है, इसलिए मुहे फ़ोन लगाने में कोई झिझक नह हुई। इन्हीं बातों में मेरा स्टॉप आ चूका था। मैं उतर गया, ड्राइवर को पैसे दिए, ऑटो आगे बढ़ गई। </span><br/><span>सहसा मुझे अपनी ग़लती का अहसाह हुआ। </span><br/><span>मैं उससे ये भी नहीं पूछ पाया कि उसके पास बस का किराया है भी या नहीं। </span><br/><span>एक बार पूरी घटना दिमाग़ में फिर से घूम गई, मन और लज़्ज़ित हो गया। वो दोनों तो पहले ऑटो में चढ़ना ही नहीं चाह रहे थे पैदल बस स्टैंड जाने का रास्ता पूछ रहे थे। पर रात का वक़्त और दुरी की वजह से ऑटो में चढ़े थे। और वो फ़ोन, वो अपना लोकेशन बताने के लिए नहीं वरन किसी मित्र से मंत्रणा थी कि आ कर बस का किराया दे दे। </span><br/><span>आह... हम पढ़े लिखे लोग... हम केवल सहानभूति जता सकते है... दूसरों के दर्द में कहानी ढूँढ सकते है...फिर कहानी पढ़कर दुखी या आक्रोशित हो सकते है... यही कहानी हम तथाकथित संभ्रांत लोगों की है। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(१३) . तसदीक़ अहमद खान</strong><br/><span>इन्सानियत का रिश्ता</span><br/><span>.</span><br/><span>रमज़ान के मुबारक महीने में सहरी से फ़ारिग होकर खान साहब बैठे ही थे किपड़ोसी शर्माजी के घर से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी, उन्होंने बीवी सेकहा, “ज़रा देखो पड़ोस से आवाज़ें आ रही हैं?” </span><br/><span>बीवी ने जवाब में कहा, “हमें पड़ोस से क्या लेना देना, वह लोग मुसलमानों से ताल्लुक़ नहीँ रखना चाहते “</span><br/><span>खान साहब बीवी की बात अनसुनी करके फ़ौरन शर्माजी घर पहुँच कर उनकी पत्नीसे बोले, “क्या बात है भाभी जी, क्यू रो रहे हैं?” </span><br/><span>शर्माजी की पत्नी ने रोते हुए कहा, “इनके सीने में दर्द हो रहा है, होश में नहीँ हैं” </span><br/><span>खान साहब ने सोचा अस्पताल ले जाने में देर हो सकती है, उन्होंने फ़ोन करके अपने क़रीबी ह्रदयके डॉक्टर सिद्दिक़ी को गुजारिश करके बुलवा लिया। डॉक्टर ने आते ही इनजकशन लगाया और कुछ दवाएं लिखने के बाद कहा, “अगर कुछ देर</span><br/><span>हो जाती तो इन्हें बचाना मुश्किल हो जाता “</span><br/><span>कुछ समय बाद शर्माजी को होश आ गया, सामने खान साहब को देखकर रोते हुए कहने लगे, “माफ़करना खान साहब, इस मुश्किल वक़्त में बिरादरी का कोई आदमी नहीं आया, आपको ख़ुदा ने मदद के लिए फ़रिश्ता बनाकर भेज दिया “</span><br/><span>खान साहब शर्माजी को तसल्ली देते हुए कहने लगे, “हिन्दू, मुसलमान तो हमनें बनाए हैं, ख़ुदा ने तोइनसान बनाकर भेजा है, असली रिश्ता तो इन्सानियत का है “</span><br/><span>उसी वक़्त फजर की अज़ान सुनकर शर्माजी मुस्कुराते हुए बोले, “अल्लाह सबसे बड़ा है” </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(14) . अनीता शर्मा</strong><br/><span>चौकन्नी</span><br/><span>.</span><br/><br/><span>सुनीता की हवेली के पास ही, कॉलेज की नई बिल्डिंग बन रही थी। मज़दूर पीने का पानी उन्ही के यहाँ से ले जाते थे, वो लगभग सभी को जानने लगी थी। सुनीता की पाँच साल की बेटी गुड़िया सब से हिल मिल गई थी। वो खेलते खेलते कई बार उस बिल्डिंग में चली जाया करती थी। अब कई नए मज़दूर और आ गए थे। सुनीता को भूरा के हाव-भाव कुछ ठीक नहीं लग रहे थे, उसने इस बात का ज़िक्र घर में सभी से किया लेकिन किसी ने भी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन सुनीता अब पहले से ज़्यादा सतर्क एवं चौकन्नी रहने लगी थी, पिछले दस मिनट से सुनीता गुड़िया को खाना खिलाने के लिए आवाज़ लगा रही थी, वो घर में थी ही नहीं तो जवाब भी नहीं आया, एकदम सुनीता का माथा ठनका वो भाग कर पास की बिल्डिंग में गई वहाँ से भूरा ग़ायब था, तुरन्त उसने सभी को एकत्र किया, सभी से गुड़िया को तलाशने को कहा, और वास्तव में आज सुनीता की सतर्कता से एक मासूम का जीवन ख़तरे से बाहर था। </span><br/><span>**************</span><br/><strong> (15) . वीरेंद्र वीर मेहता</strong><br/><span>‘बदलती परिभाषा’ </span><br/><span>.</span><br/><span>“कुछ कहने से पहले मैं आपसी मतभेद की वजह जानना चाहूँगा। </span><br/><span>“जी कहिए।” </span><br/><span>. . . वह अपनी पत्नी से डिवोर्स लेने के विषय में सलाह लेने के लिए वकील के पास बैठा था। </span><br/><span>“क्या वह सुंदर नहीं है?” </span><br/><span>“जी ऐसा तो नहीं, वह तो अपने कॉलेज की मिस ब्यूटी रही है।” </span><br/><span>“यानी शिक्षित भी है!” </span><br/><span>“जी हाँ, और प्रथम श्रेणी की अधिकारी भी।” </span><br/><span>“क्या परिवार या रिश्तेदारी में उसका व्यवहार संतोषजनक नहीं है। </span><br/><span>“असंतोषजनक तो नहीं लेकिन औपचारिक ही होता है, ऐसा कह सकते हैं।” </span><br/><span>“बाहर किसी से कोई रिश्ता?” </span><br/><span>“नहीं नहीं! तीन वर्ष में तो ऐसा नहीं लगा।” </span><br/><span>“आपसी संबंध, आई मीन बैड रिलेशन’!” </span><br/><span>“है। . . . ‘बट ऑलमोस्ट मिनिमम’!” </span><br/><span>“ओ के, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि आख़िर क्या वजह है जो आप अपनी पत्नी से डिवोर्स लेना चाहते हैं।” </span><br/><span>“हद दर्जे की पोसेसिव है वह, और अपनी इच्छा से ही सब कुछ करती है यहाँ तक कि हाल ही में न चाहते हुए ‘प्रेगनेंट’ होने की स्थिति में अबॉर्शन भी। बस, इसलिए मैं उससे ‘टॉर्चर बेस’ (प्रताड़ना) पर डिवोर्स चाहता हूँ।” एक ही साँस में कह गया वह सब कुछ। </span><br/><span>“लेकिन क्या इन सब बातों को ‘टॉर्चर’ माना जाए?” </span><br/><span>“पता नहीं! लेकिन...” उसकी आवाज़ एकाएक अपनी शक्ति खो बैठी थी। “... यदि यही सब पति करे तो?” कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ था। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(16) . रचना भाटिया</strong><br/><span>(i). नाइट ड्यूटी</span><br/><span>.</span><br/><span>“राहुल आज भी टिफ़िन नहीं लाए? कुछ खा कर आए या..?” मैडम कुछ कहती इससे पहले ही स्कूल की आया बोली, “रास्ते में इसकी माँ दिखाई दी थी, चमकीली साड़ी में, मेरे टोकने से पहले ही वो नज़र बचा खिसक ली।” आया की हँसी कुछ और भी बोल रही थी। </span><br/><span>“मैडम, माँ नाइट ड्यूटी करती है।” </span><br/><span>कहाँ काम करती है माँ? </span><br/><span>“बाबा की मौत के बाद माँ को बाबा के साहेब ने ही काम पर रख लिया”। </span><br/><span>वो जो अकेले रहते हैं, दिन में उनके घर का काम तो कोई और करती है। “आया बीच में बोली। </span><br/><span>“साहेब ने माँ को रात का काम दिया है”। माँ मुझे रात को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, पर दिन का काम मिला ही नहीं “। </span><br/><span>जाने क्यों मैडम ने रुआंसे राहुल को अपने से चिपटा लिया, और कहा, माँ को कल से मेरे घर सफ़ाई के काम के लिए भेज देना “। </span><br/><span>“सच मैडम, फिर तो माँ रात को मेरे पास सोएगी”। </span><br/><span>.</span><br/><span>(ii). ज़िंदगी की उड़ान</span><br/><span>.</span><br/><span>“माँ, भगवान के लिए अब हमें सीख देना बंद करो। हम बड़े हो चुके हैं”। शारदा बेटे की बात पर हैरान थी। कुछ कहती इससे पहले ही पड़ोसन आशा ने छब्बीस साल के राहुल को टोक दिया। </span><br/><span>“माँ से ऐसे बात करोगे? तुम दो साल के थे तबसे यह अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर तुम्हें पाल रही है। आज कमाने लगे तो बातें आ गई।” </span><br/><span>राहुल मुँह नीचे कर के बोला “हमनें मना नहीं किया था, अब जी लें”, और बाहर को निकल गया। आशा रोती शारदा को समझाने लगी। </span><br/><span>“सारी जवानी इनके नाम लिख दी। कब तक यूँ ही सिसकती रहेगी। तू अब आगे बढ़। अपनी ओर ध्यान दे। तेरे भी कुछ सपने होंगे”। </span><br/><span>“मैंने सच में कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहा। अब ढलती उम्र में क्या सोचूं”। </span><br/><span>, “बस तुमने पढ़ा, लिखा दिया। पैरों पर खड़े हो गए। तुझे भी ज़िंदगी जीने का हक़ है। जितना इनके पीछे घूमेगी उतना ही तंग करेगें। इन सबसे बाहर भी एक दुनिया है।” </span><br/><span>आशा की बातें शारदा के दिमाग़ में घूमती रहीं। इन विचारों से घबरा शारदा घर से बाहर जाने को तैयार होने लगी। उसी समय राहुल घर में घुसा। माँ को जाने के लिए तैयार देख हैरान था। उसके बिना तो माँ कहीं न जाती थी। </span><br/><span>“कहाँ जा रही हो मेरे बिना”? </span><br/><span>“मैं ज़िंदगी जीना सीखना चाहती हूँ, बस इसी लिए अकेले ही सही पर आगे बढ़ रही हूँ। एक झटके में शारदा पर्स उठा पेंटिंग क्लास का पता करने बाहर निकल गई। </span><br/><span>अब हैरान होने की बारी राहुल की थी। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(17) . कल्पना भट्ट (‘रौनक़’) </strong><br/><span>इक्कीसवीं सदी का गांडीव</span><br/><span>.</span><br/><span>“यह कौन लेटा हुआ है, वह भी बाण शय्या पर! नेपथ्य से एक आवाज़ उभर कर आ रही थी|</span><br/><span>स्टेज पर कुछ पात्र दिखाई दे रहे हैं, जिनके हाथों में धनुष बाण हैं, किसी के हाथ में गदा, किसीके हाथ में तलवार |</span><br/><span>“अरे! यह तो भीष्म पितामह हैं|” एक पात्र ने जानकारी दी|</span><br/><span>“कहीं यह वही तो नहीं जिन्होंने प्रतिज्ञा की थी आजीवन निसंतान रहेंगे, और अपने कुल के विनाश को देखने पर मजबूर हुए? |</span><br/><span>श्रोताओं में बैठा हुआ एक व्यक्ति उठ गया और उसने चिल्लाना शुरू कर दिया, “मारो साले को, इस भीष्म की वजह से ही महाभारत हुआ है, साला हरामी! अपने को समय के साथ बदल लेता तो अपने परिवार को ज़िंदा देखता, सब इसकी ज़िद की वजह से हुआ....|” </span><br/><span>“अबे चुप साले, क्या बकवास कर रहा है? नाटक चल रहा है, चलने दे, बीच में क्यों बोल रहा है?” एक अन्य श्रोता बोला|</span><br/><span>“यह भीष्म ही तो है जो मेरा घर बिगाड़ रहे हैं....” यह कहकर वह अपनी जगह पर बैठ तो गया पर तुरंत ही वह सभाग्रह से बाहर आ गया और चिल्लाने लगा, “नहीं बापू, नहीं! मैं अपने घर में तुम्हारी भीष्म प्रतिज्ञा नहीं चलने दूँगा, मेरी बेटी स्कूल जाएगी और अवश्य जाएगी, तू चाहे कितनी कोशिश कर ले... इक्कीसवीं सदी में भीष्म के लिए कोई जगह नहीं हैं....| दृढ़ संकल्प का गांडीव अब अपने वार के लिए तैयार हो चुका था|</span><br/><span>.</span><br/><span>(ii). भूमंडलीकरण का तांडव </span><br/><span>.</span><br/><span>इंद्र सभा में आज सभी देव आमंत्रित थे| देवों के मनोरंजन के लिए अप्सराएँ नृत्य कर रही थी| सभी देवगण हर्षित थे और नृत्य और मदिरा का आनंद उठा रहे थे| भ्रह्मा, विष्णु, महेश भी अपने-अपने आसन पर बिराजमान थे|</span><br/><span>सबको आनंदमयी देख इंद्र देव फुले नहीं समा रहे थे, वे अपने आस-पास सभी देवगण को बहुत ही ध्यानपूर्वक देख रहे थे, तभी उनकी निगाह क़रीब ही बिराजमान ब्रह्म देव पर पड़ी, वे इस भीड़ में सबसे अलग ही नज़र आ रहे थे| उनको यूँ उदासीन देख इन्द्रदेव से रहा नहीं गया और वह ब्रह्मदेव के निकट आकर बोले, “क्या बात है परमपिता, आप इतने उदास क्यों हैं? आपको यह नृत्य पसंद नहीं आ रहा है? गर ऐसा है तो बताएँ प्रभु, मैं अभी मेनका से कह देता हूँ|” </span><br/><span>ब्रह्म देव की जैसे तुन्द्रा भंग हुई और उन्होंने इन्द्रदेव की तरफ़ देखते हुए कहा, “नहीं! नहीं! ऐसी तो कोई बात नहीं...|” </span><br/><span>उनका चेहरा उनकी बातों से भिन्न नज़र आ रहा था, इन्द्रदेव ने पुनः जानने का प्रयास किया, “प्रभु, कुछ तो बात अवश्य है, आप चिंतित प्रतीत हो रहें हैं, बताये आर्य! क्या बात है? हम सब आपके साथ हैं...|” </span><br/><span>इन्द्रदेव को अपनी तरफ़ से चिंतित देख ब्रह्म देव ने कहा, “वो... अभी कुछ दिनों से मैं परेशान ही हूँ| अपने ठीक पहचाना|” </span><br/><span>इन्द्रदेव को अपने सिंहासन से उठते देख सभी अप्सराएँ चकित थी, आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था| पर वे सब मजबूर थी, जब तक उनका आदेश न मिले, नृत्य करना उनका दायित्त्व था| यहाँ ब्रह्म देव के पास ही बिराजमान विष्णु ने इन दोनों की बातें सुन ली थी| अब तो इंद्र देव ने सभा बर्खास्त की और सभी नृत्यांगनाओं को वहाँ से जाने को कहा, और दुबारा ब्रह्म देव से जानने की चेष्टा करने लगे| अब तो विष्णु जी, शिव जी तथा अन्य देवगण भी चोकन्ने हो गए थे|</span><br/><span>सभी एक-दूसरे से पूछ रहे थे, “आख़िर हुआ क्या है आज ब्रह्म देव को?” </span><br/><span>किसी ने कहा, “उफ़, सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया इस ब्रह्माजी ने तो...|” </span><br/><span>इन्द्रदेव को यूँ याचना करते हुए देख ब्रह्म देव ने कहना आरम्भ किया, “वो, कुछ दिनों पहले ही मैं पृथ्वी परिक्रमा करने गया था, वहाँ जो भी कुछ देखा, उसे देख मैं बहुत दुखी हूँ और चिंतित भी|” </span><br/><span>विष्णु जी जो क़रीब ही बिराजमान थे, उन्होंने पूछा, “क्यों देव? ऐसा क्या देख लिया आपने?” </span><br/><span>“प्रियवर, आप तो जानते हो जब सृष्टि का निर्माण किया गया था, तब जल, वायु और पृथ्वी का निर्माण किया था| फिर आपके कहने पर वहाँ जीवों को भेजा था, जिसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पहाड़-नदी इत्यादि प्रथ्वी पर भेजें गए थे...|” </span><br/><span>इंद्र देव और विष्णु जी ने कहा, “जी, यह तो सत्य है... तो अब क्या समस्या आई है, सब कुछ तो ठीक-ठाक चल रहा है...|” </span><br/><span>“सही चल रहा है! नहीं.........!” ब्रह्म देव के मुँह से चीख़ निकली |</span><br/><span>उनकी चीख़ सुनकर शिव हँस पड़े|</span><br/><span>अब तो सभी देवगणों के चेहरों पर से हवाइयाँ उड़ रही थीं। </span><br/><span>ब्रह्म देव ने अपनी बात पुनः शुरू की, “तबसे लेकर आज तक मैं यह सोचता रहा कि मेरा पुत्र मनु पृथ्वी पर वरदान सिद्ध होगा, उसके लिए मैंने अपनी बेटी कुदरत को पृथ्वी की देख-भाल करने के लिए भेजा था... पर इस कलयुग में आए इस भूमंडलीकरण की वजह से मनु ने कुदरत का ऐसा विनाश किया है की... वह ग़ुस्से से पलटवार कर रही है...|” यह कहते हुए उन्होंने शिव की तरफ़ देखा और कहा, “और इन देव ने उसको तांडव की शिक्षा दे दी है...” </span><br/><span>“तो क्या कुदरत तांडव कर रही है...?” इंद्र ने जिज्ञासा जताई |</span><br/><span>“हाँ, मनु ने अपने स्वार्थ के लिए, कुदरत को विनाश की राह दिखा दी.. और चहुँ ओर बस ख़ुद का साम्राज्य स्थापित करता जा रहा है, जिसकी वजह से कुदरत बिटिया नाराज़ हो रही है और उसने तय कर लिया है कि मनु को अब तो वह सबक़ सिखाकर ही दम लेगी...|” </span><br/><span>अब शिव ने अपना बचाव करते हुए कहा, “हम त्रि-देवों ने अपने-अपने हिस्से का काम जब बाँट लिया थ ब्रह्मदेव को सृष्टि रचना करना था, विष्णु देव को सृष्टि को सँभालने का कार्य दिया गया था, और मुझे विनाश....|” </span><br/><span>“हाँ... तो क्या अपने ही कुदरत के साथ मिलकर ऐसा खेल रचा है?” </span><br/><span>“आख़िर किया क्या है मैंने...” शिव ने कहा, “जो आया है उसको एक दिन तो जाना ही है, फिर मनु के ख़ुद को भगवान् समझने की भूल पर उसको सबक़ तो सीखना ही पड़ेगा| कितना स्वार्थी है, सिर्फ़ ख़ुद को देख रहा है, अन्यत्र सब विनाश करता जा रहा है, उसको यह समझाना होगा, कि कलयुग में बहन का भी उतना ही हिस्सा होता है जितना पुरुष का... सो हम दोनों ने अपनी-अपनी उँगलियाँ टेढ़ी कर ली हैं...|” </span><br/><span>“तो क्या....मेरा मनु...?” ब्रह्माजी ने चिंता जतायी। </span><br/><span>“हाँ! देव, हमें क्षमा करें, कुदरत ने पलटवार करके कई बार चेतावनी देकर मनु को समझाने कि चेष्टा कि है कि कुदरत का भी ख़याल रखे पर शायद वह समझना ही नहीं चाह रहा, सो जब सीधी उँगली से घी न निकले तो उसको टेढ़ी करना ही ...|</span><br/><span>सब देवगण विस्मित यूँही खड़े थे और ब्रह्मदेव लाचार ...</span><br/><span>“आख़िर मनु को समीकरण तो समझना ही होगा|” शिव ने अपना निर्णय सुना ही दिया|</span><br/><span>**************</span><br/><strong>(18). राजेश कुमारी </strong><br/><span>अपेक्षा या उपेक्षा</span><br/><br/><span>आज रशीद बहुत उत्साहित था ट्रेन आने के वक़्त के साथ-साथ उसके चेहरे पर बेचैनी और उत्सुकता के मिश्रित भाव देखे जा सकते थे। </span><br/><span>चार पाँच दिन पहले ही उसने मालिक से अपने अम्मी अब्बू के आने की ख़ुशख़बरी दी थी। </span><br/><span>विधायक अजीम क़ुरेशी जी के यहाँ छह साल से ड्राइवरी की नौकरी करते हुए पहली बार उसके अम्मी अब्बू उसके पास आ रहे हैं। </span><br/><span>मालिक ने कितनी ख़ुशी से कहा था गाड़ी ले जाना और उनको स्टेशन से ले आना। </span><br/><span>रशीद की आँखों में मालिक का क़द और बढ़ गया था। </span><br/><span>मगर आज सुबह मालिक ने बताया कुछ गेस्ट आने वाले हैं सभी गाड़ियाँ लगाई जाएँगी मगर दूसरा ड्राइवर मेहमानों को गेस्ट रूम में छोड़कर स्टेशन पर ट्रेन आने से पहले तुम्हारे पास पँहुच जाएगा .</span><br/><span>प्लेटफ़ॉर्म पर भाग दौड़ की आवाज़ सुनकर झटके से रशीद की विचार शृंखला टूटी .</span><br/><span>ट्रेन आकर रुक गई। </span><br/><span>रशीद दौड़कर डब्बे तक पँहुच गया। </span><br/><span>निकलते ही अब्बू अम्मी से लिपट गया। </span><br/><span>फिर उनको बेंच पर बैठाकर इधर-उधर देखता हुआ चहल कदमी करने लगा। </span><br/><span>अम्मी के पूछने पर उसने चहक कर बताया कि “उसके साहब इतने अच्छे हैं कि उनको लेने अपनी एयर कंडीशंड गाड़ी भेज रहे हैं”। </span><br/><span>काफ़ी वक़्त इंतज़ार में बीत गया। अम्मी अब्बू पहले से ही थके हुए थे उनकी थकान कुछ और बढ़ गई। </span><br/><span>अचानक रशीद उठा कुछ दूर जाकर फ़ोन करने लगा</span><br/><span>माँ-बाप की नज़र उसपर ही अटकी थी वो रशीद के हाव-भाव में झुंझलाहट देखकर परेशान से हो उठे। </span><br/><span>फ़ोन बंद कर जब रशीद भारी क़दमों से नज़रें झुकाए उनकी ओर आया तो माँ-बाप ने एक-दूसरे की ओर देखा नज़रों ही नज़रों में कोई निर्णय किया। </span><br/><span>अब्बू ने बेटे के काँधे पर हाथ धरते हुए कहा “बेटा मैं तुम्हें बहुत देर से कहना चाह रहा था मगर संकोच वश नहीं कह पा रहा हूँ कि तुम्हारी अम्मी को गाड़ी में उल्टियाँ होती हैं वो बस में खिड़की के पास इसीलिए बैठती है। हवा लगती जाएगी तो इसकी तबीयत भी ठीक रहेगी। तुम साहब से माफ़ी माँग कर गाड़ी के लिए मना कर दो” अम्मी ने भी अब्बू की हाँ में हाँ मिलाई। </span><br/><span>रशीद के चेहरे पर मानो एक जीवंत मुस्कान लौट आई</span><br/><span>जिसे देखकर अम्मी अब्बू की सफ़र की थकान एक दम ग़ायब हो गई। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(19) . अतुल सक्सेना जी</strong><br/><span>पग्गल</span><br/><span>.</span><br/><span>भईया-आवाज़ सुन ठिठक गए। </span><br/><span>तीस साल वक़्त इतना भी लम्बा नहीं था कि संतोष भुला जाए ...चारदीवारी पर मुँह टिकाये खड़ी थी वह ...</span><br/><span>अरे संतोष-मैं हुलस के उसके पास आया-कैसी है तू</span><br/><span>-भईया वो जंगल जलेबी का पेड़ कट गया</span><br/><span>उसकी उठी उँगली की तरफ़ मैंने पलटकर देखा-हाँ यहाँ तो जंगल जलेबी का पेड़ होता था अब दुमंजिला मकान था। किसी को एक भी जंगल जलेबी तोड़ने नहीं देती थी संतोष फिर ख़ुद ही तोड़ बाट देती थी जब जंगल जलेबी पक कर गुलाबी हो जाती थी</span><br/><span>बगल के चार नंबर में हम रहते थे चारदीवारी से सटी बैठी जंगल जलेबी के छोटे छोटे बीज को पिरो संतोष सुंदर मालाये बनाती रहती और मोखले से दिखाती-तेरी बोट्टी को पहनाउँगी और फिर अपने गले में डाल खिलखिला के हँस देती</span><br/><span>-भईया वो जंगल जलेबी का पेड़ कट गया</span><br/><span>-बुआ पग्गल ...बुआ पग्गल</span><br/><span>दो बच्चे उस मकान की बालकोनी में कूद कूदकर ताली बजा के चिल्ला रहे थे जहाँ कभी जंगल जलेबी का पेड़ था। मम्मी भी कहती थी पग्गल है हर वक़्त हसती रहती है इसके साथ मत खेला कर … पर संतोष तो आज नहीं हँस रही है</span><br/><span>ऐ बच्चो चुप करो संतोष पग्गल नहीं है-मैं चिल्ला के बच्चो को डाटना चाहता था पर गला रुँध गया ... मैंने देखा चार नंबर के अहाते में मेरा अमरुद का पेड़ भी नहीं था जहाँ खड़े दो बच्चे मुझे घूरकर देख रहे थे। </span><br/><span>मुझे लगा अभी वो चिल्लाएँगे ... पग्गल ... अंकल पग्गल</span><br/><span>**************</span><br/><strong>(20) . नीता कसार जी </strong><br/><span>ममता का भरोसा</span><br/><span>.</span><br/><span>‘अम्माँ आप मुझे माफ़ कर सकती है क्या’ </span><br/><span>? ट्रेन ने अपनी गति पकडी़ ही थी, किअपनी सीट के पास एक लड़के को देखकर चकरा गई। </span><br/><span>‘कौन हो बेटा, और कैसी माफ़ी,? </span><br/><span>इस तरह ज़मीन ना बैठ</span><br/><span>बेटा बाज़ू में बैठकर बता ‘कौन सी ग़लती की माफ़ी माँगे है।’ </span><br/><span>आप वहीं हैं ना जब आपने ट्रेन में सबको अपने साथ लाया प्रसाद बांटा तब आपको किसने ज़ोर से डाँट लगाई। </span><br/><span>जानती नहीं किसी को भी कुछ भी खाने का सामान नहीं देना चाहिए, जेल हो सकती है, आपको। </span><br/><span>‘तो तू ही वह लड़का था,। शांतिदेवी ने ऊगंली से चश्मा ठीक करते कहा। </span><br/><span>मैं दोबारा आपसे फिर इसी ट्रेन में, मिला, तब जल्दबाज़ी में खाना मेरे पास नहीं था। </span><br/><span>तब आपने मुझे ज़िद से अपने खाने से खाना खिलाया। </span><br/><span>कहते कहते आनंद रूआंसा होगया। </span><br/><span>फिर क्या हुआ आगे बेटा? शांतिदेवी कुछ याद करने लगी। </span><br/><span>आपने कहा, कहते कहते आनंद की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। </span><br/><span>तू भूखा है, खा ले</span><br/><span>“माँ अपने बेटे को ज़हर नहीं दे सकती”। </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(21) . मृणाल आशुतोष जी </strong><br/><span>ईमान</span><br/><span>.</span><br/><span>जुम्मे की नमाज़ पढ़ मस्ज़िद से निकलकर अब्दुल बमुश्किल एक फलांग चला गया होगा कि पीछे से आती आवाज़ ने उसके पैर में ब्रेक लगा दिए, ‘रुकिए भाईजान’। </span><br/><span>मुड़ा तो पीछे तो दो नक़ाबपोश उसकी ओर तेज़ी से बढ़े चले आ रहे थे। डर के मारे उसकी घिघ्घी बँध गई। पर उनके नज़दीक आते डर जाता रहा, “अस्सलाम ओ अलैकुम।” </span><br/><span>“अलैकुम ओ अस्सलाम।” अब्दुल अब राहत की साँस ले रहा था। </span><br/><span>“सुना है कि आप काफ़ी दिनों से बेरोज़गार हैं और आपकी माली हालत भी नहीं।” </span><br/><span>“सुना तो ठीक है। पर मैंने आपको पहचाना नहीं।” </span><br/><span>“यही तो दिक्कत है कि आप अपने भाइयों को नहीं पहचानते।” </span><br/><span>“मुआफ़ किजीएगा। पर मैंने आपको पहचाना नहीं।” </span><br/><span>“अपना भाई ही मान लीजिए, जनाब! आप हमारे साथ काम क्यों नहीं करते?” </span><br/><span>“आपके साथ! क्या काम करना पड़ेगा?” </span><br/><span>“मुल्क की आज़ादी का!” </span><br/><span>“मुल्क...आज़ादी...कौन सा मुल्क?” </span><br/><span>“अरे अपना मुल्क! काश्मीर। इसे आज़ाद कराना है न काफ़िरों से! हम भी तो ख़ुदा की फ़ज़ल से इसी पाक काम में लगे हैं।” </span><br/><span>“अच्छा!” </span><br/><span>“हाँ! पूरे तीस हज़ार नक़द हर महीने आपके परिवार को मिलेगा। और आपका सारा ख़र्चा वर्चा हमारा!” </span><br/><span>“पर, यह तो...” </span><br/><span>“मत भूलिये कि आप कितनों दिनों से घर पर बैठे हैं। और ख़ुदा न खासते, अगर आप जिहाद में शहीद हो गए तो आपके बीवी-बच्चे को पूरे दस लाख दिए जाएँगे।” </span><br/><span>....</span><br/><span>“सोच क्या रहे हैं! क्या आपका कोई फ़र्ज़ नहीं बनता!” </span><br/><span>“भाईजान, मेरा मुल्क हिंदुस्तान है। वही रहेगा। मैं भूखों मर जाऊँगा पर मुल्क से गद्दारी...न न न मैं अपने मुल्क से गद्दारी नहीं करूँगा। अच्छा तो ख़ुदा हाफ़िज़....” </span><br/><span>**************</span><br/><strong>(22) . विनय कुमार जी </strong><br/><span>अनाम रिश्ता</span><br/><span>.</span><br/><span>भयानक गर्मी लगता था सब कुछ जला डालेगी और ऊपर से लू, दिन में बाहर निकलना लगभग असंभव सा हो गया था. हरी बाबू अपने कमरे में बैठे कूलर की हवा खा रहे थे और बीच-बीच में खिड़की के परदे को हटाकर बाहर भी झाँक ले रहे थे. पिछले महीने ही रिटायर हुए थे और पहले जहाँ बाबू थे वहाँ दिनभर लोगों से घिरे रहते थे. इसलिए उनका इस तरह खाली बैठना बेहद कष्टप्रद था, लेकिन कोई उपाय भी नहीं था. बेटे ने सख़्त ताकीद कर रखी थी कि दोपहर में बाहर नहीं निकलना है, सुबह शाम चाहे जहाँ भी जाएँ. अब इसके पीछे बेटे की मंशा चाहे जो भी हो लेकिन उनको उसका मना करना अच्छा ही लगता था.</span><br/><span>अंदर के कमरे में बहू आराम कर रही थी, अब धीरे-धीरे उनकी आदत पड़ गई थी कि दोपहर में बहू से वह कोई फरमाईश नहीं करें. अव्वल तो वह उठती नहीं थी और अगर उठ भी गई तो जिस तरह से उनकी फरमाईश किसी न किसी बहाने से टाल देती थी कि उनको समझ में आ गया था. प्यास महसूस हुई तो वह उठे और ख़ामोशी से किचन में जाकर पानी ले आए. पानी टेबल पर रखकर उन्होंने एक बार फिर पर्दा हटाकर बाहर देखा, सड़क पर कर्फ़्यू जैसा हाल था. हरी बाबू पर्दा वापस खींचते तभी उनको एक अधेड़ साइकिल से उनके घर की तरफ़ ही आता दिखाई दिया. उस पूरे इलाके में एक उनके घर के सामने ही मरियल सा गुलमोहर का पेड़ था. गाहे-बगाहे कोई धूप का मारा उसके छाँव तले थोड़ा सुस्ताता और फिर आगे बढ़ जाता. छाँव बस इतनी ही होती थी कि कुछ पल के लिए राहत मिले, फिर लू के थपेड़े जता देते थे कि आगे बढ़ना चाहिए.</span><br/><span>उस अधेड़ ने साइकिल खड़ी की और अपना गमछा उतारकर उससे चेहरे के बहते पसीने को पोंछने लगा. हरी बाबू की अनुभवी निगाहों ने उसकी भेष भूषा और मूँछ दाढ़ी से अंदाज़ा लगा लिया कि वह एक मुस्लिम है. उनको अचानक याद आया कि रमज़ान चल रहा है और शायद यह व्यक्ति रोजे से होगा. अपनी नौकरी के दौरान अक्सर वह रमज़ान के महीने में अपने मुस्लिम साथियों का ध्यान रखते थे और यथासंभव उनके सामने भोजन या जल नहीं ग्रहण करते थे. उस अधेड़ ने गमछे से चेहरा पोंछने के बाद चारो तरफ़ निगाह दौड़ाई, शायद वह कोई बेहतर जगह तलाश रहा था.</span><br/><span>हरी बाबू सोच में पड़ गए, एक तरफ़ तो उनका मन कहता कि वह उस व्यक्ति को कम-से-कम एक ग्लास पानी पिला दें. फिर रोजे का ख़याल आता तो मन मना करने लगता. वैसे उनके कुछ साथी रोजा नहीं भी रखते थे इसलिए उनकी इच्छा हुई कि वह आगे बढ़कर उस अधेड़ से पूछ ही लें. उन्होंने दरवाज़ा खोला, लपट पूरी भयावहता से उनके चेहरे और शरीर के खुले हिस्से से टकराई और वह लड़खड़ा गए. फिर हिम्मत करके वह आगे बढ़े और उस अधेड़ की तरफ़ मुख़ातिब हुए “इतनी गर्मी में कहाँ निकल पड़े, लू लग गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे. अगर ऐतराज न हो तो थोड़ा पानी पी लो” .</span><br/><span>अधेड़ ने उनकी तरफ़ देखा और पपड़ियाये होठों पर हाथ फेरा “रोजे से हूँ भाईजान, कुछ ज़रूरी काम से जाना था इसलिए निकल पड़ा. अब इतने दिन निकल गए तो कुछ दिनों के लिए रोजा क्यूँ तोडूं” .</span><br/><span>हरी बाबू ने उसका चेहरा देखा, दया सी आ गई उनको. “अच्छा ठीक है पानी मत पीना लेकिन थोड़ी देर आराम कर लो. फिर निकल जाना, अंदर आ जाओ” .</span><br/><span>अधेड़ ने एक बार फिर उनको देखा, उन्होंने नज़रों से आश्वस्त किया तो अधेड़ उनके पीछे-पीछे कमरे में आ गया. कमरे में कूलर की हवा के चलते बहुत राहत थी, उन्होंने अधेड़ को सोफ़े पर बिठाया और धीरे-से पानी का भरा ग्लास उठाकर किचन में ले जाकर रख दिया. ग्लास रखते समय उनको प्यास की पुनः अनुभूति हुई लेकिन उन्होंने पानी नहीं पीना ही उचित समझा.</span><br/><span>**************</span><br/><strong>(23) . समर कबीर जी </strong><br/><span>“विवेक” </span><br/><span>.</span><br/><span>जंगल के राजा शेर के साथ भेड़िया और लोमड़ी जंगल की सैर को निकले, कुछ दूर जाने के बाद शेर ने एक ख़रगोश का शिकार किया, ये देखकर भेड़िया ने लोमड़ी की तरफ़ मुस्कुरा कर देखते हुए कहा, ‘तेरा इंतिज़ाम हो गया’! </span><br/><span>आगे चलकर शेर ने एक हिरन का शिकार किया, ये देखकर भेड़िया मन-ही-मन हर्षित होकर लोमड़ी से इशारे में बोला, ‘, मेरा भी इंतिज़ाम हो गया’। </span><br/><span>आगे चलकर शेर ने एक भैंसे का शिकार किया, और भेड़िये की तरफ़ देखकर कहने लगा, ‘तू इन के बराबर के हिस्से कर दे। </span><br/><span>भेड़िया बोला ‘महाराज हिस्से क्या करना है! ख़रगोश लोमड़ी को दे देते हैं, हिरन मैं रख लेता हूँ, और भैंसा आप रख लें’। </span><br/><span>शेर को क्रोध आ गया, और उसने एक ही वार में भेड़िये का काम तमाम कर दिया। </span><br/><span>फिर शेर ने लोमड़ी से कहा, “, अव तू हिस्से कर”! </span><br/><span>लोमड़ी ने कहा “महाराज हिस्से क्या करना हैं, ख़रगोश आप नाश्ते में खा लेना, हिरन आप लंच में खा लेना, और भैंसा डिनर में खा लेना”। </span><br/><span>शेर ने मुस्कुरा कर लोमड़ी को देखा और ख़ुश होकर बोला “तूने तबीअत ख़ुश कर दी, जा ये तीनों शिकार तुझे इनआम में देता हूँ”। </span><br/><span>फिर शेर ने लोमड़ी से पूछा “अरे लोमड़ी, ये तो बता, तूने इतना अच्छा फ़ैसला करना कहाँ सीखा”? </span><br/><span>लोमड़ी ने उत्तर दिया “भेड़िए के अंजाम से”। </span><br/><span>***************</span><br/><strong>(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं) </strong></p> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-48 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2019-08-08:5170231:Topic:9899372019-08-08T04:34:46.720Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<div><strong>(1). अनीता <span class="gmail-replaced"><font color="#000000">शर्मा जी</font></span></strong><br></br> <strong>नया सवेरा</strong><br></br> <br></br> बच्ची को पालने में रखकर मालती बिना एक बार भी पीछे देखे चलती चली जा रही थी । उसके <span class="gmail-replaced">दिमाग़</span> में भावना व हालात के बीच महासमर चल रहा था ।आज हालात ने भावना पर विजय पा ली थी । <span class="gmail-replaced">इसीका</span> परिणाम था कि आज अपनी बच्ची को अपने ही हाथों पालन गृह में छोड़ के जा रही थी ।बेटे की चाह में यह मालती की…</div>
<div><strong>(1). अनीता <span class="gmail-replaced"><font color="#000000">शर्मा जी</font></span></strong><br/> <strong>नया सवेरा</strong><br/> <br/> बच्ची को पालने में रखकर मालती बिना एक बार भी पीछे देखे चलती चली जा रही थी । उसके <span class="gmail-replaced">दिमाग़</span> में भावना व हालात के बीच महासमर चल रहा था ।आज हालात ने भावना पर विजय पा ली थी । <span class="gmail-replaced">इसीका</span> परिणाम था कि आज अपनी बच्ची को अपने ही हाथों पालन गृह में छोड़ के जा रही थी ।बेटे की चाह में यह मालती की पाँचवीं बेटी थी । यह निर्णय मालती ने बच्ची के जन्म से पहले ही ले लिया था ,बेटा हुआ तो ठीक नहीं तो वो उसे शिशु पालन गृह छोड़ <span class="gmail-replaced">आएगी</span> ,<span class="gmail-replaced">ग़रीबी</span> के कारण पहले ही खाने के लाले थे । तभी उसे लगा कोई उस पुकार रहा है ।उसने अनसुना करना चाहा लेकिन वह <span class="gmail-replaced">आवाज़</span> मालती के निकट आ चुकी थी, "मालती! कहाँ भागी जा रही हो?" ..."अरे, मेमसाब आप यहाँ...कैसे ?"...."पहले तू बता इस हालत में कहाँ भागी जा रही है, मैं तेरे घर गई थी...वहाँ तू <span class="gmail-replaced">नहीं</span> मिली तो तुझे ढूँढते-ढूँढते यहाँ तक आ गई।" बस मालती फूट पड़ी, सारी मन की सुना दी, "मेमसाब मैं इस बच्ची को नहीं पाल सकती ,घर वालों के दबाब में मैँने एक बच्ची का जीवन <span class="gmail-replaced">ख़राब</span> कर दिया ।" यह सब सुन मालती का कलेजा काँप गया ,क्योंकि शादी के दस साल बाद भी उनके संतान नहीं थी और इधर मालती अपनी ही बची को पालना गृह छोड़ आई थी तभी मेमसाब ने मालती के सामने एक प्रस्ताव रखा, "तू यह बच्ची <span class="gmail-replaced">क़ानूनी</span> रूप से मुझे गोद दे दे ,उसका <span class="gmail-replaced">लालन-पालन</span> तू ही करना मुझे जीने का सहारा मिल <span class="gmail-replaced">जाएगा</span> और <span class="gmail-replaced">तुझे</span> भी सुकून ।"....अब <span class="gmail-replaced">दोनों</span> के जीवन में नया सवेरा था ।<br/> ------------<br/> <strong>(2). शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी</strong><br/> <strong><span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span></strong><br/> .<br/> "<span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span> ... <span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span>! क्या तमाशा मचा रखा है तुम लोगों ने, ऐं!" उसकी ही क़लम मानो उसे ही धिक्कार रही थी। उसने पहले तो एक नज़र अपनी डायरी के पन्नों पर डाली। फ़िर उसने अपने बेतरतीब कमरे की दीवारों और टेबल पर सजे-धजे से फ़्रेमों में जड़े साहित्यिक सम्मान प्रमाण-पत्र और स्मृति <span class="gmail-replaced">चिह्न</span> आदि पर नज़र डाली। अब वह अपनी प्रकाशित पुस्तकों पर सरसरी दृष्टि दौड़ाता हुआ वापस अपनी प्रिय क़लम को निहारने लगा।<br/> "संतोष मिल रहा होगा न! यही है तुम्हारी <span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span>! इनमें मैं नहीं, तुम हो; तुम ही तुम तो हो!" लेखनी कुछ ऐसा ही उससे कह रही थी। उसके अंतर्मन को उद्वेलित कर रही थी।<br/> "साहित्य समाज का दर्पण होता है! जो मैंने समाज में देखा-सुना और जो अनुभव किया, उसे ही मैंने गुना और साहित्यिक विधाओं में बुना! संतुष्ट तो तुम्हें भी होना चाहिए कि तुमने मेरी अनुभूति, कल्पना और साहित्य सृजनशीलता को उन विधाओं में पिरोकर मुझे साहित्य जगत में इतना <span class="gmail-replaced">ऊँचा</span> मुकाम हासिल कराया, मीडिया में लोकप्रियता दिलाई और तुम गौरवान्वित हुईं!" यह सोचते हुए उसने अपनी उस प्रिय क़लम को चूमकर कमीज़ की बायीं तरफ़ ज़ेब में रखा और डायरी का वह पन्ना <span class="gmail-replaced">खोलकर</span> पढ़ने लगा, <span class="gmail-replaced">जिसपर</span> उसकी ताज़ा रचना अभी सृजन प्रक्रिया से <span class="gmail-replaced">गुज़र</span> रही थी, अधूरी थी! तभी वह क़लम ज़ेब से टपक पड़ी। उसने उसे उठाया।<br/> "क्यों उठा रहे हो मुझे! अपनी रचनाओं में तो तुम मुझे गिराते ही रहे हो! कभी नेताओं के मुरीद, तो कभी धर्म-गुरुओं के मुरीद और अब तो पुरुष-मानसिकता के मुरीद <span class="gmail-replaced">बनकर</span> अनाप-शनाप सा लिख जाते हो; बिक जाते हो! अब तो तुम इतने भी गिर <span class="gmail-replaced">गए</span> कि महिलाओं पर <span class="gmail-replaced">शृंगार</span> रस की <span class="gmail-replaced">रचनाएँ</span> लिखते-लिखते तुम उनके गुप्तांगों पर भी <span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span> आजमाने लगे! धत तेरे की! क्या यही है तुम्हारी समाज-सुधार या नव-जागृत-समाज-रचना-प्रक्रिया, ऐं! गौरवान्वित तो तुम स्वयं को समझ रहे हो विकृत रचना कर्म में वाह-वाही हासिल करके जनाब!"<br/> "यह मेरी क़लम बोल रही है या मेरी ही अंतरात्मा; जो भी हो, मुझे आज झकझोर रही है; आइना दिखा रही है!" यह सोचते हुए यही शब्द उसने अपनी डायरी के अगले पन्ने पर लिख <span class="gmail-replaced">लिए</span>। क़लम उसकी दायीं तर्जनी और <span class="gmail-replaced">अँगूठे</span> के बीच में फ़ंसी हुई सीधे डायरी के पिछले पन्नों का ख़ून कर रही थी, <span class="gmail-replaced">जहाँ</span> नारी की योनि का संवाद पुरुष के लिंग से कराया गया था। उनकी सक्रिय भागीदारी से यौन-सुख-सृजन और नव-मानव-रचना-प्रक्रिया के रचनात्मक कर्म या इसके विपरित बढ़ रहे दुष्कर्म; रिश्तों और मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए उनके बीच की तू-तू-मैं-मैं और आरोप-प्रत्यारोप तथाकथित साहित्यिक विधाओं में शाब्दिक हो रहे थे।<br/> "जब जागो प्रिय, तभी सबेरा! अपनी अज़ीज़ क़लम की ताक़त को समझो और अपनी <span class="gmail-replaced">रचना-प्रक्रिया</span> को अपने देश की 'नव-समाज-रचना-प्रक्रिया' में समर्पित कर दो; सस्ती लोकप्रियता के लिए नहीं; नव-जागरण वास्ते जनाब!" उसके अंतर्मन ने आज उसे एक नई दिशा दे ही दी।<br/> ---------------<br/> <strong>(3). बबीता गुप्ता जी</strong><br/> <strong>सजगता</strong><br/> .<br/> 'बजट का किसी को <span class="gmail-replaced">फ़ायदा</span> हुआ हो या नहीं, हम किसानों की तो नैय्या पार लग गई.'<br/> 'सही बात कहत हो <span class="gmail-replaced">बड़े</span> भैय्या,दो <span class="gmail-replaced">वक़्त</span> की चाय का तो <span class="gmail-replaced">इंतज़ाम</span> हो गया.'<br/> 'और <span class="gmail-replaced">नहीं</span> तो का.सुबह-शाम की बहू की चिक-चिक भी नहीं सुननी पङेगी.'<br/> 'वो सब ठीक हैं, पर इसमें झंझट फसेगा,' <span class="gmail-replaced">तकलीफ़</span> भरी लम्बी <span class="gmail-replaced">साँस</span> खीचते <span class="gmail-replaced">हुए</span> <span class="gmail-replaced">बड़े</span> भैय्या माथा पकङ लिए.<br/> 'जमा <span class="gmail-replaced">रुपया</span> पर दोनों बेटा करेंगे, हाथ कितना लगेगा?'<br/> 'जामे का मुश्किल.खेती का हिस्सा <span class="gmail-replaced">बाँट</span> कर दो,लगे हाथ उनका भी कुछ भला हो <span class="gmail-replaced">जाएगा</span>.'<br/> 'बेटा तो धन्धा करत.....'<br/> 'तुम तो लकीर के <span class="gmail-replaced">फ़क़ीर</span> बनत हो.बहुओं के नाम तो हो सकत हैं कि नहीं?'<br/> 'हाँ....हाँ ....सही कहत हो......'दोनों आपस में गुठियाते <span class="gmail-replaced">हुए</span> अपने-अपने घर की ओर <span class="gmail-replaced">ख़ुशी</span>-<span class="gmail-replaced">ख़ुशी</span> जा रहे थे,<span class="gmail-replaced">रोज़</span>-<span class="gmail-replaced">रोज़</span> के कलह को मिटाने का रास्ता जो मिल गया था।<br/> ----------<br/> <strong>(4). तसदीक़ अहमद ख़ान जी</strong><br/> <strong>अपना वतन</strong><br/> .<br/> भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच के दौरान जब पाकिस्तान के विकेट लगातार गिरने लगे तो घर वालों को <span class="gmail-replaced">ख़ुशी</span> में उछलता देख खालिद अहमद झुंझला कर कहने लगे, "मुस्लिम मुल्क के विकेट गिरने पर तुम लोग <span class="gmail-replaced">ख़ुश</span> हो रहे हो?"<br/> बेटे ने जवाब में कहा, "उस मुल्क के सामने हमारा देश है"<br/> खालिद अहमद आँख दिखाते हुए बोले, "भारत में हिंदू हुकूमत है और पाकिस्तान में मुस्लिम, फ़िर भी तुम लोग भारत का साथ दे रहे हो?"<br/> खालिद अहमद की बीवी बीच में बोल पड़ीं," आप उस मुस्लिम मुल्क की हिमायत कर रहे हैं जहाँ आज भी भारत से गए मुसलमानों को मुहाजिर कहा जाता है"<br/> बीवी की बात <span class="gmail-replaced">सुनकर</span> खालिद अहमद कुछ नर्म पड़ते हुए बोले," भारत में भी तो हमारे साथ भेद भाव किया जाता है, हमारे बुज़ुर्गों की बनाई संपत्ति और इस्लाम के नियमों से छेड़ छाड़ की जाती है "<br/> खालिद अहमद की बात <span class="gmail-replaced">सुनकर</span> बेटी कहने लगी," हम भारत का नमक खाते हैं, पानी पीते हैं, यहाँ की हवा में साँस लेते हैं, हर धर्म के लोग प्यार से रहते हैं, कुछ फिरक़ा परस्त ज़रूर माहौल <span class="gmail-replaced">ख़राब</span> करने की कोशिश करते हैं, हमें फख्र है कि हम हिन्दुस्तानी हैं "<br/> बेटी की बात <span class="gmail-replaced">सुनकर</span> खालिद अहमद ख़ामोश हो गए, अचानक टी वी पर शोर सुनाई दिया, खालिद अहमद की नज़र जैसे ही उधर गई वो <span class="gmail-replaced">हँसते</span> हुए <span class="gmail-replaced">उछलकर</span> चिल्ला पड़े," अपना भारत मैच जीत गया "<br/> --------------<br/> <strong>(5). मनन कुमार सिंह जी</strong><br/> <strong>जागृति</strong><br/> .<br/> -मैं तुम्हें छाँह देता हूँ।<span class="gmail-replaced">ज़िंदगी</span> की आस हूँ।.....रहूँगा भी.....।' छतनार बरगद दंभी <span class="gmail-replaced">आवाज़</span> में प्रलाप कर रहा था। कुछ अशक्त पक्षी घोसलों में बैठे हुए, और कुछ अति दुर्बल पशु उसकी जड़ में बैठे हुए उसे सुन रहे थे।<br/> -औरों के हिस्से की हवा और रोशनी भी तो डकारते हो,भाईजान', एक <span class="gmail-replaced">आवाज़</span> गूँजी।<br/> -कौन हो तुम?ऐसी <span class="gmail-replaced">बदतमीज़ी</span> की सजा मेरी रिआया देगी <span class="gmail-replaced">तुम्हें</span>',बरगद <span class="gmail-replaced">ग़ुर्राया</span>।<br/> -<span class="gmail-replaced">गुस्ताख़ी</span> माफ़ मेरे भाई!मुझे नीम कहते हैं।<span class="gmail-replaced">ज़रा</span> कड़वा हूँ।<br/> -तभी तो ऐसी नागवार बातें करते हो।<br/> -यह नागवारी आपकी <span class="gmail-replaced">ख़ुदग़र्ज़ी</span> की मिसाल है भाईजान।<br/> -कैसे?<br/> -क्योंकि जिन्हें तुम अपनी रिआया कह रहे हो,उन्हें तुमने उनके पैरों पर खड़े होने की नौबत ही न आने दी।बस कुछ ले-देकर राज करते रहे।<br/> -यह सब <span class="gmail-replaced">ग़लत</span> है।मैंने इन्हें छाँव दी है,<span class="gmail-replaced">ज़िंदगी</span> दी है।<br/> -<span class="gmail-replaced">ज़िंदगी</span> तो परमात्मा की नेमत है।और <span class="gmail-replaced">महज़</span> छाँव से <span class="gmail-replaced">मज़बूती</span> नहीं मिलती।धूप चाहिए,धूप।और तुम वह पूरा का पूरा डकार जाते हो।<br/> -और तुम?<br/> -मैं आरोग्यकारी हूँ।<br/> -तीखापन से?<br/> -हाँ।मेरा तीखापन सच्चाई का है।<span class="gmail-replaced">ईमानदारी</span> का है,कर्मठता का है।और मेरी गुठली <span class="gmail-replaced">ख़ुद</span> में मिठास सँजो कर रखती है।यह सेहत और सौहार्द्र की प्रतीक है।<br/> -बस करो।मैं ऐरे-<span class="gmail-replaced">ग़ैरों</span> के मुँह नहीं लगता।मेरी जनता मेरे साथ है।पूछ लो।<br/> -नहीं रे नासपीटे,कभी नहीं।हम तो अपने बच्चों की राह देख रहे हैं,जो नीम की गिलौरियाँ लेने <span class="gmail-replaced">गए</span> हैं।वे गिलौरियाँ ही हमारे ध्येय हैं,हमारे चंगापन के कारक हैं', बरगद के दायरे में पड़े पंछी एवं मवेशी समवेत स्वर में <span class="gmail-replaced">आवाज़</span> लगाने लगे।<br/> ---------<br/> <strong>(6). ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी</strong><br/> <strong>सौतेली बेटी</strong><br/> .<br/> '' बाबा ! ऐसा मत करिए. वे जी नहीं पाएंगे,'' बेटी ने अपने पिता को समझाने की कोशिश की.<br/> '' मगर, हम यह कैसे बरदाश्त कर सकते हैं कि हमारी बेटी अलग रीतिरिवाज और संस्कार में जीए. हम यह सहन नहीं कर पाएंगे. इसलिए तुम्हें हमारी बात मानना पड़ेगी.''<br/> '' नहीं बाबा ! मैं <span class="gmail-replaced">आपकी</span> बात नहीं मान <span class="gmail-replaced">पाऊँगी</span>. मैं अब नौकरी पर लग चुकी <span class="gmail-replaced">हूँ</span>. <span class="gmail-replaced">उनके</span> सुखी रहने के दिन अब आए है. उन्हें नहीं छोड़ सकती <span class="gmail-replaced">हूँ</span>.''<br/> पर, पिताजी नहीं माने, '' तुम्हें हमारे साथ चलना होगा. अन्यथा हम <span class="gmail-replaced">मुक़द्दमा</span> लगा देंगे. <span class="gmail-replaced">आख़िर</span> तुम हमारी संतान हो ?''<br/> '' आप नहीं मानेगे, '' बेटी की <span class="gmail-replaced">आँख</span> में <span class="gmail-replaced">आँसू</span> आ गए. वह बड़ी मुश्किल से बोल पाई, '' बाबा ! यह बताइए, जब <span class="gmail-replaced">आपने</span> दो भाई और चार बेटियों में से मुझे बिना बच्चे के <span class="gmail-replaced">दंपती</span> को सौंप दिया था, तब <span class="gmail-replaced">आपका</span> प्यार <span class="gmail-replaced">कहाँ</span> गया था ?'' न चाहते हुए वह बोल गई, '' मेरे असली मातापिता वहीं है.''<br/> '' वह हमारी भूल थी बेटी, '' बाबा ने कहा तो बेटी <span class="gmail-replaced">उनके</span> <span class="gmail-replaced">चरण-स्पर्श</span> करते हुए बोल उठी, '' बाबा ! मुझे <span class="gmail-replaced">माफ़</span> कर दीजिएगा. मगर, यह आप सोचिएगा, यदि आप मेरी जगह होते और <span class="gmail-replaced">आपके</span> जैविक मातापिता <span class="gmail-replaced">आपको</span> जन्म देने के बाद किसी के <span class="gmail-replaced">यहाँ</span> छोड़ देते तो आप ऐसी स्थिति में क्या करते ?'' कहते हुए बेटी <span class="gmail-replaced">आँसू</span> पौंछते हुए चल दी.<br/> बेटी की यह बात बाबा को अंदर तक <span class="gmail-replaced">कचोट</span> गई. वे कुछ नहीं बोल पाए. <span class="gmail-replaced">उनका</span> हाथ केवल आशीर्वाद के लिए उठ गया.<br/> ----------<br/> <strong>(7). डॉ० टी.आर सुकुल जी</strong><br/> <strong>फिंगर प्रिंट्स</strong></div>
<div>.</div>
<div>‘‘ क्यों मिस्त्री! ये पीले रंग वाली वही बिल्डिंग है जिसे हमलोगों ने दिनरात काम करके बनाया था’’<br/> ‘‘ हाॅं, इसकी ही नहीं इस <span class="gmail-replaced">कॉलोनी</span> के अनेक मकानों की ईंट ईंट पर हमारी अंगुलियों के निशान मिलेंगे। पर तुम क्यों पूछ रहे हो?’’<br/> ‘‘ कुछ नहीं, बहुत साल बाद यहाॅं आया हॅूं इसलिए भूल सा रहा रहा था। वाह! वे भी क्या दिन थे, अपनी <span class="gmail-replaced">मर्ज़ी</span> के बिना इसके भीतर पत्ता भी नहीं हिल सकता था।’’<br/> ‘‘ <span class="gmail-replaced">ज़रा</span> अब अन्दर जाकर देखो, वाचमेन गेट के पास भी नहीं फटकने देगा।’’<br/> ‘‘ अन्दर जाने की क्या <span class="gmail-replaced">ज़रूरत</span> मिस्त्री! यही क्या कम है कि इसे <span class="gmail-replaced">हमनें</span> बनाया था।’’<br/> -----<br/> <strong>(8). मुज़फ्फर <font color="#000000"><span class="gmail-replaced">इक़बाल</span> <span class="gmail-replaced">सिद्दीक़ी</span> </font>जी</strong><br/> <strong>अंतरद्वन्द</strong></div>
<div>.</div>
<div>आहिस्ता-आहिस्ता उसका <span class="gmail-replaced">ख़ौफ़</span> बढ़ता जा रहा था। दिल तेज़ी से किसी मशीन की तरह धड़क रहा था। हाथ-पैर काँप रहे थे। बहुत जल्द ही एक मज़बूत चार दीवारी के अंदर क़ैद हो जाना चाहता था। उसने फ़ौरन अपने कमरे का <span class="gmail-replaced">रुख़</span> किया और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। अब वैसे तो वह सुरक्षित था लेकिन अभी भी उसके अन्दर का ज्वालामुखी शान्त नहीं था। दरवाज़े के बाहर का मंज़र विवेक की आँखों से दिखाई दे रहा था। वह अपनी आँखें बंद कर बिस्तर पर लेट जाना चाहता था।लेकिन ये क्या?<br/> आँखें बंद करने के बाद तो नवीन के अन्दर जल रही ज्वालामुखी की पीले रंग वाली लपटें लाल- सुर्ख़ हो चुकीं थीं। कानों के चारों ओर एक भयानक सा शोर सुनाई दे रहा था। आग की तपिश उसके चेहरे पर भी पड़ने लगी थी। दिल का तेज़ी से धड़कना जारी था। ये एक अजीब तरह की जागृति थी या एक <span class="gmail-replaced">ख़ौफ़</span> उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। <br/> उसका दिमाग़ ख़ामोशी से यह नज़ारा देख रहा था। एक शून्य अवस्था थी। जैसे इसको पता था ये ज्वालामुखी की लपटें, ये चारों <span class="gmail-replaced">तरफ़</span> शोर की आवाज़ें पहले भी उठती रहीं हैं। आदिकाल से अन्नतकाल तक यही सब होता रहा है। <span class="gmail-replaced">नफ़रत</span> की आग की लपटें इसी तरह उठती हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है। <br/> लेकिन नवीन को तो पूरा विश्वास था पल भर में यहाँ सब कुछ जलकर <span class="gmail-replaced">ख़ाक</span> हो जाएगा। ये शोर करती आवाज़ें कानों के पर्दों को फाड़ने के लिए <span class="gmail-replaced">काफ़ी</span> हैं। क़दम इस संसार से बहुत तेज़ी से भागना चाहते हैं। एक ऐसी <span class="gmail-replaced">दुनिया</span> में जहाँ शान्ति हो शोर शराबे से कोसों दूऱ। लेकिन उठ ही नहीं पाते। <br/> अब क्या होगा बस यही संशय बना रहता है? दिल की धड़कने कैसे सामान्य होंगीं? अगर नहीं हुईं तो दिल कहीं काम करना ही बंद न कर दे? <br/> लेकिन दिमाग़ के पास तो हर चीज़ का इलाज होता है। फिर ये क्यों तमाशाई बना देख रहा है?<br/> तभी अचानक नवीन की आँख खुल जाती है खिड़की से आने वाली, तेज़ हवा के झोंके से उसकी डायरी के पेज पलटने लगते हैं। <span class="gmail-replaced">क़लम</span> टेबल से लुढ़क कर नीचे गिर जाता है। <br/> नवीन सोचता है, "अभी मुझ मैं इतनी चेतना तो बाक़ी है कि मेरी उँगलियाँ इस <span class="gmail-replaced">क़लम</span> को थाम लें।" <br/> और होता भी यही है। उसकी उँगलियाँ <span class="gmail-replaced">क़लम</span> को थाम लेती हैं। फिर <span class="gmail-replaced">क़लम</span> तेज़ी से <span class="gmail-replaced">काग़ज़</span> पर रक़्स करने लगता है। दिल की धड़कनों, ज्वालीमुखी की लपटों और कानों के पास के शोर को, जैसी ही वह काग़ज़ पर लिखता है। दिमाग़ जो लुप्त अवस्था में पड़ा था अचानक सक्रिय हो जाता है। पानी की तलाश शुरू कर देता है। कहता है, पहले इस अन्दर की ज्वालामुखी की लपटों को बुझाना पड़ेगा तभी बाहर का शोर भी शान्त होगा। <br/> तभी आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट तेज़ हो जाती है। लगता है ऊपर वाले ने भी इसके अंतर्द्वंद्व को महसूस कर लिया। एक <span class="gmail-replaced">कला-सा</span> बादल, एक कवच के मानिन्द उस ज्वालामुखी को ढक लेता है। तेज़ बारिश शुरू हो जाती है।<br/> आहिस्ता - आहिस्ता <span class="gmail-replaced">नफ़रत</span> भरी आग की लपटें प्रकृति का सामना नहीं कर पातीं और तेज़ पानी की धारा में बह जातीं हैं। नवीन <span class="gmail-replaced">इससे</span> पहले की अपनी आत्मकथा पूरी करे सब कुछ शान्त हो जाता है।<br/> -----------<br/> <strong>(9). आसिफ़ ज़ैदी जी </strong><br/> <strong>"जागृति"</strong><br/> .<br/> मुझे बहुत ख़ुशी हुई जब मेरी छोटी बेटी ने बताया की कल मौसी के बेटे आए थे और उनके साथ उनका तीन-चार साल का छोटा बेटा अरमान भी था।जिसने बहुत मस्ती की और मैंने उसे एक <span class="gmail-replaced">छोटी-सी</span> चॉकलेट दी जिसे उसने <span class="gmail-replaced">खोलकर</span> <span class="gmail-replaced">मुँह</span> में डाल-ली और <span class="gmail-replaced">छोटी-सी</span> पन्नी हाथ में लेकर मुझसे पूछने लगा डस्टबिन <span class="gmail-replaced">कहाँ</span> है मुझे ये पन्नी डालना है उसमें।<br/> ये सुनकर मैं हैरान भी हुआ और मुझे ये एहसास भी हुआ के वाक़ई पूरी तरह बदलाव लाया जा सकता है। अगर शिद्दत से <span class="gmail-replaced">उसपर</span> कोशिश की जाए।<br/> -------<br/> <strong>(10). कनक हरलालका जी</strong><br/> <strong><span class="gmail-replaced">छुट्टियाँ</span></strong><br/> .</div>
<div>सुबह से विशु बाबू कुछ परेशान से थे । सोच रहे थे कि वरुणा को कैसे <font color="#FF0000">बतलाएँगे</font> , उसे दुख होगा । पर <span class="gmail-replaced">ख़बर</span> तो देनी ही थी ।<br/> तभी चाय की ट्रे <span class="gmail-replaced">लिए</span> <span class="gmail-replaced">हुए</span> वरुणा कमरे में आई । उसने अपनी और विशु बाबू की चाय बनाई । चाय पीते पीते विशु बाबू ने वरुणा को <span class="gmail-replaced">ख़बर</span> दी कि बेटे का <span class="gmail-replaced">फ़ोन</span> आया था ।इस बार छुट्टियों में सोमू (सोमनाथ) बैंगलोर से दिल्ली न आ पाएगा । वह छुट्टियों में शिलांग जा रहा था । बेटे के आने के समय ही कुछ समय साथ बिता सकने के <span class="gmail-replaced">लिए</span> बेटी बसुधा भी अपने बच्चों के साथ बम्बई से आ जाती थी ।पर इस बार सोमू के न आने के कारण उसने भी अपना प्रोग्राम कैंसल कर दिया था । साल में एक बार छुट्टियों में ही दोनों बच्चों से वरुणा का मिलना हो पाता था । वरना पति पत्नी अकेले ही रहते थे ।<br/> वरुणा चुपचाप बैठी चाय पीती रही । इधर उसके घुटनों और कमर का दर्द कुछ <span class="gmail-replaced">तकलीफ़</span> दे रहा था ।कुछ थकान भी हो जाती थी । वैसे तो उसकी दिनचर्या <span class="gmail-replaced">बँधी</span> हुई थी ।सुबह की सैर , दोपहर में आराम , शाम को योगा क्लास , और फिर अपनी साथिनो के साथ कहीं घूम आना , या सत्संग ,या गपशप हो जाती । कभी कोई कभी कोई कुछ <span class="gmail-replaced">बनाकर</span> ले आती ।शाम अच्छी <span class="gmail-replaced">गुज़र</span> जाती ।रात में ईश्वर ध्यान कर अच्छी नींद हो जाती । <span class="gmail-replaced">थोड़ा-बहुत</span> काम था कामवाली और वह मिलकर कर लेते ।<br/> उसके सामने बच्चों के साथ के दिन घूम <span class="gmail-replaced">गए</span> । बच्चे घर आते तो रौनक आ जाती । पर वे उसके पास रहते ही कितने समय थे।<br/> " माँ , हमलोग इतने दिनों पर <span class="gmail-replaced">आएँ</span> है ,फिर समय नहीं रहेगा । आज मित्रों से जाकर मिल <span class="gmail-replaced">आएँ</span> । खाना घर पर ही खाएंगे आपके पास ।"<br/> " माँ ,मैं कुछ दिनों के लिए पीहर हो <span class="gmail-replaced">आऊँ</span> । बच्चे दादी के पास रहना चाहते थे ।उन पर जी भर कर प्यार लुटाइएगा ।"<br/> " माँ ,बच्चों को तुम रख लो तो मैं रमा के साथ पिक्चर देख <span class="gmail-replaced">आऊँ</span> , उसे साल भर बाद मिल रही हूँ ।"<br/> " माँ , आज कुछ दोस्तों को खाने पर बुला लिया है , <span class="gmail-replaced">काफ़ी</span> दिनों बाद मिलें हैं ,शाम कुछ मस्ती हो जाए । "<br/> " बच्चों चलो ,दादी को परेशान मत करो ,पहले होमवर्क कर लो ,जाते ही स्कूल है ।उनसे रात में बात कर लेना ।"<br/> " माँ ,आपके हाथ का गाजर का हलुआ ,समोसे बहुत अच्छे लगते हैं ।आज वही बनाओ । आपके हाथ का ये दस दिन का खाना हम साल भर मिस करते हैं ।"<br/> " <span class="gmail-replaced">माँ</span> ससुराल में तो एक मिनट का समय भी नहीं मिलता । मैं तो पूरे एक सप्ताह आराम करूँगी । "<br/> उसे योग , वाकिंग ,<span class="gmail-replaced">सहेलियाँ</span> , पूरी <span class="gmail-replaced">अस्त-व्यस्त</span> दिनचर्या ,थके शरीर में डोलती <span class="gmail-replaced">नज़र</span> आने लगी ।<br/> उसने अपनी चाय <span class="gmail-replaced">ख़त्म</span> की । उठते <span class="gmail-replaced">हुए</span> विशू बाबू से पूछा ," मैं अपने लिए एक कप चाय और लेने जा रही <span class="gmail-replaced">हूँ</span> । आप भी लेंगे क्या ? फिर मुझे योगा क्लास के <span class="gmail-replaced">लिए</span> जाना है ।<br/> विशू बाबू आश्चर्य चकित से वरुणा का <span class="gmail-replaced">मुँह</span> देखे जा रहे थे , वहाँ दुख तो नहीं था , बल्कि एक शान्ति और आश्वस्ति की झलक <span class="gmail-replaced">ज़रूर</span> <span class="gmail-replaced">नज़र</span> आ रही थी ।<br/> --------<br/> <strong>(11). प्रतिभा पाण्डेय जी</strong><br/> <strong>शबरी घर रामचंदर</strong><br/> .<br/> रातों रात गाँव में फेमस हो गई गंगू। <span class="gmail-replaced">अख़बार</span> टीवी हर <span class="gmail-replaced">तरफ़</span> एक ही <span class="gmail-replaced">ख़बर</span> कि कैसे वोट <span class="gmail-replaced">माँगने</span> निकले रामचंदर बाबू उस <span class="gmail-replaced">बूढ़ी</span> के कच्चे मकान में रुके और <span class="gmail-replaced">ख़ुद</span> उसकी रसोई में घुसकर मक्के की रोटी और चटनी <span class="gmail-replaced">लाए</span> और <span class="gmail-replaced">ज़मीन</span> पर बैठकर खाई। <span class="gmail-replaced">अख़बार</span> वालों ने गंगू का नया नाम शबरी दे दिया।' शबरी के घर रामचंदर' किस्म की ख़बरों से <span class="gmail-replaced">अख़बार</span> रंग गए। <br/> "अब तो सबरी माई उस थाली को जड़वा कर कच्ची दीवार में टंगवा ले <span class="gmail-replaced">जिसमें</span> रामचंदर जी जीमे थे। रोटी मिले ना मिले <span class="gmail-replaced">कम-से-कम</span> माई उसे देखकर <span class="gmail-replaced"><font color="#000000">बाकी</font></span> उम्र संतोस से तो पेट भर ले। " चाय की गुमठी में बैठे बुज़ुर्ग ने ने कहा। <br/> "क्या कहते हो मास्साब ये डिरामे विरामे काम करेंगे कि नहीं ?" चाय वाले ने गाँव के स्कूल के मास्टर साहब को चाय पकड़ाते हुए प्रश्न दागा। <br/> " शबरी हो या कोई और सबकी आँखें खुली हैं भैया। अब ना भरमा सकता कोई ।" मास्टर साहब ने आवाज़ करते हुए चाय सुड़की। <br/> " पर डिरामा है <span class="gmail-replaced">ज़बरदस्त</span> । <span class="gmail-replaced">ख़ानदानी</span> अमीर रामचंदर नेता जी , कच्चे घर में बैठकर मोटे अनाज की कच्ची पक्की रोटी खा रहे हैं। और तुम क्यों मुस्कुरा रहे हो भाई ? सामने बैठे <span class="gmail-replaced">क़स्बे</span> के एक <span class="gmail-replaced">अख़बार</span> के युवा संवाददाता के चेहरे पर रहस्य्मय मुस्कान देखकर <span class="gmail-replaced">बुज़ुर्ग</span> ने पूछा।<br/> "नहीं नहीं कुछ नहीं।ला एक चाय और पिला यार बची खुची नींद भी खुले।" युवक की मुस्कान अब और चौड़ी हो गई थी। उसके कानों में वो शब्द गूँज रहे थे जो गंगू ने उससे कल कहे थे। "बेटा , जो रामचंदर जी की थाली में रोटी थी वो हमारे चूल्हे की रोटी तो थी नहीं। अपने साथ ही <span class="gmail-replaced">लाए</span> थे सायद। खेर हमें क्या। इत्ते बड़े पैसे वाले हमारी कुटिया में <span class="gmail-replaced">आए</span> ,ये ही क्या कम है."</div>
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<div><strong>(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं)</strong></div> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-47 में स्वीकृत लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2019-02-28:5170231:Topic:9771512019-02-28T18:21:46.294Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><strong>(1). आ० मिथिलेश वामनकर जी.</strong><br></br><strong>समाधान</strong><br></br><br></br><span>कॉलबेल का स्वीच आँखों के आगे और केवल एक उंगली की दूरी पर था लेकिन शम्भू उसे दबाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उलझनों की गठरी लिए, कितना कुछ सोच लिया उसने। पहली बीवी बेटी का बोझ मढ़कर परलोक सिधार गई और दूसरी आई तो उसने बैंक का कर्ज़दार बना दिया। इस उम्र में दूसरे काम भी पकड़ लूँ लेकिन ये शरीर भी साथ नहीं देता। यह सोचकर उसका दिमाग और भन्ना गया। एक झटके से उसने, उस दरवाजे की कॉलबेल का स्वीच दबा दिया जिस पर…</span></p>
<p><strong>(1). आ० मिथिलेश वामनकर जी.</strong><br/><strong>समाधान</strong><br/><br/><span>कॉलबेल का स्वीच आँखों के आगे और केवल एक उंगली की दूरी पर था लेकिन शम्भू उसे दबाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उलझनों की गठरी लिए, कितना कुछ सोच लिया उसने। पहली बीवी बेटी का बोझ मढ़कर परलोक सिधार गई और दूसरी आई तो उसने बैंक का कर्ज़दार बना दिया। इस उम्र में दूसरे काम भी पकड़ लूँ लेकिन ये शरीर भी साथ नहीं देता। यह सोचकर उसका दिमाग और भन्ना गया। एक झटके से उसने, उस दरवाजे की कॉलबेल का स्वीच दबा दिया जिस पर आर.डी. की नेमप्लेट लगी थी। आर.डी. यानी राम दयाल उसका स्कूली सहपाठी।</span><br/><span>दरवाजा खुला। दाख़िल होते ही देखा कि आर.डी. इंडस्ट्रीज का मालिक सोफे पर पसरकर सिगरेट के छल्ले बना रहा है।</span><br/><span>"अरे आओ शम्भू बैठो।"</span><br/><span>शम्भू सोफे के एक कोने में दुबक गया।</span><br/><span>"और कहो भई, सब कैसा चल रहा है?" शम्भू की झेंप भांपते हुए आर. डी. ने पूछा।</span><br/><span>"हुंह"</span><br/><span>"कहो कैसे आना हुआ?"</span><br/><span>"कुछ सहयोग चाहिए था।"</span><br/><span>"सहयोग कैसा सहयोग? भई खुल के कहो।"</span><br/><span>" दो साल पहले ही मैंने मकान के लिए कर्ज लिया था। अब इस उम्र की लाचारी ने नौकरी भी छीन ली। महीने की क़िस्त और घर की किल्लत से परेशान हो गया हूँ। ऊपर से घर में जवान बेटी है सो अलग।"</span><br/><span>"भई परेशानी तो सब जगह है। तुम धन के लिये परेशान हो तो मैं अपनी विरासत के लिए।"</span><br/><span>"मतलब?" शम्भू के लिए सिगरेट के छल्ले बनाते आर.डी. की परेशानी समझ से परे थी।</span><br/><span>"भई मतलब ये कि तुम्हारी भाभी बिना औलाद दिए ही दुनिया से कूच कर गई। तुम तो किस्मत वाले हो कि तुम्हारी विरासत के लिए बेटी ही सही, पर है तो।"</span><br/><span>"...."</span><br/><span>शम्भू के होंठ फड़फड़ाये, जैसे कहना चाहते हों कि विरासत है कहाँ? लेकिन वह चुप रहा।</span><br/><span>"बस एक वारिस के लिए फिर से ब्याह करना चाहता हूँ। पिछले दिनों कुछ रिश्ते आये थे मगर कोई विधवा थी तो कोई अधेड़। "</span><br/><span>नौकर चाय बिस्किट रखकर गया तो आर.डी. ने बात आगे बढ़ाई- "अब ऐसे ब्याह से वारिस तो कठिन है भई।" और आर. डी. ने एक जोरदार ठहाका मारा।</span><br/><span>इस ठहाके ने शम्भू को सहज कर दिया।</span><br/><span>"ये तो सही कहा आपने। दूसरी शादी बड़ी सावधानी से करनी चाहिए। अब देखिए मुझे मन मुताबिक लड़की के लिए कितना खर्च करना पड़ा। ऊपर से पहली रात को ही उसने अपना बड़ा मकान खरीदने की ज़िद पकड़ ली। अब तक उसकी मुराद पूरी करने की सजा पा रहा हूँ।"</span><br/><span>"अरे हाँ तुम सहयोग की बात कर रहे थे। मैं अपनी ही लेकर बैठ गया।"</span><br/><span>ये सुनकर शम्भू को जैसे पूरा प्लेटफार्म ही मिल गया। उसने पूरी रूदाद सुना डाली। आर. डी. ने बस "हुँह" कहा। शम्भू ने आगे कहा-</span><br/><span>"बैंक का कर्ज और घर में कुँवारी लड़की, बस इसीलिए कुछ सहयोग चाहता था।"</span><br/><span>कुँवारी लड़की सुनकर आर. डी. का दिमाग चौकन्ना हो गया। इसके बाद कमरे में ठहाकों का दौर चला। दोनों ने एक दूसरे का मुँह मीठा किया।</span><br/><span>आर. डी. को विरासत की चिंता से मुक्त कर शम्भू नोटों से भरा बैग लेकर चला तो जैसे खुशी से झूम रहा था क्योंकि उसने बेटी का रिश्ता भी तो तय कर दिया था।</span><br/><span>-------------</span><br/><strong>(2). आ० कल्पना भट्ट ('रौनक़') जी </strong><br/><strong>एल.ओ.सी</strong><br/><br/><span>प्रिय डायरी</span><br/><br/><span>सुनो न! आज मैंने एक चित्र देखा। उसमें एक आँख थी, उसमें खिड़की की सलाखें बनी हुईं थी, उन सलाखों के पीछे एक हाथ था। तुम भी सोच रही होगी मैं पागल हूँ, इस चित्र का उल्लेख क्यों कर रहा हूँ। तो सुनो! आज मैं तुमसे कुछ साझा करना चाहता हूँ। यह बात मैं किसी और से नहीं कर सकता। तुम तो मेरी पुरानी साथी हो, मेरी हमराज़ रही हो बचपन से... उस चित्र को देखकर मैं बहुत विचलित हुआ हूँ, पहली नज़र में तो ये चित्र मुझे समझ में नहीं आया। पर यह मेरे ज़हन से जा भी नहीं रहा था। मेरे मोबाइल की गैलरी में इसको बार-बार देख रहा था। ये चित्र मुझसे कुछ कह रहा था। आज मैं इसकी बात को कुछ हद तक समझ पाया हूँ। मैं एक अमीर घर से हूँ, यह तो तुमको पता ही है, बचपन से नौकर-चाकरों के बीच रहा। घर में बाकि सब तो अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे। पिताजी अपने बिजिनेस में, अक्सर टूर पर रहते थे, दादी अपने पूजा-पाठ में रहती, कभी कभी अपने संगी साथियों के साथ घूमने निकल जाती, माँ को क्लब और किटी पार्टीज से फुर्सत न मिलती। सब को आज़ादी थी, पर मुझे घर से बाहर जाने की आज़ादी नहीं थी, गर जाना होता तो ड्राईवर के साथ मेरी केअर टेकर मेरे साथ होती। मैं अपने दोस्तों को देखता था, किस तरह से आज़ादी से वे सब मिलझूल कर खेलते थे। मुझसे कहा था," बेटा! अपने स्टेट्स का ख्याल रखा करो। चाहो तो क्लब चले जाया करो, वहाँ अपने स्टेट्स के बच्चों से दोस्ती करो...। मुझे खुले आसमान के नीचे, मिट्टी में खेलने की इच्छा होती थी, पर सब... तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाहता हूँ, अपने ही घर में क़ैद हो गया था, इस आँख में मैंने खुद को अपने ही घर में कैदी पाया, जो इन सब से मुक्त हो पंख लगाकर उड़ना चाहता था। पर यह उस वक़्त सम्भव नही लग रहा था। कुछ महीनों बाद पिताजी का स्वर्गवास हो गया, दादी भी इस गम में चल बसीं,अब घर में सिर्फ माँ और मैं...नहीं नहीं और सब नौकर... पर अब इतने नौकरों की क्या जरूरत थी? धीरे-धीरे माँ ने सब को नौकरी से मुक्ति दे दी। अब सिर्फ केअर टेकर, एक बाई जो घर की सफाई करती , और एक कूक! आज मैं बड़ा हो गया हूँ, तो बचपन के इस क़ैद को सोच कर परेशान हो जाता हूँ, क्या बड़े घरों के बच्चों की समस्यायों का कोई समाधान नहीं होता! अब मैं स्वतन्त्र हूँ, पर अब मैं खुद अपनी ही आँखों में क़ैद हो चूका हूँ... यही मेरी ज़िन्दगी है... बिज़िनेस और घर, और वही टूर्स... अपने पापा की तरह.... मेरा बेटा भी क्या खुद को.... पता नही। पर कहीं तो होगा न इसका समाधान। अमीरी और गरीबी के बीच की लकीर... यह कोई एल.ओ.सी तो नहीं.... डायरी! गर तुम्हारे पास कोई समाधान हो तो मुझे अवश्य बताना...इंतज़ार करूँगा।</span><br/><br/><span>तुम्हारा लेखक अविनाश</span><br/><span>------------</span><br/><strong>(3). आ० कनक हरलालका जी </strong><br/><strong>दिल की आवाज</strong><br/><span>-</span><br/><span>"सुनो, अम्मा बहुत नाराज हैं।"</span><br/><span>"हां हमने भी तो स्वार्थवश उन्हें बहुत दुःख पंहुचाया है। यह तो भला हुआ कि मेरे बहुत अनुरोध करने पर वे वृद्धाश्रम से तुम्हारी जचगी के लिए घर आने पर तैयार हो गईं।"</span><br/><span>"हाँ..., पर नाराज तो वे हैं ही न। माना कि हमसे गलती हो गई पर वे तो कुछ बोलती भी नहीं हैं। बस चुपचाप जितनी जरूरत हो उतना काम कर देती हैं।"</span><br/><span>"मुनुवा को तो खिलाती हैं न।"</span><br/><span>"नहीं, मुनुवा की तरफ तो नजर उठा कर भी नहीं देखतीं। कल पड़ोस वाली आंटी से बात कर रही थीं तो मैंने सुना कह रहीं थीं कि मैं तो बस कामवाली हूँ, मेरा उनका कोई नाता नहीं है।"</span><br/><span>"अरे माँ हैं, गुस्सा हैं, देखना एक दिन मान ही जाएंगी...।"</span><br/><span>तभी बच्चे ने रोना शुरू कर दिया।</span><br/><span>"अरे.. लड़का कितनी देर से रो रहा है...। कहाँ है उसके माँ बाप...? मुझे क्या..? जब माँ को ही परवाह नहीं है तो मुझे क्या मतलब...।</span><br/><span>ओह....।। कितनी देर से कितनी बुरी तरह रो रहा है। पता नहीं उसकी माँ कहां गई होगी..।।"</span><br/><span>अब वे अधिक नहीं रुक सकीं। आगे बढ़ कर बच्चे को गोद मे उठा ही लिया,</span><br/><span>"अरे रे रे..चुप...चुप.. रोते नहीं...। वैसे तू भी अपने बाप की तरह ही रोता है...चुप हो जा...। वो भी छोटा था तो ऐसे ही रोता था...।बड़े हो कर भी अपने बाप की तरह ही निकलना... उन्हें भी वृद्धाश्रम में छोड़ आना...। चुप..चुप..।।"</span><br/><span>उधर परदे के पीछे बेटे बहू चुपचाप शर्मिंदा से मुस्कुरा उठे।</span><br/><span>--------------------</span><br/><strong>(4). आ० मनन कुमार सिंह जी </strong><br/><strong>लकीरें</strong><br/><span>-</span><br/><span>खुदा ने कुछ लकीरें खींची।आदमी हुए,औरतें हुईं। सृष्टि-क्रम चल निकला।फिर लकीरें खींची जाने लगीं।आदमी खुदा होने लगा।लकीरों की सघनता परस्पर विक्षोभ का सबब हुई।पसरे पैर सिकोड़ने की नौबत आ गई,पर यह असंभव लगा,इज्जत के खिलाफ भी।सिकुड़ी धरती विनय करती,पर कोई सुनता नहीं।दंभी खुदाई का दौर जारी रहा। आदमी आदमी से क्या,खुद दे भी जुदा हो चला।दिल-दिमाग का मेल खत्म होने लगा।फिर पैर से पैर टकराए,अब सिर से सिर टकराते हैं।नर धर हुआ चल रहा है।कहीं भी,कोई भी,किसी से भी टकरा सकता है।ग्रह-तारे गवाह हैं कि जब आपस में टकराए तो लुढ़क गये,उल्का-पिंड बनकर।वे हँस रहे हैं,कि विवेक अपनी टेक भूल गया।हम मिटते हुए भी उजाला बिखेरते गये।आदमी तो प्रकाशित पुंज होते हुए भी अँधेरे गर्त में जा रहा है।हाथ में कलम लिए बैठे लेखक से एक टूटता तारा पूछता है-</span><br/><span>-क्या कर रहे हो?</span><br/><span>-समाधान ढूँढ़ रहा हूँ।</span><br/><span>-कैसा समाधान?</span><br/><span>-तेरे नहीं बिखरने का।</span><br/><span>-यह नियति है।हम टूटकर धरती पर आते हैं।जितना हो सके, उजाला फैलाते हैं।</span><br/><span>-मैं वही रौशनी ढूँढ़ रहा हूँ,जो भटके हुए को रास्ता दिखाये।</span><br/><span>-शाबाश!देखो,मैं वह ज्योति-पुंज हूँ।भूले को राह दिखाता हूँ,खुद को मिटाकर,औरों को नहीं।</span><br/><span>-मैं भी खुद को अपने शब्दों में मिटा रहा हूँ।रौशनी होगी क्या?</span><br/><span>-अवश्य होगी मेरे अदबकार,अवश्य होगी।मन-मस्तिष्क के मेल का खेल जारी रखो।</span><br/><span>-जरूर।मैं समाधान मिलने तक इस हेतु अपने शब्द-बीज बोता रहूँगा मेरे भाई!</span><br/><span>-आमीन',टूटा तारा बोला और अनंत में विलीन हो गया।</span><br/><span>---------------</span><br/><strong>(5). आ० तस्दीक अहमद खान साहिब </strong><br/><strong>सियासत</strong><br/><span>.</span><br/><span>अनवर अंसारी ने विधान सभा चुनाव का पर्चा दाखिल करने के बाद अपने कार्य कर्ताओं को घर पर मीटिंग लेते हुए अपनी परेशानी ज़ाहिर करते हुए कहा, "इस बार का चुनाव पिछले चुनाव के मुक़ाबले मुश्किल हो गया है इसलिए मशवरे के लिए आप सबको यहाँ पर बुलाया है"</span><br/><span>एक कार्यकर्ता बोला, "आपकी छवि नरेश गुप्ता से अच्छी है, पिछला चुनाव आपने जीता था, आप ऎसा क्यूँ कह रहे हैं"</span><br/><span>अनवर ने जवाब में कहा, "पिछली बार सीधी टक्कर थी मगर इस बार मुस्लिम वोट के बिखराव के लिए नरेश गुप्ता ने लालच देकर खालिद अंसारी का खड़ा करवाया है"</span><br/><span>दूसरे कार्यकर्ता ने कहा," आपने क्षेत्र में काम करवाए हैं, खालिद अंसारी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा "</span><br/><span>अनवर ने जवाब में कहा, "खालिद अंसारी की वजह से मुस्लिम वोट दो जगह बटेगा जिसका फ़ायदा नरेश गुप्ता को होगा "</span><br/><span>तीसरे कार्यकर्ता ने कहा," मुस्लिम वोट न बटे इसका क्या समाधान है"</span><br/><span>अनवर ने जवाब दिया," इसके लिए ही आप सबको मशवरे के लिए बुलाया है "</span><br/><span>एक बुज़ुर्ग कार्यकर्ता फ़ौरन बोल पड़े," खालिद अंसारी तो बैठेंगे नहीं, आप उन्हें समर्थन दे दीजिए "</span><br/><span>अनवर ने ये सुनते ही खालिद अंसारी को फोन मिलाकर कहा," हम दोनों अगर खड़े रहे तो जीत नरेश गुप्ता जैसे बुरे आदमी की होगी इसलिए मैं बैठ जाता हूँ "</span><br/><span>दूसरी तरफ से खालिद अंसारी की आवाज़ आई, "माफ़ करना अनवर भाई मैं लालच में आ गया था, मैं चाहता हूँ आप जैसा नेक इंसान चुनाव जीते, मैं कल ही नाम वापस ले लूँगा"</span><br/><span>--------------</span><br/><strong>(6). आ० आसिफ ज़ैदी जी </strong><br/><strong>समाधान</strong><br/><br/><span>भोलू को रुपये की सख़्त ज़रूरत पड़ी तो वो अपने दोस्त पप्पू के पास गया और ₹5000 इस वादे पर ले लिए कि अगले महीने की 1 तारीख़ को लौटा देगा। लेकिन जब एक तारीख़ आई तो उसके पास रुपए की व्यवस्था नहीं हुई। तो उसे अपने दूसरे दोस्त चम्पू की याद आई चम्पू से उसने ₹5000 उधार लिए इस वादे पर के अगले महीने की 1 तारीख़ को लौटा देगा। फिर एक तारीख़ आ गई भोलू, पप्पू के पास गया और कहा मैंने तुम्हारे पहले रुपये दे दिए थे इसलिए मुझे ₹5000 फिर उधार दे दो, अगले महीने की 1 तारीख तक। पप्पू ने दे दिए,तो चंपू को दे दिए। फिर जब पप्पू के तकाज़े की तारीख़ आई तो चम्पू से ₹5000 व्यवहार की दुहाई देकर फिर ले लिये और पप्पू को दे दिए।</span><br/><span>अब ये सिलसिला चालू हो गया चम्पू से पप्पू को,पप्पू से चम्पू को। कई महीने गुज़र गए। एक दिन परेशान होकर भोलू ने (समस्या का समाधान ढूंढा) दोनों को काका की होटल पर चाय नाश्ते की दावत दी। और चाय नाश्ता करने के बाद दोनों से बोला यार चम्पू जो रुपये मैं तुझसे एक तारीख़ को ले जाता हूं,वह पप्पू को देता हूं। और पप्पू से जो लाता हूं तुझे दे देता हूं। अब मैं यह करते करते थक गया यार..। लिहाज़ा तुम दोनों एक काम करो हर महीने की 1 तारीख को ₹5000 एक दूसरे से लेते देते रहना।(हाथ जोड़कर) और मुझे माफ़ कर दो यार (पप्पू,चम्पू कुछ समझते और कहते) ये कहकर भोलू चम्पत हो गया।</span><br/><span>------------</span><br/><strong>(7) आ० विनय कुमार जी </strong><br/><strong>समाधान</strong><br/><span>.</span></p>
<div>"अब जब उस कायर देश ने जंग की शुरुआत कर ही दी है तो हमें भी पीछे नहीं हटना है. हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगें", सभागार में माहौल गर्म था, वहां उपस्थित हर आदमी उत्तेजित था.<br/>"जंग अगर अपरिहार्य हो तो होनी ही चाहिए, लेकिन अगर सिर्फ छुद्र तात्कालिक फायदे के लिए जबरदस्ती कराया जा रहा हो तो इसका विरोध किया जाना चाहिए", वहां मौजूद एक वक्ता ने अपनी बात पूरी गंभीरता से रखी.<br/>अभी उस व्यक्ति ने बात ख़त्म भी नहीं की थी कि सभागार में चारो तरफ से शोर उठाने लगा. वहां मौजूद हर शख्स की निगाह में वह व्यक्ति देशद्रोही जैसा लग रहा था. कुछ अति उत्साही लोगों ने उसे गाली देना भी शुरू कर दिया और बाकी लोगों ने उन्हें रोकने की जहमत भी नहीं उठायी.<br/>खैर एक शख्स उस व्यक्ति के समर्थन में आगे आया और उसने लोगों को रोका. चूँकि वह शख्स काफी प्रभावशाली था इसलिए लोग उसकी बात मानने को मजबूर हुए और खामोश हो गए. लेकिन उनकी निगाहें अभी भी उसके लिए नफरत और आग ही बरसा रही थी.<br/>"अच्छा आप अपनी बात को स्पष्ट कीजिये कि आपका मतलब क्या था?, उस शख्स ने पूछा.<br/>उस वक्ता ने आँखों ही आँखों में उस शख्स को धन्यवाद दिया और फिर उसने अपनी बात रखी "मुझे जो लगता है वह मैं कह रहा हूँ. हो सकता है कि आप लोग उससे असहमत हों लेकिन कृपया इसे समझने का प्रयास करें. युद्ध अगर आवश्यक हो तो लड़ना ही है लेकिन अगर युद्ध कराया जा रहा हो तो इसका विरोध किया जाना चाहिए. मुझे नहीं पता कि आप लोगों में से कितनों के घर से लोग फ़ौज में हैं, लेकिन मेरे कुछ रिश्तेदार जरूर हैं. सैनिक लड़ने के लिए ही हैं और वह शहीद भी होंगे, लेकिन उनकी बलि चढ़ाई जाए, यह गलत है. बाकी एक बात और, युद्ध समस्या का समाधान नहीं है, उसके लिए बातचीत ही होनी चाहिए".<br/>अपनी बात रखकर वह व्यक्ति सभागार से निकल गया, पीछे सभागार में मौजूद लोगों का शोर बढ़ता ही जा रहा था.<br/>-----------<br/><strong>(8). डॉ टी.आर सुकुल जी </strong><br/><strong>समाधान ?</strong></div>
<div>.<br/>‘‘बड़ी मुसीबत है, पैदल चलना भी मुश्किल हो गया है । रोड पर हर जगह दिनरात वाहनों की भीड़ रहती है। ’’<br/>‘‘ सच कहा यार! फुटपाथ तो बचे ही नहीं हैं, उन पर दूकाने सजी रहती हैं या फिर अव्यवस्थित वाहन खड़े रहते हैं और रोड पर तेज गति से वाहन चलते हैं।’’<br/>‘‘ लोगों में ‘सिविक सेंस’ बचा ही नहीं, ट्रेफिक पुलिस भी उनकी लापरवाही को अनदेखा करती है। कोई बड़ी बात नहीं है, पुलिस चाहे तो सब कुछ ठीक हो जाए।’’<br/>पार्क में वैठे बुजर्गों के बीच चल रही इस वार्ता को सुन सामने वैठा नवयुवक पास आकर बोला,<br/>‘‘‘‘ अंकल! मैं अभी सिलेक्ट हुआ नया पुलिस इंस्पेक्टर हॅूं, मैंने एक ओवरलोड ट्रक को पकड़ कर कानूनी कार्यवाही करना चाही, दस मिनट के भीतर ही परिवहन मंत्री ने फोन किया, इंस्पेक्टर! ट्रक को छोड़ दो ये अपने आदमी हैं। मैंने कहा,<br/>‘‘लेकिन सर! ओवरलोड के अलावा इसमें तो कुछ संदिग्ध माल भी भरा है, बिना जाॅंच कराए छोड़ना कानून का उल्लंघन होगा, कैसे छोड़ दॅूं?<br/>‘‘ भेरी गुड, नया नया है न! तू कानून का रखवाला है और मैं कौन हॅूं जानता है? मैं हॅूं कानून का बाप, कानून बनाने वाला, मैं जो कहता हॅूं वही कानून होता है, समझा?’’<br/>‘‘ परन्तु सर! ट्रेनिंग के बाद हमने कानून की रक्षा की शपथ ली है, क्या मैं आपके कहने पर उसे तोड़ दॅूं?’’<br/>‘‘ कितनी बहस करता है रे! अब, तू ही निर्णय कर ले, शपथ तोड़कर ट्रक को छोडता है़ या फिर कुर्सी?’’<br/>मैंने शपथ नहीं तोड़ी, अब मैं सस्पेंडेड हॅूं’’’’<br/>‘ बेटा! यही हो रहा है, लालैसनेस बढ़ती जा रही है, जनता को कानून का पाठ पढ़ाने वाले नेता स्वयं कानून का पालन नहीं करते। अब तो लोग कहने लगे हैं कि कानून के विपरीत काम न करा पाए तो नेता काहे के?’<br/>------------<br/><strong>(9). योगराज प्रभाकर</strong><br/><strong>सखा</strong><br/>.<br/>इस दूरदराज़ और निर्जन इलाक़े में उसे दोस्तों की कमी बहुत खलती। उदासी के गहरे काले <strong>बादल</strong> हर समय उसके आसपास मंडराते रहतेl वह अपनी मनपसंद विदेशी विडियो गेम से भी बहुत जल्द ऊब गयाl उसके पिताजी ने उसे महँगा मोबाइल फोन खरीदकर दे दिया। अब तो उसे दोस्तों की कमी और भी शिद्दत से महसूस हुई, वह फिर से उदासी के गहरे सागर में डूब गया। माता-पिता से बेटे की उदासी देखी नहीं जा रही थीI उन्होंने उसे नई बाइक दिलवा दी। वह कुछ दिन हवा की रफ़्तार से बाइक दौड़ाता रहा, उदासियों को दूर धकेलता रहा। उसके चेहरे की लालिमा देखकर पिता ने राहत की साँस ली। लेकिन सुनसान सड़कें उससे अक्सर पूछतीं, 'तुम अकेले क्यों हो? तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं?" वह फिर से उदास रहने लगा।<br/>.<br/>यह उदासी उसके माता-पिता के दिल पर आरियाँ चलाने लगतीं। उन्होंने दुनिया की हर क़ीमती चीज़ अपने बेटे के क़दमों में लाकर रख दी मगर बेटे की आँखें हर चीज़ में दोस्त तलाशती रहती और उन्हें न पाकर उदासी से लबालब हो जातीं। उस शाम चिंतित माँ ने उसके ह्रदय के अकेलेपन से खुलकर गुफ़्तगू की। माँ को उत्तर ढूँढने में अधिक समय नहीं लगा थाI माँ के चेहरे पर एकदम मुस्कुराहट के फूल खिल उठे थे।<br/>.<br/>आज जब उदासी उसकी दहलीज़ पर पहुँची तो कमरे के अंदर आ रही खिलखिलाहट भरी वार्तालाप की स्वरलहरी सुनकर सहसा ठिठककर वहीँ रुक गई। भीतर झाँककर देखा तो वह प्रसन्नचित्त, हँस-हँसकर रंग-बिरंगी किताबों से बातें कर रहा था। उसके अंदर का मुरझाया हुआ फूल अब पूरी तरह खिला हुआ था। उसने अंदर जाने के लिए पाँव बढ़ाया ही था कि किताबों ने उसे घूरकर देखा और चेतावनी भरे स्वर में कहा,<br/>“दूर हो जाओ यहाँ से, अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं।”<br/>------------<br/><strong>(10). आ० बबिता गुप्ता जी </strong><br/><strong>समाधान </strong><br/>.</div>
<div>अकस्मात हुई ट्रेन दुर्घटना हुई जनक्षतिग्रस्त परिवारों को राहत राशि की घोषणा की,जिसमें म्रतको में लक्ष्मी भी थी.परलोक सिधारी लक्ष्मी की माँ बेहाल थी,दादी रोते हुये समझा रही थी, ‘भगवान को यही मंजूर था,तेरा तो बोझ हल्का कर गई……जाते-जाते दो जून की रोटी का इंतजाम कर गई........’<br/>दादी की बातों में अफसोस की जगह संतोष झलक रहा था,ऐसा सुन लक्ष्मी की माँ खीझ कर चिल्लाते हुये बोली, ‘तुम सब के लिए बोझ थी,पर वो हमारे कलेजे का टुकड़ा थी.’<br/>सिर पर हाथ रखे दुखित घीसू का मन ,लक्ष्मी के साथ की गई उपेक्षा को याद कर,आत्मग्लानि से भर गया.उसकी आँखों के सामने,दौड़कर आती लक्ष्मी पानी का गिलास लाते दिखने लगी,जब वो काम से लौटकर आता था,कैसे वो पैरों से लिपट जाती और कुछ देने के लिए हाथ फैला देती.<br/>घीसू की सबसे छोटी औलाद,दो बेटी और एक लड़के के बाद की,राम-लखन की जोड़ी बनाने का,दादी का ज़ोर, परिणाम लक्ष्मी का जन्म,सुनकर पूरे घर को साँप सूंघ गया,सिवाय लक्ष्मी की माँ के.दादी की मुराद पर घड़ों पानी पड़ जाने पर,नवजात शिशु ने दुनियाँ देखने के लिए आंखे भी ना खोली थी,कि कोसने लगी, ‘लो,पहले ही क्या दो-दो का बोझ कम था,सो एक और चली आई.’<br/>पास बैठी बुआ सास भी नाक-भौ सिकोड़कर अपनी बात से जले पर नमक छिड़ककर,एक लंबी सास लेकर कहने लगी, ‘बिचारा,दुखियारा बाप,दो वक्त की रोटी की कैसे तो जुगाड़ कर पाता हैं,फिर कैसे,तीन-तीन को व्याहेगा?’<br/>घीसू भी लक्ष्मी के पैदा होने में,अपनी पत्नी,सुम्मों को दोषारोपित करते हुये कहता, ‘मरे ना,माछों दे.’<br/>सब की कटुभरी बातें सुन लक्ष्मी को सीने से लगा सुम्मों चिल्लाते हुये कहती, ‘तुम सब की जुवान जले.मेरी लक्ष्मी,अपने नाम जैसा काम करेगी,देखना.’<br/>घीसू,सुम्मों की कही बात की खिल्ली उड़ाते हुये,उपहास भरे शब्दों मे कहता, ‘खोटे सिक्के कभी चले हैं,बड़ी पंडिताईन बनती हैं........’<br/>अपने में ही खोये घीसू की आँखों से आँसू बहते देख,दादी ने उसे झकझोरते हुये कहा, ‘जाने वाले के लिए रोकर,दान में मिली लक्ष्मी को नहीं ठुकराते.’<br/>अपने आप से बड़बड़ाता हुआ घीसू अपनी पत्नी की कही बात याद करने लगा,कि लक्ष्मी,लक्ष्मी ही थी,जैसा नाम......,वैसा ही काम........... ओ<br/>------------</div>
<p><strong>(11). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी '</strong><br/><strong>स्ट्राइक्स' स्ट्राइक - (लघुकथा) :</strong><br/><br/><br/><span>"न हड़तालों को वाजिब मानता हूं और न ही शल्यचिकित्सात्मक सैन्य स्ट्राइक को! बैठ कर चर्चा करके कोई समाधान निकाला जाना चाहिए, बस!" मिर्ज़ा सर जी के भाषण के इस अंश का अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के कुछ शिक्षकगण भी उपहास कर रहे थे और कुछ मुंह लगे विद्यार्थी भी। </span><br/><span>"ऐसे लोगों के मुंह लगना भी ठीक नहीं!" यह सोच कर आज वे स्टाफरूम में बैठे हुए अपने किसी काम में व्यस्त थे।</span><br/><span>"अच्छा हुआ! ऐसे ही दुश्मनों के घर अचानक सीधे घुस कर स्ट्राइक कर देना चाहिए! चालीस के बदले चार सौ उड़ा दिए! मज़ा आ गया!" एक शिक्षिका ने लगभग उछलते हुए कहा।</span><br/><span>"कल तो हमारे यहां भी मिठाइयां बांटी गईं; सबको बधाइयां दीं गईं!" दूसरी शिक्षिका ने मिर्ज़ा सर की ओर देखते हुए ऐसे ढेर सारे समाचार सुना डाले।</span><br/><span>"शराफ़त का ज़माना नहीं रहा अब! बहुत बर्दाश्त कर ली! अब तो सबक़ सिखा ही देना चाहिए दुश्मन को!" पहली वाली इतने अधिक जोश में बोल पड़ी कि मिर्ज़ा सर के काम पर वे बोल स्ट्राइक कर गए। गर्दन पीछे घुमा कर वे उन सभी शिक्षिकाओं को देखने लगे; लेकिन चुप्पी साधे रहे।</span><br/><span>"समाधान में देर नहीं करना चाहिए, हम औरतों को भी! मैं तो बिल्कुल नहीं दबती अपने हसबैंड से भी! कोई भी ग़लत बात स्ट्राइक हुई, तुरंत ही रिएक्ट कर राइट कर देतीं हूं!" पिछले वर्ष ही विवाहित हुई शिक्षिका ने चर्चा में दिलचस्पी लेते हुए कहा ही था कि उनके बगल में बैठी जींस-टॉप पहनी नवनियुक्त युवा शिक्षिका टांगें फैला कर कमर पर हाथ रखकर बोली - "मैं तो अपने पापा से भी कह देती हूं कि नये ज़माने की पढ़ी-लिखी हूं! नो टोका-टाकी,नो रोका-राकी! जो पहनना है, पहनूंगी; जो करना है करूंगी!" इतना कहकर इधर उसने अपने दोनों हाथ ऊपर की ओर लहराये और उधर मिर्ज़ा सर की निगाहें उसके ऊपर की ओर सरकते टॉप पर और फिर उघड़े उदर पर पड़ीं! तुरंत उन्होंने अपना पढ़ने वाला चश्मा आंखों पर चढ़ाया और जो पुस्तक हाथ में आई, उसी के पन्ने सिर झुका कर ऐसे पढ़ने लगे जैसे कि उन पर तहज़ीब ने करारी स्ट्राइक की हो। तभी घंटी बज गई और वे तेज क़दमों से अपनी अगली कक्षा में धड़ाधड़ घुस गये! देखा कि दो छात्र आपस में हाथापाई कर अभद्र बड़बोलापन कर रहे थे।</span><br/><span>"साले तेरे घर में सीधे घुस कर ऐसी स्ट्राइक करूंगा कि गिरा, तो उठ भी नहीं पायेगा!" एक छात्र चीखा।</span><br/><span>"हां, हां, तेरे पास भी उधार की कोई विदेशी ताक़त है न! तभी तो सक्सेना सर तुझे हमारी कक्षा का आतंकवादी कहते हैं!" दूसरे ने जवाबी जुमला उगला।</span><br/><span>मिर्ज़ा सर ने 'गर्व' और 'आसिफ़' नाम के उन दोनों छात्रों के कान पकड़कर दोनों को कक्षा के सामने हाथ ऊपर करवा कर खड़ा कर दिया।</span><br/><span>"चुप हो जाओ बे सब लोग! सर जी अब ज़रूर ताजा समाचार सुनायेंगे या पड़ोसी देशों और पावरफुल देशों की करतूतें!" पीछे बैठे एक लम्बे से छात्र ने अपनी टांगें बेंच के बाहर फैलाते हुए कहा।</span><br/><span>"देखो बच्चों, अगले महीने से तुम्हारी वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो रही हैं। ताज़े समाचारों से अवगत भले रहो, लेकिन अपना मन केवल पढ़ाई पर केंद्रित करो! ऐसी रणनीति से परीक्षाओं से लड़ो कि मनचाही विजय मिले!"</span><br/><span>मिर्ज़ा सर इतना बोल कर ब्लैकबोर्ड पर 'रिवीज़न टेस्ट' के प्रश्न लिखने लगे। तभी पीछे से एक मोटा से विद्यार्थी बोला - "सर, तीसरा विश्व युद्ध अब तो शुरू हो जायेगा न! हमें देखना है; मज़ा आयेगा!" इतना कहकर वह अपनी टेबल पर तबले सी ताल देने लगा! </span><br/><span>मिर्ज़ा सर सिर्फ इतना ही बोले - "ऐसा तो हमें सपने में भी नहीं सोचना चाहिए! चौदह साल के हो चुके हो! सेहत, पढ़ाई और करिअर की सोचो! मौक़ापरस्ती चल रही है देश-दुनिया में तो!"</span><br/><span>"सर, ये मौकापरस्ती क्या होती है?" आगे बैठी एक छात्रा ने पूछा।</span><br/><span>"अवसरवादिता!" जवाब दिया गया, जिस पर सज़ा में खड़े छात्रों में से एक बोला "ये कौन सी भाषाओं के वर्ड्स बोल रहे हो, सर जी! अंग्रेज़ी वर्ड बताओ!"</span><br/><span>"इस अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत से ही तो बचना है न, अपनी संस्कृति पर उनकी स्ट्राइक्स रोककर!" इतना कहकर उन्होंने छात्रों को प्रश्नोत्तर शीघ्र लिखने का निर्देश दिया।</span><br/><span>---------------</span></p> “ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी” अंक-43 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2018-11-11:5170231:Topic:9606842018-11-11T08:43:40.490Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><b>(1). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी<br></br> लुई शमाशा उई.. देख तमाशा..'<br></br></b> <span>.</span><br></br> <span>डियर छुईमुई,</span><br></br> <br></br> <span>आज फिर सुई चुभा गईं तुम्हारी यादें! सच.. तुम जीतीं और मैं हारी! हारी; बुरी तरह हारी! ज़िद्दी थी! सनकी थी! हवाओं के तात्कालिक असरात से संक्रमित थी; सम्मोहित थी! दूरगामी नतीज़ों से अनजान तो नहीं थी, पर सतर्क-सावधान न रह सकी! 'क़ैद में कब तलक रहेगी बुलबुल' कहकर चिढ़ाती थी तुम्हें, दूसरों के तानों-कटाक्षों से पीड़ित या वशीभूत सी होकर! तुम संस्कारों और परम्पराओं…</span></p>
<p><b>(1). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी<br/> लुई शमाशा उई.. देख तमाशा..'<br/></b> <span>.</span><br/> <span>डियर छुईमुई,</span><br/> <br/> <span>आज फिर सुई चुभा गईं तुम्हारी यादें! सच.. तुम जीतीं और मैं हारी! हारी; बुरी तरह हारी! ज़िद्दी थी! सनकी थी! हवाओं के तात्कालिक असरात से संक्रमित थी; सम्मोहित थी! दूरगामी नतीज़ों से अनजान तो नहीं थी, पर सतर्क-सावधान न रह सकी! 'क़ैद में कब तलक रहेगी बुलबुल' कहकर चिढ़ाती थी तुम्हें, दूसरों के तानों-कटाक्षों से पीड़ित या वशीभूत सी होकर! तुम संस्कारों और परम्पराओं के पिंजरे में क़ैद ज़रूर थीं, लेकिन तुम में अद्भुत प्रतिभायें, प्रत्युत्पन्नमति और दूरदर्शिता थी। लेकिन ज़माने की निरंतर बदलती चालों, फैशन, पश्चिमी अंधानुकरण, माया-मोह के मकड़जाल में मैं कब फंस गई, मुझे तो नहीं, तुम्हें ज़रूर आभास हो गया था और हां, तुमने मुझे आगाह भी तो किया था! लेकिन आत्मा के बजाय चंचल मन और जवां आकर्षक देह की ही सुनते रहने के कारण मैं आजकल की हवा, नहीं-नहीं, तेज़ आंधियों में बह गई, तो बहती ही गई! आज मैं आइने के समक्ष अपने आधुनिक मुखौटे को उतार कर तुम्हें सिद्दत से महसूस और याद कर 'छुईमुई' इसलिए कह रही थी कि मेरी तत्कालीन मित्रमंडली मुझे बतौर रैगिंग या प्रैंकिंग या मज़ाक तहत 'छुईमुई' ही कहा करते थे न! आजकल की माया का लगभग सब कुछ पा लिया, भोग लिया; मर्दों और औरतों की अत्याधुनिक बदलती दुनियावी समुंदर में ख़ूब गोते लगा-लगा कर विभिन्न विधाओं में अविवाहित यौन-सुख हासिल कर आज जब अपने अधेड़पन का नंगा सच जाना, तो तुम ख़ूब याद आईं! सोचा तुमसे ही अपने दर्द सांझा करूं, सो देर रात इतना लिख डाला अपनी किशोरावस्था और जवानी की दहलीज़ के दौर के फ़ोटो-एलबम देखते हुए! ओह, अब तो सिर्फ़ 'छुई-छुई' सी, तमाशा सी रह गई मैं 'छुईमुई'! साथी सेलिब्रिटीज की शौक़िया बीमारियों से ग्रसित हो कर मीडिया के 'हरेशमन्ट विरोधी अभियानों' के साथ अपने अनछुए अनुभवों को बयां कर 'अद्भुत हरेशमन्ट' ही महसूस हुआ टीका-टिप्पणियों के कुछ-एक फूल और अनेकबाण सहकर! जद्दोजहद से लवरेज़ जवानी के पड़ावों के हाइटेक असेस्मेंट, जांच-पड़ताल और कोर्ट-कचहरी की तफ़रीह क्षणिक विवादास्पद लोकप्रियता ज़रूर दे गई, किंतु आइने में अपने आज को देख अतीत को परख कर यह सब ओछा ही लगा, सो डायरी में तुमसे यानि अपनी ही खोई हुई छुईमुई से सब कुछ कह डाला! ... सचमुच दिल कुछ तो हल्का हुआ! लड़की हो या औरत; उसके 'छुईमुई' होने और 'तमाशा' हो जाने के बीच बहुत ही बारीक़ किंतु मज़बूत डोर है हिंदुस्तानी धर्म, संस्कृति और संस्कारों की! जिसने यह डोर काटी या कटवायी, समझो हुई जगहंसाई, क्रांति या फिर एकांत की रुलाई!</span><br/> <span>"लुई शमाशा उई ... ले जा प्यार ज़रा सा... दे जा प्यार ज़रा सा..!" बड़ी कसक और ललक के साथ तनिक संतोष और आनंद वास्ते एक हिट फ़िल्म का यह मशहूर नग़मा सुनते हुए अब सोने की कोशिश कर रही हूं!</span><br/> <span>शब्बा ख़ैर!</span><br/> <br/> <span>तुम्हारी ही,</span><br/> <span>'अस्मिता'</span><br/> <span>----------------</span><br/> <b>(2). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी<br/> आजकल<br/></b>.<br/> <span>श्रेया दो बार बाहर जा कर वापस आई. फिर मोबाइल चलाती हुई मम्मी से बोली, '' मम्मी ! सुनिए ना ?''</span><br/> <span>' बेटा ! पापा से बोलो. मुझे जरूरी काम है.''</span><br/> <span>श्रेया पापा के पास गई तो पापा ने भी मोबाइल चलाते हुए जवाब दिया, '' बेटा ! मम्मी से कहो. मैं जरूरी काम कर रहा हूं.''</span><br/> <span>श्रेया फिर बाहर जा कर वापस आई.</span><br/> <span>'' मम्मी !'' वह अपना पेट दबाते हुए धीरे से बोली, '' सुनिए ना !''</span><br/> <span>'' बेटा दादी होगी. उन से कहो ना.'' मम्मी ने मोबाइल में देखते हुए कहा.</span><br/> <span>तब तक दादी दूध ले कर आ चुकी थी, '' क्या हुआ बेटा ! मुझे कहो ?''</span><br/> <span>'' क्या कहूं दादी. शौचालय में कुत्ता बैठा हुआ था.'' कहते हुए वह अपने कपड़े और फर्श की ओर देख कर रो पड़ी.</span><br/> <span>दादी ने देखा कि बहूबेटे मोबाइल पर और श्रेया फर्श पर अपना आवेग फैला चुकी थी. इसलिए दादी कभी बहूबेटे को देख रही थी तो कभी रोती हुई श्रेया को. दोनों बहूबेटे एकदूसरे को देख कर नजर चुरा रहे थे.</span><br/> <span>-------------------------------</span><br/> <b>(3). आ० डॉ टी.आर सुकुल जी<br/> मैपस्को<br/></b> <span>.</span><br/> <span>"क्यों राधेश्याम ! अपना बबलू आजकल दिखता नहीं है , क्या कहीं बाहर गया है?"</span><br/> <span>"हाॅं, सीताराम ! वह "मैपस्को" के काम से अनेक शहरों में जाता आता रहता है।"</span><br/> <span>"यह मैपस्को क्या है ?"</span><br/> <span>"उसने एक कंपनी बनाई है जिसका नाम है "मैन पावर सपलाइंग कंपनी" यह इसी का संक्षिप्त नाम है ।"</span><br/> <span>"यह क्या है?"</span><br/> <span>"अरे ! ये तो तुम्हें मालूम ही होगा कि आजकल का जमाना ठेके पर चल रहा है, इसलिये बबलू ने ‘मैन पावर सप्लाइंग कंपनी‘ बनाकर जिसे जितने आदमी /कार्यकर्ता चाहिये होते हैं उन्हें उस कार्य के लिये, उतने समय के लिये , उतने लोग एक मुश्त राशि लेकर भेज देता है यही उसकी कंपनी का कार्य है।"</span><br/> <span>"पर ये आते कहाॅं से हैं??"</span><br/> <span>"अरे भैया ! कहाॅं भूले हो ? कम से कम दो दिन पहले आर्डर तो दो, कितने चाहिये? बेरोजगारी इतनी है कि दैनिक मजदूरी पर सैकड़ों मिल जाते हैं। खेतों की जुताई कराना हो या कटाई, मकानों को बनवाना हो , चुनाव प्रचार कराना हो, नेताओं की सभाओं में भीड़ जुटाना हो, सभाओं में तालियाॅं बजवाना हो या हूट कराना हो, धरने पर बैठना हो या जुलूस मेें हो हल्ला कराना हो सब कुछ ठेके पर ही होता है। इतना ही नहीं अब तो स्कूलों / कालेजों की पढ़ाई लिखाई भी ठेके पर ही कराई जाती है, समझे?"</span><br/> <span>-----------------</span><br/> <b>(4). आ० मनन कुमार सिंह जी<br/> आजकल</b><br/> <span>.</span><br/><span> -मीलॉर्ड!इसने मुझे हमेशा गलत ढ़ंग से छुआ है,मेरी रजा के खिलाफ भी।</span><br/> <span>-और?</span><br/> <span>-मुझे नींद से भी जगाता रहा है।</span><br/> <span>-कब से?</span><br/> <span>-बहुत शुरू से ही।</span><br/> <span>-फिर भी?</span><br/> <span>-तबसे जब मैं कली हुआ करता था', फूल ने अपनी वेदना का इजहार किया।</span><br/> <span>जज ने अपने कोट में लगे फूल की तरफ देखा।वह अपनी जगह पर कायम था,शांतिपूर्वक।जज को तसल्ली हुई।</span><br/> <span>-फिर आज क्या हुआ?</span><br/> <span>-आज तो कुछ नहीं हुआ,मीलॉर्ड! पर अब भी इसकी आदतें तब्दील नहीं हुईं।यह आज भी कलियों को परेशान करता है।फूलों की नींद हराम करता है।</span><br/> <span>-तो फिर आपकी फरियाद क्या है?वादी कौन है,आप?</span><br/> <span>-नहीं हुजूर।मैं तो आज का जगा हुआ ईमान हूँ।कल की चुप्पी पर मर्सिया पढ़ने का ख्वाहिशमंद हूँ,जहां आलम।</span><br/> <span>-वादी हैं हुजूर।हम वादी है',यह कहते हुए दस-बारह फूल अकस्मात् उठ खड़े हुए।अदालत में थोड़ी अफरातफरी का माहौल हो गया।जोर जोर से कानाफूसी होने लगी।जज ने मेज पर हथौड़ा पटका।फिर जाकर शांति बहाल हुई।</span><br/> <span>फिर ' मुझे भी,मुझे भी......' की ध्वनि अदालत में गूँजने लगी।</span><br/> <span>अर्दली ने आवाज बुलंद की,'भौरा हाजिर हो।' भिनभिनाता हुआ भौरा पेश हुआ।उसे उसपर लगे आरोप की जानकारी दी गई।फिर जज ने सवाल किया</span><br/> <span>-तो बताओ,तुमने इन सब के साथ इतनी ज्यादती क्यों की?</span><br/> <span>-..मौन...।और फिर फिर ....मौन।जज भड़क गया</span><br/> <span>-तुम जबाब क्यों नहीं देते?',उसने हाथ से इशारा कर पूछा।</span><br/> <span>-न्यायपति! आपके हाथ हिलाकर गुस्सा होने से मुझे ज्ञात होता है कि आप मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं।पर मैं सुनता नहीं।बोल सकता हूँ...गुन गुन गुन गुन.... जी बस।और आप कहें,तो कुछ कहूँ।जज ने इशारा किया।भ्रमर ने कहना शुरू किया--</span><br/> <span>-मैं गाता हूँ,बस।ये फूल मेरे गीत के दीवाने हैं।मेरे गीत से इनकी बेचैनी शांत होती है।फिर शांति से बेचैन हो जाते हैं।फिर मुझे गाना पड़ता है।कभी इन्हें शांत करने के लिए,तो कभी इन्हें बेचैन करने के लिए।हाँ,दोनों ही दशाओं में मर्जी इनकी ही होती है।</span><br/> <span>-ऐसी बात है?',जज ने सवाल किया।</span><br/> <span>-जी।</span><br/> <span>-फिर ये कलियाँ?इनका क्या कसूर है,जो तुमने इन्हें परेशान किया?</span><br/> <span>-मैंने किसी को परेशान नहीं किया,हुजूर।हाँ,इन्हें खिलने की जल्दी थी।और खिलने के लिए मेरे गीत जरूरी थे।मैंने गा दिए,बस।</span><br/> <span>-तो फिर यह फरियाद कैसा?</span><br/> <span>कोई कुछ नहीं बोला।फूल,कलियाँ सभी मौन थे।कुछ जा भी चुके थे।जज भिन्नाया---</span><br/> <span>--यह सब क्या हो रहा है आजकल?</span><br/> <span>-आजकल यही सब हो रहा है,मीलार्ड!नजर उठे न उठे,उँगलियाँ उठायी जा रही हैं।आजकल हर आदमी एक दूसरे पर उँगलियाँ उठा रहा है।किसी ने आईना नहीं देखा,न्यायाधिपति।</span><br/> <span>-कमाल है',जज दहाड़ा।</span><br/> <span>-कुछ कमाल वगैरह नहीं है,हुजूर',जज के कोट में टँगा गुलाब कहने लगा---</span><br/> <span>-याद है ,मैंने आपसे इज्जतबख्शी की रजा जताई थी।फिर आपने मुझे सीने से लगा लिया था।अब दीगर बात है कि मुझे आजतक फुर्सत ही नहीं मिली।मैं तबसे यहाँ लटका हुआ हूँ।जज सहसा बीती बातों में खो गया।अतीत उसके मानस पटल पर उभरने लगा।फूल जज के सीने में चुभने लगा ।वह बड़बड़ाया--</span><br/> <span>-यह क्या हो रहा है आजकल?'</span><br/> <span>----------------</span><br/> <b>(5). आ० तेजवीर सिंह जी<br/> मी टू</b><br/> <br/> <span>"अरी सुभद्रा, आज चाय मिलेगी कि नहीं। सुबह से अखबार लेकर बैठी है। एक एक पन्ना चाट लिया। कौनसी खास खबर खोज रही है?"</span><br/> <span>"कुछ नहीं बस ऐसे ही, अभी चाय लाई बुआजी।"</span><br/> <span> सुभद्रा ने बुआजी को चाय की प्याली दी और फिर अखबार लेकर बैठ गयी।</span><br/> <span>"सुभद्रा, क्या हुआ?, तू तो कभी अखबार में इतनी रुचि नहीं लेती थी।"</span><br/> <span>"अब आपको क्या बताऊँ बुआजी? मुझे तो बड़ी शर्म आती है। कल मंदिर में भी कुछ औरतों ने पूछ लिया था।"</span><br/> <span>"क्या पूछ लिया? मुझे भी तो पता चले। मैं निबट लूंगी उन औरतों से।"</span><br/> <span>"यही पूछ रहीं थी कि तेरे पति का नाम क्यों नहीं आया अखबार में जबकि वह तो एक बड़ी नामी कंपनी के डाइरेक्टर के पद से रिटायर हुआ है? वहाँ तो बहुत सारी औरतें भी काम करती थीं। और उसकी तो पी॰ ए॰ भी एक खूबसूरत सी लड़की थी |"</span><br/> <span>"अरे किस बात में नाम नहीं आया?"</span><br/> <span>"वही किस्सा बुआ जी, "मी टू" वाला। जो आजकल टी वी अखबार सब जगह छाया हुआ है| इनकी कंपनी के कई लोगों के नाम आगये अखबार में|"</span><br/> <span>"अरी बाबरी, तेरे लिये तो यह तो खुशी की बात है कि तेरा पति एक शरीफ़ आदमी है।"</span><br/> <span>"पर मुहल्ले की औरतें तो कुछ और ही सोचती हैं। कहती हैं कि ऐसा मर्द किस काम का जिसके दो चार "मी टू" के किस्से ना हों।"</span><br/> <span>"चल तू ही बता, तेरी खुद की सोच क्या है, इस बारे में?"</span><br/> <span>" बुआजी, मेरे विचार से मर्द जाति का कुछ तो प्यार मुहब्बत और छेड़छाड़ का अतीत होना ही चाहिये।"</span><br/> <span>"पर तेरा मर्द तो बचपन से ही बहुत झेंपू किस्म का था। लड़कियों से तो हमेशा ही दूर भागता था।"</span><br/> <span>"मुझे भी कभी कभी इनकी यह आदत बहुत अखरती है।"</span><br/> <span>---------------</span><br/> <b>(6). आ० आशीष श्रीवास्तव जी<br/> कैद या रिहाई</b><br/> <br/> <span>एक बंगले में पिंजरे में बंद तोता और एक पेड़ से उड़कर बंगले की खिड़की पर आकर बैठे तोते में संवाद।</span><br/> <span>पिंजरे वाला तोता : ‘‘और भाई क्या हाल हैं आजकल, क्या चल रहा है ?’’</span><br/> <span>खिड़की वाला तोता : ‘‘कहां? अब जंगल तो बचे नहीं, पेड़ भी गायब होते जा रहे हैं, दाने-पानी को बहुत भटकना पड़ता है।’’</span><br/> <span>पिंजरे वाला तोता : ‘‘तुमसे कहा तो था, कोई अच्छा-सा पिंजरा देख लो, समय पर खाना-पीना और चंद अंग्रेजी के शब्द बोलकर मजे करते, पर तुम रहे वहीं आवारा के आवारा, जाहिल, गंवार।</span><br/> <span>खिड़की वाला तोता : ‘‘भाई, कोई रास्ता हो तो बताओ न, क्या करें ऐसे हालात में !!</span><br/> <span>पिंजरे वाला तोता : ‘‘तुम अपने वाले हो, इसलिए बता रहा हूॅं दूसरे पक्षियों को तो मैं मुंह भी नहीं लगाता। ध्यान से सुनो! कुछ महीने पहले ही मालकिन के बेटे की शादी हुई है, बेटे-बहू रात में अलग घर में जाने की खुसुर-पुसुर कर रहे थे, वहां मौका मिल सकता है! आते रहना।‘‘</span><br/> <span>(तभी अंदर से मालकिन की धीमे से तेज होते हुए आवाज आई)</span><br/> <span>मालकिन : मिट्ठू-मिट्ठू तोता...... मिट्ठू-मिट्ठू तोता......</span><br/> <span>खिड़की वाला तोता : ‘‘अच्छा उड़ता हूं फिर मिलेंगे’’</span><br/> <span>पिंजरे वाला तोता : ‘‘ठीक है, और सुनो अबकी बार कुछ ताजे अमरूद अपने पेड़ के लेते आना। यहां तो पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन खाकर बोर हो गया।’’</span><br/> <span>खिड़की वाला तोता : (उड़ते हुए) कह रहा है अंग्रेजी सीख और हो जा कैद पिंजरे में।’’ वो पढ़ा-लिखा और हम आवारा। वाह !! क्या जमाना आ गया है, आजकल तकलीफ बताओ तो भी सब फायदा उठाने की ही सोचते हैं !!</span><br/> <span>---------------</span><br/> <b>(7). आ० बबीता गुप्ता जी<br/> सब मिलता है.</b><br/> <br/> <span>स्कूल की पी टी एम में सभी बच्चे अपने पेरेंट्स के साथ टीचर्स से मिल रहे थे।बच्चों की पढाई में कितनी प्रगति हुई, अगर नहीं हुई तो क्यों नहीं, बगैरह बगैरह. ...नतीजन टीचर्स का इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि हम तो बच्चों के साथ केवल छै घंटे व्यतीत करते हैं, पर आपके साथ तो बच्चा अट्ठारह घंटे समय व्यतीत करता है।सो बच्चों की विशेषरूप से उसके होमवर्क को लेकर, परीक्षा की तैयारी कराने को लेकर आपकी जिम्मेदारी ज्यादा बनती है।लेकिन पेरेंट्स का स्पष्ट शब्दों में कहना था कि अगर हम बच्चों को इतना ही देख लेते तो फिर स्कूल वालों की क्या जिम्मेदारी बनती हैं।इस तरह से दोनों के दोषारोपण का कोई अंत नहीं था।अंततः सभी पेरेंट्स टीचर्स के बेबाक रवैये से असंतुष्ट हो बाहर आपस में चर्चा करने लगे।</span><br/> <span>'अरे, देखो ना, इतनी फीस लेने पर भी बच्चों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, सिर्फ पढाने भर के अलावा।'</span><br/> <span>और नही तो क्या? बच्चों की अधूरी कॉपी भी स्कूल में ना कराकर, व्हाट्सअप से पूरी कराने का जिम्मा भी हमारे सिर मत्थे।'</span><br/> <span>अरे, आप क्यों सिर खपाती हो? एक ट्यूटर लगवा दो।मैने तो अपने बच्चे का लगवा दिया, आप भी....'</span><br/> <span>ट्यूशन तो मेरा भी बच्चा जाता है, पर वही हाल है, परीक्षा की तैयारी भी बहुत जोर देने पर भी ऐसी ही कराते है, होमवर्क की तो बात ही छोड, वो तो मैं ही करवाती हूँ।'</span><br/> <span>'आप भी कहा पचडे में पडी हो? होमवर्क कराने के लिए थोडा नानकुर किया, मैंने थोडी फीस और बढा दी ,बस।'</span><br/> <span>'लेकिन, ये तो.........'</span><br/> <span>आप भी कहा बनिया साई सोच लिए हो। वो भी खुश और हम भी बेफिक्र।और पैसे से तो आजकल क्या नहीं. .....'</span><br/> <span>-------------------</span><br/> <b>(8). आ० विनय कुमार जी<br/> वक़्त की नब्ज़<br/></b><span>.</span><br/> <span>सब कुछ जैसे एक फिल्म की तरह उनके जेहन में घूम रहा था, आखिर ऐसा क्यूँ हो गया| उनकी परवरिश में तो कोई खोट नहीं थी फिर रज्जब की गिरफ़्तारी, शायद इस राह पर चलने का यही परिणाम होता हो? रशीदा तो जैसे काठ हो गयी थी, लोगों की नज़रों का सामना करने की उसकी हिम्मत नहीं बची थी|</span><br/> <span>बहुत लाड़ से पाला था उन दोनों ने रज्जब को, यहाँ तक कि यूनिवर्सिटी में भी भेजा| उसकी बातें वैसे तो बहुत अच्छी लगती थीं उनको लेकिन कभी कभी थोड़ा डर भी लगता था| खासकर जब वह अपने ही धर्म के गुरुओं की बातों की धज्जियाँ उड़ाने लगता था| कई बार उन्होंने उसे समझाया भी कि अपने विचार तो ठीक हैं लेकिन इस तरह उनको व्यक्त करना लोगों को शायद नागवार गुजरेगा|</span><br/> <span>"देखिये अब्बू, मैं उनमे से नहीं हूँ जो इनके जाहिलपन को बर्दास्त करूँ| हमें सीख देते हैं कि मजहब की तालीम लो और उसे आगे बढ़ाओ, लेकिन खुद इनके बच्चे बाहर देशों में पढ़ते हैं और इसके लिए कोई इनको नहीं पूछता"|</span><br/> <span>"ठीक है, तू मत सुन इनकी बात और जो ठीक लगता है वैसी तालीम ले| हमने तो तुम्हें कभी मना नहीं किया इसके लिए, फिर क्यूँ बेकार में इनकी नज़र में चढ़ता है", मोहसिन ने उसको समझाया|</span><br/> <span>"दरअसल ये लोग चाहते ही नहीं हैं कि अपनी कौम पढ़े लिखे, इसलिए बस मज़हब और डर की बात करते रहते हैं लोगों से| इनका एक ही जवाब है अब्बू, अपने आप को शिक्षित करना और इनके फैलाये भ्रम के जाल को तोड़ना", रज्जब अपनी दलील रखता| मोहसिन को कभी कभी थोड़ी घबराहट भी होती लेकिन फिर वह रज्जब के आत्मविश्वास से वह अपने आप को तसल्ली दे देते|</span><br/> <span>रज्जब फिर भी वही करता जो उन धर्म के ठेकेदारों को बुरा लगता| युनिवर्सिटी से लौटने के बाद तो जैसे वह उनके पीछे ही पड़ गया था| अपने मोहल्ले के लोगों को उसने धीरे धीरे समझाना शुरू किया और लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा| धीरे धीरे मोहल्ले के बहुत से लोग रज्जब की बात समझने लगे और यही बात उन चंद ठेकेदारों को बर्दास्त नहीं हुई.</span><br/> <span>पिछले दो दिन से रज्जब की कोई खबर नहीं थी उनको, लेकिन आज पुलिस स्टेशन जाते समय उन्होंने सोच लिया कि अब रज्जब को अब वक़्त के साथ चलने की नसीहत देने की जरुरत नहीं रह गयी है.</span><br/> <span>-------------------</span><br/> <b>(9). आ० मोहन बेगोवाल जी<br/> आज कल</b><br/> .<br/> <span>घर के गेट का दरवाज़ा अंदर से बिना लॉक किए ही वह सोफा पर आ कर बैठ गया। रोज आठ बजे तक वह खाना खा कर थोड़ी देर की चहल-पहल के बाद सीधे बिस्तर पर आ कर लेट जाता था। उसके लेटते ही नींद उसे अपने क़ाबू में कर लेती थी मगर आज बात कुछ अलग थी। घड़ी की दोनों मोटी सुइयाँ घड़ी के ऊपर के हिस्से के बीच आ कर एक दूसरे से मिल रही थीं। अभी तक उस के कान गेट की तरफ़ ही लगे थे। वह इस इंतजार में था कि कब डोरबेल सुनाई दे और वह कब शान्त हो कर अपने बिस्तर पर लेट जाए। दस बजे तक तो दफ्तर का काम चलता रहता है। फिर दफ्तर से निकलते हुए आधा घंटा और लग जाता है। वह अब तक घर आ जाती है मगर आज पता नहीं क्या हो गया? वह पिछले एक घंटे में दो-तीन बार गेट की तरफ़ हो आया था। एक बार तो वह बाहर सड़क तक जा कर कुछ देर वहाँ खड़ा भी रहा। अचानक धीरे से गेट पर थप-थप की आवाज़ हुई। वह हैरान था। बजनी तो बेल चाहिए थी? वह तेज़ी से सोफे से उठा और गेट की तरफ बढ़ा। बाहर एक अंजान आदमी खड़ा था।</span><br/> <span>"आप कौन?"</span><br/> <span>"सर जी, मुझे मैम ने भेजा है। दफ्तर में काम ज़्यादा होने के कारण वो आज वहीं पर रुक जाएंगी। उन्होंने आप को फोन किया था पर आप का फोन लगा नहीं। इसलिए उन्होंने यह बताने के लिए मुझे भेजा है।" वह एक ही साँस में ये सब कुछ कह गया।</span><br/> <span>उस ने जेब से मोबाइल निकाला, बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। अब तक वह अंजान आदमी भी वहाँ से जा चुका था। वह लौट कर अपने बिस्तर पर लेट गया।</span><br/> <span>अचानक से बाहर तेज़ हवाएँ चलने लगीं। उसने घड़ी की तरफ़ देखा, दोनों सुइयाँ अब रुक चुकी थीं।</span><br/> <span>---------------</span><br/> <b>(10). आ० मुज़फ्फर इकबाल सिद्दिक़ी जी </b></p>
<div><b>मायाजाल</b><br/> .<br/> "आशी आई लव यू। ये कितना अजीब इत्तिफ़ाक़ है कि इतने दूर, देशों में रहते हुए भी हमारे विचार, हमारी सोच, हमारी पसंद - नापसन्द सब एक जैसी है।" सेनेगल में रहने वाली वाली लॉरा ने कुछ दिन मैसेंजर पर बात करने के बाद टूटी - फूटी इंग्लिश में मैसेज किया।<br/> "ऑफ कोर्स ,लॉरा। मैं भी कुछ इसी तरह महसूस करता हूँ। जब तक तुम से बात नहीं होती, कुछ भारी - भारी सा लगता है। तुमसे बात करके बिल्कुल फ्री सा फील होता है। हम एक दूसरे से बहुत अटैच होते जा रहे हैं। लेकिन कहाँ इंडिया और कहाँ तुम्हारा देश? शायद ही हम कभी मिल सकें।"<br/> "नथिंग इज़ इम्पॉसिबल, आशी।" मेरे ज़िन्दगी मैं एक बहुत बड़ा राज़ है। मैं कभी फुर्सत से बताऊँगी।<br/> "फुर्सत से क्यों अभी बताओ न लॉरा?" आशीष की बैचेनी बढ़ गई थी। ऐसी क्या राज़ है, लॉरा की ज़िन्दगी में? प्रोफाइल पिक्चर से तो एक दम बिंदास दिखती है। हाई प्रोफाइल भी लगती है। फिर ऐसी क्या परेशानी है उसे? एक साथ कई सवालों ने आशीष को घेर लिया।<br/> आशीष ने बहुत किस्से सुने थे, विदेशी बालाओं की देशी नवयुवकों से सोशल मीडिया पर दोस्ती के। कितना गर्व होता था। जब किसी न्यूज़ पेपर में पढ़कर पता चलता था। "एक जापानी युवती, ठेठ हरियाणवी युवक से दोस्ती का वादा पूरा करने के लिए भारत आई। और उसने, उस गांव के युवक से शादी भी कर ली।"<br/> "क्या लॉरा भी कभी इंडिया आ सकती है?"उसने अपने आप से सवाल किया।<br/> साथ "ही नथिंग इम्पॉसिबल" वाला जवाब, लॉरा ने शायद यही सोच कर दिया हो। दिल ही दिल तसल्ली कर ली।<br/> आज तो लॉरा ने कसम भी दिलाई कि "उसकी ज़िन्दगी में जो राज़ छिपा है। उसे वह अपने तक ही सीमित रखे। किसी को नहीं बताए नहीं।"<br/> आशीष ने खुशी - खुशी हामी भी भर दी। वह तो रात - दिन, सोते - जागते लॉरा से मिलन के सपने सँजोए बैठा था। उसे तो हर वो शर्त मंज़ूर थी जो उसके मिलन के रास्ते की रुकावट दूर करती हो। अब तो बस उसे बैचेनी इन्तिज़ार था उस राज़ का।<br/> लॉरा ने मैसेज में लिखा, "डिअर आशी, बदकिस्मती से मेरे मम्मी - पापा गृहयुद्ध में मारे गए। वो तो शुक्र करो, मैं हॉस्टल में थी इसलिए मेरी जान बच गई। मेरे पापा इस शहर के बहुत अमीर आदमी थे। उनके नाम अपार सम्पत्ति है। मैं तुम से इंडिया आकर मिलने के लिए बैचेन हूँ। लेकिन मैं इंडिया आने से पहले चाहती हूँ, कि ये अपार संपत्ति मेरी हो जाए। मेरे देश के नियमों के अनुशार, यह तभी संभव है, "जब कोई विदेशी अपना परिचय सहित, बैंक डिटेल्स मुझे भेज दे। और मेरी ज़मानत ले ले। अगर तुम ऐसा कर दोगे तो ये सारी संपत्ति हमारी हो जाएगी। हम इसे बेचकर हमेशा - हमेशा के लिए इंडिया में सुख चैन के साथ रहेंगे।"<br/> आशीष भी उसकी मजबूरी सुनकर पिघल गया। अब तो आशीष को जंग और प्यार में सब कुछ जायज़ जैसा लगने लगा था। उसे तो अपना सपना साकार होते दिखाई दे रहा था। वह अपनी डिटेल्स भेजने को तैयार भी हो गया। लेकिन तभी उसका दोस्त सुनील उसे मिला। आशीष ने सुनील के सामने बातों ही बातों में अपना दिल खोल कर रख दिया। लेकिन सुनील को बैंक डिटेल्स वाली बात गले नहीं उतरी। उसे कुछ दाल में काला दिखाई दिया।<br/> "आजकल दुनिया में फैले इस मायाजाल को बहुत अच्छी तरह जनता था।"<br/> उसने आशीष को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि तुम थोड़ा टेस्ट तो कर लो।<br/> लेकिन सुनील, मैं टेस्ट कैसे करूँगा?<br/> बहुत आसान है आशीष, तुम उसे मैसेज में लिखो - "सॉरी मेडम, वी आर इन द सेम प्रोफेशन।"<br/> फिर देखो क्या जवाब आता है।<br/> "आशीष आज तक उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहा है।"<br/> यदि सुनील समय रहते नहीं आया होता तो, आशीष किसी विदेशी को अपने बैंक डिटेल्स देकर किसी षड्यंत्र का शिकार हो चुका होता।<br/> -------------------<br/> <b>(11). आ० महेंद्र कुमार<br/> अलार्म</b><br/> <br/> जो कोई भी इसे पढ़ रहा हो,<br/> मैं एक वैज्ञानिक हूँ और मैंने टाइम मशीन का आविष्कार किया है। दुनिया को समझने की चाहत में मैंने भूत व भविष्य, दोनों समयों की यात्राएँ कीं। अतीत में जा कर दुनिया के सारे बड़े युद्ध देखे, भीषण नरसंहार देखा, बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ देखीं, नामचीन लोगों से मिला और प्रमुख हत्याओं का गवाह बना। जब इसकी तुलना मैं अपने वर्तमान से करता हूँ तो पाता हूँ कि हज़ारों सालों के इतिहास में भी हम कहीं नहीं पहुँचे। कंक्रीट के जंगलों के सिवा हमने कोई तरक्की नहीं की, अगर इसे तरक्की कहते हैं तो। शोषण की जो मूल प्रवृत्ति अतीत में दिखायी देती है, वो आज भी मौजूद है। ताकतवर कमज़ोर को हर जगह खा रहा है, छोटे से ले कर बड़े स्तर तक। धर्म की जकड़ जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। हमारी संवेदनाएँ कहीं नहीं पहुँची, वो जहाँ थीं, वहीं की वहीं हैं। ग़रीब भूख से मर रहे हैं और मानवता का बड़ा तबका आज भी ग़ुलाम है। पर शायद वर्तमान को पूरी तरह से समझना अभी बाकी था, इसलिए मैं भविष्य में गया।<br/> भविष्य में वक़्त का पहिया घूम कर वहीं पहुँचा जहाँ से हमने शुरुआत की थी। हमारे समय में पर्यावरणीय संकट तो था ही, उभरते हुए राष्ट्रवाद ने इसे और भी जटिल बना दिया। इसमें घी डाला राजसत्ता और उद्योगपतियों के गठजोड़ ने। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ मुखौटा भर थीं। उन्होंने दीमक की तरह ग़रीब देशों को खोखला कर डाला। सिर्फ़ अपने विषय में सोचने वाली मनुष्य की प्रकृति अन्ततः हमें विश्वयुद्ध तक ले आयी जिसने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। हम फिर से आदि मानव बन गए। <br/> इस प्रकार मैंने पाया कि हमारी वर्तमान पीढ़ी वक़्त के एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ी है। यदि हमने अभी भी कुछ नहीं किया तो आने वाले वक़्त में कुछ भी शेष नहीं बचेगा। पर मेरी टाइम मशीन की एक सीमा थी। अतीत और भविष्य में आना-जाना तो मेरे लिए सम्भव था लेकिन कुछ बदलना नहीं। तब? तब मैंने क्रान्ति करने की सोची। इसके लिए मैंने लोगों को जागरुक करना शुरू किया पर जल्द ही सरकार मेरे पीछे पड़ गयी। उसने मीडिया के द्वारा मुझे देशद्रोही घोषित करवा दिया। अब मैं इधर-उधर छुपता फिर रहा हूँ। सरकार मुझे ख़त्म कर देना चाहती है। टाइम मशीन किसी गलत हाथों में न पड़े इसलिए मैंने उसे नष्ट कर दिया है। <br/> मुझे नहीं पता कि जिस वक़्त आप इसे पढ़ रहे होंगे उस वक़्त मैं कहाँ होऊँगा या कहीं होऊँगा भी कि नहीं। अगर दुनिया अभी भी नष्ट नहीं हुई है तो कृपया इसे बचा लें।<br/> -------------------<br/> <b>(12). आ० डॉ विजय सिंह जी<br/> वरदान ही समझो</b><br/> .<br/> आज पार्टी में मिसेज़ शालिनी कुछ अधिक ही खुश नज़र आ रहीं थीं , बिल्कुल निश्चिन्त सी , उन्मुक्त। वरना प्रायः तो वे पार्टियों में जातीहीं नहीं , जाती भी हैं तो परेशान सी , जल्दी वापस जाना है , बच्चों को जल्दी टाइम से सुलाना है , सुबह जल्दी उठना है , बच्चों को डे-केअर में छोड़ना है , जैसे बहाने, सदैव। <br/> आखिर ऋतु ने उनसे पूछ ही लिया , “ क्या बात है शालिनी आज बड़ी निश्चिंतता है ? कोई उलझन नहीं?कोई जल्दी नहीं ?”<br/> शालिनी मुस्करा दी। कुछ बोली नहीं। फिर कुछ रुक कर बोली , “ डांस फ्लोर पर चलें ?”<br/> “ अरे वाह ” , ऋतु के मुंह से निकला और वह शालिनी का हाथ पकड़ कर फ्लोर की ओर चल दी। रास्ते में विवेक से उसकी हॉय हेलोभी हुई , आज उसे विवेक भी कुछ एक्ट्रा मस्त नज़र आये। उसने एक बार फिर शालिनी की ओर प्रश्न भरी नज़र डाली , जैसे आश्चर्य सेपूछ रही हो , पति पत्नि दोनों इतने प्रसन्न। वह फिर मुस्करा दी। <br/> डांस फ्लोर पर काफी भीड़ थी , लेडीज़ के साथ बच्चे भी उलटे सीधे हाथ - पाँव चला रहे थे।पर सबसे बेखबर शालिनी अपने में मस्तथिरक रही थी। उसे देख कर ऋतु को लगा कि कुछ तो अवश्य है , वह शालिनी को पिछले तीन साल से जानती है , उसे इतना खुशऔर निश्चिन्त उसने उसे कभी नहीं देखा।हमेशा घर , जॉब, बच्चों की बातें करते मिलती , विवेक भी उसी तरह व्यथित।आजकल जॉबवाली गृहणियों को कैसी-कैसी समस्याओं से रोज़ हे दो-चार होना पड़ता है। उसने सोचा , पूछना ही पड़ेगा , अचानक कौन सी बहारआ गई ?<br/> आखिर थोड़ी देर बाद वह शालिनी को लेकर एक खाली टेबल की ओर बढ़ी और बली , “ चल एक एक कोल्ड ड्रिंक लेते हैं।”<br/> दो सिप लेते ही फिर पूछ ही बैठी , “ ये चक्कार क्या है , आज तुझे बिलकुल कोई फ़िक्र नहीं न बच्चों की , न घर की। बच्चे नाना केयहां गए हैं क्या ? ”<br/> “ नहीं तो “ बड़ा संक्षिप्त सा उत्तर दिया शालिनी ने। <br/> “ तो फिर कौन सा वरदान बरस पड़ा जो मैडम बिलकुल बेखबर , उन्मुक्त ? ”<br/> “ हाँ ये बात तो है , वरदान ही समझो ” फिर कुछ रुक कर बोली , “ पापा जी पिछले महीने रिटायर हो गए और अब मम्मी जी औरपापा जी दोनों यहां आ गए , हम लोगों के साथ रहने।”<br/> ------------------<br/> <b>(13). आ० कनक हरलालका जी<br/> होड़ की दौड़<br/></b> .<br/> मध्यम वर्गीय परिवार की गृहणी थी रमा । दो बच्चे थे ।लड़की धीरे धीरे बड़ी हो रही थी । सपनों के साथ साथ चिन्ताएं भी रमा की आँखों में पलने लगी थी ।सपने थे बच्चों के उज्जवल भविष्य ,उच्च शिक्षा अच्छा रहन सहन , साथ ही जहाँ तक हो सके बहुत अच्छे संस्कार दे सकने के । चिंता थी आज के उच्श्रृंखल समाज के बिगड़ते हुए माहौल से अपने बच्चों को सुरक्षित रख सकने की । अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाते हुये कल उसने मंहगे स्कूल में बच्चों का दाखिला करवाया था । उसका विश्वास था कि अगर बुनियाद मजबूत होगी तभी तो इमारत ऊंचाईयों को छू सकेगी । केवल स्कूल की मंहगी फीस ही नहीं बल्कि उसके वातावरण व अन्य आवश्यकताओं से सामंजस्य बैठाने में भी उसे काफी संघर्ष करना पड़ता था । हर इच्छाओं के साथ समझौता करना पड़ता था । आजकल टी वी पर बढ़ते अपराधों और व्यभिचारों की खबरें सुन सुन कर उसने अपनी बिटिया को मोबाइल खरीद कर देने की सोची । बेटी कई दिनों से कह भी रही थी । उसकी सभी सहेलियों के पास मोबाइल थे ।लड़की अकेली स्कूल जाती थी । इस से कम से कम उसे इतनी सूचना तो मिलती रहेगी कि बेटी है कहाँ । किसी भी आपदा में वह समपर्क भी कर सकेगी । पर साथ ही मोबाइल के बढ़ते दुरुपयोग उसकी चिन्ता के कारण भी थे । अधिक अनुशासन संभव भी न था । " ओफः ,बाजार में कितने नए नए तरीकों के और कितने मंहगे मोबाइल थे ।" लौट कर परेशान होती हुई सी वह बड़बड़ाती रही थी । खैर , फिर भी उसने एक अच्छा सा मोबाइल खरीद ही लिया था । हालांकि वह उसकी जेब पर कुछ भारी ही पड़ा था । शाम को स्कूल से लौटने के बाद बेटी का उतरा चेहरा देख कर उसका माथा ठनका । बिटिया ने न ढंग से खाना खाया न तरीके से बात की । बार बार पूछने पर उसने गुस्से से मोबाइल पटकते हुये कहा " आप भी कहाँ से कूड़ा उठा लाती हैं । अनीता कह रही थी कि ऐसा मोबाइल तो उसकी काम वाली बाई के पास है ।मैं तो इसकी तरफ नजर उठा कर भी न देखूं । तू तो इसी पर इतरा रही है । " रमा पहले ही बेटी की अमीर सहेलियों के नखरों का तंज भोगती रहती थी । अबकी बार भी उसे लगने लगा था कि होड़ की दौड़ की इस आंधी में उसके पाँव कैसे टिक पाएंगे । वह कहीं लड़खड़ा कर गिर न पड़े।<br/> --------------<br/> <b>(14). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी<br/> अदालत<br/></b> .<span> </span><br/> अदालत के अंदर प्रसिद्ध सितारे के मामले की सुनवाई चल रही थी और बाहर सितारे के चाहने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। अदालत परिसर से कुछ दूर एक घने बरगद से लटके दो गरीब भूत भी फैसला सुनने को बेसब्र थे। उनकी गरीबी मरने के बाद भी उनके चेहरों पर चिपकी हुई थी।<span> </span><br/> " क्या कहते हो दद्दा ? आज हो जायेगी सजा ?'' युवा भूत बुज़ुर्ग भूत के पास खिसक आया।<span> </span><br/> " कुछ नहीं कह सकते बेटा। माहौल देखकर तो नहीं लग रहा। '' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ में निराशा थी।<span> </span><br/> तभी एक संपन्न दिखने वाला भूत उनके बीच में टपक पड़ा। उसकी अमीरी मरने के बाद भी उसके चेहरे से फूटी पड़ रही थी।<span> </span><br/> '' अच्छा ! हमारे भैया की सजा के इंतज़ार में हो तुम दोनों । हो कौन तुम ? शक़्ल से तो भिखारी लग रहे हो । '' अमीर भूत ने आँखें तरेरी।<span> </span><br/> युवा भूत को आक्रोशित होकर जवाब देने के लिए आगे बढ़ता देख बुज़ुर्ग भूत ने उसे रोक लिया। ''उस रात आपके भैया जी ने जिन सोते हुए लोगों पर गाडी चढ़ा दी थी, वो हमारे ही लोग थे।'' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ से साफ़ था कि उसे भी गुस्सा संभालने में मेहनत लग रही थी।<br/> '' तो ! सड़कों पर सोते क्यों हो तुम लोग। गलती तुम्हारे लोगों की थी भैया की नहीं। अरे वाह! लगता है भैया के फेवर में फैसला आ गया। '' चाहने वालों की भीड़ को ख़ुशी से नाचता देख संपन्न भूत भी उस दिशा में हवाई चुम्मियाँ फेंकने लगा।<br/> '' चल बेटा '' बुजुर्ग भूत ने युवा का हाथ थाम लिया।<span> </span><br/> '' एक और ख़ुशी की बात तो सुनते जाओ तुम दोनों । '' गरीब भूतों को जाता देख अमीर भूत चिल्लाया।<span> </span><br/> '' क्या है ?'' <br/> '' अब भैया जी अपनी आत्मकथा लिखवाएँगे और फिर उसपर फिल्म बनेगी। और उसके बाद उनका क़द इतना बढ़ जायगा कि कोई अदालत उन्हें छू भी नहीं सकेगी। ना नीचे की ना ऊपर की। '' उसका चेहरा दम्भ से दमक रहा था।<span> </span><br/> '' बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप।'' युवा भूत का चेहरा दर्द से तन गया। '' नीचे की अदालतें तो देख लीं और ऊपर कोई अदालत है ही नहीं ।'' वो अब गुस्से से आसमान को ताक रहा था।<span> </span><br/> ---------------<br/> <b>(15). आ० वीरेंद्र वीर मेहता जी<br/> मददगार<br/></b> <br/> "कैसे हो सकता है ये? इतने करीब रहकर भी मैं, इसके मन को नहीं पढ़ पाया।" दोनों के मध्य छाई गहरी चुप्पी के बीच पुरु विचारमग्न था। "ऋचा मेरे लिये कोई अजनबी नहीं है। 'टीनएज' से चली आ रही हमारी दोस्ती आज भी कायम हैं, बेशक कुछ वर्षों के लिये मैं डॉक्टरी करने विदेश चला गया लेकिन हम हमेशा संपर्क में रहे हैं। और इस बार तो अपने निश्चय अनुसार मैंने ऋचा का हाथ भी उसके परिवार वालों से मांग लिया लेकिन अभी जो कुछ ऋचा ने कहा, क्या वह......?"<br/> "तुमने जवाब नहीं दिया पुरु, मेरी मदद करोगे न!" ऋचा ने बीच की चुप्पी को भंग करते हुए उसकी ओर देखा।<br/> "क्या कहूँ ऋचा? समझ नहीं पा रहा मैं। बारह वर्षों की दोस्ती में एक क्षण भी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कि तुम्हारा मुझसे अधिक 'उसमें' इंटरेस्ट है।"<br/> "पुरु, जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता। तुम मेरे 'मॉम-डैड' को सच बताकर शादी के लिये मना कर दो। मैं नहीं चाहती कि मेरी 'एबनॉर्मलटी' की वजह से तुम्हारा जीवन खराब हो जाये।"<br/> "और तुम्हारा जीवन...!"<br/> "काट लूंगी, अकेले ही या फिर 'उसी' के साथ.....।" अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी उसने।<br/> "नहीं ऋचा नहीं, वह तुम्हें 'मिस-गाइड' कर रही है। गलत है यह सब।"<br/> "ग़लत! नहीं पुरु, 'इट्स नेचुरल'। अब तो कानून की स्वीक़ृति भी मिल गई है इसे।" कहते हुये ऋचा ने अपनी नजरें उस पर टिका दी।<br/> "कानून.....! ऋचा कानून समाज को नियंत्रित करने के लिये बनाये जाते हैं और ये जरूरी नहीं कि कानून के हिसाब से ही समाज और भावी पीढ़ी को तैयार किया जाएं।" कहते हुये पुरु के शब्दों में एक डॉक्टरी दृष्टिकोण आ चुका था। "ऋचा मेरी तरफ देखो प्लीज, यू आर मेंटली एबनॉर्मल, नॉट फीजिकली!"<br/> ".......!" ऋचा ने एक नजर उसकी ओर देखा और सर झुका लिया।<br/> "मैं तुम्हारी मदद करूँगा ऋचा, आओ खुद को मुझे सौंप दो ताकि मैं तुम्हें, तुम्हारे जीवन की सार्थकता समझा पाऊं। यकीं मानों हम बहुत खुश रहेंगें एक साथ, एक बार चलकर तो देखो।मेरे साथ।" कहते हुये उसने अपने हाथ आगे बढ़ा दिए।<br/> पुरु के मन का विश्वास ऋचा की आँखों में भी एक नई आस जगाने लगा था।<br/> --------------------</div> “ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी” अंक-42 में शामिल सभी लघुकथाएँtag:openbooks.ning.com,2018-11-11:5170231:Topic:9607512018-11-11T08:18:35.482Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooks.ning.com/profile/YograjPrabhakar
<p><strong>(1). आ० अनीता शर्मा जी </strong><br></br> <strong>उम्मीद</strong><br></br> <br></br> <span>आज वो तीस साल की हो गई लेकिन अभी तक कहीं उसका रिश्ता तय नहीं हुआ था , ऐसा नहीं है कि अन्नू सुन्दर नहीं है, अन्नू सुन्दर भी बहुत है और पढ़ी लिखी भी, लेकिन थोड़ी मोटी है, थोड़ी नहीं कुछ ज्यादा ही, अन्नू के मोटापे जितना मोटा दहेज देने के लिए उसके पिता के पास पैसा नहीं है. सिर्फ इसीलिए अन्नू आज तक कुंवारी है, लेकिन इस बार सबके मन में एक उम्मीद जगी है , क्योंकि उसके दादाजी के दूर के रिश्ते के एक भाई जो अन्नू के…</span></p>
<p><strong>(1). आ० अनीता शर्मा जी </strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> <br/> <span>आज वो तीस साल की हो गई लेकिन अभी तक कहीं उसका रिश्ता तय नहीं हुआ था , ऐसा नहीं है कि अन्नू सुन्दर नहीं है, अन्नू सुन्दर भी बहुत है और पढ़ी लिखी भी, लेकिन थोड़ी मोटी है, थोड़ी नहीं कुछ ज्यादा ही, अन्नू के मोटापे जितना मोटा दहेज देने के लिए उसके पिता के पास पैसा नहीं है. सिर्फ इसीलिए अन्नू आज तक कुंवारी है, लेकिन इस बार सबके मन में एक उम्मीद जगी है , क्योंकि उसके दादाजी के दूर के रिश्ते के एक भाई जो अन्नू के पिता को बहुत प्यार किया करते थे और अन्नू के जन्म से बहुत समय पहले ही विदेश में बस गये थे एवं वहीं अपने परिवार में लीन हो गये थे, उनका परिवार कुछ समय पहले एक सड़क दुर्घटना में समाप्त हो गया. अब वह वापस अपनों के पास अपने देश आना चाहते हैं, और अपनी सारी जायदाद अन्नू के पिता के नाम करना चाहते हैं, ताकि उम्र के इस पड़ाव में वे अपनों के साथ अपनों के बीच रह सकें. यह खबर सुनते ही उनके मन में दादाजी के परिवार के लिए अफ़सोस कि जगह अन्नू कि शादी कि उम्मीद पक्की हो गई.</span><br/> <span>-------------</span><br/> <strong>(2). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी</strong><br/> <strong>वसीयत</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>मेरे प्रिय लाडलो</span><br/> <span>नमस्कार !</span><br/> <span>आशा है आप खुशहाल होंगे । मेरी तबियत के बारे में आप सब जानते ही हैं ।</span><br/> <span>मेरा जीवन संघर्षों और अभावों से ग्रसित रहा मगर मैंने कभी हिम्मत नहीं हारी । कड़ी मेहनत , ईमानदारी और इंसानियत को सदा ऊपर रखा । इन्हीं गुणों के बल पर बड़ा उद्योपति बना । करोड़ों कमाए । कईं फैक्ट्रियों की स्थापना की और बेरोज़गार हाथों को रोज़गार दिया । लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर है । बोन कैंसर के कारण जीवन के अंतिम चरणों में हूँ । सोचा , उम्मीद की लौ का एक दीया वसीयत के तौर पर लिख दूँ । जो मेरे मरने के बाद भी जलता रहे । आप पूछेंगे आख़िर ये उम्मीद की वसीयत क्या है ? तो सुनो , मैंने आप सभी भाइयों और आपकी इकलौती बहन को अपनी संपत्ति की वसीयत करने के बाद शेष अचल संपत्ति और नक़द पैंतीस लाख रुपये " निर्मल सेवा ट्रस्ट " को देने का निर्णय लिया है । इस ट्रस्ट के समस्त ट्रस्टियों से लिखित शपथ-पत्र ले लिया है कि वे अचल संपत्ति और नक़द पैंतीस लाख रुपयों का उपयोग ग़रीब और अनाथ बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की स्थापना करके उन्हें शिक्षित करेंगे । इससे हमारे समाज के वंचित और कमज़ोर वर्ग के बच्चे शिक्षा से वंचित नहीं होंगे । ऐसे लोगों के लिए उम्मीद की लौ जलती रहेगी ।</span><br/> <span>मेरा यह निर्णय आपको पसंद आएगा । चूँकि आज का युग सोशल मीडिया का युग है सो यह पत्र व्हाट्स एप के ज़रिए सेण्ड कर रहा हूँ । तुम्हारी माँ और छोटा भाई मेरी सेवा यहाँ फरीदाबाद में रहकर कर रहे हैं ।</span><br/> <br/> <span>आपका पिता</span><br/> <span>मुरलीधर अग्रवाल</span><br/> <span>--------------</span><br/> <strong>(3). मिर्ज़ा जावेद बेग</strong><br/> <strong>किरण</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>फ़हीम चाचा अपने बचपन के दोस्त शशिकांत के साथ बेठे अख़बार पढ़ रहे थे। फ़हीम चाचा के चेहरे के भाव लगातार बदलते देख शशिकांत जी ने अचानक ही फ़हीम चाचा के हाथ से अख़बार झपट लिया। चाय का कप फ़हीम चाचा की तरफ़ बढाते हुए कहा,</span><br/> <span>“यार अब वो ख़ूबसूरत ज़माना नहीं रहा जो हमारे वक़्त में हुआ करता था। आज के दौर में साक्षरता का प्रतिशत तो लगातार बढ रहा है लेकिन इन्सानियत का स्तर गिरता ही जा रहा हेै।”</span><br/> <span>“अफ़सोस तो ये है कि गली मोहल्ले का कोई भी छुटभय्या नैता आकर मिनटों में हमारे पढ़े लिखे नौजवानों को धार्मिक भावनाओं में बहा कर अपने बस में कर लेता हे एसे हालात में नई नस्ल से हमारे ज़माने जेसे भाईचारे की क्या उम्मीद की जा सकती हेै.” फ़हीम चाचा ने ठंडी आह भरते हुए चाय का कप मेज़ पर रखा ही था कि विशाल की आवाज़ उनके कानों में रस घोल गई,</span><br/> <span>“चाचा आदाब!” कहते हुए शशिकांत के बेटे विशाल ने फ़हीम चाचा के पैर छूकर आशिर्वाद लिया। विशाल अभी पाँव छूकर हटा ही था कि फ़हीम चाचा का आठ साल का पोता भागता हुआ वहाँ आ पहुँचा।</span><br/> <span>“परनाम दादू।” कहते हुए उसने शशिकांत के पाँव छुए।</span><br/> <span>फ़हीम चाचा ने मोहब्बत से लबरेज़ आँखों से शशिकांत को निहारा। और उत्साह भरे स्वर में उन्हें संबोधित करते हुए बोले,</span><br/> <span>“मेरी उम्मीद को पँख मिल गए हैें, हमारा ज़माना फिर आएगा शशि भाई।”</span><br/> <span>---------------</span><br/> <strong>(4). आ० मुज़फ्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी जी</strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>"बाजी कल मेरा निकाह है, मैं अगले हफ्ते छुट्टी पर रहूँगी।" </span><br/> <span>"चलो, अच्छा है, समीना बड़ी मुद्दत के बाद कम से कम ये ख़ुशी के दिन तो आए। तुम्हें बहुत बहुत मुबारक हो। लेकिन एक बात तो बताओ, तुमने हमें बताया ही नहीं। किस से हो रही है? कहाँ हो रही है?"</span><br/> <span>"अरे, वही शफ़ीक़ है न बाजी। जब मैं बेकरी में काम करती थी तो ये भी साथ में था। कम्बख्त बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ। हमेशा खानदानी होने का नाटक करके टालता रहता था। बाजी अब इस उम्र में मिलता भी कौन? जितने भी रिश्ते भाई- बहनों ने चलाये सब दूजे के ही थे। किसी की बीवी मर गई थी, तो किसी का तलाक़ हो गया था। और ये कम्बख्त हमेशा उम्मीद का दिलासा ही देता रहा।"</span><br/> <span>अम्माँ के जाने के बाद तो भाई - भावज भी हमेशा उलटे पुल्टे रिश्ते ही बताते रहते। और भाई ने भी बस एक ही रट लगा रखी थी। मकान खाली करवाने की। कहता है मकान खाली दो। "जब मैं इसे पक्का बनवाऊँगा तो उसमें से एक कमरा तुझे भी दे दूंगा।"</span><br/> <span>"पता नहीं, देगा कि नहीं। जब जीते जी माँ का न हुआ तो फिर मैं कहाँ लगती हूँ।"</span><br/> <span>"बाजी, जब वक़्त साथ नहीं देता तो नाते रिश्ते वाले भी मिलने से मदद करने से घबराते हैं।"</span><br/> <span>अब्बा कपड़ा मिल में काम करते थे। टीबी से वक़्त से पहले ही चले बसे। तीन बहने और एक भाई छोटे थे। "मैं जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखती उससे पहले ही गरीबी ने आप जैसों की दहलीज़ पर काम करने को मजबूर कर दिया।" बहनों की शादी के लिए, मैं अपने आप को पीछे करती गई। भाई भी शादी कर के किराये के मकान में अलग हो गया।"</span><br/> <span>पिछले साल जब से अम्माँ मरी हैं तब से उसे मकान का हक़ याद आने लगा है। मुझे एक न एक दिन इसे खाली तो करना ही पड़ेगा। सब कहते हैं मकान पर बेटे का हक़ होता है। जिन बहनों की मैं ने जी तोड़ मेहनत करके शादी करवाई, वे आज मेरे कारण भाई से दुश्मनी नहीं करना चाहतीं। नहीं तो बाजी, बेटियों का भी हिस्सा होता है न !!!</span><br/> <span>"अब मुझे उम्मीद की एक छत तो चाहिए ही है, न।</span><br/> <span>बस, बाजी दुआ करो इस बार मेरी उम्मीदों पर पानी न फिरे।"</span><br/> <span>"नहीं समीना, ऊपर वाला सब देख रहा है। देखना, शफ़ीक़ तुम्हें हमेशा खुश रखेगा।"</span><br/> <span>----------------</span><br/> <strong>(5). आ० मनन कुमार सिंह जी</strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>काली लड़की लंगड़ाती हुई खाना का डब्बा लेकर मास्टर साहब के कमरे में दाखिल हुई।दरवाजा भिड़का दिया गया।खिड़की तो वे बन्द ही रखते थे,जबसे वह खाना लेकर आने लगी थी।खुशियाँ बिस्तर पर बिछी ही थीं कि दरवाजे पर दस्तक हुई। अफरातफरी में सब कुछ जैसे बिखर गया हो।बिस्तर पर छितराये सिक्के और शामवाला डब्बा लेकर लड़की बाहर निकली।दरवाजे पर खड़े अपने सहकर्मी से मास्टर जी बोले,"अभी आता हूँ"।फिर स्कूल जाने के लिए कपड़े पहनने लगे और सोचने लगे," बात बनते- बनते रह गयी थी कल भी।आज भी वही हुआ।कल बगल वाली कहने आ गयी कि धोबन कपड़े देने आई है,आज स्कूल चलने के लिए कहने लखुआ आ गया।लंगी लग गई।....लंगड़ी उस दिन कह भी रही थी कि अंशुल(उसकी गोरी-चिट्टी छोटी बहन) की तरफ नहीं देखना है,वरना सिर कट जायेगा।सोचा था इसे सीढ़ी बनाकर मुरेड़ तक पहुँच जाऊँगा,पर यह सीढ़ी तो लगते-लगते रह जाती है।तारे जमीन पर आते-आते बिखर जाते हैं।"</span><br/> <span>"चलिये न।कितनी देर लगा दी आपने?</span><br/> <span>"बस आया अभी",मास्टर जी बोले।</span><br/> <span>उधर लखू मास्टर भुनभुना रहे थे। फिर मास्टर जी कहीं खो गए।सोचने लगे," माधुरी भी तो महीना-महीना भर अकेली रहती है।उसका भी तो मन करता होगा,पुरुष-सहवास के लिए।वह भी तो उधार का बादल बुला सकती है,अपनी पिपासा शांत करने के लिए।....हाँ,क्यों नहीं?...पर ना ना ना... माधुरी ऐसी नहीं है।वह ऐसा कर भी नहीं सकती।हाँ, वह बिलकुल ऐसा नहीं कर सकती",मास्टर जी आश्वत होकर बाहर निकले।कमरे में सब बातें सोचते हुए मास्टर जी बोलते भी जा रहे थे।</span><br/> <span>उन्हें पता भी नहीं था कि लखू भाई सब सुन रहे हैं,माधुरी के बारे में भी,सीढ़ी के बारे में भी.....।</span><br/> <span>"उम्मीद बड़ी चीज है,मास्टर जी",लखू मास्टर की आवाज मास्टर जी का मर्म भेद गयी।वह चुपचाप उनके साथ चलने लगे</span><br/> <span>--------------</span><br/> <strong>(6). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी</strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>हाथ पर चढ़े प्लास्टर को देख कर पिता ने कहा, '' यह पांचवी बार है. तू इतना क्यों सहन करती है. चल मेरे साथ, अभी थाने में रिपोर्ट कर देते हैं. उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.''</span><br/> <span>'' नहीं पापाजी !''</span><br/> <span>'' तू डरती क्यों है बेटी ? हम है ना तेरे साथ .''</span><br/> <span>'' वो बात नहीं है पापाजी ?''</span><br/> <span>'' फिर ?'' पिता ने बेटी की असहाय भाव से निहार कर पूछा, '' यह घरेलू हिंसा कब तक चलेगी?''</span><br/> <span>'' जब तक वे अपनी आदत नहीं छोड़ देते हैं .''</span><br/> <span>'' बेटी ! गलत आदत छुटती हैं क्या ? तू यूं ही कोशिश कर रही है.''</span><br/> <span>'' आखिर बेटी आप की हूं ना पापाजी ?'' उस ने पूरे आत्मविश्वास से कहा.</span><br/> <span>पिता कुछ समझ नहीं पाए. पूछा,'' यह क्या कह रही हो ?''</span><br/> <span>'' यही पापाजी. आप ने मेरी कलम खाने की आदत सुधारने के लिए तब तक प्रयास किया था जब तक मेरी यह गंदी आदत...'' कहते हुए बेटी मुस्करा दी और न चाहते हुए भी पिता का हाथ के आशीर्वाद देने के लिए उठ गए.</span><br/> <span>-------------------</span><br/> <strong>(7). आ० डॉ कुमार संभव जोशी जी</strong><br/> <strong>पुनर्मिलन”</strong><br/> <span>.</span><br/> <br/> <span>दो साल पहले लाली तब आठवीं जमात में थी, जब उसकी शादी जगन से कर दी गई थी. वह शादी नहीं करना चाहती थी, उसे तो और पढना था. मगर लड़की की सुनता कौन है.</span><br/> <span>अब तक गौना नहीं हुआ था. लेकिन पिछले बुधवार उसके ससुर आये थे. कह रहे थे कि लाली के दादिया ससुर गहरे बीमार रहने लगे है, मरने से पहले पोते का गौना देखना चाहते हैं.</span><br/> <span>आनन फानन में एक ही हफ्ते में मुहूर्त निकाल दिया गया.</span><br/> <span>लाली बहुत रोई कि विदाई के अगले ही दिन तो दसवीं का पहला पर्चा है. मगर सब बेकार गया. किताबें ताक पर धर दी गई.</span><br/> <span>विदा होकर लाली ससुराल पहुँची तो स्वागत, नेग-चार के तुरंत बाद ही सास ने कमरे में ठेल दिया. लाली बड़ी घबराई.</span><br/> <span>भीतर पहुँची तो देखती है कि चटाई पर किताबें फैली पड़ी हैं और सत्तू मास्टर जी जगन को पैराग्राफ़ राइटिंग समझा रहे हैं.</span><br/> <span>लाली कुछ समझने की कोशिश ही कर रही थी कि पीछे से सास की कड़कती आवाज आई- "छोरी, ठीक से पढना. कल के पर्चे में नम्बर कम न आणे चाहिजे."</span><br/> <span>लाली झूम कर सास से लिपट गई. खुशी के मारे बार बार किताबों को चूम कर सीने से लगाने लगी.</span><br/> <span>दरवाजे पर खड़ी सास इस पुनर्मिलन को देखती मीठी सी मुस्कान लिए मास्टरजी के लिए चाय लाने मुड़ गई.</span><br/> <span>बालविवाह रोकने की हिम्मत तो वह न कर सकी, लेकिन अब भी बहुत कुछ था जो वह कर सकती थी.</span><br/> <span>---------------------------</span><br/> <strong>(8). आ० डॉ टी.आर सुकुल जी</strong><br/> <strong>पिता की सीख</strong><br/> <br/> <span>ट्रेन में दो अपंग बच्चे घसिटते हुए यात्री परिवार की सीट के पास आकर गिड़गिड़ाने लगे,</span><br/> <span>‘‘ कुछ खाने को दे दो साब !’’</span><br/> <span>यात्री परिवार के खाना खा रहे दोनों बच्चे उन्हें अपने अपने पास से कुछ देने लगे तो पिता ने रोकते हुए कहा,</span><br/> <span>‘‘नहीं, नहीं, रुक जाओ’’</span><br/> <span>‘‘क्यों ? वे दोनों भूखे हैं, असहाय हैं ’’ बच्चों ने तर्क दिया।</span><br/> <span>‘‘ लेकिन बेटा ! उन्हें भगवान ने ही इस प्रकार का बनाया है, वही उनकी सब व्यवस्था बनाते हैं। इतना ही नहीं, सारे संसार में जो कुछ अच्छा बुरा घटित होता है यह उनकी इच्छा से ही होता है, यदि हम उन्हें कुछ करेंगे तो भगवान के कार्य में बाधा पहॅुंचेगी और वे हमसे नाराज हो जाएंगे’’... पिता ने धीरे से समझाया।</span><br/> <span>दोनों ने अपने हाथ वापस खींच लिए और वे भिखारी बच्चे दुखित हो आगे खिसकते गए। अगले स्टेशन पर उतर, यात्री परिवार ने अपने निवास स्थान पर जाकर देखा कि ताले टूटे पड़े हैं, भीतर सामान बिखरा पड़ा है, मूल्यवान वस्तुएं और धन अलमारियों से गायब हैं। पिता चिल्ला पड़े,</span><br/> <span>‘‘ चोरी हो गई , हम लुट गए, सब कुछ बर्बाद हो गया’’ और बेहोश होकर वहीं गिर पड़े।</span><br/> <span>माॅं और बच्चों ने उन्हें मुश्किल से सम्हाला और अस्पताल लाए, होश में आते ही वे डाक्टर पर चिल्लाने लगे,</span><br/> <span>‘‘ पुलिस को बुलाओ, हमारे घर में चोरी हुई है, हमें लूटा गया है ’’</span><br/> <span>उनकी परेशानी देख छोटा बच्चा बोल उठा,</span><br/> <span>‘‘ पिताजी ! अभी आपने कहा था कि सभी व्यवस्था भगवान ने बनाई है, यदि हम उनकी व्यवस्था के विपरीत कुछ करते हैं तो भगवान नाराज तो नहीं होंगे ?’’</span><br/> <span>इतना सुनते ही वे फिर बेहोश हो गए। डाक्टर कहते रहे कि पुलिस आ चुकी है, जाॅंच कर रही है, चोर पकड़े जाएंगे, चिन्ता मत करो, होश में आ जाओ... परन्तु उन्हें होश न आया।</span><br/> <span>यह देख माॅं रोते हुए छोटे बच्चे से बोली,</span><br/> <span>‘‘क्यों रे ज्ञानी की औलाद ! चुप नहीं रह सकता था?’’</span><br/> <span>---------------</span><br/> <strong>(9). आ० विनय कुमार जी</strong><br/> <strong>बंटवारा</strong><br/> <span>.</span><br/> <span>बुद्धू भैया आज उदास थे, उनकी आँखों के सामने ही वो सब हो रहा था जिसकी उन्होंने अपने जीते जी कल्पना नहीं की थी. पूरा परिवार सहमत था, बस एक उनको छोड़कर. क्या क्या नहीं किया था उन्होंने इस परिवार के लिए, आजीवन कुँवारे रहे, लेकिन आज उन सबकी कोई कीमत नहीं थी. </span><span>कुछ बुजुर्ग रिश्तेदार, गांव के मुखिया और कुछ पट्टीदारों की उपस्थिति में सब कुछ तंय हो गया. घर, खेत, सामान और यहाँ तक कि दरवाजे पर बंधे जानवरों का भी बंटवारा हो गया. दालान में बैठे हुए बुद्धू भैया सूनी सूनी आँखों से सब देख रहे थे कि कैसे उनके दोनों भाई और उनका परिवार इस बंटवारे को लेकर बहुत उत्साहित थे. अचानक वह उठे और दरवाजे पर बंधी गायों के बीच चले गए. रोज दिन में कई घंटे इन गायों के साथ ही उनका समय बीतता था, खूब चराते थे उनको. गायों की प्रसन्नता से हिलते हुए सर को देखकर उनकी उदासी एक पल के लिए दूर हो गयी. </span><span>कुछ मिनट के बाद वह वापस दालान में आये और उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों के सामने जोर से कहा</span></p>
<div>"तुम लोगों ने जैसे चाहा, बंटवारा कर लिया. लेकिन इन गायों के बारे में मुझे कुछ कहना है". इतना कह कर वह सांस लेने के लिए रुके और उनके दोनों भाईयों की सांस रुकने लगी. शायद भैया गायों को हम लोगों को देना नहीं चाहते हैं, यही उनके दिमाग में आ रहा था.<br/> "देखो चाहे तुम लोगों ने हर चीज का बंटवारा कर लिया है, लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि एक चीज का हक़ तुम लोग मुझसे नहीं छीनोगे. आगे भी सभी गायों को चराने लेकर मैं ही जाया करूँगा और सबको उनकी गायों का दूध दुहकर दूंगा".<br/> बुद्धू भैया वहां उपस्थित सभी लोगों से बेखबर बस गायों को प्यार भरी नजरों से देख रहे थे. उनकी उम्मीद जिन्दा थी और उनके भाई एक दूसरे से नजर चुरा रहे थे.<br/> ------------------<br/> <strong>(10). आ० दिव्या राकेश शर्मा जी</strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> .</div>
<div>महेश ने सर पर तपते हुए सूरज को देखा और थक कर बैठ गया। लगातार फावड़ा चलाने से उसकी हथेलियाँ लाल हो गई थी।पास ही उसकी पत्नी सरला दनताली से मिट्टी एकसार कर रही थी। सूखी पड़ी धरती और सरला का मुरझाए चेहरे को देख कर महेश कहीं अंदर से टूटने लगा था।तभी सरला की नजर महेश पर पड़ती हैं जो टकटकी लगाए आसमान को तांक रहा था।<br/> “क्या हुआ जी!का सोच रहे हो?”सरला ने कहा।<br/> “कुछ नहीं सरला।”उदास सा होकर महेश बोला और खुदाई करने लगा।<br/> “कैसे कुछ नहीं है जी।आपकी उदासी का मुझसे छिप जायेगी?इतनी चिंता काहे करते हैं।कुछ न कुछ तो होगा ही।”<br/> “का होगा सरला!”सर पकड़कर नीचे बैठ गया।”देख तो रही हो।सर पर सूरज आग बरसा रहा है।धरती सूखकर फट गई।अब अगर बीज भी बो दिया तो पानी का इंतजाम….”बात अधूरी छूट गई और गला रूंध गया।<br/> “सोचता हूँ कि धरती बेच दूँ और शहर चला जाऊं।कुछ मजदूरी ही कर लूंगा।”<br/> “का कह रहे हैं आप यह!धरती तो नहीं बेचने दूंगी।आपके माँ बापूजी ने आपको दी थी ऐसे ही मैं भी अपने बच्चों को दूंगी और शहर में मजदूरी क्या ऐसे ही मिल जायेगी?वहाँ न घर न अपने।यहाँ कम से कम छत तो है और हमारा इस समय फर्ज है धरती में बीज बोना।उसे हम पूरा करेंगे और देखना पानी भी मिलेगा विश्वास है मुझे।”<br/> “फालतू की उम्मीद छोड़ दें।सूखे के आसार हैं देख लेना कहीं फाके न हो जाए।”<br/> “जब धरती माँ सीने पर घाव सहकर भी हमें नहीं छोड़ती तो मैं उम्मीद कैसे छोड़ दूँ!”<br/> तभी उसके गाल पर एक बूंद गिरी।उसने ऊपर देखा।आसमान में काले बादल उसकी उम्मीद बरसा रहे थे।<br/> --------------<br/> <strong>(11). आ० बबीता गुप्ता जी</strong><br/> <strong>(बिना शीर्षक)</strong><br/> <br/> आज कोर्ट में खेती के बंटवारे को लेकर सुनवाई थी। ख़ुशी को वकील की सफेद पोशाक और काले चोगे में देख कुसुम और दीनू की आँखे भर आई। ख़ुशी की और देखती इन आखों में सालों से आस लगाए सच्चे न्याय की गुहार थी.अपने ढाढ़स को बाँध दोनों ने ख़ुशी को आशीर्वाद दिया। दोनों पक्षों की काफी बहसवाजी के पश्चात निर्णय दीनू के पक्ष में दिया गया। आज दीनू को अपने बेटों समान भाईयों के खिलाफ अदालती कार्यवाही करने का दुःख तो था लेकिन दोनों द्वारा उस पर उसके स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने से अंदर तक टूट चुका था. कोर्ट से बाहर निकलती ख़ुशी को गले लगाते दीनू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी आँखों के सामने उस दिन की यादें घूम गई जब उसके छोटे भाईयों ने पूरी खेती पर अपना गुंडाराज कर उसे बेदखल कर दिया था। कुसुम की माँ दहाड़े मार मार कर रोये जा रही थी.पास में खाट पर अपना सिर पकड़े पति दीनू को कोसे जा रही थी.<br/> "देख लिया ना,अपने भाईयों को,अम्मा -बब्बा केपरलोक सिधारने के बाद इसी दिन के लिए पाल पोष के बड़ा किया था."<br/> "क्यों दुखी हुई जा रही हैं,हमने तो अपने फर्ज पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.अगर खेती में हिस्सा देना नहीं चाहते तो ना दे। "<br/> ऐसे थोड़े ही ना होता हैं,कहने भर से क्या हकदारी हट जाती हैं.दिन देखा ना रात,पूरा जीवन झोंक दिया,क्या इसी दिन के लिए?<br/> "लखन और राधे का कहना हैं कि तुमने कौन-सा अलग से कमाया और घर खर्च चलाया?अम्मा बापू के संग रहे ,उन्ही की कमाई बैठकर खाई।"<br/> ऐसा कहते तनिक लज्जा नहीं आती,हम दोनों का किया नहीं दिखता,इतने भी तो नासमझ नहीं हैं।"इतना कहते कुसुम अपने भाग्य को कोसने लगी।<br/> <br/> दीनू और कुसुम की तेज आवाजों को सुन ख़ुशी अंदर से आते हुए कहने लगी- "माँ,क्यों रोती हो?मैं बड़ी होकर वकील बनूँगी,और आपका हिस्सा दिला कर रहूँगी।"<br/> कक्षा दस में पड़ने वाली ख़ुशी की बात सुन ,उसकी तरफ आशा भरी नजरों से देखने लगे। इशारे से दीनू ने पास बिठा उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। आज उसे अपनी लाड़ली बेटी पर बेटों वालों से ज्यादा नाज हो रहा था। कुसुम अपने पति को और एकटक देखे जा रही थी। सही न्याय मिलने की उम्मीद आज बेटी ने जगा दी थी। अपने आप में कहने लगी कि केवल बेटा ही उम्मीद पूरी नहीं करते बल्कि बेटी भी........<br/> ------------------<br/> <strong>(12). आ० बरखा शुक्ला जी</strong><br/> <strong>ठोकर</strong><br/> .<br/> “तो तुम आज शाम को मुजरा नहीं कर रही हो ?”पन्ना बाई ने चम्पा से पूछा ।<br/> “हाँ पन्ना बाई तबीयत कुछ नासाज़ सी है ।” चम्पा बोली ।<br/> “चम्पा तुम पर हमारा स्नेह है ,इसलिए बता रहे है ,हम कोठे वाली किसी एक की होकर नहीं रह सकती ।हम देख रहे है ,इन दिनो तुम्हारा झुकाव छोटे ठाकुर पर हो गया है ।”पन्ना बाई बोली ।<br/> तभी कोठे का नौकर थैले में कुछ सामान लेकर आया ,पन्ना बाई ने उसके हाथ से थैला लेकर पूछा “क्या लाया है ?ज़रा मैं भी तो देखूँ ।”<br/> “चम्पा बाई जी ने मँगवाया था ।” नौकर बोला ।<br/> नौकर को जाने का बोल ,थैले में पूजा का सामान व करवा देख पन्ना बाई बोली “ ये तो करवा चौथ की पूजा का सामान दिखे है ।”<br/> “हाँ वो आज मेरा व्रत है ।”चम्पा नीची नज़र कर बोली ।<br/> “वैसे चम्पा आज छोटे ठाकुर की पत्नी का भी पहला करवा चौथ होगा ,और वैसे भी हम कोठे वालियों का काहे का व्रत ।”पन्ना बाई बोली ।<br/> “छोटे ठाकुर ने आज आने का वादा किया है ।”चम्पा बोली ।<br/> “यहाँ तो हमने वादे टूटते हुए ही देखें है ,काश तुम्हारी उम्मीद न टूटे ।”पन्ना बाई बोली ।<br/> रात में चाँद निकलने पर चम्पा ने चाँद को अर्घ्य दे पूजा की ,और फिर छोटे ठाकुर का इंतज़ार करने लगी ।<br/> कुछ समय बाद नौकर एक पत्र दे गया ,चम्पा ने झट से खोल उसे पढ़ा ,लिखा था -<br/> “चम्पा आज हम नहीं आ पाएँगे ,तुम व्रत खोल लेना । “<br/> छोटे ठाकुर<br/> टूटी हुई उम्मीद का एक आँसू काग़ज़ पर गिर कर शब्दों को धुँधला कर गया था ।<br/> --------------------<br/> <strong>(13). आ० तेजवीर सिंह जी</strong><br/> <strong>बाढ़ राहत कोष</strong></div>
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<div>"शुक्ला जी, नमस्कार, क्या बिटिया की शादी की तिथि तय हो गयी?”<br/> "अरे कहाँ हुई भाई मनोहर जी।“<br/> "क्यों, अब क्या दिक्कत आ रही है? सब कुछ तो पहले ही तय हो चुका है| ”<br/> शुक्ला जी मनोहर के पास कुर्सी खिसका कर गमगीन चेहरा बना कर बोले,"कमाल करते हो यार, देख हीं रहे। इस साल बरसात का कहीं अता पता ही नहीं है। बाढ़ नहीं आई तो दहेज़ का जुगाड़ कैसे होगा?”<br/> "आपकी बात तो विचारणीय है। मगर इसका तो इलाज़ किया जा सकता है|”<br/> "यार मनोहर, तुम ही तो शान हो इस आपदा प्रबंधन विभाग की। हम सबकी उम्मीद के चिराग हो। निकालो भैया, कुछ रास्ता निकालो।“<br/> "शुक्ला जी, आप तो खुद भी इस महकमे के बहुत पुराने और माहिर खिलाड़ी हो। आपको तो पता ही है, कितनी सारी सरकारी योजनायें तो केवल कागज पर ही क्रियान्वित होकर समाप्त हो जाती हैं| तो क्या कागजों में बाढ़ नहीं आ सकती|”<br/> "धीरे बोलो यार, तुम्हारी बात में दम तो है। लेकिन ये साले ऑडिट वाले बहुत झमेला करते हैं।“ शुक्ला जी ने मनोहर जी के कान पर फुसफुसाते हुए कहा|<br/> "क्या सर आप भी? थोड़ा बाढ़ का पानी उन पर भी छिड़क देना।“<br/> ------------------<br/> <strong>(14). आ० आशीष श्रीवास्तव जी</strong><br/> <strong>अधूरा मकान</strong><br/> .<br/> ‘‘अपने जीवनभर की कमाई से मकान बनवाना चाहा तो वह भी अधूरा रह गया। एग्रीमेंट के बाद भी ठेकेदार बीच में ही छोड़कर चला गया। पूरे एक लाख का चूना लगा गया।’’ बुजुर्ग संभव आज फिर अपने बचपन के मित्र से मिलेे तो कहने लगे।<br/> मित्र: ‘‘यार संभव, कब तक दुःखी होते रहोगे, पिछले 4-5 महीने से बस एक ही रट, कुछ उपाय करना चाहिए न।’’<br/> संभव: ‘‘कानून के जानकारों से मदद मांगी, लेकिन सभी ने समझाया कि पैसा और अधिक खर्च हो जाएगा, फिर इस बात की गारंटी नहीं कि मकान पूरा बन ही जाएगा, क्योंकि ठेकेदार ने काम तो किया है।’’<br/> मित्र: ‘‘मेरा नया मकान बन रहा है, मैंने ठेकेदार से कहा था कि रेत-गिट्टी, बोल्डर आने पर मेरे भाई नगद पैसे देंगे, ये लो पूरे एक लाख हैं, अपने शुभ हाथों से ठेकेदार को देना।’’<br/> दोनों बात करते हुए उस जगह पहुंचे जहां मित्र का मकान बन रहा था। संभव को अपने सामने खड़ा देखकर मकान बनवा रहा ठेकेदार सकपका गया।<br/> संभव आष्चर्य से अपने मित्र की ओर देखकर: ‘‘इससे मकान बनवा रहे हो, ये तुम्हें कहां मिल गया।’’<br/> मित्र: ‘‘तुम्हारे एग्रीमेंट में चस्पा फोटो से।’’<br/> मित्र ने ठेकेदार से कहा: ‘‘मैंने बताया था न कि बीम डलने से पहले तय रकम की पहली किश्त मेरे बड़े भाई देंगे। आज उन्हें हम साथ लाये हैं।’’<br/> ठेकेदार को समझते देर नहीं लगी कि ‘‘जैसे को तैसे’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हावभाव बदलते हुए ठेकेदार तुरंत सफाई देने लगा: ‘‘वो एकाएक बीमार हो गया तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, बहुत पैसा खर्च हो गया, पर आपका काम अवश्य पूरा करेंगे।’’<br/> दोनों दोस्तों को चुप खड़ा देखकर ठेकेदार ने कहा: ‘‘आपको परेशान होना पड़ा, भरोसा रखिए, दोनों मकान जल्द बन जाएंगे। अब कोई शिकायत नहीं मिलेगी!’’<br/> संभव: ‘‘मुझे ऐसी ही उम्मीद थी, पर लगता है अब हमारा मकान बन गया है।’’<br/> दोनों मित्र एक-दूसरे की ओर देख मुस्कुरा उठे, और ठेकेदार नदारद।<br/> ----------------<br/> <strong>(15). आ० शेख़ शाहज़ाद उस्मानी जी</strong><br/> <strong>व्यावसायिकता : चोले और भोले</strong><br/> <br/> "मिर्ज़ा जी, गेट पर आपकी हमारे बस-स्टाफ से हुई बहस मैंने सुन ली है! अरे, आप तो हमारे पढ़े-लिखे-योग्य कर्मचारी हैं! आपको अपनी इज़्ज़त अपने हाथ में रखनी चाहिए न!" नई उभरती कम्पनी के नये मैनेजर ने अपने क़ाबिल कर्मचारी से कहा।<br/> "सर, मुझे नहीं पता था कि आप आज अपने निर्धारित समय से पहले ही दफ़्तर आ चुके हैं; वरना मैं सीधे आपसे कहता कि यह स्टाफ-बस मेरे वाले स्टॉप पर आज नहीं आयी, जबकि मैं निर्धारित समय से दस मिनट पूर्व ही वहां पहुंच गया था! ये ड्राइवर-कंडक्टर दोनों झूठ बोल रहे हैं कि उन्होंने वहां सही वक़्त पर बस लाकर पांच मिनट तक मेरा इंतज़ार किया!" मिर्ज़ा जी ने अपनी शिक़ायत बतौर तवज्जो हमेशा की तरह हिंदी में ही स्पष्ट की।<br/> "तो क्या आपको उन दो कोड़ी के टुच्चे कर्मचारियों से यूं बहस करनी चाहिए थी गेट पर? उम्मीद है, आइंदा आप अपनी कोई भी शिक़ायत सीधे मुझे ही बताया करेंगे!"<br/> "क्षमा करें, सर! आइंदा ध्यान रखूंगा!" इतना कहकर मिर्ज़ा जी वापस अपनी सीट पर चले गये। गेट पर उस स्टाफ-बस से उतरे अन्य कर्मचारी मिर्ज़ा जी की हालत देखकर मुस्कराते रहे।एक क्लर्क उनके नज़दीक़ आकर बोली - "क्या हुआ सर? आज आपको पहली बार कोई शिक़ायत, इस कम्पनी के नियमों के ख़िलाफ़ इतने ज़ोर से करते हुए सुना! हमें आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी!"<br/> वे कुछ कहते उसके पहले ही रिसेप्शनिस्ट ने उनके नज़दीक़ आकर धीमे स्वर में कहा - "सर, आपने ऐसा क्या कह दिया कि मैनेजर साहब बस-स्टाफ को जमकर डांट रहे हैं और आपकी इंसल्ट भी कर रहे हैं!"<br/> तुरंत अपनी सीट छोड़कर मिर्ज़ा जी खिड़की से झांक कर गेट पर चल रही बहस सुनने लगे। मैनेजर साहब ड्राइवर-कंडक्टर दोनों से कह रहे थे - "उस दो कोड़ी के टुच्चे कर्मचारी से यूं बहस करने की ज़रूरत नहीं है! आप हमारे वफ़ादार क़ाबिल कर्मचारी हैं! .. हमें उम्मीद है कि आप ऐसे उजड्ड नौसीखिए कर्मचारियों को न तो सिर पर चढ़ायेंगे और न ही उनकी बातों का कोई बुरा मानेंगे!"<br/> मिर्ज़ा जी ग़ौर से सुनते जा रहे थे। अब मैनेजर उन दोनों से कह रहे थे - "अरे, उस जैसे तो कई मिल जायेंगे! आप जैसे ऑल-राउंडर टिकाऊ आज्ञाकारी कर्मचारी मुश्किल से मिल पाते हैं! वो एक लाइन तक तो बोल नहीं पाता है सही अंग्रेज़ी में; अपने आपको जाने क्या समझता है!"<br/> बगल में खड़ी वह रिसेप्शनिस्ट मिर्ज़ा जी की हालत देखकर मुस्कराने लगी और बोली - "उम्मीद है कि प्राइवेट नौकरी के तौर-तरीक़े आप भी ज़ल्दी ही सीख लेंगे!"<br/> ----------------<br/> <strong>(16). आ० कनक हरलालका जी</strong><br/> <strong>परिवार</strong><br/> .<br/> "रवि नाश्ता कर ले।"<br/> "आया मम्मी। बड़ी जोरों की भूख लगी है।"<br/> खाने की मेज पर पूरा परिवार इकठ्ठा था।<br/> "मम्मी आपकी प्लेट कहां है? आपने अपनी प्लेट नहीं लगाई?"<br/> "नहीं बच्चे, आज मेरा व्रत है। तुम लोग बैठो न। मैं परोस देती हूं।"<br/> "आज फिर व्रत? क्यों करती हैं आप इतने व्रत उपवास?"<br/> "अरे शादी के बाद औरतें अपने पति, परिवार, और बच्चों की खुशहाली के लिए व्रत रखती हैं और क्यों?"<br/> "वैसे आज है क्या? आज किसकी खुशी के लिए व्रत रखा गया है? "<br/> "आज मैंने अपने पिताजी के स्वास्थ्य की कामना के लिए व्रत रखा है। कई दिनों से बीमार चल रहे हैं।"<br/> "पापा आप को भी अपने परिवार, पत्नी, बच्चों की खुशहाली के लिए व्रत रखना चाहिए न।"<br/> "अरे ये सब औरतों के घरेलू काम हैं। मर्द ये सब नहीं करते।"<br/> "हां क्योंकि माँ सिर्फ़ औरतें हो सकती हैं मर्द नहीं।"<br/> "मम्मी, बड़ा होकर मैं भी<br/> अपने परिवार की खुशियों के लिए व्रत रखूंगा। क्योंकि वह मेरा भी तो परिवार होगा न। बिल्कुल आपकी तरह।"<br/> -------------------<br/> <strong>(17). आ० नीता कसार जी</strong><br/> <strong>रोशनी ज़िंदा है</strong><br/> .<br/> अरे ये क्या कर रहे,बुड्डा ? सबके पास जाकर सबकी, टेबल पर खाना परोसने के बहाने हाथ से हाथ स्पर्श कर क्या ढूँढ रहा है। इसका हुलिया और पहनावा देखो<br/> ये कितना गंदा दिख रहा है।<br/> तीर्थयात्रा पर आये मोहन ने मधुर से ढाबे पर खाना खाने के लिये भीतर आकर कहा।<br/> देख यार ? खाना कैसे परोस रहा है।मुझे तो घिन आने लगी है।<br/> इसके मालिक की ख़बर लूँ , कैसे कैसों को पाल रखा है ।<br/> छोड भाई,क्या करना है तुझे बड़ी मुश्किल से खाना मिला है हम खाना खा लेते है<br/> मधुर ने मोहन को समझाने का प्रयास किया ।पर वह आपे से बाहर हो गया ।<br/> जा बुड्डे अपने मालिक को बुलाकर ला ।<br/> जी ,जी माफ़ करिये बाबूजी ये बुज़ुर्ग है। परिस्थितियों ने इनका ये हाल कर दिया है ।<br/> बेटे,बहू साथ में तीर्थयात्रा करने लाये और इन्हैं छोड़कर भाग गये ।<br/> अब ये हर आदमी में अपना बेटा ढूँढते है।<br/> अचानक ही मोहन के तेवर ढीले हो गये।खाने की टेबिल छोड़कर उठा ,मालिक के पीछे खड़े<br/> व्यक्ति के सामने खड़ा हो गया ।<br/> मैं दोषी हूँ पापा ,मुझे माफ़ करिये ,आपने मुझे कभी अकेला नही छोड़ा और मैं ,आपका नालायक बेटा? दो जोड़ी आँखे छलछलाने लगी।<br/> वह बुज़ुर्ग के पैरों में गिर गया ।<br/> कंपकपाते हाथों से पिता ने बेटे को सीने से लगा लगा लिया<br/> मुझे मालूम था तू मुझे लेने आयेगा जरूर ।<br/> -----------------<br/> <strong>(18). आ० महेंद्र कुमार जी</strong><br/> <strong>गोडोट</strong><br/> .<span> </span><br/> व्लादिमीर को कब्र में फेंक कर एस्ट्रागन ज़ोर-ज़ोर से गाली बकने लगा। अब से एक दिन पहले यानी कल, या शायद कुछ वर्षों पूर्व, अथवा आज ही।<br/> "तू आज फिर किसी को मार कर आया है?" व्लादिमीर ने एस्ट्रागन को देखते ही पूछा।<br/> "यहाँ हर कोई हर किसी को मार रहा है, बस फ़र्क ये है कि बाकी लोग मतलब से मारते हैं और मैं बेमतलब से।" एस्ट्रागन ने जवाब देते हुए कहा। "वैसे कभी-कभी मुझे पोज़ो की बहुत याद आती है, 'अगर कोई कहीं पर रोता है तो कोई दूसरा कहीं पर चुप हो जाता है और अगर कोई कहीं पर हँसता है तो कोई दूसरा कहीं पर रोता है।' क्या तुझे नहीं लगता कि मैं लोगों को इसलिए मारता हूँ ताकि दूसरे ज़िन्दा हो सकें?"<br/> व्लादिमीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर की शान्ति के बाद। "डीडी, क्या तू जानना नहीं चाहेगा कि आज मैंने किसका खून किया?"<br/> "लकी का?" व्लादिमीर ने अन्दाज़ा लगाया।<br/> “नहीं, तेरे उस लड़के का जो गोडोट का सन्देश ले कर आता था। मैंने उसका पीछा किया तो देखा कि वह पहाड़ी पर अकेले बैठा ख़ुद से बातें कर रहा था। वह झूठ बोलता था, वहाँ उसके सिवा कोई भी नहीं था, तेरा गोडोट भी नहीं।"<br/> व्लादिमीर ने अपनी टोपी उतारी और उसमें देखते हुए कहा, "मुझे लगता है गोडोट ऊपर रहता है।"<br/> "और मुझे लगता है गटर में।" एस्ट्रागन ने अपने जूतों के अन्दर झाँकते हुए कहा।<br/> "क्या गोडोट ईश्वर है?" व्लादिमीर ने एस्ट्रागन से पूछा।<br/> "नहीं, मेरी महबूबा। न तो मेरी महबूबा कभी मुझसे मिलने आती है और न ही तुझसे तेरा गोडोट।"<br/> व्लादिमीर चौंका। "क्या तेरी महबूबा है?"<br/> "क्या तेरा गोडोट है?"<br/> "अच्छा एक बात बता, इस दुनिया को टोपी की ज़रूरत है या जूते की?" व्लादिमीर ने विषय बदला।<br/> "जूते की।"<br/> "और तुझे?"<br/> "दोनों की नहीं क्योंकि मुझे दोनों ही चुभते हैं।"<br/> इसके बाद दोनों फिर शान्त हो गए। थोड़ी देर बाद एस्ट्रागन ने चुप्पी तोड़ी, "तुझे पता है, कल मैं लकी से मिला था। उस सूअर ने एनिमल फार्म खोल लिया है और अब वह बिना हैट के भी सोच सकता है।"<br/> पर व्लादिमीर को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह कहीं और ही खोया था। "तुझे मेरी आख़िरी ख्वाइश याद है न?"<br/> "हाँ, तू पहले मर तो।"<br/> गोडोट का इन्तज़ार करते-करते व्लादिमीर आख़िरकार मर ही गया, उसने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली।<br/> "मेरे साथ अपना जूता भी दफ़ना देना गोगो, मैं गोडोट को जूते से मारना चाहता हूँ।" व्लादिमीर की आख़िरी ख्वाइश के अनुरूप एस्ट्रागन ने उसकी कब्र पर अपना जूता रख दिया।<br/> व्लादिमीर को दफ़नाने के बाद एस्ट्रागन उस पेड़ के पास जा कर खड़ा हो गया जहाँ वो दोनों गोडोट का इन्तज़ार किया करते थे। उस पेड़ में अब एक भी पत्ता शेष नहीं था। एस्ट्रागन ने उसकी तरफ़ देखा और कहा, "कभी-कभी तो लगता है जैसे मैं ही गोडोट हूँ।"<br/> ----------------------------<br/> <strong>(19). आ० नीलम उपाध्याय जी</strong><br/> <strong>उम्मीद</strong><br/> .<br/> सिविल सर्विसेस की प्रिलिम परीक्षा की तैयारी कर रहरही शिवानी ने अपने आप को दिन दुनिया से अलग कर लिया था। आजकल उसके संगी साथी उसकी किताबें और अपने चुने गए विषयों से सम्बंधित नोट्स रह गए थे। परीक्षा की तैयारी करने में परिवार का पूरा सहयोग मिल रहा था । उसके अपने कमरे के बाहर क्या कुछ चल रहा है, कौन आया, कौन गया, उसे इसकी कोई खबर नहीं रहती थी। हां उसने नोट किया कि पिछले तीन-चार दिनों से नन्हकी, जो उसके घर बर्तन और सफाई करने वाली की बेटी थी, किसी न किसी बहाने से उसके कमरे में चक्कर लगाती रहती है। कभी कहती -"दीदी तुम इतनी देर से बैठी हो पीठ दुःख गयी होगी। मैं थोड़ा दबा देती हूँ।" कभी कहती - "दीदी तुम थोड़ा लेट जाओ, मैं तुम्हारा सर दबा दू। " कभी पानी का गिलास लेकर हाजिर होती तो कभी चाय के लिए पूछने आ जाती। आखिर शिवानी ने उससे पूछ ही लिया - "नन्हकी, आजकल तुझे मेरी इतनी चिंता क्यों रहती है।" तब नन्हकी ने अपनी मंशा जाहिर कर दी - "दीदी तुम कोई इंतिहान दे रही हो तो आंटी, अंकल, भैया और छोटी दीदी सब तुम्हारा कितना ख्याल रखते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है। दीदी, हमारे घर में हम लोग भी पांच प्राणी हैं। लेकिन माँ ही पूरा घर का खर्चा चलाती है। बापू तो शराबी है, घर से कोई मतलब ही नहीं है। घर चलाने में माँ की मदद करती हूँ। छोटी बहन बी.ए. की पढ़ाई कर रही है। भाई भी बी.ए. के बाद की पढ़ाई कर रहा है। दीदी तुम तो कोई नौकरी लगने की परीक्षा दे रही हो न । क्या तुम छोटी बहन और भाई को सरकारी नौकरी लगने की परीक्षा देना सीखा दोगी।"<br/> "अच्छा सरकारी नौकरी की परीक्षा ही क्यों ?" "भाई पिराइवेट नौकरी करता था लेकिन तीन बार उसकी नौकरी छूट गयी। सरकारी नौकरी तो पक्की नौकरी होती है न।" आँखों में एक उम्मीद की किरण लिए नन्हकी को देख रही थी क़ि शिवानी उसके भाई को सरकारी नौकरी की परीक्षा देने में उसकी सहायता करेगी। उस बात के चार वर्षों के बाद आज नन्हकी का भाई सिविल सर्विसेज की परीक्षा में मेरिट अंक लेकर आई ए एस पास हो गया है। उसकी छोटी बहन भी सरकारी महकमे में राजपत्रित अधिकारी है। नन्हकी के पिता का अत पता नहीं है। उस्की माँ पिछले साल गुजर गयी और नन्हकी अब शिवानी के घर बर्तन और सफाई का काम करती है।<br/> -------------------<br/> <strong>(20). आ० मृणाल आशुतोष जी</strong><br/> <strong>सवेरा</strong><br/> <br/> बिस्तर पर आते ही सुषमा ने धीरे से आवाज़ दी,"अजी! सुनते हो, सो गए क्या?"<br/> पति के जबाब की जगह खर्राटे की आवाज़ अनवरत जारी रही। दोपहर में जब से बैंक का खाता देखा, तब से चैन उड़ गया था। नींद को आगोश में लेने की तमाम कोशिश नाकाम रही। करवटों के बदलने का सिलसिला अभी भी जारी ही था कि अचानक पति के उठने का आभास हुआ। तो घबराकर उसने आँखें बन्द कर ली पर चोरी पकड़ी गयी।<br/> "तुम अभी जग रही हो!" सुभाष जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।<br/> "हाँ, नींद नहीं आ ही है।"<br/> "कोई बात है तो बताओ। कुछ छुपा रही हो क्या?"<br/> "तुम नाराज़ होगे!"<br/> "नहीं बताओगे तो और अधिक नाराज़ होऊँगा।"<br/> "कब तक मुझसे छुपा-छुपा कर छोटी पर पैसा बर्बाद करते रहोगे।"<br/> "बर्बाद! अरे, पढ़ाई के लिये पैसे भेजता हूँ न!"<br/> "पढ़ने के लिये जो जुनून होना चाहिए वह तो उसमें दिखता नहीं। आती है तो दिन भर या तो सोती रहती है या मोबाइल में घुसी रहती है। उसकी शादी के बारे में भी कुछ सोचना है न!"<br/> "अरे! राज्य लोकसेवा आयोग परीक्षा की तैयारी कोई हँसी-खेल है क्या? बड़े-बड़े के छक्के छूट जाते हैं। छोटी ने तो दो बार मुख्य परीक्षा भी दी है! पहले माली हालत खराब थी तो उन दोनों बेटियों को पढ़ा न सका। अब भगवान ने दिया है तो मैं कंजूसी क्यों करूँ?"<br/> "जो मर्जी हो करो। कमाते तो तुम हो न!"<br/> "अरे पगली! तुम न, व्यर्थ चिंता करती हो। देखना, जल्दी ही बिटिया पूरे शहर में हमारा नाम रौशन करेगी।" कहते हुए सुभाष जी ने उठकर खिड़की खोल दी। सरला को अब सूरज की किरण अब साफ दिखने लगी थी।"<br/> -----------------</div> "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-43 (विषय: "आजकल")tag:openbooks.ning.com,2018-10-09:5170231:Topic:9523752018-10-09T15:47:00.609ZAdminhttp://openbooks.ning.com/profile/Admin
<p><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">आदरणीय साथिओ,<br></br></font></p>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">सादर नमन।</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">.</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी"<span> …</span></font></div>
<p><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">आदरणीय साथिओ,<br/></font></p>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">सादर नमन।</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">.</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी"<span> </span><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>अंक-43</strong></span><span> </span>में आप सभी का हार्दिक स्वागत है, प्रस्तुत है:</font></div>
<div><font color="#000000" face="Arial, Helvetica Neue, Helvetica, sans-serif">.</font></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-43</strong></span></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><b><span>"विषय: "आजकल" </span></b></span></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>अवधि : 30-10-2018 से 31</strong></span><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>-10</strong></span><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>-2018 </strong></span></div>
<div><span class="m_7327524718019648003gmail-font-size-3"><strong>.</strong></span></div>
<div><b>अति आवश्यक सूचना :-</b></div>
<div>1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी <span><strong>केवल एक</strong> <strong>हिंदी</strong> लघुकथा</span> पोस्ट कर सकते हैं।</div>
<div>2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।</div>
<div>3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। </div>
<div>4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। <span>गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI</span></div>
<div>5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.<br/><div>6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।</div>
<div>7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार <strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong> अवश्य लिखें।</div>
<div>8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। </div>
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<div>मंच संचालक</div>
<div><strong>योगराज प्रभाकर</strong></div>
<div>(प्रधान संपादक)</div>
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