साहित्य - Open Books Online2024-03-29T08:34:17Zhttp://openbooks.ning.com/forum/categories/5170231:Category:43680/listForCategory?feed=yes&xn_auth=noजातीय व्यवस्था की हिलती नींव का दस्तावेज है उपन्यास ‘सुलगते ज्वालामुखी ’:: डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-01-07:5170231:Topic:10415492021-01-07T16:08:52.481Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p><strong>‘सुलगते ज्वालामुखी</strong><strong>’</strong> <strong>कवयित्री एवं कथाकार डॉ</strong><strong>.</strong> <strong>अर्चना प्रकाश जी का नवीनतम लघु उपन्यास है, जिसका कथानक मात्र 110 पृष्ठों में सिमटा हुआ है I मैं इसके बारे में कुछ कहूँ, इससे पहले मैं उपन्यास के टॉपिक के मद्देनजर यह अभिमत प्रकट करना चाहूँगा कि भारतीय सनातन वर्ण-व्यवस्था में मानव की समानता के लिए कोई अधिकरण शायद आरंभ से ही नहीं था I इसलिये उच्च जातियाँ जिन्हें सवर्ण कहा जाता है, उन्होंने निम्न जातियों विशेषकर अस्पृश्य…</strong></p>
<p><strong>‘सुलगते ज्वालामुखी</strong><strong>’</strong> <strong>कवयित्री एवं कथाकार डॉ</strong><strong>.</strong> <strong>अर्चना प्रकाश जी का नवीनतम लघु उपन्यास है, जिसका कथानक मात्र 110 पृष्ठों में सिमटा हुआ है I मैं इसके बारे में कुछ कहूँ, इससे पहले मैं उपन्यास के टॉपिक के मद्देनजर यह अभिमत प्रकट करना चाहूँगा कि भारतीय सनातन वर्ण-व्यवस्था में मानव की समानता के लिए कोई अधिकरण शायद आरंभ से ही नहीं था I इसलिये उच्च जातियाँ जिन्हें सवर्ण कहा जाता है, उन्होंने निम्न जातियों विशेषकर अस्पृश्य जातियों पर जमकर शासन और शोषण किया I इतिहास के प्रमाण से निम्न जातियों पर सवर्णों के अमानुषिक अत्याचारों से हम भलीभाती अभिज्ञ होते हैं I केवल शोषण ही नहीं, देखा जाय तो उच्च जातियों ने मानो एक दुरभिसंधि के जरिये निम्न जातियों की उन्नति के सभी मार्ग बंद कर उन्हें अशिक्षित और श्रमजीवी रहने हेतु बाध्य भी किया ताकि उच्च वर्ग इन लोगों से गुलामों जैसी सेवा और बेगार ले सके I अंग्रेजों ने भारत में अधीनस्थ छुटभैये राजाओं के पोषण के साथ ही जमींदारी और ताल्लुकेदारी प्रथा का जो सवर्धन किया, उससे निम्न जातियों का शोषण और भी बढ़ा और बहुतेरे अमानुषिक अत्याचार हुए I इसलिए स्वतंत्र भारत में जब बाबा साहब आंबेडकर ने समाज के इस दलित संवर्ग का स्तर समुन्नत करने और उन्हें सवर्णों की बराबरी पर लाने हेतु इनके आरक्षण का प्रस्ताव संविधान समिति के समक्ष रखा तो इसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ I तब से यह सुविधा निम्न और पिछड़ी जातियों को अद्यतन मिल रही है I इस नीति से दलितों का स्तर अवश्य ही समुन्नत हुआ, इस बात में तो कोई संदेह नहीं है i यहाँ तक कि बहुत से दलित उच्च प्रशासनिक पदों से लेकर राजनीति तक में अपना प्रभाव बनाने में सफल रहे I निस्संदेह आरक्षण ने भारत में दलितों की स्थिति काफी मजबूत की I किन्तु इससे दलितों का हित भले हुआ हो पर शायद देश का हित नहीं हुआ I बेहतर होता कि देश में जातीय व्यवस्था को समाप्त करने के प्रयास किये जाते, तब शायद सच्चा समाजवाद आ पाता I भारतीय लोकतंत्र के प्राथमिक दलित राजनेताओं के सिरमौर बाबू जगजीवनराम ने नाम के आगे जाति लगाने का विरोध बहुत पहले ही किया था पर तब लोगों ने उनकी बात को हँसी में उड़ा दिया I आज यही बात स्वीकार्य होकर फैशन में आ गयी है I स्वयं उपन्यास लेखिका और उनके पति ने जातिसूचक शब्द का बहिष्कार किया है I हिदुओं और मुसलमानों के बीच रोटी-बेटी का संबंध अकबर के शासनकाल में आरंभ हुआ I आज उच्च वर्ग में बहुतायत से ऐसा हो रहा है I इसी प्रकार अंग्रेजों के आने पर हिदुओं का ईसाई बनना सहज स्वीकार्य हुआ और वैवाहिक संबंध भी बने I दूसरी ओर ब्राह्मण से लेकर पिछड़ी जाति तक के सामाजिक मसीहा आज भी अपनी बेटी किसी अस्पृश्य जाति को सौपने को तैयार नहीं और इसी प्रकार निम्नजाति की लड़की उन्हें अपने घरों में भी स्वीकार्य नहीं है I</strong></p>
<p><strong> भारत में लागू आरक्षण पद्धति की चमक राजनीतिज्ञों को सोने जैसी चमकीली लगती है,</strong> <strong> but</strong> <strong> All that glitters is not gold .</strong> <strong>कोई भी समाज सुधारक मानव मस्तिष्क की विकृति का उपचार नहीं कर सकता I आरक्षण का लाभ लेकर जब दलितों का एक वर्ग अधिकार सम्पन्न हुआ तो उनमे से कुछ में प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति जागी और उन्होंने गरीब सवर्ण का शोषण करना आरम्भ कर दिया I सवर्ण किसी भाँति सरकारी नौकरी न पा सकें, प्रोन्नति न पा सकें, अधीनस्थ सेवी हों तो उसको अधिकधिक प्रताड़ित किया जाये, इस प्रकार की मानसिकता आरक्षण से समुन्नत हुए कुछ घटिया लोगों में उभरी जिसका प्रतिनिधित्व विवेच्य उपन्यास में देशराज नाम का चरित्र करता है, वह अपने मित्र मधुकर से कहता है – यार, मधुकर हमने सवर्णों की बड़ी गुलामी की है I हमारे माता-पिता पुरखों का इन लोगों ने तरह-तरह से शोषण किया, लेकिन अब हमें इन पर हुकूमत करनी है I बाबा साहब आरक्षण के जरिये इसका रास्ता दे गये हैं I’ (पृष्ठ 9)</strong></p>
<p><strong>इस चरित्र ने तो बाबा साहब को भी नहीं छोड़ा और उनकी सारी सामाजिक चेतना का ऐसा अपार्थ किया जिसे कोई कट्टरपंथी दलित भी स्वीकारने से एक बार हिचकेगा I बाबा साहेब आज होते तो वह भी शायद माथा थाम लेते I देशराज उपन्यास में आगे फिर कहता है- ‘यार, मधुकर समय बदल रहा है I कभी हमारे यहाँ की लडकियों पर इन तथाकथित सवर्णों की लोलुप निगाहें होती थीं आज यदि उनकी लडकियाँ हम पर फ़िदा हैं तो हम मौका क्यों चूकें I’ (पृष्ठ 22) </strong></p>
<p><strong> आरक्षण से अधिकार-संपन्न और उच्च आय वर्ग के कुछ लोगों की मानसिकता इस सोच से भी अधिक कलुषित हुई I देशराज के ही शब्दों में यह मानसिकता कुछ इस प्रकार प्रकट हुयी है –‘सवर्ण बिरादरी से होना ही उसका दोष है I इन लोगों ने वर्षों पहले दलितों का शोषण किया इन उसी की कुछ भरपाई अब मैं कर रहा हूँ i” </strong> <strong>(पृष्ठ 22)</strong> <strong>देशराज यह भी कहता है कि – ‘उसकी यादें अनकही तृप्ति का अहसास देती हैं I उसकी देह का उपभोग कर मैंने अपने पूर्वजों को स्वर्ग में संतुष्टि दी है I’ </strong> <strong>(पृष्ठ 35) </strong> <strong> </strong></p>
<p><strong> जिस समाज में जातीय समीकरण इतने बिगड़े हों और जहाँ दलितों की भलाई की व्यवस्थायें उन्हें</strong> <strong>सवर्णों से प्रतिशोध लेने के प्रतिशोध का अवसर जैसी प्रतीत हों, उस समाज का आईना लोगों को दिखाना भी एक जीवट का काम है I कितने लोग है जो इस कुत्सित सत्य को खुले मंच पर उठाने की हिम्मत कर सकते हैं I सारे राजनीतिक दल और संस्थाये ऐसे व्यक्ति के विरोध में लामबंद हो जायेंगी I यह साहस एक बिंदास रचनाकार ही कर सकता है और डॉ. अर्चना प्रकाश जी ने अपने उपन्यास में यह कर दिखाया I उनका ‘सुलगता ज्वालामुखी’ समाज को चिंतन की एक नई दिशा देने वाला है, इस बात का भरोसा किया जा सकता है I</strong></p>
<p><strong>चिरन्तन सच्चाई तो यही है जैसा कि उपन्यास का पात्र माधो कोरी कहता है –‘इस देश में जाति और धर्म की जमीनें बहुत सख्त, बेहद पथरीली हैं I कोई शब्द, कोई औजार, बड़े से बड़ा आश्वासन इसे तोड़ नहीं सकता I पूरा भारत जातिवाद और धर्म के ज्वालामुखी सा सुलग रहा है और सुलगता रहेगा I’ यही कथन यही प्रश्न और यही समस्या वह अधिकरण है जिस पर इस उपन्यास का पूरा ढाँचा खड़ा है I सरकारें व्यवस्था ही बना सकती है, पर उनके शत-प्रतिशत लागू होने की जो सबसे बड़ी बाधा है वह आदमी का यही शैतानी दिमाग है जो हर अच्छी योजना का सत्यानाश कर देता है I आरक्षण के साथ भी लुके-छिपे यह घृणित खेल हो रहा है, जिसका यह उपन्यास मात्र एक आइना है I</strong></p>
<p><strong>उपन्यास का कथानक मुशीरा, सुनीता, यशोदा, जीनत और वेदांत, देशराज, अनवर, मधुकर, इलियास जैसे कालेज के सहपाठियों के छात्र जीवन की मस्ती से प्रारंम्भ होकर अधिकांशतः प्रेम-सबंधों में आश्रय पाता है I यह संबंध कहीं दूषित और अनैतिक हैं तो कहीं अत्यधिक श्लाघ्य, उच्च और पवित्र हैं I इनमे से अधिकांश चरित्र जातीय व्यवस्था की जकड़न से निजात पाने की कोशिश में है I मुशीरा और वेदान्त विभिन्नधर्मी होकर भी न केवल विवाह के बंधन में बंधते है अपितु अपने आचरण से अपने माता-पिता और परिजनों को भी सबंध स्वीकारने पर बाध्य करते हैं I सुनीता देशराज की भोग्या और उसके प्रेम-फरेब का शिकार एक सुन्दरी है, जिसे प्रेम में अपघात मिलता है I वह जीवन के इस अभिशाप को अंगीकृत कर तथा प्रेम और विवाह को हमेशा के लिए तिलांजलि देकर सारा ध्यान अपने भविष्य को सँवारने में लगाती है और एक दिन देश की प्रख्यात</strong> <strong>गायनाकोलोजिस्ट बन जाती है I देशराज आई.ए.एस. अलाइड में सेलेक्ट होकर असिस्टेंट इनकम टैक्स इन्स्पेक्टर बनता है और बिंदिया नाम की सजातीय लडकी से विवाह करता है I यहाँ लेखिका से एक चूक अवश्य हुई और हो सकता है यह</strong> <strong>Slip of pen</strong> <strong>हो I यहाँ असिस्टेंट इनकम टैक्स इन्स्पेक्टर की जगह असिस्टेंट इनकम टैक्स कमिश्नर होना चाहिए क्योंकि इन्स्पेक्टर ग्रुप 3 की पोस्ट है जबकि आई.ए.एस, अलाइड की पोस्ट ग्रुप-1 की है I </strong><strong> </strong><strong> </strong></p>
<p><strong> देशराज के बेटे-बेटी उसके वैभव और अधिकार में दिशाहीन और निरंकुश हो जाते है I पर वह इस बात की परवाह नहीं करता I उसे यकीन है कि– ‘सरकार पिछड़ों व दलितों को सामान्य से चौगुनी छूटें व सुविधायें दे रही है तो हमारे बच्चे तो आई.ए.एस. बन ही जायेंगे i’ देशराज का बेटा अपनी मानसिकता को युग की सच्चाई बताते हुए माँ से कहता है - ‘माम डियर, वे लडकियाँ गँवार और बुद्धू समझी जाती हैं, जिनका कोई बॉयफ्रेंड न हो i वो लड़के भी निरे घोंचू और बेवकूफ समझे जाते हैं, जिनके छह सात गर्लफ्रेंड्स न हों I’</strong></p>
<p><strong> इसी प्रकार वह अपनी माँ को यह भी समझाता है - ‘डियर मम्मी, लड़के-लड़की की दोस्ती में अब शादी की बात कोई नहीं उठाता है I अब समय यह है कि जब तक अच्छा लगे साथ रहो, जो अच्छा लगे वो करो, फिर अपने रस्ते लो I’</strong></p>
<p><strong> उपन्यास ज्यों</strong><strong>-</strong><strong>ज्यो निगति की ओर बढ़ता है, पात्रों में परिपक्वता आती है I हालाँकि इसमें Poetic-Justice की योजना नहीं हुयी है, पर पात्रों के विचारों में बदलाव अवश्य आता है I देशराज जैसा कट्टरपंथी एवं खल पात्र भी यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि “सवर्णों और दलितों के बीच वैमनस्य की मुख्य खाईं का आधार दलित साहित्य है, जिसमें सवर्ण पूर्वजों द्वारा दलितों पर किये गये अत्याचारों को अतिश्योक्तिपरक ढंग से उकेरा गया है I इसे पढ़ते ही दलित समुदाय सवर्णों के प्रति नफरत व दुश्मनी के भाव से भर जाता है I” (पृष्ठ 94)</strong></p>
<p><strong> कहना न होगा कि यहाँ डॉ. अर्चना प्रकाश ने सीधे-सीधे दलित साहित्य को टारगेट किया है I उनका मत है कि शरण निन्बाले और डॉ. धर्मकीर्ति जैसे दलित साहित्यकारों ने ऐसा भड़काऊ साहित्य परोसा है, जो नफरत की चिंगारी को अधिकधिक हवा देने वाला रहा है I ऐसे साहित्य पर मधुकर की टिप्पणी विचारणीय है –“ अगर हम दलित साहित्य को निरा सच मान लें तो भी सवर्ण पूर्वजों द्वारा दलित पूर्वजों पर किये गये अन्याय व उत्पीडन की कथाओं को निरंतर कहने, सुनने व दुहराने से किसी सामंजस्य की उम्मीद की जा सकती है क्या ?”</strong></p>
<p><strong> मधुकर का कथन में यह सत्य छुपा हुआ है कि प्रेम और सद्भावना से ही आपसी सौहार्द्र संभव है I नफरत करने से या नफरत फ़ैलाने से तो आपस में केवल शत्रु-भाव ही बढ़ेगा I इस दृष्टि से उपन्यास का संदेश बिलकुल प्रांजल और पारदर्शी है कि गड़े मुर्दों को लगातार उखाड़ने से समाज का न कभी भला होगा और न समाजवाद और साम्यवाद सही मायने में साकार होगा I समाज का कल्याण तभी होगा जब सवर्ण और दलित के बीच पारस्परिक विश्वास और भाई-चारे का वातावरण बनेगा और शायद यह रोटी-बेटी के संबंधों से ही अधिक मजबूत और बेहतर बन सकेगा I यह कहना शायद समीचीन होगा कि बदलते सामाजिक परिवेश में इस परिवर्तन की आहट कुछ तेज अवश्य हुयी है और हम यह उम्मीद कर सकते है कि आने वाले समय में समाज इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ेगा I</strong></p>
<p><strong> उपन्यास का संगठन संवाद शैली पर अधिक निर्भर करता है I इसमें वातावरण की सृष्टि का प्रयास अधिक नहीं हुआ है I कथा की गति सरल और निर्बाध है I पात्रों के मनोविज्ञान, उनके अंतर्द्वंद और मानसिक घात-प्रतिघात के में अधिक उलझने का प्रयास लेखिका ने नहीं किया है I भाषा में सरलता और प्रवाह है I इसमें मुशीरा, सुनीता और वेदांत का चरित्र सबसे अधिक प्रभावित करता है I खल चरित्र के रूप में देशराज भी प्रभाव छोड़ता है I मेरे मत में उपन्यास के समापन में लेखिका का धीरज कुछ शिथिल हुआ है और थोड़ी सी जल्दबाजी से काम लिया गया है I उपन्यास के प्रमुख पात्रों के बेटे-बेटियों के बीच होने वाले वैवाहिक संबंध इसी जल्दबाजी के कारण अधिक नाटकीय और सिनेमाई से हो गये हैं I इन सबसे परे उपन्यास पूर्णतः पठनीय एव उद्देश्यपरक हैं I रचनाकार ने जिस ज्वालामुखी को सुलगते देखा है, उसका सुलगना आज भी समाप्त नहीं हुआ है पर आने वाली नई पीढी में जो बदलाव आया है, उसमे आत्मविश्वास और बिंदासपन की जो चेतना जगी है उससे यह साफ हो चुका है कि जातीय व्यवस्था की नींव हिल चुकी है और दलित तथा सवर्ण अब एक दूसरे के नजदीक आने लगे हैंI </strong></p>
<p><strong>(मौलिक व प्रकाशित )</strong></p> पूर्वराग के रंग कच्चे भी और पक्के भी: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2020-06-03:5170231:Topic:10090012020-06-03T09:28:09.524Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>मानव के रूप में हम सभी ने अपने अंतस में शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों स्वरूपों का अनुभव अवश्य किया होगा I इस रस का स्थाई भाव ‘रति’ है I शृंगार रस की मूल भावना काम है, जो चार पुरुषार्थों में से एक माना जाता है I मैं एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि काम भावना पर आधारित होते हए भी शृंगार रस न तो भदेश होता है और न अश्लील और यदि कोई कवि अश्लील शृंगार योजना करता है तो वह न केवल शृंगार की मर्यादा तोड़ता है अपितु वह शृंगार में वीभत्स की योजना करता है I साहित्यिक परिभाषा में इसे रसाभास कहते हैं I…</p>
<p>मानव के रूप में हम सभी ने अपने अंतस में शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों स्वरूपों का अनुभव अवश्य किया होगा I इस रस का स्थाई भाव ‘रति’ है I शृंगार रस की मूल भावना काम है, जो चार पुरुषार्थों में से एक माना जाता है I मैं एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि काम भावना पर आधारित होते हए भी शृंगार रस न तो भदेश होता है और न अश्लील और यदि कोई कवि अश्लील शृंगार योजना करता है तो वह न केवल शृंगार की मर्यादा तोड़ता है अपितु वह शृंगार में वीभत्स की योजना करता है I साहित्यिक परिभाषा में इसे रसाभास कहते हैं I रसाभास को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जब किसी रस विशेष की उपस्थिति में अचानक कोई विरोधी रस आ जाये I जैसे किसी की मय्यत में अचानक कोई जोर-जोर से हँसने लगे या ठहाका लगाने लगे, तब रसाभास की स्थिति होती है I शृंगार में अश्लीलता रसाभास की स्थिति है I इससे प्रेम का सात्विक पक्ष नष्ट हो जाता है I ऐसे योजना करने वाले कवि या साहित्यकार को सभ्य समाज में सम्मान नहीं मिलता I संयोग शृंगार पर अधिक चर्चा यहा अभीष्ट नहीं है पर राष्ट्र कवि रामधारी सिह ‘दिनकर’ कृत ‘उर्वशी’ महाकाव्य की एक वाचिक शृंगार योजना को उद्धृत करने का मोह मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ I देखिये-</p>
<p><strong><em>तू मनुज नहीं</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>देवता</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ़ अपने आलिंगन में भर ले.</em></strong></p>
<p><strong><em>मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ.</em></strong></p>
<p><strong><em>आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंतस्सर में मज्जित करके</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>हर लूँगी मन की तपन चाँदनी</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>फूलों से सज्जित करके.</em></strong></p>
<p><strong><em>रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>पलकों की छाँव-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी.</em></strong></p>
<p>[उर्वशी राजा पुरुरुवा से कहती है, हे प्रिय तुम मनुष्य नहीं, देवता हो (अपन्हुति अलंकार) तुम अपनी आभा से मुझे मंत्रमुग्ध कर लो और फिर अपने वास्तविक मनुज रूप में मुझे उठाकर अपने प्रगाढ़ आलिंगन में भर लो I तुम्हारी दो बाँहों रूपी विटप के बीच मैं एक नन्ही कलिका की भाँति सो जाऊँ और रस की छोटी सी तरंग बनकर तुम्हारे पर्वत जैसे विशाल वक्षस्थल पर गिरकर टूटकर विलीन हो जाऊँ I हे मेरे थके हुए प्रिय, मैं अपने हृदय सरोवर में तुम्हें भलीविधि नहलाऊँगी और चाँदनी के फूलों से सज्जित कर मैं तुम्हारे सारे ताप हर लूँगी I इतना ही नहीं अनुराग रस से निर्मित मेघमाला बनकर मैं तुम्हे चारों ओर से घेरकर आच्छदित कर लूँगी I फिर अपनी पलकों की छाया के नीचे मैं तम्हे अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी ]</p>
<p>शृंगार रस की कसौटी वियोग है I जो वस्तु पहुँच से दूर होती है, उसे पाने की ललक और तड़प उतनी अधिक होती है I साहित्य में वियोग शृंगार के चार विभेद हैं -पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण I इनमें आज पूर्वराग को समझने का प्रयास करेंगे I पूर्व राग में नायक और नायिका का एक दूसरे से परिचय नहीं होता I परिचय के बिना वियोग की अनभूति विचित्र लगती है I पर ऐसा संभव है I जब लड़के या लड़की के व्याह की बात करने के लिए लोग विमर्श के लिए बैठते हैं, तब मध्यस्थ लोग लड़के या लड़की के सौंदर्य, शिक्षा, कार्य पटुता, अच्छे स्वभाव और संस्कार की बात कर दोनों के गुणों को अधिकाधिक उजागर करते हैं, जिन्हें लड़के या लड़कियाँ अपने सखा या सहेली के साथ छिपकर सुनते हैं, तब एक अनुराग स्वतः उत्पन्न होता है I यह अनुराग प्रत्यक्ष-दर्शन, चित्र-दर्शन, स्वप्न-दर्शन और गुण-श्रवण से भी होता है I नल-दमयंती के कथानक में दमयंती हंस के मुख से राजा नल के रूप, सौंदर्य और गुण को सुनकर राजा के अनुराग में पड़ जाती है I मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत में राजा रत्नसेन हीरामन नामक एक तोते के मुख से पद्मिनी के अप्रतिम सौंदर्य का बखान सुनकर पूर्वानुराग वियोग में पागल हो जाते हैं I जायसी कहते हैं -</p>
<p><strong><em>सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥</em></strong></p>
<p>इतना ही नहीं अपनी स्वकीया रानी नागमती के लाख अनुरोध को तिरस्कृत कर वह योगी का वेश बनाकर पद्मावती से मिलने के लिए सिंघल दीप की ओर सोलह हजार कुंवरों को लेकर निकल पड़ता है-</p>
<p><strong><em>निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा नगर मैलि कै धूरी ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥</em></strong></p>
<p>यह है पूर्वराग की महिमा I इससे भगवान रामचंद्र और सीता जी भी नहीं बचीं I राम के सौंदर्य-वर्णन से वे भी पूर्वनुरागित हो उठीं –</p>
<p><strong><em>बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।</em></strong></p>
<p><strong><em>तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलानेII</em></strong></p>
<p>इतना ही नहीं पुष्पवाटिका में ज्यों ही सीता ने राम को देखा – <strong><em>भये विलोचन चारू अचंचल i मनहु सकुचि निमि तजेउ दृगंचल II</em></strong></p>
<p>राजा निमि सीता के पिता राजा जनक के पूर्वज हैं I किसी शाप के कारण उनका निवास मनुष्य की पलकों पर हुआ I उन्हीं के भार से हमारी पलकें गिरती हैं और हम सायास उन्हें उठाते हैं I मगर यहाँ अपने कुल की बेटी में पूर्वानुराग देखकर बड़े-बूढ़े होने के नाते वे सीता की पलक छोड़कर चले गए और जब पलकों पर भार नहीं रहा तो- <strong><em>भये विलोचन चारू अचंचलI</em></strong></p>
<p>उधर राम पर भी पूर्वानुराग का विछोह प्रभावी है तभी तो इतने मर्यादित राम भी अपने अनुज लक्ष्मण से यह कहने को बाध्य हो जाते है कि –</p>
<p><strong><em>तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।</em></strong></p>
<p><strong><em>पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।</em></strong></p>
<p><strong><em>जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा II</em></strong></p>
<p>राम अपन मन के क्षुब्ध होने की बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं, पर जब उन्हें लगता है कि मन की दुर्बलता अनायास उनसे प्रकट हो गयी है तो साथ में यह भी कहते है कि –</p>
<p><strong><em>सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।</em></strong></p>
<p><strong><em>रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।</em></strong></p>
<p><strong><em>मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।</em></strong></p>
<p>तुलसी जैसा भक्त कवि भी अपने आराध्यों के बीच पूर्वराग का चित्रण करने से अपने को रोक नहीं सका I यही पूर्वराग की नैसिर्गकता और उसकी अपरिमेय महत्ता है, जिसे आज विज्ञान भी स्वीकारने लगा है I</p>
<p>वियोग शृंगार का एक घटक होने के कारण इसमें वियोग की दसों दशाएं भी पूरे भाव से होती हैं I ये दशाएं हैं– चिंता, अभिलाषा, स्मरण, गुण कथन, उद्विग्नता, प्रलाप, उन्मत्तता, रोग, मूर्च्छा और करुण I पूर्वराग की उत्पत्ति के जो चार उपादान हैं, उनमे पहला है –प्रत्यक्ष दर्शन I इसे वृष्ठानुराग कहते हैं I अंग्रेजी में इसे LOVE AT FIRST SIGHT कहते है और यह बहुत ही सम्मोहक और प्रभावी पूर्वानुराग है I इसका रंग पक्का होता है I अतः इसे मंजिष्ठा राग भी कहते हैं I</p>
<p><strong><em>दीठि पड़ी मुख चन्द्र पर धंसा पंचशर हाय I</em></strong></p>
<p><strong><em>रहनि मरनि अब जीव की कैस्यो कही न जाय II</em></strong></p>
<p><strong><em>मिटता जो हिय से नहीं अरु पक्का अनुराग I</em></strong></p>
<p><strong><em>बुधजन उसको है कहत यहु मंजिष्ठा राग II </em></strong></p>
<p>इस संबंध में महाकवि रसलीन का एक दोहा मिलता है -</p>
<p><strong><em>हिये मटुकिया माहि मथि दीठि रई सो ग्वारि</em></strong></p>
<p><strong><em>मो मन माखन लै गई देह दही सो डारि॥</em></strong></p>
<p>[वह ग्वालन हृदय रूपी मटकिया को अपने दृगों से मथ गयी और नायक का मन रूपी मक्खन निकाल ले गयी अब तो केवल देह ही बची है ]</p>
<p>दूसरा उपादान है चित्र-दर्शन I इसका बड़ा ही सटीक उदाहरण जायसी के पद्मावत में मिलता है I अलाउद्दीन खिलजी दर्पण में रानी पद्मिनी की केवल एक झलक देखता है और शह-मात का खेल पूरा हो जाता है –</p>
<p><strong><em>बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना II</em></strong></p>
<p>अगला उपादान स्वप्न दर्शन है I ऐसे प्रसंग वास्तविक जीवन में दुर्लभ हैं I केवल कथाओं में इनकी योजना हुयी है I स्वप्न-भंग होते ही यह राग समाप्त हो जाता है I इस पूर्वराग का रंग कच्चा होता है I जैसे हल्दी का रंग कच्चा होता है और कुछ ही दिनों में उड़ जाता है I अतः इस पूर्वराग को हरिद्रा राग कहते हैं I कहा भी गया है -क्षणमात्रानुरागेषु हरिद्राराग उच्यते I </p>
<p>अंतिम उपादान गुण-श्रवण है I इसको सुरतानुराग भी कहते हैं I रसलीन के अनुसार -</p>
<p><strong><em>जाहि बात सुनि कै भई तन मन की गति आन।</em></strong></p>
<p><strong><em>ताहि दिखाये कामिनी क्यौं रहि है मो प्रान॥</em></strong></p>
<p><strong><em>जो पहिलै सुनि कै निरख बढ़ै प्रेम की लाग।<br/> बिनु मिलाप जिय विकलता सो पूरुब अनुराग॥</em></strong><br/> अनुराग का होना एक बड़ी ही स्वाभाविक और नैसर्गिक क्रिया है I पर यह अंतरानुभूति का विषय है I यह घाव जिसे लगता है वह स्वयं में ही व्यथित होता है I वह अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं सकता I गूंगे के गुड़ की तरह वह आस्वाद तो लेता है पर उसमें जो चुभन है, जो दर्द है, वह किसी से साझा नहीं किया जा सकता I इस बारे में रसलीन की यह उक्ति बड़ी ही सटीक है - <br/> <strong><em>होइ पीर जो अंग की कहिये सबै सुनाइ।<br/> उपजी पीर अनंग की कही कौन बिधि जाइ॥</em></strong><br/> [ अंग (शरीर) की पीड़ा हो तो सबसे कही जा सकती है पर अनंग (कामदेव ) की पीड़ा किस प्रकार कही जाए ?] </p>
<p>(अप्रकाशित/मौलिक )</p> अभिसार रति नहीं एक जोखिम या खतरा है //डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2020-05-23:5170231:Topic:10080802020-05-23T14:37:05.599Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>भिसार का अर्थ लोग प्रायशः प्रणय या काम-क्रीडा समझते हैं I यह सही अर्थ नहीं है I सही अर्थ है अभिसरण करना अर्थत गमन करना /जाना I अर्थ रूढ़ि में कहेंगे किसी रमणी का प्रिय से मिलने संकेत स्थल पर जाना या फिर नायक को बुलाना I दशरूपक के अनुसार जो नायिका स्वयं नायक के पास अभिसरण करे अथवा नायक को अपने पास बुलावे वह 'अभिसारिका' कहलाती है- 'कामार्ताभिसरेत् कांतं सारयेद्वाभिसारिका'।</p>
<p> संकेत स्थल वह स्थान है जिसे मिलने वाले युग्म ने सुरक्षित समझा हो I इसी से स्पष्ट हो जाता है कि अभिसार वह नारियां…</p>
<p>भिसार का अर्थ लोग प्रायशः प्रणय या काम-क्रीडा समझते हैं I यह सही अर्थ नहीं है I सही अर्थ है अभिसरण करना अर्थत गमन करना /जाना I अर्थ रूढ़ि में कहेंगे किसी रमणी का प्रिय से मिलने संकेत स्थल पर जाना या फिर नायक को बुलाना I दशरूपक के अनुसार जो नायिका स्वयं नायक के पास अभिसरण करे अथवा नायक को अपने पास बुलावे वह 'अभिसारिका' कहलाती है- 'कामार्ताभिसरेत् कांतं सारयेद्वाभिसारिका'।</p>
<p> संकेत स्थल वह स्थान है जिसे मिलने वाले युग्म ने सुरक्षित समझा हो I इसी से स्पष्ट हो जाता है कि अभिसार वह नारियां ही करती रही हैं, जो या तो कुमारिका थीं या फिर पर-व्याहता I इन दोनों को अकीया या परकीया कहते हैं I स्वकीया मनुष्य की व्याहता होती है, उसे अभिसार और संकेत स्थल अर्थात समागम को चोरी से करने की आवश्यकता नहीं होती I अभिसार करने वाली नायिकाओं को अभिसारिका कहते हैं I यह भी तीन प्रकार की हैं –एक शुक्ल अभिसारिका या ज्योतिभिसरिका जो माह के शुक्ल पक्ष में विशेषकर चादनी रातों में अभिसार करना पसंद करती है और दूसरी कृष्ण अभिसारिका या तमोभिसारिका जिसे कृष्ण-पक्ष अर्थात अंधियारी रात में अभिसार प्रिय है I तीसरी दिवाभिसारिका, जिसे दिन प्रिय है I सामान्यतः अभिसारिका के ये ही तीन भेद है पर नायिका की अनुभवहीनता और अनुभवगम्यता के करण इन्हें मुग्धा और मध्या के रूप में भी विभक्त किया गया है I कुछ लोग गर्वाभिसारिका तथा कामाभिसारिका का उल्लेख भी करते है पर यह बात को बेवजह बढ़ाना मात्र है i</p>
<p> इन अभिसरिकाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह किसी भी जोखिम की परवाह नहीं करती थी और हर हद से गुजरने के लिए तैयार रहती थीं I अभिसार में इन्हें बहुतेरे कष्ट भी उठाने पड़ते थे I रात हो जाये I घर वाले सब सो जाये I चाँदनी में कोई देख न ले I देख ले तो पहचान न ले I सामाजिक वर्जना के प्रति यह किसी समय नारी की सबसे बड़ी क्रान्ति रही होगी I कृष्ण अभिसारिका के बारे में अनेक ऐसे उद्धरण मिलते है जिनमे उनकी उद्दाम दीवानगी प्रकट होती है I काली अंधियारी रात है I बादल गरज रहे है I बिजली कडक रही है I मूसलाधार पानी बरस रहा है I बेसुध अभिसरिका भागी चली जा रही है I उसकी सारी पानी से सराबोर है I पांवों में केवल कांटे ही नहीं चुभ रहे उनमें कभी सांप भी लिपट जाते हैं I भूत-पिशाच तथा डाइनें घूम रही हैं I जूनून की पराकाष्ठा है I इसका एक गद्यात्मक चित्र निम्नवत है -</p>
<p> प्रियतम से मिलने के लिए बेचैनी तथा उतावलेपन की मूर्ति बनी हुई नायिका सिंह से डरी हरिणी के समान अपनी चंचल दृष्टि इधर उधर फेंकती हुई मार्ग में अग्रसर होती है । वह अपने अंगों को समेटकर इस ढंग से पैर रखती है कि तनिक भी आहट नहीं होती । हर डग पर शंकित होकर अपने पैरों को पीछे लौटाती है । जोरों से काँपती हुई पसीने से भीग उठती है । यह उसकी मानसिक दशा का जीता जागता चित्र है । वह अकेले सन्नाटे में पैर रखते कभी नहीं डरती । नि:शब्द संचरण भी एक अभ्यस्त कला के समान अभ्यास की अपेक्षा रखता है । कोई भी प्रवीण नायिका इसे अनायास नहीं कर सकती । घर में ही भविष्यत् अभिसारिका को इसकी शिक्षा लेनी पड़ती है । वह अपने नूपुरों को जानुभाग तक ऊपर उठा लेती है । तथा आँखों को अपने करतल से बंद कर लेती है, जिससे 'रजनी तिमिरावगुंठित' मार्ग में वह बंद आँखों से भी भली भाँति आसानी से जा सके। वह अंगों को नीले दुकूल से ढक लेती है तथा प्रत्येक अंग में कस्तूरी से पत्रावलि बना डालती है। उसकी भुजाओं में नीले रत्न के बने कंकण रहते हैं । कंठ में 'अंबुसार' की पंक्ति रहती है और ललाट पर केश की मंजरी सी लटकती रहती है। कालिदास ने ‘मेघदूत में’ अभिसरिकाओं का काम-केलि का मोहक वर्णन किया है i हिन्दी में कवि विद्यापति की पदावली में इसके मोहक चित्र है I सूरदास और ज्ञानदास ने भी इनका व्यापक वर्णन किया है I विद्यापति का एक अभिसार वर्णन यहाँ प्रस्तुत है -</p>
<p>चन्दा जनि उग आजुक राति। पिया के लिखिअ पठाओब पाँति।।</p>
<p>साओन सएँ हम करब पिरीति। जत अभिमत अभिसारक रीति।।</p>
<p>अथवा राहु बुझाओब हँसी। पिबि जनि उगिलह सीतल ससी।।</p>
<p>कोटि रतन जलधर तोहें लेह। आजुक रयनि घन तम कए देह।।</p>
<p>भनइ विद्यापति सुभ अभिसार। भल जन करथि परक उपकार।।</p>
<p> इस पद में विद्यापति ने जिस अभिसार के लिए नायिका के मनोभाव का चित्रण किया है. वह अभिसार पावस की चाँदनी रात में होने वाला है । अब चूँकि उस अभिसार का सबसे बड़ा बाधक चन्द्रमा ही होगा, इसलिए वह निवेदन करती हुई कहती है—हे चन्दा ! तुम कृपाकर आज की रात मत उगो ! मैं अपने प्रिय को पत्र लिखकर भेज रही हूँ । सावन का महीना है । यह मास मुझे बहुत पसन्द है । मैं इस महीने से प्रेम करती हूँ । क्योंकि इस मौसम में अभिसार बहुत सुलभ और आनन्दमय होता है, मुझे आज ही अपने प्रियतम से मिलना है । तुम आज की रात मत उगो या फिर आज हँसी-खेल में समझा-बुझाकर, राहु को मनाऊँगी कि वे इस शीतल चन्द्र (ससी) की किरणें पी ले और रात भर न उगले या सावन के इस बादल से निवेदन करती हूँ कि चाहें तो मुझसे लाखों-करोड़ों रत्न ले ले, पर आज ऐसी घटा बन कर छायें कि पूरी रात गहन अंधकार कर दे । हर भले लोग दूसरों का उपकार करना अच्छा मानते हैं।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित )</p> ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या माह अप्रैल 2020tag:openbooks.ning.com,2020-05-20:5170231:Topic:10073972020-05-20T15:33:13.647Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p></p>
<p>दिनांक 19.04.2020, रविवार को ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य-संध्या माह अप्रैल 2020 का ऑन लाइन आयोजन हुआ I इसके प्रथम चरण में ओज और आवेश के युवा कवि श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ के निम्नांकित गीत पर परिचर्चा हुयी I</p>
<p>बुद्धि के चातुर्य से आपत्ति का करती दमन,</p>
<p>आपके इस रूप का है अनुगमन शत-शत नमन।</p>
<p> बालपन से हठ, निराशा की सुखद संजीवनी,</p>
<p> घट अमिय यौवन ,भरा विश्वास,वाणी की धनी।</p>
<p> श्रेष्ठ , ज्ञान चिंतन की सलिला मनोहर…</p>
<p></p>
<p>दिनांक 19.04.2020, रविवार को ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य-संध्या माह अप्रैल 2020 का ऑन लाइन आयोजन हुआ I इसके प्रथम चरण में ओज और आवेश के युवा कवि श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ के निम्नांकित गीत पर परिचर्चा हुयी I</p>
<p>बुद्धि के चातुर्य से आपत्ति का करती दमन,</p>
<p>आपके इस रूप का है अनुगमन शत-शत नमन।</p>
<p> बालपन से हठ, निराशा की सुखद संजीवनी,</p>
<p> घट अमिय यौवन ,भरा विश्वास,वाणी की धनी।</p>
<p> श्रेष्ठ , ज्ञान चिंतन की सलिला मनोहर कामिनी,</p>
<p> ओस की हो बूँद प्रिय नभ में कड़कती दामिनी।</p>
<p>वाटिका हो पुष्प की यश, मुक्ति का हो आचमन,</p>
<p>आपके इस रूप का है अनुगमन शत-शत नमन।</p>
<p> अरुणिमा हो सूर्य की, हो पूर्णिमा की यामिनी,</p>
<p> तेज असि की धार सी, कोमल कली सी मानिनी।</p>
<p> भक्ति में अनुरक्ति में हो राधिका सी श्याम की,</p>
<p> त्याग में, तप शक्ति में श्री राम की हो जानकी।</p>
<p>पुण्य के शुभ द्वार पर जीवंतता का आगमन,</p>
<p>आपके इस रूप का है अनुगमन शत-शत नमन।</p>
<p> </p>
<p>इस गीत पर सबसे पहले डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने अपने विचार प्रस्तुत किये उनका कहना था कि मेरी समझ से नारी की शांत समाहित शक्ति का कवि ने इस कविता में आत्मिक अभिनंदन किया है । उसकी कोमलता तथा कठिनता, भक्ति तथा त्याग का जीवंत रुप मनुज जी की लेखनी ने अपनी सृष्टि में अलंकृत किया है, अभिवन्दित किया है ।</p>
<p>कवयित्री नमिता सुंदर का कहना था कि मनोज की कविता जहाँ तक हम समझ पाये... स्त्री के अस्तित्व में समाहित विभिन्न आयामों का लेखा-जोखा है, जिसके सशक्त, सुकोमल, पहलुओं को अपनी क्लिष्ट शब्दावली में उन्होंने व्यक्त किया है I </p>
<p>ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी ‘के अनुसार मनोज जी बहुत अच्छे छंदकार व गीतकार हैं और उनकी लेखनी सभी विषयों पर निरंतर और समान रूप से चलती है I जो कविता यहाँ पर विचार विमर्श के लिए प्रस्तुत की गयी है, सर्वप्रथम तो मैं उस कविता को यह समझ रहा था कि यह कविता माँ शारदे के लिए लिखी जा रही है किंतु अंत तक पढ़ने पर यह समझ में आया की यह कविता स्त्री के आंतरिक और बाह्य स्वरूप का निरूपण कर रही है और इसमें उन्होंने अपनी तरफ से नारी के सभी गुणों को समाहित करने का प्रयास किया है, किंतु मुझे यह लगता है कि अभी इस कविता में विस्तार की और भी संभावनायें हैं । साथ ही यह भी है कि गीत की अपनी सीमा भी होती है I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव के अनुसार मनुज की इस कविता में ‘घट अमिय यौवन’, ‘मनोहर कामिनी’ और ‘मानिनी’ जैसे विशेषण होने पर भी गीत प्रथमतः वाणी वंदना ही आभासित होता है I इसमें स्त्री के सौन्दर्य और गुणों का वर्णन हुआ है I कवि ने उपमा अलंकार की योजना की है I साथ ही विशेषण और विशेष्य का उपयोग भी किया है हालाँकि कर्मधारय की योजना नहीं बन पाई है I उपमा भी मालोपमा बनने की दिशा में बढी जरुर पर ठिठक कर रह गयी i इस प्रस्तुति में मनुज ने सममात्रिक चतुष्पद गीतिका छंद का प्रयोग किया है I</p>
<p> मनुज ने इसमें 12,14 और 14,12 पर यति रखी है और दोनों ही मान्य है I हर चरण का विन्यास 2122 2122 2122 212 की तर्ज पर हुआ है I मगर छंद को गीत बनाने हुए मनुज ने टेक के चरणांत में लघु गुरु (IS) का पालन क्यों नहीं किया, यह बात समझ में नहीं आयी I इसके विपरीत मनुज ने छंद जिस कौशल से सिद्ध किया है उसकी सराहना करनी ही पड़ेगी I</p>
<p>डॉ. कौशाम्बरी के अनुसार प्रस्तुत गीत में नारी के दैदीप्यमान, बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित कवि मंत्रमुग्ध सा उसे नमन करता, सराहता, अनुसरण करता दिखता है. कविता में प्रस्तुत तुलना एवं व्याख्यायें अद्वितीय हैं जिसमें नारी को गुणों का आगार बताते हुए मन प्राण से शक्तिस्वरूपा दर्शाया गया है I </p>
<p>डॉ. अशोक शर्मा जो बड़े उपन्यास लिखते है वे प्रतिक्रिया देने में बड़े ही कृपण हैं I उनका कथन था कि मेरे लिए आदरणीय मनोज जी कविता अच्छी तो है, पर मुश्किल कविताओं में है I</p>
<p>गजलकार भूपेंद्र सिंह ने कहा कि "मनुज" जी का पारंपरिक छंद-लेखन तथा गीत-सृजन, दोनों पर समानाधिकार है I प्रस्तुत गीत भी उनकी जटिल कल्पनाशीलता तथा कौतूहल-जनक शब्द-विन्यास का अनूठा उदाहरण है I दो बन्दों के इस गीत में मनोज जी ने उस छवि का वर्णन पूर्णता से किया है जिसका वे अनुगमन करते हैं और जिसे वे शत-शत नमन करते हैं I ऐसी छवि जिसमें बालकों का हठ व सामयिक निराशा है, जिसमें यौवनामृत तथा उससे उपजा आत्मविश्वास है .. श्रेष्ठ वाणी है, चिंतन तथा ज्ञान है .. मनोहारी छवि है ये. सूर्य की लाली या पूर्णिमा की रात्रि .. तेज़ तलवार या कोमल कली. राधिका तथा सीता के अवयवों से युत .. पुण्य के प्रताप से जीवंत. विविध तत्वों से परिपूर्ण इस देवी तुल्य अस्तित्व को पाठक स्वतः अनुभव तो कर लेता है पर एक सुनिश्चित रूप नहीं दे पाता. यह पाठक के लिए एक चुनौती है. सर्वांगीणता की प्रतिमूर्ति ये नवजात कन्या भी हो सकती है तो जीवन संगिनी या कोई देवी भी I गीतिका छंद में लिखी हुयी ये कविता मनोज जी की परिकल्पना, अनुभूति तथा वैचारिक व्यापकता का सुन्दर उदाहरण है I</p>
<p>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी का कहना था कि मनोज जी की कविता को मैं भी पहले माँ शारदे की उपासना समझ रहा था । फिर बात कुछ और हुई। गोपाल नारायण जी ने बड़े विस्तार से चर्चा की है। मैं अपनी ओर से केवल जानना चाहूँगा कि "निराशा की सुखद संजीवनी" से मनोज जी का क्या तात्पर्य है? </p>
<p>रचनाकार ‘मनुज‘ ने ही इसका समाधान किया – ‘आपका प्रश्न बाजिब है I प्रयोग भ्रम उत्पन्न करता है ....निराशा में सुखद संजीवनी कर दूँगा । ये गीतिका छंद पर आधारित है । नायिका का ही स्पष्ट वर्णन है । कामिनी का अर्थ सुंदर स्त्री ही होता है ।गमन/नमन/चमन/दमन सभी तुकांत तुकांतता के नियमों के अनुसार ही हैं ।</p>
<p>कवयित्री संध्या सिंह के अनुसार मनोज जी छंद और गीत में बहुत प्रवीण हैं I प्रस्तुत गीत में भी उन्होंने एक आदर्श स्त्री के मापदंड सामने रखे l यद्यपि मुझे ये समझने में बहुत समय लगा कि वो किसे संबोधित कर रहे हैं .... कई बार पढ़ने पर अर्थ खुले और एक वंदनीय स्त्री के आदर्श रूप ने मस्तिष्क पटल पर आकार लिया I</p>
<p>डॉ श्रीवास्तव -बात तुकांत की नहीं चरण का अंत IS (लघु गुरु से होना चहिये I</p>
<p>मनुज- आदरणीय ये छंद नहीं गीत है । आधार मात्र लय के लिए होता है । गीत में ऐसी कोई शर्त नहीं होती । गीत की शर्त तो लय और मात्रा भार बराबर रहने की ही होती है , जो पूर्ण है, कहीं छंद का नाम इंगित भी नहीं किया । कोई बात नहीं हर रचना का अपना भाग्य होता है I</p>
<p>डॉ श्रीवास्तव- मनुज जी छंदाधारित गीत होते है, यदि आपने छंद का दामन थाम ही लिया तो फिर उसका निर्वाह तो बनता ही है I</p>
<p>मनुज -लय है तो छंद है नाम बदल सकता है I कोई भी लय बद्ध पँक्ति किसी न किसी छंद में ही निबद्ध होती है I</p>
<p> इस बीच मृगांक श्रीवास्तव जी का विचार आया –‘सभी लोगों ने बहुत अच्छी अच्छी टिप्पणियां दी है। उसके आगे मेरा कुछ कहना पुनरावृत्ति ही होगी ।‘ मनोज शुक्ल जी को ऐसी उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई।</p>
<p>मनुज -जो लोग जादूगरी दिखाते कि अमुक गीतकार का अमुक गीत इस छंद पर वो केवल अपना ज्ञान बघारने की कोशिश करते हैं । लय बद्ध गीत में कोई न कोई छंद तो होता ही और लय नहीं तो गीत भी नहीं । आप लोगों का उत्साहवर्धन संवल प्रदान करता है I </p>
<p>डॉ श्रीवास्तव - मनोज जी चर्चा में लेखकीय वक्तव्य भी शामिल है आप भी अपने रचना के बारे में अपना वक्तव्य दे , यह आवश्यक है I</p>
<p>कवयित्री आभा खरे ने अपने विचार रखे - मनोज जी के गीत चाहे वो शृंगार के हों या ओज के, हमेशा ही प्रभावित करते हैं ।....बस कुछ क्लिष्ट शब्दों के कारण मुझ अल्पज्ञानी को कुछ पंक्तियों को समझने में मुश्किल पेश आती है ...पर थोड़े से जतन से आसानी से ग्राह्य हो जाती हैं।</p>
<p>अंत में विवेच्य गीत के रचयिता मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने लेखके वक्तव्य देते हुए कहा कि ये 2122 2122 2122 212 के मात्राभार पर एक छोटा सा श्रृंगार गीत है। छोटा इसलिए कि मैं दो बन्ध के गीत बहुत कम लिखता हूँ । गीत में नायिका के गुणों की कल्पना है, यदि ये देवी वंदना लगी आप सबको तो लिखना और सार्थक रहा क्योंकि प्रेम का उच्चतर रूप तो दर्शन ही है ।</p>
<p> 537 A /005, महाराजा अग्रसेन नगर</p>
<p> फैजुल्लाह गंज, लखनऊ -226021 </p>
<p> (मौलिक व अप्रकाशित )</p>
<p> </p>
<p> </p> ओपन बुक्स ऑनलाइन की मासिक गोष्ठी माह मार्च 2010 में आलोक रावत ‘आहत लखनवी ‘ की दो गजलों पर परिचर्चा :: प्रस्तुति- डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2020-04-15:5170231:Topic:10045642020-04-15T10:39:19.513Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>गजल-एक</p>
<p>दर्द मेरा हम क़दम औ हमसफ़र हो जाये तो,</p>
<p>क्या करूं मॉं की दुआ भी बे असर हो जाये तो? II1II</p>
<p>क्या गिले-शिक़वे करूं तुझसे मेरे मालिक़ बता</p>
<p>बस ज़रा मुझ पर भी तेरी इक नज़र हो जाये तो?II2II</p>
<p>बोझ अरमानों का लादे फिर रही है ज़िन्दगी,</p>
<p>बीच में ही ख़त्म लेकिन ये सफ़र हो जाये तो? II3II</p>
<p>घूमता फिरता हॅूं मैं बेफ़िक्र जिससे बेख़बर,</p>
<p>सोचता हूँ वो भी मुझसे बेख़बर हो जाये तो? II4II</p>
<p>मुफलिसी, नफ़रत, अदावत और क़त्ले-आम से,</p>
<p>सोचकर देखो कि तन्हा ये…</p>
<p>गजल-एक</p>
<p>दर्द मेरा हम क़दम औ हमसफ़र हो जाये तो,</p>
<p>क्या करूं मॉं की दुआ भी बे असर हो जाये तो? II1II</p>
<p>क्या गिले-शिक़वे करूं तुझसे मेरे मालिक़ बता</p>
<p>बस ज़रा मुझ पर भी तेरी इक नज़र हो जाये तो?II2II</p>
<p>बोझ अरमानों का लादे फिर रही है ज़िन्दगी,</p>
<p>बीच में ही ख़त्म लेकिन ये सफ़र हो जाये तो? II3II</p>
<p>घूमता फिरता हॅूं मैं बेफ़िक्र जिससे बेख़बर,</p>
<p>सोचता हूँ वो भी मुझसे बेख़बर हो जाये तो? II4II</p>
<p>मुफलिसी, नफ़रत, अदावत और क़त्ले-आम से,</p>
<p>सोचकर देखो कि तन्हा ये शहर हो जाये तो? II5II</p>
<p>आदमी जीकर भी आखि़र क्या करेगा सौ बरस,</p>
<p>ज़िन्दगी अमृत सही लेकिन ज़हर हो जाये तो? II6II</p>
<p>इश्क़ की परछॉंई से भी भागता हॅूं दूर मैं,</p>
<p>इश्क़ इसके बाद भी मुझको अगर हो जाये तो? II7II</p>
<p>ज़िन्दगी का क़ाफ़िया और ठीक है बिल्कुल रदीफ़</p>
<p>बाद इसके भी ग़ज़ल ये बेबहर हो जाये तो? II8II</p>
<p>डर रहा हॅूं पास जाकर होश खो बैठॅूंगा मैं,</p>
<p>पर नशा बस दूर से ही देखकर हो जाये तो? II9II</p>
<p>मुल्क़ की अस्मत से जो खिलवाड़ आहत कर रहे,</p>
<p>उनकी बातों का अगर सब पे असर हो जाये तो? II10II</p>
<p>गजल- दो </p>
<p>वह ठीक से बातें मेरी सुनता भी नहीं है</p>
<p>औ बात कभी अपनी वो कहता भी नहीं है II1II</p>
<p>मुद्दत से मेरी दीद का वो मुंतज़िर है पर</p>
<p>मेरे लिए एक पल कभी रुकता भी नहीं है II2II</p>
<p>ज़ाहिर है नुमायां है मुसलसल वो मगर हाँ </p>
<p>जब देखना चाहो तो वो दिखता भी नहीं है II3II</p>
<p>कहना तो मुझसे चाहता हर बात वो अपनी</p>
<p>पर पूछना चाहो तो वो खुलता भी नहीं है II4II</p>
<p>इक पल के लिए छोड़ना चाहे न वो मुझको</p>
<p>साए की तरह साथ वो चलता भी नहीं है II5II</p>
<p>है उसकी रज़ा वार दे अपनी हर इक हँसी</p>
<p>पर सामने खुलकर कभी हँसता भी नहीं है II6II</p>
<p>इक पल की भी दूरी उसे मंजूर नहीं पर</p>
<p>मिलना कभी चाहूँ तो वो मिलता भी नहीं है II7II</p>
<p>इक पल के लिए भी न हुआ आंख से ओझल</p>
<p>हरदम वो मेरे सामने रहता भी नहीं है <span> </span>II8II</p>
<p>ऐसी है रवानी कि वो रोके नहीं रुकता</p>
<p>ठहराव है इतना कि वो हिलता भी नहीं है II9II</p>
<p>इतना है लचीला कि जो चाहे वो झुका दे</p>
<p>है सख्त वो इतना कभी झुकता भी नहीं है II10II</p>
<p>हल्का है किसी फूल सा कोई भी उठा ले</p>
<p>पर जोर लगाए कभी उठता भी नहीं है II<span>11II</span></p>
<p>ओपन बुक्स ऑनलाइन, लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या जो 22 मार्च 2020 को ऑनलाइन संपन्न हुई के प्रथम चरण में लोकप्रिय ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ की उपर्युक्त ग़ज़लों पर चर्चा हुयी जिसमें लगभग सभी प्रतिभागियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बड़ी साफगोई से अपने विचार पेश किये I वे विचार यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं -</p>
<p>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने टिप्पणी करते हुए कहा कि पहली ग़ज़ल मे अपनी स्वतंत्रता निभाते हुए 'आहत' अपने फन को मालिक की नज़र करते हैं। अपने अल्हड़ सवालों के साथ दर्द की हर संभव दास्तान को जोड़ते हुए वे अपनी रूमानी काव्यधारा की आशा-निराशा से सजग वास्ता रखते हैं । सवालों के विन्यास और अनुप्रास के नज़रिये से ग़ज़लकार देश की अनिश्चितता के प्रति भी अपनी आशंका दर्ज कराते हैं ।</p>
<p>दूसरी ग़ज़ल के बारे में उनका मानना है कि ग़ज़लकार के लफ़्ज़ों की लड़ियाँ ख़ुदा की पहचान कराती हैं । आहत ने तराशे हुये लहज़े में मालिक का साथ, उसका अस्तित्व, उसकी गति, उसका ठहराव, उसकी लचक का वर्णन सधे हुए शब्दों में किया है। अंतिम दो शेरों में ख़ुदा की ख़ुदाई का दृष्टान्त है । संदेश यह है कि इंसान की ज़िद मालिक का दिशा-निर्देश नही कर सकती । </p>
<p>कवयित्री कौशाम्बरी सिंह के अनुसार समाज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखी पहली ग़ज़ल आहत की आत्मा की आवाज़ है I आशंकाओं से भयभीत हृदय व्याकुल हो चिंताओं से व्यथित है I उसे आशंका है कि यह व्यथा- विष सर्वव्यापी न हो जाए I</p>
<p>दूसरी ग़ज़ल में रचनाकार अंतरात्मा में बसे ईश्वर का आह्वान कर रहा है I उसके सान्निध्य की याचना कर रहा है I मानो अपनी जड़ता पर असहाय हो गया है I</p>
<p>कवयित्री नमिता सुन्दर का कहना था कि आलोक जी की पहली ग़ज़ल मौजूदा परिस्थितियों में हम सबके मन को प्रतिबिंबित करती है, जिसे न जाने कितने अबूझ सवाल मथते रहते हैं I “उनकी बातों का अगर सब पर असर हो जाय तो“- इस आखिरी पंक्ति में सवाल हवा में खुला छोड़ दिया गया है - जैसे सिर पर लटकती तलवार I पर मन को उससे भी अधिक भयभीत करता है "घूमता फिरता हूं ...." I इसकी दूसरी पंक्ति में वो को हमने ऊपर वाला समझा I हम अक्सर ही अपने दुनियावी जालों में फंसकर बेखबर हो जाते हैं, पर सोचिए अगर उसने नज़र फेरी तो... तो.. ऐसा ही कुछ होगा, जो हो रहा है या इससे भी भयावह I वैसे वह इश्क वाली लाइन का इशारा अधरों पर मुस्कुराहट ले आया I महबूब कोई भी हो - इन्सानी या दैवीय I न चाहते हुए या बचते बचाते, या अनजाने किसी गिरफ्त में आ जायें तो सोचिये कितने गहरे डूबना होगा और फिर कितने ऊपर उठना होगा I</p>
<p>दूसरी वाली ग़ज़ल में लुका छिपी का खेल है I दूर या पास होने का अहसास, कभी धैर्य, कभी असहाय बोध या अकेला छोड़ देना.... यह सब हमारे और ऊपर वाले के रिश्ते का लेखा-जोखा है I बहुत ही खूबसूरती से आलोक जी ने मन की सारी पर्तें उघेड़ी हैं और ऊपर वाले के साथ हमारी यह रस्साकसी ताउम्र चलती रहती है क्योंकि हम पूरी तरह उसमें कहां डूब पाते हैं?</p>
<p>कवि मृगांक श्रीवास्तव ने बहुत कम शब्दों में अपनी बात की I उन्होंने कहा कि ‘आहत लखनवी’ जी की दोनों ग़ज़लें लाजवाब हैं और उनके आहत होने की झलक उनमें मिलती हैं। मन में उठने वाली तमाम कल्पनाओं को अपने अशआर में बहुत खूबसूरती से उकेरा है। गज़लें दर्शाती हैं कि वो बहुत उम्दा शायर हैं।</p>
<p>डॉ. अशोक शर्मा ने कहा कि आलोकजी की पहली ग़ज़ल में पीड़ा लगती है I पर अगर इश्क़ हो जाये तो हो जाने दें i यह भी खुदा की नेमत है I दूसरी ग़ज़ल ईश्वर के प्रति है I आलोक जी अच्छा तो लिखते ही हैं I</p>
<p>ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि आलोक रावत "आहत लखनवी’’ जी जाने-माने शायर हैं I उनके तख़ल्लुस के अनुरूप उनकी तख़लीक़ और उनकी पेशकश दोनों ही राहत-बख़्श हैं I इसीलिये जब भी उनकी तथा उनकी शायरी का ज़िक़्र होता है तो उनका मेयार ख़ुद सामने आ जाता है I इनकी पहली ग़ज़ल बह्रे-रमल मुसम्मन महज़ूफ़ में कही गयी है I इस ग़ज़ल के भाव, इसकी भाषा या इसका शिल्प [एक ऐबे-तनाफ़ुर छोड़ कर] हमेशा की तरह श्रेष्ठ हैं I प्रश्नवाचक अशआर में सभी प्रश्न साफ और दुरुस्त हैं I</p>
<p>बह्रे-हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़ में कहे गए मतले वाली दूसरी ग़ज़ल में भी आलोक जी की लेखन परिपक्वता स्पष्ट है I यह गजल एक अच्छी तख़लीक़ है I पर मुझे लगता है कि ये आलोक जी की सर्वश्रेष्ठ रचनाये नहीं हैं और उनकी क्षमता का उचित प्रतिनिधित्व नहीं करतीं I उनके अन्य उत्कृष्ट ग़ज़लों पर भी चर्चा होनी चाहिए I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव की नज़र में पहली ग़ज़ल बहुत ही उहापोह से भरी है I रचनाकार का मन अंतर्द्वंद्व से आक्रांत है I बहुतेरे प्रश्न उसके मस्तिष्क में उपजते है I ऐसा हो जाय तो या फिर वैसा हो जाये तो के बीच झूलते रहते है I इन आशंकाओं में भय है, डर है, खौफ़ है, नाउम्मीदी है और निराशा है I केवल एक शे’र में आशा की झलक मिलती है - </p>
<p>“क्या गिले-शिक़वे करूं तुझसे मेरे मालिक़ बता</p>
<p>बस ज़रा मुझ पर भी तेरी इक नज़र हो जाये तो?</p>
<p>बह्रे-रमल मुसम्मन महज़ूफ़ (फ़ाइलातु फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन) के पैमाने पर यह ग़ज़ल बहुत ही नायाब तरीक़े से उतरती है I आहत की एक ग़ज़ल का शेर मुझे याद आता है – “रहने भी दो अपने अश्के मुरव्वत, मेरी मौत पर रोने वाले बहुत है I” ऐसी बेजोड़ लताड़ लगाने वाल शायर का अवसाद में जाना, उसका निराशवाद नही है I यह उसकी परिपक्वता है I जो चमकता है वह सब कांचन ही नही होता, यह ग़ज़लकार को पता है I इन सारी घोर निराशाओं के बीच उम्मीद की किरण है I ‘मालिक की नज़र’ तो कभी भी हो सकती है I ‘ज़िन्दगी का काफिया’ ‘डर रहा हूँ‘ ‘मुल्क की अस्मत‘ में भूपेन्द्र जी ने ऐब-ए-तनाफुर की ओर इशारा किया है I ऐसे ऐब बड़े शायरों में भी मिलते रहे हैं I पर एक से अधिक हो तो बायसे फ़िक्र जरूर है I </p>
<p>‘आहत लखनवी’ की दूसरी ग़ज़ल यकीनन लौकिक प्रेम का उनका अपना अनुभव है जिसे ग़ज़लकार ने कहीं-कहीं रहस्यवाद का बाना भी पहनाया है i जैसे -</p>
<p>“ज़ाहिर है नुमायां है मुसलसल वो मगर हाँ </p>
<p>जब देखना चाहो तो वो दिखता भी नहीं है I”</p>
<p>निश्चय ही यह आध्यात्मिक रहस्यवाद है जिसकी एक विस्तृत परम्परा सूफियों के प्रेमाख्यानों में मिलती है I इस ग़ज़ल का भाव-पक्ष बहुत ही सबल है I इसकी बहर हजज़ मुसम्मन अखरब मकफूफ महजूफ अर्थात 221 1221 1221 122 है I इसका निर्वाह आहत ने बड़ी कुशलता से किया है I आहत का तगज्जुल हमेशा चौंकाता रहता है I सबसे बड़ी बात यह है कि वे संकेतों में बड़ी बात कह जाते है और उनके शेर को महज पढ़ जाने से समझना कभी कभी मुश्किल हो जाता है I इन्हें BETWEEN THE LINES पढना ज़रूरी है I यदि हम इस तरह नही पढ़ेंगे तो कैसे समझ पायेंगे कि ’भोर में ही जिन्दगी की दोपहर हो जाये तो’ में बाल श्रम की दर्दनाक स्थिति को रूपायित किया गया है I सच्चाई यह है कि महज दो ग़ज़लों से आहत की सही शिनाख्त एक शायर के रूप में कर पाना संभव नही है I हम उन्हें बराबर सुनते और गुनते आये है I अभी उनका सही मेयार सामने नही आ पाया है I इस बार संयोजक ने अपनी तरफ से ग़ज़लों का चुनाव किया था I बेहतर होता कि आलोक जी से उनकी ग़ज़लें माँगी जातीं और उन पर विचार किया जाता I</p>
<p>आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने अपनी पहली ग़ज़ल के बारे में बताया कि इस ग़ज़ल के ज़्यादातर अशआर अध्यात्म से संबंधित हैं। ग़ज़ल में अपने मालिक और उसकी जो भी निज़ामत है उसके बारे में ही बात की गयी है । वो परमपिता परमेश्वर अगोचर, अगम्य और अदृश्य है, लेकिन उसे सच्चे मन से देखना चाहो, पाना चाहो या उससे अपनी बात कहना चाहो तो वह उसे अवश्य सुनता है। यदि हम अपनी पवित्र भावना से उसे याद करते हैं तो वह हमें हमेशा अपने पास प्रतीत होता है। यद्यपि हम उसे अपनी भौतिक ऑंखों से नहीं देख सकते तथापि मन की ऑंखों से उसे देखने पर हमें उसका अनुभव या आभास अवश्य होता है। सबसे भारी, सबसे हल्का, सबसे जीत जाने वाला, सबसे हार जाने वाला परमात्मा ही तो है । वही सब कुछ करने या न करने वाला है। यह ग़ज़ल और इसके अधिकांश शेर उसी परमपिता को समर्पित हैं I </p>
<p>आहत के अनुसार उनकी दूसरी ग़ज़ल के अशआर अलग-अलग रंग के हैं । कहीं ज़िन्दगी की बात है, कहीं प्यार की बात है, कहीं देश की बात है, कहीं ख़ुद की बात है और कहीं समाज की बात है। सच तो यह है कि हर कवि और शायर के मन में समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के प्रति एक असंतष और क्षोभ का भाव मन में रहता है जो उसकी रचनाओं में नुमायाँ होता रहता है । जब वह ये कहते हैं कि ’भोर में ही जिंदगी की दोपहर हो जाये तो’ तब इसमें बालश्रम जो कि एक अपराध है उसके प्रति एक चिंता का भाव स्पष्ट होता है। एक शे’र में सानी मिसरा है कि ’बीच में ही ख़त्म लेकिन ये सफ़र हो जाये तो’ तब वहॉं पर फिल्म ’प्यासा’ में साहिर लुधियानवी साहब का लिखा गीत ’ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है’ की याद आती है और इस नश्वर शरीर की हक़ीक़त का पता चलता है। इस ग़ज़ल के इस शे’र पर तवज्जो चाहूंगा-</p>
<p>’भागता हॅूं इश्क़ की परछाईं से भी दूर मैं,</p>
<p>इश्क़ इसके बाद भी मुझको अगर हो जाये तो’</p>
<p>ग़ालिब साहब लिख ही गये हैं कि – ये आग लगाये न लगे और बुझाये न बुझे I सूफियत में इसे ही इश्के-हकीकी की सीढ़ी माना गया है I ग़ज़ल का मतला ’’दर्द मेरा हमक़दम औ हमसफ़र हो जाये तो, क्या करूं मॉं की दुआ भी बेअसर हो जाये तो।’ निश्चय ही आदमी के दर्द को समझने के लिये पर्याप्त है। मॉं को इस धरती पर ईश्वर से भी बड़ा माना गया है I उसकी दवा तो हर मर्ज के लिए PANACEA है और वह बेअसर हो जाये तो स्थिति कितनी कल्पनातीत होगी, यह विचारणीय है I इन दोनों ग़ज़लों में मेरी एक छोटी सी कोशिश रही है शायद किसी को ठीक भी लगे I</p>
<p></p>
<p>(मौलिक?अप्रकाशित )</p> पं० चंद्रशेखर पाण्डेय ’चंद्रमणि’ जी की नाट्यधर्मिता :: एक तात्विक विवेचन डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2019-04-18:5170231:Topic:9810432019-04-18T07:23:44.739Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
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<p> भारत में नाटक की परंपरा अत्यधिक प्राचीन है I यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध भरत मुनि का नाटयशास्त्र ही सबसे पुराना है जो पाश्चात्य विद्वानों की इस धारणा को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है कि ग्रीस या यूनान में सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भाव हुआ। हरिवंशपुराण में लिखा है कि जब प्रद्युम्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे। ऐसे ही अनेक प्रामाणिक आधारों से संतुष्ट होकर विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट रूप से माना कि…</p>
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<p> भारत में नाटक की परंपरा अत्यधिक प्राचीन है I यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध भरत मुनि का नाटयशास्त्र ही सबसे पुराना है जो पाश्चात्य विद्वानों की इस धारणा को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है कि ग्रीस या यूनान में सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भाव हुआ। हरिवंशपुराण में लिखा है कि जब प्रद्युम्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे। ऐसे ही अनेक प्रामाणिक आधारों से संतुष्ट होकर विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट रूप से माना कि भारत में नाटकों का बड़ी प्राचीन और समृद्ध परंपरा रही है I यह अलग बात है कि आरंभिक नाटको की भाषा संस्कृत थी I मध्यकाल में मुसलमान शासकों की धर्मकट्टरता से भारत की साहित्यिक रंग-परम्परा ध्वस्त तो अवश्य हुयी पर लोक-भाषाओं में लोकमंच के अंतर्गत रासलीला, रामलीला तथा नौटंकी <a href="https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8C%E0%A4%9F%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%80"></a>आदि के रूप में लोकधर्मी नाट्यमंच जीवित रहा।</p>
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<p> हिन्दी में अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच आगा हसन 'अमानत लखनवी ' के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक से माना जाता है, जबकि सही मायने में ‘इंदर सभा’ नाट्य कृति थी ही नहीं। इसमें शामियाने के नीचे खुला स्टेज रहता था नौटंकी <a href="https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%8C%E0%A4%9F%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%80"></a>की तरह तीन ओर दर्शक बैठते थे I एक ओर तख्त पर राजा इंदर का आसन होता था I परियों के लिए कुर्सियाँ रखी जाती थीं। साजिंदों के पीछे एक लाल रंग का पर्दा लटका रहता था I उन्हीं के पीछे से पात्रों का प्रवेश कराया जाता था। राजा इंदर, परियाँ आदि पात्र एक बार उपस्थित होकर और अपने संवाद बोलकर भी फिर मंच से वापस नहीं जाते थे।</p>
<p></p>
<p> आधनिक काल में साहित्यिक रंगमंच और नाट्य-सृजन की विधि-सम्मत परम्परा भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनथक प्रयास से विकसित हुयी जिसे भारतेंदु युग (1850-1900) के नाम से जाना गया I इसके बाद द्विवेदी युग (1900-1921) में नाटकों पर कोई विशेष कार्य नही हुआ I किन्तु परवर्ती प्रसाद युग (1921-1937) ने हिन्दी नाटको में एक क्रांति की अवस्था उत्पन्न कर दी I इस युग के नाटक राष्ट्रीय जागरण एवं सांस्कृतिक चेतना का उद्घोष लेकर आये I उनमें इतिहास तत्व प्रमुख था पर ये नाटक अभिनेय न होने के कारण अधिकांशतः रंगमंच से कटे रहे I इस कारण वे मात्र पाठ्य नाटक बनकर रह गए । इन नाटकों का वैशिष्ट्य यह था कि कथ्य के स्तर पर वे देश की तत्कालीन समस्याओं से जुड़े थे, उनमें आदर्श का स्वर प्रमुख था और वे अपने युग की यथार्थ समस्याओं को अंकित करने में वे अग्रणी रहे ।</p>
<p></p>
<p>इसके बाद हिन्दी नाटकों में प्रसादेतर युग (1937 से अब तक) का प्रादुर्भाव हुआ जो आज तक चल रहा है I इस युग में नाटक ने अपना स्वरुप बदला है I भाव, कथ्य और शिल्प से स्तर पर बहुत से प्रयोग हुए हैं I नाटक का भविष्य क्या होगा, यह कहना कठिन है पर सिनेमा के अभ्युदय से उसकी लोकप्रियता में भारी कमी आयी है I आज का साहित्यकार नाटक-लेखन के प्रति उदासीन दिखता है I किन्तु प्रसादेतर युग के पूर्वार्ध में नाटकों पर बहुत अच्छा काम हुआ है I यही वह समय था जब ग्राम बन्नावां, रायबरेली निवासी पं० चंद्रशेखर पाण्डेय ’चंद्रमणि ’ (सन्1908 -1982 ई०) ने पौराणिक आख्यानों का आलम्बन लेकर लोक स्तर पर दशाधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय नाटकों की रचना की I इतना ही नही जिले की महराज गंज, बछरावा और सदर तहसील के अनेक गावों में स्थानीय युवा उत्साही कलाकारों द्वारा उनका बार-बार मंचन भी कराया I</p>
<p></p>
<p> रायबरेली जनपद में किम्वदंती (LEGEND) बन चुके पं० चन्द्रशेखर पाण्डेय ‘चंद्रमणि ’ केवल नाटककार ही नही थे I उन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा पर अपनी कलम चलाई है और प्रभूत साहित्य रचा है I साहित्य सेवा मे जो सृजन करता है वह बहुधा साहित्य का प्रचारक या समाज सुधारक नही होता और धर्मोपदेशक तो कदापि नही I परन्तु चंद्रमणि जी अपवाद थे I वे साहित्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं के ज्ञाता एवं उसके रचनाकार भी थे I उन्होंने अपने गाँव बन्नावां, रायबरेली में अनेक सस्थायें स्थापित की, जिनमे भारती भवन, प्रकाशन संस्था , भारती भवन, पुस्तकालय, भारती औषधालय और बन्नावां नाटक समाज प्रमुख हैं I उनकी बहुमुखी प्रतिभा का संज्ञान केवल इस सत्य से हो जाता है कि वे साहित्यकार, साहित्य प्रचारक, प्रकाशक ,समाज सुधारक, कुशल धर्मोपदेशक, शास्त्रीय राग-रागिनियो के ज्ञाता होने के साथ ही साथ मान्यता प्राप्त वैद्य और अपने गाव के सरपंच भी थे I उन्होंने इन सभी भूमिकाओं का निष्ठापूर्वक निभाया है जिसके लिए उन्हें रात-दिन काम करना पड़ता था I इतने उत्तरदायित्वों को एक साथ कुशलतापूर्वक निबाहने के कारण ही वे अपने क्षेत्र में एक जीती-जागती संस्था (INSTITUTE) के मानिंद थे I उनके वास्तविक नाम का संज्ञान भले ही लोगों को न हों परन्तु आज भी जंवार में जहाँ कही उनके उपनाम ‘चंद्रमणि‘ जी का जिक्र होता है, लोगों के सिर श्रृद्धाऔर सम्मान से झुक जाते हैं I</p>
<p> </p>
<p> चंद्रमणि जी का कुछ साहित्य उनके न रहने पर दूसरे लोगों द्वारा हथिया लिया गया और इस साहित्य-चोरी (PLAGIRISM) का भरपूर दुरूपयोग भी हुआ I इसके बाद भी उनके द्वारा रचे गए उपलब्ध नाटकों की संख्या तेरह है, जिनमें आठ प्रकाशित और पांच अप्रकाशित है I प्रकाशित नाटक हैं- कराल चक्र (प्र० 1933), अजामिल (प्र०1935), राजपूत रमणी (प्र०1937), देवासुर संग्राम (प्र०1961), सती शिरोमणि (प्र०1962), सती सुलोचना (प्र०1965), राजर्षि परीक्षित अथवा कलियुगागमन (प्र०1968) और शतमुख रावण (प्र०1971) I इसी प्रकार अप्रकाशित नाटक हैं- वनवासिनी (र,का.1936-37), सिरसा संग्राम या मलखान समर(र,का. 1947-48 ) ,संसार चक्र (र,का 1952), रामबोला तुलसी (र,का. 1973) और स्यमंतक मणि I </p>
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<p>चंद्रमणि जी का नाटक रचना काल यद्यपि प्रसाद युग के तुरंत बाद से शुरू होता है, परन्तु उसमें वैसा निगूढ़ साहित्यिक आग्रह नहीं है, जैसा प्रसाद के नाटकों में मिलता है I प्रसाद के नाटक कितने भी साहित्यिक हों पर अभिनय की कसौटी पर वह खरे नही उतरते I चंद्रमणि जी के नाटक इसके बिलकुल विपरीत है I न तो वे अति साहित्यिक आग्रह से आक्रान्त है और न ही उनमे अभिनेयता की कोई कमी है I दरअसल उनके नाटकों पर खासकर शुरुआती नाटकों पर पारसी नाटकों का यत्किंचित प्रभाव है, हालाँकि इस प्रभाव को ग्रहण करने उनके द्वारा आवश्यक सतर्कता भी बरती गयी है I </p>
<p>पारसी नाटकों का आरम्भ मंगलाचरण के तुरंत बाद या फिर सूत्रधार अथवा नट और नटी की प्रस्तावना के तुरंत बाद शुरू हो जाते थे I भारतीय नाटकों की यह पुरानी परंपरा है I कालिदास का ‘शाकुंतल’ भी नांदी स्वर, सूत्रधार और नटी की योजना से आरम्भ होता है I चंद्रमणि जी के नाटको में यह पारसी प्रभाव नही है I उन्होंने भारत की पुरानी नाट्य परंपरा का ही अनुसरण किया है I यही कारण है कि पाश्चात्य प्रभाव होने के बाद भी उनके नाटक वस्तु, नेता, रस और अभिनय की कसौटी परे खरे उतरते है I</p>
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<p>पं० चंद्रमणि ने अपने नाटक के वस्तु चयन में पारसी प्रभाव को स्वीकार नही किया I उनके सभी नाटक या तो मिथ पर आधारित हैं, प्रख्यात है या फिर उनमे भारतीय इतिहास की गौरव गाथाये अनुस्यूत हैं और वे मिश्र प्रख्यात है I ‘करालचक्र‘ में जहाँ महात्मा गांधी का समर्थन है, वही उस काल की राजनीतिक उथल-पुथल का भी चित्राकंन भी हुआ है I यह और ‘संसार चक्र’ का कथानक उत्पाद्य है I इसी प्रकार ‘अजामिल’, ‘देवासुर संग्राम’, ‘सती शिरोमण’, ‘सती सुलोचना’, ‘राजर्षि परीक्षित’ अथवा ‘कलियुगागमन’ ,’शतमुख रावण’, ‘वनवासिनी’ और ‘स्यमंतक मणि’ मिथकीय आख्यानों पर अवलंबित हैं, जबकि ‘सिरसा संग्राम’ या ‘मलखान समर’, संसार चक्र), रामबोला तुलसी’ ऐतिहासिक नाटक हैं I उनके नाटकद्वय ‘संसार चक्र ‘ और ‘कराल चक्र’ सामाजिक नाटक है I नाटकों के वस्तु-चयन में चंद्रमणि जी प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार जयशंकर प्रसाद के अधिक नजदीक है I दोनों ही राष्ट्रवादी और भारत की प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं के पोषक हैं I</p>
<p></p>
<p>पारसी शैली के नाटकों में मांसल और उत्तेजक नृत्य और वादन-गायन अर्थत सगीत के तीनों रूपों का का प्राचुर्य होता था I उनमे ग्लैमर अर्थत ठाट-बाट. चमक–धमक और चामत्कारिक प्रस्तुति के प्रति विशेष आग्रह रहता था I दर्शकों के मनोरंजन के लिए इन नाटको में फूहड़ हास्य के प्रसंग भी जोड़े जाते थे जबकि नाटक की आधिकारिक कथा से उसका कुछ भी लेना देना नही होता था I इन नाटकों में भारत की सभ्यता और संस्कृति के प्रति और नाट्य -कला के प्रति भी कोई प्रतिबद्धता नही दिखती थी I भारत की अशिक्षित जनता की सुप्त कामेच्छा को प्रदीप्त कर उन्हें बेवकूफ बनाना, उनको सस्ता एवं सतही मनोरंजन प्रदान करना तथा उनके धन का व्यपहरण करना ही इन पारसी नाटकों का असली मकसद था I देशाभिमान और राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने जैसे अहम मुद्दों से इनका दूर तक संबंध नही था I भारतेंदु और प्रसाद के नाटक जहां अव्यावसायिक थे, वही पारसी नाटक विशुद्ध रूप से व्यावसायिक थे और उनका एक मात्र उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण अधिक से अधिक धन कमाना था I </p>
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<p> चंद्रमणि जी धर्म-परायण होने के साथ ही साथ मर्यादावादी कवि, हरफनमौला साहित्यकार एवं धर्मोपदेशक थे I उन्होंने पारसी थियेटर का प्रभाव तो ग्रहण किया परन्तु उसकी तमाम बुराइयों को बरतरफ़ करते हुए I पारसी परम्परा के नाटकों में अंको और दृश्यों की भरमार रहती थी I नाटक का मंचन भी देर रात तक या रात भर चला करता था I सामान्यत: नाटक में तीन अंक होते थे, जिनमे दूसरा अंक सबसे अधक दृश्यों वाला और तीसरा अंक सबसे कम दृश्यों वाला होता था I चंद्रमणि जी ने इस परम्परा को अपनाया और अपने नाटकों में गीतों की झड़ी लगा दी I यहाँ तक कि संवाद भी अधिकांशतः पद्य में ही रचे गए , पर वे कभी भी फूहड़ या भदेश नही हुए I उन्हें शास्त्रीय राग-रागिनियों का अच्छा ज्ञान था और उसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने गीत लिखे I अधिक गीतों से उनके नाटको का वस्तु-प्रवाह भले ही बाधित हुआ हो पर पारसी थियेटर के इस प्रभाव को उन्होंने स्वीकार अवश्य किया I हालांकि अपने परवर्ती नाटकों में उन्होंने अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश भी लगाया I </p>
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<p>चंद्रमणि जी की पात्र योजना वैविध्यपूर्ण है I उनके नायक सदैव धीरोदात्त ही नही है I अधिकांश चरित्र मिथकीय है I भारतीय परंपरा में नायक धीरोदात्त, धीरललित अथवा धीरोद्धत कुछ भी हो सकता था I कुलीनता और सुन्दरता भी प्रायशः अनिवार्य थी i किन्तु बाद में किसान, मजदूर, निम्नजाति के लोगों को केंद्र में रखकर भी नाटक लिखे गए I नारी प्रधान नाटकों में उनके चरित्र के उत्कर्ष का आख्यान इन नाटकों में हुआ है I चंद्रमणि जी के केन्द्रीय पात्र अधिकाशतः पौराणिक एव ऐतिहासिक है I ऐतिहासिक पात्रों में अजामिल, दैत्यराज बलि, भगवान विष्णु, सती अनुसूया, सती सुलोचना, राजर्षि परीक्षित अथवा शतमुख रावण, शबरी, कृष्ण, जाम्बवन्त और सत्राजित आदि प्रमुख है I ऐतिहासिक चरित्रों मे उदयपुर राज्य के प्रधान सेनापति चन्द्रवत, औरंगजेब, पृथ्वीराज, मलखान सिह , तुलसी और रत्ना उल्लेखनीय हैं I ‘संसार चक्र’ और ‘कराल चक्र’ नाटक के केन्द्रीय पात्र समाज के प्रतिनिधि हैं I चंद्रमणि जी के नाटकों में उत्तम, माध्यम और निकृष्ट तीनों तरह के पात्र है I पारसी थिएटर के अनुकरण में विदूषक जैसे हास्य पात्रो की योजना भी नाटको में अवश्य हुयी है पर वैसा फूहडपन इन पात्रों में नही है I इन पात्रों के नाम भी ऐसे रखे गए है जिससे हास्य की संभावना स्वतः प्रकट हो जाती है I जैसे- लपेटे- झपेटे, ढपोरशंख, चौपटानंद, बंटाधार, लोभान्न्द, झब्बर बाबा, भुसई चौबे आदि I नाटक में पात्रो का चरित्र घटनाक्रम के - विकास के साथ स्वतः उद्घाटित होता चलता है I</p>
<p></p>
<p>आचार्यों ने माना है कि नाटक एक दृश्य-श्रव्य काव्य है I इसके दर्शन तथा श्रवण से जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है । आचार्य विश्वनाथ ने कहा भी है – रसात्मक वाक्यम् काव्यम् I नाटको को लोग देखते भी है और सुनते है इसलिये रस को अधिकाधिक संप्रेषित करने की क्षमता नाटको में सबसे अधिक होती है I इस दृष्टि से पं० चंद्रमणि के नाटकों में कोई भी रस अछूता नही रहा है I यद्यपि उनका भरपूर दखल ज्ञान के अनेक क्षेत्रों एवं विधाओं में रहा है, पर मूलतः वे भक्त, धर्म प्रवक्ता और साहित्यकार थे, इसके बाद ही कुछ और I साहित्य के सम्बन्ध में वे तुलसी के अनन्यसमर्थक थे और उनका आदर्श था –‘कीरति भनिति भूति भलि सोई I सुरसरि सम सब कर हित होई II’ </p>
<p>पं० चंद्रमणि के नाटक ‘अजामिल’ में भक्ति, शृंगार, वीर, करूण, शांत तथा हास्य रस की प्रधानता है I ‘राजपूत रमणी’ में शृंगार, करूण, हास्य, भयानक एवं वीभत्स रस की सुंदर योजना हुयी है I ‘वनवासिनी’ में भक्ति रस का रंग गहरा है पर सहायक रस के रूप में भयानक, वीभत्स, करुण और हास्य रस का भी परिपाक हुआ है I ‘देवासुर संग्राम’ में भयानक और अद्भुत रस की गंगा बही है I ‘संसार चक्र, शृंगार और भयानक और हास्य रस से परिपूर्ण है I ‘राजर्षि परीक्षित’ में वीर, अद्भुत और हास्य की बड़ी ही सुष्ठु योजना हुयी है I इस प्रकार चंद्रमणि जी के नाटकों में सभी रसों की मोहक सृष्टि हुयी है I</p>
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<p>चंद्रमणि जी के नाटकों की भाषा सरल, सुबोध, स्वाभविक, प्रवाहमय और पात्रानुकूल है I इसके साथ ही भाषा के बोधगम्यता भी इन नाटकों की संप्रेषणीयता में सहायक हुयी है I कथोपकथन अधिकांशतः छोटे, चुस्त और चुटीले हैं I संवाद भी अधिक बड़े नहीं है I पारसी प्रभाव से अधिकाश नाटकों के सवादों में तुकांतता, गेयता और स्वर-मैत्री का विशेष ध्यान रखा गया है I स्वगत-कथन के अवसर भी नाटकों में विद्यमान हैं I देशकाल और वातावरण को प्रांजल बनाए रखने में कतिपय नाटकों में ईषत चूक अवश्य हुयी है I प्रत्येक दृश्य के साथ मंच-सज्जा साधारण रखी गयी है ताकि नाटकों के मंचन और अभिनय में सहजता रहे I उन्होंने नाटकों के रूप, आकार, दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन के साथ ही परिधान और मंचीय व्यवस्ता का पूरा ध्यान रखा है I संस्कृत नाट्य परम्परा में रंगमंच और अभिनय की सीमा और सामर्थ्य का विशेष ध्यान रखते हुए मंच पर कुछ दृश्य की प्रस्तुति को वर्जित माना गया है जैसे नदी और के पहाड़ दृश्य, हत्या-आत्म हत्या या फांसी के दृश्य, युद्ध और विप्लव के दृश्य, पात्रों के नहाने, खाने अथवा वस्त्र बदलने के दृश्य I शेक्सपियर के नाटकों में ऐसे वर्जित दृश्यों का बाहुल्य है I पारसी थिएटर पर इन अंग्रेजी ड्रामों का व्यापक प्रभाव था I अपने कुछ नाटकों में चंद्रमणि जी ने पाश्चात्य नाटकों और पारसी थिएटरों की इस परम्परा का प्रभाव ग्रहण किया है I उदाहरण के लिए ‘कराल चक्र’ नाटक में पात्रों का मदिरा-पान, विजय सिह की हत्या और ज्ञान सिंह को फांसी ऐसे ही वर्जित दृश्य हैं I</p>
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<p> (मौलिक/अप्रकाशित )</p> मध्यकालीन हिदी साहित्य में होली का कोलाज - डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2019-03-21:5170231:Topic:9788472019-03-21T07:03:43.716Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>हिन्दी साहित्य में काल विभाजन के अनुसार आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का समय मध्ययुग (1318ई०-1843ई०) कहलाता है I इस प्रकार भक्ति एवं रीतिकाल की सम्पूर्ण अवधि हिन्दी साहित्येतिहास का मध्यकाल है I मध्यकाल में भक्ति के निर्गुण स्वरुप की दो धाराएं थीं – पहला ज्ञान-मार्ग जिसके प्रतिनिधि कवि कबीर थे और दूसरा प्रेम-मार्ग जो मलिक मुहम्मद जायसी के नाम से अधिकाधिक लोकप्रिय हुआ I इसी प्रकार भक्ति के सगुण स्वरुप की भी दो शाखाएं थी- पहली राम-भक्ति शाखा ,जिसके उन्नायक कवि गोस्वामी तुलसीदास थे I दूसरी…</p>
<p>हिन्दी साहित्य में काल विभाजन के अनुसार आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का समय मध्ययुग (1318ई०-1843ई०) कहलाता है I इस प्रकार भक्ति एवं रीतिकाल की सम्पूर्ण अवधि हिन्दी साहित्येतिहास का मध्यकाल है I मध्यकाल में भक्ति के निर्गुण स्वरुप की दो धाराएं थीं – पहला ज्ञान-मार्ग जिसके प्रतिनिधि कवि कबीर थे और दूसरा प्रेम-मार्ग जो मलिक मुहम्मद जायसी के नाम से अधिकाधिक लोकप्रिय हुआ I इसी प्रकार भक्ति के सगुण स्वरुप की भी दो शाखाएं थी- पहली राम-भक्ति शाखा ,जिसके उन्नायक कवि गोस्वामी तुलसीदास थे I दूसरी कृष्ण-भक्ति शाखा, जो सूरदास की कविताई से कालजयी हुयी I भक्तिकाल में मीराबाई और रसखान का भी महत्वपूर्ण अवदान था I</p>
<p>रीति काल आचार्यों का समय था I उस समय लक्षण/लक्ष्य ग्रन्थ प्रमुखता से रचे गए I विशुद्ध आचार्यों को रीतिबद्ध कवि कहा गया और इसके मुख्य कवि केशव थे , मगर साहित्येतिहासकारों ने उन्हें भक्तिकाल में घसीट लिया I इसके बाद भी उनके आचार्य होने में किसी को भी संदेह नहीं है I इस श्रेणी के अन्य महत्वपूर्ण कवि मतिराम, देव और पद्माकर हैं I दूसरी श्रेणी रीतिसिद्ध कवियों की थी जो केवल आंशिक रूप से लक्षण-प्रवृत्त थे, जैसे बिहारी I तीसरी श्रेणी में वे कवि आते है जिन्हें लक्षण/लक्ष्य ग्रन्थ से कुछ लेना देना नहीं था I ये सर्वथा मुक्त एवं स्वछन्द काव्यधारा के कवि थे I घनानंद इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं I</p>
<p>उक्त सभी कवियों ने अपने काव्य में कहीं न कहीं भारत के महान पर्व होली का उल्लेख अवश्य किया है I कबीर ने होली के माध्यम से अपनी कविता में आध्यात्मिक रंग बिखेरे है I उनकी दृष्टि में संसार का यह सारा क्रिया-कलाप होली के धमाल की तरह है और इस खेल के समाप्त होते ही सबको अपने वास्तविक घर जाना है I कबीर कहते है –</p>
<p><strong><em>ऋतु फागुन नियरानी हो</em></strong><strong><em>,</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>कोई पिया से मिलावे।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है</em></strong><strong><em>, </em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>सोई पिया की मनमानी</em></strong><strong><em>,</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>खेलत फाग अंग नहिं मोड़े</em></strong><strong><em>,</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>सतगुरु से लिपटानी।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची</em></strong><strong><em>,</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>इक इक कुल अरुझानी।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>इक इक नाम बिना बहकानी</em></strong><strong><em>,</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>हो रही ऐंचातानी।।</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’ में होली का वर्णन सहनायिका नागमती की वियोग दर्शाने के लिए बड़ी ख़ूबसूरती से किया है I नागमती सोचती है कि सारा संसार चाँचरि (होली में गाया जाने वाला एक राग और नृत्य मुद्रा ) जोड़ कर होली का उत्सव मना रहा है, जबकि उसका शरीर विरह के मारे होलिका की तरह धू-धू कर जल रहा है I इस दशा पर उसे क्रोध नहीं आता I यह तो उसके लिये रोजमर्रा की बात है I वह तो अपने पति से केवल निहोरा ही कर सकती है -</p>
<p><strong><em>करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥</em></strong></p>
<p>गोस्वामी तुलसीदास जैसे मर्यादित कवि भी होली के मार्दव से बच नहीं सके I दोहावली में उनका होली वर्णन बहुत ही संक्षिप्त और मर्यादा में बंधा हुआ है I वे कहते है कि अवधपति राम अपने छोटे भाइयों और संगी साथियों के साथ फाग खेल रहे हैं I देवता फूल बरसा रहे हैं I उनकी शोभा अमित कामदेवों के समान है I मृदङ्ग, झाँझ, डफ और नगाड़े बज रहे हैं I समयानुकूल सुन्दर एवं सरस शहनाई बज रही है I</p>
<p><strong><em>खेलत फागु</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>अवधपति</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>अनुज-सखा सब सङ्ग</em></strong> <strong><em>|</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>बरषि सुमन सुर निरखहिं सोभा अमित अनङ्ग</em></strong> <strong><em>||</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>ताल</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>मृदङ्ग</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>झाँझ</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>डफ बाजहिं पनव-निसान</em></strong> <strong><em>|</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>सुघर सरस सहनाइन्ह गावहिं समय समान</em></strong> <strong><em>||</em></strong></p>
<p><strong><em><br/></em></strong>सूरदास ने होली के अनेक शब्द-चित्र बनाये हैं I निम्नांकित पद में गोपियाँ कृष्ण से फाग खेलकर अपने अन्तस का अनुराग प्रकट कर रही हैं i वे कृष्ण का बचन सुनने के लिए सज-धज कर निकली हैं I डफ, <span>बांसुरी</span>, <span>रुंज, महुअर तथा मृदंग बज रहे हैं I सब कृष्ण से फाग खेलने में अनुरत हैं और मनोहर वाणी में गा रहे है जिससे मन में हिलोरें उठती हैं I</span></p>
<table width="780">
<tbody><tr><td></td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p><strong><em>हरि संग खेलति हैं सब फाग।</em></strong></p>
<p><strong><em><span>इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।</span><br/> <span>सारी पहिरी सुरंग</span>, <span>कसि कंचुकी</span>, <span>काजर दे दे नैन।</span><br/> <span>बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी</span>, <span>सुनि माधो के बैन।।</span><br/> <span>डफ</span>, <span>बांसुरी</span>, <span>रुंज अरु महुआरि</span>, <span>बाजत ताल मृदंग</span></em></strong></p>
<p><strong><em>अति अनुराग मनोहर बानी गावत उठत तरंग</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>प्रेम की दीवानी मीराबाई का इससे बढ़कर क्या सौभग्य हो सकता है कि वे कृष्ण से होली खेलें I मीरा कहती हैं कि वह रंग और राग (प्रेम) से भरी हैं I उन्होंने श्याम से होली खेली है I गुलाल उड़ने से कृष्ण का बादल जैसा रंग लाल हो गया है I पिचकारी के उड़ते रंग से पानी की झड़ी लग गयी है I मीरा की गागर चोआ चंदन,अरगजा और <span>केसर से भरी है I चतुर कृष्ण की दासी मीरा अपने प्रिय के चरण की शरण में हैं I</span></p>
<p><strong><em>होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी</em></strong><strong><em>, <span>री।।</span><br/> <span>उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।</span><br/> <span>पिचकाँ</span></em></strong><strong><em> </em></strong><strong><em>उडावां रंग रंग री झरी</em></strong><strong><em>, <span>री।।</span><br/> <span>चोवा चन्दण अरगजा म्हा</span>, <span>केसर णो गागर भरी री।</span><br/> <span>मीरां दासी गिरधर नागर</span>, <span>चेरी चरण धरी री।।</span></em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong></p>
<table width="740">
<tbody><tr><td></td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p>अब्दुर्रहीम खानखाना के निम्नांकित दोहों में होली के चित्र प्रायशः उपदेशपरक हैं I वह कहते है अधर्म से कमाया धन नष्ट होते देर नहीं लगेगी I होलिका ने कपट से होलिका सजाई और जलकर मर गयी I अगले दोहे में उनका अनुभव बोलता है कि काले रंग वाली कुंजड़िन जो सोया नामक साग बेचती है ,वह यह कार्य करते-करते निर्लज्ज हो गई है और हमेशा गाली देकर बात करती है मानो फाग खेल रही हो I तीसरे दोहे में रहीम ने उस मजदूरिन की व्यथा व्यक्त की है जिसे होली के दिन भी खेत से कौए भगाने का कार्य सौंप दिया गया है I रहीम की बड़ी ही मौलिक उद्भावना चौथे दोहे में मिलती है, जिसमें वे यह कहते है कि फागुन माह में यदि नर-नारी काम-पीड़ित हो जाते है तो इसमें अचरज की क्या बात है, जब पेड़ तक अपने पत्ते झाड कर नंगे खड़े हो जाते है I तुलसी मानस में कहते है कि – ‘जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥‘</p>
<p><strong><em>रहिमन वित्त अधर्म को</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>जरत न लागै बार।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>चोरी करी होरी रची</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>भई तनिक में छार॥</em></strong></p>
<p><strong><em>भाटा बरन सुकौंजरी</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>बेचै सोवा साग ।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>निलजु भई खेलत सदा</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>गारी दै-दै फाग ॥</em></strong></p>
<p><strong><em>लोग लुगाई हिल मिल</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>खेलत फाग ।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>पर्यौ उड़ावन मोकौं</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>सब दिन काग॥</em></strong></p>
<p><strong><em>नर नारी मतवारी</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>अचरज नाहिं ।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>होत विटप हू नाँगे फागुन माँहि ॥</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>रसखान के काव्य में होली के बहुत से दृश्य हैं I इतने कि उनकी अलग से एक अच्छी चर्चा की जा सकती है I यहाँ उनका एक ही सवैया निदर्शन के रूप में प्रस्तुत है ,जिसमें एक आगतयौवना की होली क्रीडा का चित्र है I वह सुकुमारी आनंद की उठान में अपनी मुठ्ठी में लाल गुलाल तान कर चपल गति से चलती है I वह बायें हाथ से घूंघट पकड़े कर ओट किये है और तीखे नयन बाण से करारी चोट करती है I करोड़ों बिजलियों के समूह का वह अपने पाँव से मर्दन कर बाजी जीत आई है और अब सयानों के झुण्ड से आ टकराई है, जो उसको मींजना चाहते हैं पर वह हाथ नहीं आती उन्हें बस हाथ मींजना ही हाथ लगता है और वे सुखपूर्वक सकुचाते रह जाते हैं I </p>
<p><strong><em>गोरी बाल थोरी वैस</em></strong><strong><em>, <span>लाल पै गुलाल मूठि -</span></em></strong></p>
<p><strong><em>तानि कै चपल चली आनँद-उठान सों।</em></strong></p>
<p><strong><em>वाँए पानि घूँघट की गहनि चहनि ओट</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>चोटन करति अति तीखे नैन-बान सों॥</em></strong></p>
<p><strong><em>कोटि दामिनीन के दलन दलि-मलि पाँय</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>दाय जीत आई</em></strong><strong><em>, <span>झुंड मिली है सयान सों।</span></em></strong></p>
<p><strong><em>मीड़िवे के लेखे कर-मीडिवौई हाथ लग्यौ</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>सो न लगी हाथ</em></strong><strong><em>, <span>रहे सकुचि सुखान सों॥</span></em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>रीतिसिद्ध कवि बिहारी के होली वर्णन में उद्दीपन का संचारी भाव प्रायशः अधिक दिखता है I यहाँ प्रस्तुत दोहों में से प्रथम में नायिका ज्यों-ज्यों उझककर अपने शरीर को ढाँपती है या झुक जाती है या हँसकर डरने की चेष्टा करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुठ्ठी जिसमे अबीर है ही नहीं उससे नायिका को और अधिक भयभीत करता जाता है I दूसरे दोहे का प्रसंग यह है कि लज्जाशीला नायिका घूँघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी है । नायक उसपर ताबड़तोड़ अबीर डाल रहा है । इतने में नायिका भी तमक-कर, कुछ मुड़कर, घूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला देती है। इसमें मूठ चलाना वशीकरण की क्रिया करने जैसा है I नायक वशीकरण करना चाहता था पर तब तक नायिका अपना दांव दिखा देती है I तीसरे दोहे में अबीर की मुट्ठियाँ नायक और नायिका दोनों एक साथ चलाते हैं I मुठ्ठी छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा भी छूट जाती है क्योंकि दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक एक साथ ही चलकर एक दूसरे को लगते हैं I इस क्रिया में दोनों के नेत्र आपस में टकराते हैं और उनका दिल एकाकार हो जाता है ।</p>
<p><strong><em>जज्यौं उझकि झांपति बदनु</em></strong><strong><em>, <span>झुकति विहंसि सतराय।</span><br/> <span>तत्यौं गुलाब मुठी झुठि झझकावत प्यौ जाय ।।</span><br/> <span>पीठि दियैं ही नैंक मुरि</span>, <span>कर घूंघट पटु डारि।</span><br/> <span>भरि गुलाल की मुठि सौं गई मुठि सी मारि।।</span></em></strong></p>
<p><strong><em>छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल।</em></strong><strong><em><br/></em></strong> <strong><em>लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नैन गुलाल॥</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>रीतिबद्ध कवि पद्माकर ने भी होली को आलम्बन मानकर कई छंद रचें है किन्तु यहाँ उनका वह छंद निदर्शन हेतु प्रस्तुत है जो साहित्य जगत में बहुत समादृत हुआ है I इस सवैया के अनुसार अभीरों अर्थात ग्वाल-बालों की फागुनी भीड़ में नायिका बाल-कृष्ण को घर के भीतर ले जाती है और वहां उनके ऊपर अबीर की झोली उलट कर अपने मन की कर लेती है यहाँ तक कि कृष्ण की कमर से उनका पीताम्बर तक खोल लेती है I फिर गालों में रोली मलकर और नैनों को नचाकर मुस्कराते हुए कहती है कि लला दोबारा फिर होली खेलने आना I <br/> <strong><em>फागु की भीर अभीरन में गहि</em></strong><strong><em>, <span>गोविंदै लै गई भीतर गोरी।</span></em></strong></p>
<p><strong><em>भाय करी मन की पदमाकर</em></strong><strong><em>, <span>ऊपर नाइ अबीर की झोरी॥</span></em></strong></p>
<p><strong><em>छीन पितंबर कम्मर तें</em></strong><strong><em>, <span>सु बिदा कै दई मीड़ि कपोलन रोरी।</span></em></strong></p>
<p><strong><em>नैन नचाइ</em></strong><strong><em>, <span>कह्यौ मुसक्याइ</span>, <span>लला! फिर आइयो खेलन होरी॥</span></em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong><span>रीतिमुक्त कवि घनानंद ने होली पर अनेक छंद रचे है I यहाँ जो छंद प्रस्तुत है उसमे कवि अपनी प्रेयसी सुजान से अपनी तुलना करते ही कहता है कि उस बेचारी के पास इतना पानी ही कहाँ है, वह तो होली के दिनों में भी महज पिचकारी लिए रहती है, जबकि मेरे पास आंसुओं की नदी है अर्थात पानी का कोई अभाव नहीं है I सुजान अपने शरीर में पीलापन लाने के लिए केसर और हल्दी लगाती है लेकिन उसमें वह पीलापन कहाँ रचता है, जैसा उसके बिछोह में कवि के शरीर पर रक्त की कमी से रचा जाता है I होली की चांचर का चोप अर्थात उत्साह तो अवसर या समय ही छुडा देता है लेकिन कवि के हृदय में चिता की जो चहल-पहल या धमाल है वह शरीर में पगी हुई है और वह समय निरपेक्ष है I सुजान रूपी आनंद मेघ की वर्षा के बिना कवि के शरीर की तपन नहीं बुझेगी और विरह वेदनी होली के सदृश्य उसके हृदय को सदैव जलाती रहेगी </span></p>
<p><strong><em>कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है।</em></strong></p>
<p><strong><em>कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>जैसी पियराई गात पगिए रहति है॥</em></strong></p>
<p><strong><em>चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति</em></strong><strong><em>, <span>पै-</span></em></strong></p>
<p><strong><em>चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है।</em></strong></p>
<p><strong><em>तपनि बुझे बिन आनँदघन जान बिन</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है॥</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>उक्त निदर्शनों से यह स्पष्ट होता है कि होली का आलम्बन कवियों ने केवल मांसल सौन्दर्य दर्शाने के लिए ही नहीं किया अपितु मानव मन की गहन अनुभूति को होली के उपादानों के माध्यम से चित्रित करने की कोशिश की है I यद्यपि रीतिकाल के पद्माकर जैसे कवियों ने पाठक के मन में मादकता का संचार करने के लिए होली चित्रण के ब्याज से नारी के शरीरांगो और चेष्टाओं का उत्तेजक वर्णन भी किया है, पर उस स्वरुप को इस लेख में नही दर्शाया गया है, क्योंकि -‘<strong><em>कीरति भनिति भूति भलि सोई I सुरसरि सम सबकर हित होई II </em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong></p>
<p><strong> (मौलिक/अप्रकाशित )</strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong> </strong></p> बदलते रहे है हिंदी कविता में संयोग शृंगार के प्रतिमान /// डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2019-02-06:5170231:Topic:9731082019-02-06T14:06:58.218Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>काव्य-शास्त्र के अनुसार वियोग शृंगार के चार प्रकार हैं –पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण I इसकी दस दशायें होती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भरतमुनि ने जो 33 संचारी या व्यभिचारी भाव बताये हैं वे सब वियोग की दशा में आ जाते हैं I हिंदी काव्य तो वियोग के विदग्ध वर्णन से ही समृद्ध हुआ है I विरहाकुल राम को कौन भूल सकता है I शकुन्तला और सीता के वियोगजनित कष्ट किसे याद नहीं हैं I ‘सुजान’ के लिए अहर्निशि रोते ‘घनानंद’ को सबने पढ़ा है I जायसी का ‘नागमती विरह वर्णन‘ हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि…</p>
<p>काव्य-शास्त्र के अनुसार वियोग शृंगार के चार प्रकार हैं –पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण I इसकी दस दशायें होती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भरतमुनि ने जो 33 संचारी या व्यभिचारी भाव बताये हैं वे सब वियोग की दशा में आ जाते हैं I हिंदी काव्य तो वियोग के विदग्ध वर्णन से ही समृद्ध हुआ है I विरहाकुल राम को कौन भूल सकता है I शकुन्तला और सीता के वियोगजनित कष्ट किसे याद नहीं हैं I ‘सुजान’ के लिए अहर्निशि रोते ‘घनानंद’ को सबने पढ़ा है I जायसी का ‘नागमती विरह वर्णन‘ हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है I मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ का सारा श्रेय उर्मिला के विरह-वर्णन को जाता है I हिंदी काव्य में विरह वर्णन कभी भदेश अथवा अश्लील नहीं हुआ I </p>
<p>काव्य में संयोग शृंगार की स्थिति कुछ भिन्न है I चूंकि इसमें रति और अभिसार का वर्णन अभीष्ट होता है अत: यहाँ पर सावधानी न बरतने से शब्द-चित्रों के भदेश हो जाने की संभावना रहती है I इस दृष्टि से तुलसएक अनुकरणीय कवि हैं I इन्होंने अपनी काव्य रचना में मर्यादा का बहुत ध्यान रखा I कालिदास की भांति वे शिव-पार्वती के संयोग शृंगार का वर्णन नहीं करते I उनका कहना है कि –</p>
<p><em>जगत मातु पितु संभु भवानी I तेहि शृंगार न कहउं बखानी II</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><strong><em> </em></strong> तुलसी ने राम और सीता के सदर्भ में भी संयोग शृंगार का कहीं चटक वर्णन नहीं किया I सीता का सौन्दर्य वे बताते भी है तो कितने शब्द गौरव से और कितनी अलंकारिता से I ऐसे मर्यादित वर्णन से किसी भी सुकवि को ईर्ष्या हो सकती है -</p>
<p><em>सुन्दरता कंहु सुन्दर करई I छवि गृह दीप-शिखा जनु बरई II</em></p>
<p><strong><em> </em></strong>ऐसा प्रतीत होता है कि तुलसी ने कालिदास विषयक किंवदंती से सबक लिया है I ऐसा कहा जाता है कि कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ के आठवें अध्याय में भगवान शिव और माता पार्वती के संयोग का बड़ा ही स्थूल और घोर शृंगारिक वर्णन किया जिससे माता नाराज हो गयीं और उन्होंने कालिदास को शाप दिया I इस शाप के कारण एक ओर कालिदास कुष्ठ रोगी हो गए और दूसरी ओर इसके आगे फिर वह काव्य रचना नहीं कर सके I</p>
<p> हिंदी के आदिकाल में सिद्ध, नाथ और जैन संप्रदाय के ग्रंथ शृंगार से दूर ही रहे i बाद में चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का आलंबन लेकर शृंगार को काव्यों में स्थान दिया I इस काल में रासो काव्य की एक बड़ी समृद्ध परम्परा रही है I ‘खुमानरासो’, ‘बीसलदेवरासो’ और ‘पृथ्वीराजरासो’ इस परम्परा के मुख्य काव्य हैं i इनमें संयोग शृंगार का मादक वर्णन हुआ है, पर वह अश्लील नहीं है I ‘पृथ्वीराजरासो’ इस परपरा का गौरव-ग्रंथ है I इसमें राजा पद्मसेन की पुत्री पद्मावती की वय:संधि अवस्था का वर्णन इस प्रकार हुआ है -</p>
<p><em>मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।</em><em> </em><em><br/></em> <em>बाल वैस</em><em>,</em> <em>ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥</em><em> </em><em><br/></em> <em>बिगसि कमल-स्रिग</em><em>,</em> <em>भ्रमर</em><em>,</em> <em>बेनु</em><em>,</em> <em>खंजन</em><em>,</em> <em>म्रिग लुट्टिय।</em><em> </em><em><br/></em> <em>हीर</em><em>,</em> <em>कीर</em><em>,</em> <em>अरु बिंब मोति</em><em>,</em> <em>नष सिष अहिघुट्टिय॥</em><em> </em></p>
<p>[पद्मावती मानो चंद्रमा की कला के समान है और चूंकि उसकी आयु सोलह वर्ष की है अर्थात वय:संधि की अवस्था है I अतः चन्दमा की सोलहों कलायें उसमे प्रस्फुटित हैं I विशेष बात यह है कि स्वयं चंद्रमा पद्मावती के रूप-रस से अमृत-पान कर रहा है I नायिका ने अपने सौन्दर्य से कमल-माल, भ्रमर, वंशी, खंजन पक्षी और हिरन को लूट लिया है I उसके नख-शिख सौन्दर्य ने हीरक, तोता, बिम्ब फल, मोती और सर्प को मन ही मन घुटने हेतु बाध्य कर दिया है I ]</p>
<p>एक अन्य वर्णन इस प्रकार है –</p>
<p><em>कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।</em><em> </em><em><br/></em> <em>कमल-गंध</em><em>,</em> <em>वय-संध</em><em>,</em> <em>हंसगति चलत मंद मंद॥</em><em> </em><em><br/></em> <em>सेत वस्त्र सोहे सरीर</em><em>,</em> <em>नष स्वाति बूँद जस।</em><em> </em><em><br/></em> <em>भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥</em><em> </em></p>
<p>[पद्मावती के केश सुन्दर और कुंचित हैं, उनमें फूल रचे हैं I वह पिकबयनी है I उसके शरीर से कमल की वास आती है I वयःसंधि की अवस्था है I वह हंस की भाँति मंद-मंद गति से चलती है I शरीर पर श्वेत वस्त्र शोभित हैं I उसके नाखून स्वाति बूंद से उत्पन्न मोती के समान हैं I मकरंद सरीखा वास और रस होने के कारण भ्रमर अपना स्वभाव भूल उसे ही पुष्प समझ कर उसके मुख-मंडल के चारों ओर मंडराया करते हैं I ]</p>
<p> उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि चारण कवियों में शृंगार का स्वरुप सामान्यतः शिष्ट रहा है I किंतु इसी काल में मैथिल-कोकिल विद्यापति ने संस्कृत कवि जयदेव के ‘गीत गोविन्द‘ का आलंबन लेकर राधा-कृष्ण के शृंगार को अपना विषय बनाया और उनकी केलि के बहाने कविता में घोर शृंगार की सृष्टि की I यद्यपि कुछ लोगों ने इस शृंगार को देवार्पित मानकर उसे आध्यात्मिक रूप देने की चेष्टा की है कितु आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ऐसे लोगों को आड़े हाथों लेते हुए अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है - </p>
<p><em>आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं I उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आधात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी I‘</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> जाहिर है कि राधा-कृष्ण का आलंबन लेने पर भी आचार्य शुक्ल शृंगार के अमर्यादित वर्णन को लेकर न तो जयदेव को बख्श्ते है और न विद्यापति को I सच भी है शृंगार की नग्नता को देवी देवताओं का आलंबन लेकर स्वीकार्य नहीं बनाया जा सकता I शायद इसीलिये माता पार्वती ने कालिदास को नहीं बख्शा I विद्यापति के उन्मुक्त शृंगार-वर्णन के कुछ निदर्शन इस प्रकार है –</p>
<p><em>[1] हिल बदरि कुच पुन नवरंग। दिन-दिन बाढ़ए पिड़ए अनंग।</em><em><br/></em> <em> से पुन भए गेल बीजकपोर। अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।</em><em><br/></em> <em> माधव पेखल रमनि संधान। घाटहि भेटलि करइत असनान।</em><em><br/></em> <em> तनसुक सुबसन हिरदय लाग। जे पए देखब तिन्हकर भाग।</em><em><br/></em> <em> उर हिल्लोलित चांचर केस। चामर झांपल कनक महेस।</em></p>
<p>[नायिका के कुच पहले बेर बराबर हुए, फिर नारंगी जैसे । वे दिन-दिन बढ़ने लगे । कामदेव अंग- अंग को पीड़ा पहुँचाने लगा। स्तन बढ़ते-बढ़ते अमरूद जैसे दिखने लगे । यौवन और ज़ोर मारा तो बेल जैसे लगने लगे । कृष्ण अवसर की टोह में थे । उन्होंने सुन्दरी को ढूँढ़ निकाला । वह घाट पर नहा रही थी । भीगा हुआ महीन वस्त्र वक्ष से चिपका हुआ था । ऐसी भूमिका में जो भी इस तरुणी को देखता, उसके भाग्य जग जाते । लम्बे, गीले, काले बाल इधर-उधर छाती के इर्द-गिर्द लहरा रहे थे। सोने के दोनों शिवलिंगों (स्तनों) को चँवर ने ढँक लिया था।</p>
<p> </p>
<p><em>[2 ]</em><em>जखन लेल हरि कंचुअ अचोडि</em><em><br/></em> <em> कत परि जुगुति कयलि अंग मोहि।।</em><em><br/></em> <em> तखनुक कहिनी कहल न जाय।</em><em><br/></em> <em> लाजे सुमुखि धनि रसलि लजाय।।</em><em><br/></em> <em> कर न मिझाय दूर दीप।</em><em><br/></em> <em> लाजे न मरय नारि कठजीव।।</em></p>
<p><em> </em> <em>अंकम कठिन सहय के पार।</em><em><br/></em> <em> कोमल हृदय उखडि गेल हार।।</em></p>
<p>[भगवान कृष्ण ने कंचुकी निकाल कर बाहर कर दी, तब मैंने अपने शरीर की लाज बचाने के लिए क्या-क्या यत्न नहीं किये । उस समय की बात का क्या जिक्र करूं, मैं तो लाज से सिकुड़ गई अर्थात् लाज से लकड़ी के समान कठोर हो गई । जलता दीपक कुछ दूरी पर था, जिसे मैं हाथ से बुझा नहीं सकी । नारी लकड़ी के समान होती है, वह लाज से कदापि मर नहीं सकती । कठोर आलिंगन को कौन बर्दाश्त करे, इसलिए कोमल हृदय पर हार का दाग पड़ गया।]</p>
<p> [<em>3]</em> <em>रति-सुबिसारद तुहु राख मान। बाढ़लें जौबन तोहि देब-दान ।</em><em><br/></em> <em>आबे से अलप रस न पुरब आस। थोर सलिल तुअ न जाब पियास ।</em><em><br/></em> <em>अलप अलप रति एह चाह नीति। प्रतिपद चांद-कला सम रीति ।</em><em><br/></em> <em>थोर पयोधर न पुरब पानि। नहि देह नख-रेख रस जानि ।</em></p>
<p>[हे श्याम, तुम कामकेलि-विशारद हो । मेरा मान रख लो। जवानी जब पूरे निखार पर आएगी तो उसे मैं अपने आप तुम पर निछावर करूँगी । अभी तो इस कच्ची तरुणाई से तुम्हारी आस पूरी नहीं होगी । थोड़े जल से प्यास भला किस तरह बुझेगी ? चन्द्रकला थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ती है, काम-कला भी उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके पूर्णता प्राप्त करती है। अभी तो मेरे कुच भी छोटे हैं, तुम्हारे हाथों में भरपूर नहीं आएँगे । देखना कहीं, रस के धोखे में इन पर अपने नाखून न जमा देना ।]</p>
<p> भक्तिकाल के कवियों में में सूर, जायसी और रसखान और मीरा के काव्य में भी अधिक तो नहीं पर संयोग शृंगार के एकाधिक वर्णन मिलते हैं., जिन पर भक्ति भावना का आवरण भी है I इस काल का संयोग शृंगार अपवाद छोड़कर प्रायश: मर्यादित ही रहा है I हिंदी काव्य में मादकता या मांसलता का प्रवेश सही मायने में रीतिकाल में हुआ I इस युग के अधिकांश कवि राजाश्रयी थे और उन्होंने अपने आश्रयदाताओं की विलासिता में चटक रंग भरने अथवा उनकी काम-भावना को तृप्त करने के लिए संयोग शृंगार को अपना अस्त्र बनाया I विद्यापति के काव्य इन कवियों के मार्गदर्शक ग्रंथ बन गये और उन्हीं की तर्ज पर रीतिकालीन कवियों ने शृंगारिक काव्य रचना हेतु राधा-कृष्ण को आलंबन बनाया I नायिका के नख-शिख वर्णन की सीमा इस काल में रही अवश्य पर वह उद्दीपक काम-वर्णनों की बाढ़ में पीछे छूट गयी और काव्य में केलि-क्रीडा तथा रतिक संदर्भों का प्राचुर्य हो गया I उदाहरण स्वरुप कवि पद्माकर कृत घनाक्षरी यहाँ प्रस्तुत है –</p>
<p><em>अँचल के ऎँचे चल करती दॄगँचल को</em> <em>,</em><em><br/></em> <em>चंचला ते चँचल चलै न भजि द्वारे को ।</em><em><br/></em> <em>कहै पदमाकर परै सी चौँक चुम्बन मे</em><em>,</em><em><br/></em> <em>छलनि छपावै कुच कुभँनि किनारे को ।</em><em><br/></em> <em>छाती के छुवै पै परै राती सी रिसाय</em> <em>,</em><em><br/></em> <em>गलबाहीँ किये करै नाहीँ नाहीँ पै उचारे को ।</em><em><br/></em> <em>ही करति सीतल तमासे तुंग ती करति</em> <em>,</em></p>
<p><em>सी करति रति मे बसी करति प्यारे को ।</em></p>
<p> </p>
<p>कवि देव की नायिका के यौवन का रंग इस प्रकार है –</p>
<p><em>जोबन के रँग भरी ईँगुर से अँगनि पै</em> <em>,</em><em><br/></em> <em>ऎँड़िन लौँ आँगी छाजै छबिन की भीर की ।</em><em><br/></em> <em>उचके उचौ हैँ कुच झपे झलकत झीनी</em> <em>,</em><em><br/></em> <em>झिलमिल ओढ़नी किनारीदार चीर की</em><em> </em></p>
<p><em> </em>नायिका के शरीरांगो के उद्दीपक वर्णन तो फिर गनीमत है, इस काल के कवियों ने</p>
<p>‘रति’, सुरति यहाँ तक कि ’विपरीत रति’ पर कलम चलाने से बाज नहीं आये I कवि बिहारी का निम्नांकित दोहा इस सत्य का प्रमाण है –</p>
<p><em>पर्यौ जोरु बिपरीत-रति रुपी सुरति रनधीर।</em><em><br/></em> <em>करत कुलाहलु किंकिनी गह्यौ मौनु मंजीर॥</em></p>
<p>[विपरीत रति पूरे वेग से जारी है । धीरा नायिका समागम-युद्ध में डटी है। अत: कमर की किंकिणी तो बज रही है, पर पाँवों के नूपुर मौन हैं अर्थात विपरीत-रति में नायिका की कटि क्रियाशील है और पैर स्थिर हैं ।]</p>
<p> हिदी साहित्य के पूर्व आधुनिक काल में भारतेंदू युग तक रीतिकाल का थोड़ा बहुत प्रभाव रहा I किंतु इसके बाद आचार्य द्विवेदी युग से छायावाद तक शृंगार का स्वरुप साहित्य में बहुत सुष्ठु रहा है I अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध , मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत , जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा आदि ने शृंगार को सर्वथा नये आयाम दिए i उर्मिला का विरह, महादेवी की पीड़ा और प्रसाद के ’आंसू‘ को कौन भूल सकता है I प्रसाद संयोग का वर्णन करते भी है तो कितने अलंकारिक तरीके से-</p>
<p><em>परिरम्भ कुंभ की मदिरा , निश्वास मलय के झोंके I</em></p>
<p><em>मुख चंद्र चांदनी जल से मैं उठता था मुंह धोके II</em></p>
<p><em> </em>रामधारी सिह ‘दिनकर’ की ‘उर्वशी’ तो पूर्ण रूप से शृंगारिक काव्य ही है I काव्य का विषय कुछ ऐसा था कि वीर रस के यशस्वी कवि को शृंगार पर कलम चलानी पड़ी I इस काव्य में संयोग के अनेक विमुग्धकारी चित्र हैं I किंतु ‘दिनकर’ के शृंगार में उत्तेजना नहीं एक अनोखा मार्दव और मादकता है i एक चित्र देखिये –</p>
<p><em>तू मनुज नहीं</em><em>,</em> <em>देवता</em><em>,</em> <em>कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले</em><em>,<span><br/></span></em> <em>फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले.</em><em><br/></em> <em>मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ</em><em>,<span><br/></span></em> <em>छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ.</em><em><br/></em> <em>आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत</em><em> !</em> <em>अंत:सर में मज्जित करके</em><em>,<span><br/></span></em> <em>हर लूंगी मन की तपन चान्दनी</em><em>,</em> <em>फूलों से सज्जित करके.</em><em><br/></em> <em>रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी</em><em>,<span><br/></span></em> <em>फूलों की छन्ह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी</em></p>
<p>[उर्वशी पुरुरुवा से कहती है कि तू मेरे लिए मनुष्य नहीं देवता है I तू अपनी आभा से मुझे मंत्र- मुग्ध कर ले I फिर तू मनुष्य के अपने वास्तविक स्वरूप में आकर मुझे उठा ले और अपने प्रगाढ़ आलिंगन में भर ले I मैं तुम्हारी भुजाओं रूपी डॉ विशालकाय वृक्षों के बीच नन्ही लतिका की तरह सो जाऊं I यही नहीं मैं तुन्हारे वक्षस्थल रूपी पर्वत पर उन्माद की छोटी तरंग की भाँति टूटकर बिखर जाऊं i ऐ मेरे प्यासे और थके प्रिय, मैं तुझे अपने हृदय-सरोवर में नहलाकर तुम्हारे मन की ज्वाला को चांदनी और फूलों से सजाकर, स्वयं रस की मेघमाला बनकर तुम्हे चारों ओर से घेर लूंगी और तुम पर छा जाऊंगी i इसके बाद फूलों की छाया के नीचे मैं तुम्हे अपना अधरामृत पिलाऊंगी I’ </p>
<p> </p>
<p> आधुनिक काल में जब हीरानंद सच्चिदानन्द ‘अज्ञेय’ ने प्रयोगवाद का झंडा बुलंद किया तब हिंदी कविता में काफी बदलाव आया I नग्न यथार्थ और यौन कुंठा के नाम पर कविता में फिर से शृंगार की रंगीनियाँ उभर कर सामने आने लगीं और यह कहा जाने लगा कि गन्दगी उपादान में नहीं देखने वालों की नजर में है I डॉ. शशि शर्मा अपनी पुस्तक समकालीन हिंदी कविता (अज्ञेय और मुक्तिबोध के सदर्भ में) के पृष्ठ 63 में कहते है -</p>
<p><em>‘अज्ञेय के अनुसार – ‘अधूरा देखना ही अनैतिकता है I अश्लीलता तथा अनैतिकता दृष्टि में होती है I शर्म भी आँखों में होती है और उधड़ापन भी वहीं होता है I’ यह पाठक के स्तर पर निर्भर करता है I अपरिपक्व मस्तिष्क के लिए नैतिकता भी अनैतिकता हो सकती है ‘ </em></p>
<p> अज्ञेय की एक कविता है –</p>
<p><em>कोषवत सिमटी रहे यह चाहती नारी I</em></p>
<p><em>खोलने का लूटने का पुरुष अधिकारी II</em></p>
<p> अज्ञेय के समय में ही अकविता, नयी कविता और नकेनवाद आया I इसी समय फ़्रांस के एक कला-आन्दोलन से, जो स्वतंत्रता और प्रेम पर बल देता थ तथा व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों के चित्रण को महत्वपूर्ण मानता था, उससे हिंदी कवियों में यह नयी सोच विकसित हई कि सभ्यता, संस्कृति, धर्म, न्याय, नैतिकता ये सब व्यक्ति के वास्तविक स्वरुप पर पर्दा डालते हैं I ये सभी सामाजिकता और नैतिकता की दुहाई देकर व्यक्ति की चिंतन गति को अपनी ओर मोड़ लेते हैं I इस सोच के फलस्वरूप कविता में अतियथार्थवाद (Surrealism) आया I यहीं से कविता में यौन संबंधों को नग्न रूप में दिखाने की पहल हुयी और शृंगार में रूमानियत का दौर खत्म हो गया I अब उसका स्थान कामुकता (Erotica) ने ले लिया I शृंगारिक कविता ह्रदय का मंथन करने वाली न होकर काम-भावना को अधिकाधिक उद्दीप्त करने वाली (Sensuous) हो गयी I डॉ. राम छबीला त्रिपाठी कृत ‘हिंदी और भारतीय भाषा का तुलनात्मक अध्ययन’ के पृष्ठ 242 -243 के अनुसार -</p>
<p><em>‘आज के युग में सेक्स के मानदंड बड़े तेजी से बदल रहे हैं , कामुकता अपने नग्न रूप में आ रही है ----यही स्थिति अकविता की है जहाँ मांस का दरिया बहता है और उघरी जांघे और मटकते कूल्हे हैं i इस कविता में अब तक के मूल्य मर्यादा की अस्वीकृति है ---वास्तव में हिंदी की अकविता ---ने जोर देकर स्थापित किया है कि यौन भावना के प्रति पवित्रता का दृष्टिकोण न होकर भोगने जीने का होना चाहिए I’</em></p>
<p> इस लिहाज से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं- </p>
<p> <em>[1] </em><em>कितने बौने हैं वे सब</em><em><br/></em> <em> मेरे माँस में कुछ इंच धँस कर</em><em><br/></em> <em> उनका सब कुछ पिघल जाता है</em><em><br/></em> <span><em> मोम की तरह तब न होते हैं वे - केशव </em></span> <em>(-</em><em>kavitakosh.org/kk_/_</em><em>केशव)</em></p>
<p><em>[2]</em> <em>होटो मे प्यास</em><em>,</em> <em>आँखों मे इजाजत है</em></p>
<p><em> जिव्हा मे मदिरा</em><em>,</em> <em>तन मे हरारत है</em></p>
<p><em> बदन मे तनाव</em><em>,</em> <em>यौवन मे कसावट है</em></p>
<p><em> उरोजो मे उठान</em><em>,</em> <em>योनि मे तरावट है</em></p>
<p><em> -</em><em>kvitaye.blogspot.com/</em><em>2009/08/</em><em>blog-post_</em><em>1157.</em><em>html</em></p>
<p><em>[3]</em> <em>यह मेरे जीवन की</em><em><br/></em> <em> सबसे अश्लील और</em> <em>‘</em><em>अंतिम</em><em>’</em> <em>कविता है</em><em><br/></em> <em> जब मैं अपने स्थूल भगोष्ठों पर</em><em><br/></em> <em> तुम्हारी चेतना के सूक्ष्म स्पर्श को</em><em><br/></em> <em> अनुभव करते हुए</em><em><br/></em> <em> ब्रह्माण्डीय प्रेम के</em><em><br/></em> <em> चरम बिन्दु को छू रही हूँ ---शेफाली नायक</em></p>
<p><em> -</em> <em><a href="https://groundreportindia.org">https://groundreportindia.org</a> › Home ›</em> <em>आपके आलेख</em></p>
<p> साहित्य में शृंगार केवल स्त्री और पुरुष का संयोग या वियोग का उन्मुक्त चित्र मात्र नहीं है I शृंगार साहित्य में एक रस होता है और रस वह नहीं होता जो मनुष्य में काम की भावना को जागृत करे I काव्य-शास्त्र में "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" कहा गया है और रस का शाब्दिक अर्थ होता है – आनन्द । काव्य को पढ़ते या सुनते समय जो आनन्द मिलता है उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा माना जाता है । पहले भी कवियों ने शृंगार के मादक और उद्दीपक वर्णन किये है I कितु वे वर्णन ह्रदय को मथते और गुदगुदाते है I वर्तमान हिंदी कविता में आधुनिकता और अतियथार्थवादी अभी नग्नता की किस सीमा तक जायेगी, यह तो आने वाला समय ही तय करेगा I मगर साहित्य को सत्य, भिव और सुन्दर होना चाहिए, यह आज भी अधिकांश लोग मानते हैं I </p>
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<p><strong> (मौलिक/अप्रकाशित )</strong></p>
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<p> </p> लेखन में आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे-एक परिचर्चा /// प्रस्तुति – डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2019-01-21:5170231:Topic:9703652019-01-21T15:40:19.816Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p> भारतीय संस्कृति में विनम्रता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है I अपनी तारीफ सुनकर आज भी विनम्र लोग शील सँकोच से सिकुड़ जाते हैं I पर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से अब इसे अच्छा नही माना जाता I आज आप तभी स्मार्ट है जब ‘आई डिज़र्व इट’ या ‘आई एम् डूइंग वेल’ कहना आपको आ जाता है I आधुनिकीकरण की इस दौड़ में स्मार्ट होना आवश्यक है I परन्तु इससे आत्ममुग्धता लोगों पर हावी हो रही है i मनोविज्ञान में इसे एक बीमारी अर्थात नार्सीसस पर्सनेलिटी डिसऑर्डर कहा गया है I इसी विचार से दिनांक 13 दिसम्बर, दिन रविवार को…</p>
<p> भारतीय संस्कृति में विनम्रता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है I अपनी तारीफ सुनकर आज भी विनम्र लोग शील सँकोच से सिकुड़ जाते हैं I पर पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से अब इसे अच्छा नही माना जाता I आज आप तभी स्मार्ट है जब ‘आई डिज़र्व इट’ या ‘आई एम् डूइंग वेल’ कहना आपको आ जाता है I आधुनिकीकरण की इस दौड़ में स्मार्ट होना आवश्यक है I परन्तु इससे आत्ममुग्धता लोगों पर हावी हो रही है i मनोविज्ञान में इसे एक बीमारी अर्थात नार्सीसस पर्सनेलिटी डिसऑर्डर कहा गया है I इसी विचार से दिनांक 13 दिसम्बर, दिन रविवार को ओ.बी.ओ लखनऊ-चैप्टर की ‘साहित्य संध्या‘ वर्ष 2019 में प्रतिभागियों को परिचर्चा का विषय दिया गया – “ लेखन में आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति और उसके खतरे ‘ I</p>
<p>प्रदत्त विषय पर सभी प्रतिभागियों ने जोशोखरोश से भाग लिया I अधिकांश लोगों के विचार थे कि आत्ममुग्धता में कोई बुराई नहीं है यदि वह एक सीमा में हो I प्रतिभागी विद्वानों के विचार निम्नवत प्रस्तुत किये जा रहे हैं -</p>
<p><strong>डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव</strong> का कहना था कि गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में लिखा है –निज कवित्त केहि लाग न नीका Iसरस होइ अथवा अति फीका I अर्थात अपनी कविता चाहे जैसी हो सबको अच्छी लगती है I इसे गलत भी नहीं समझना चाहिए I यह स्वाभविक बात है I पर अच्छा लगने, आत्मतुष्ट होने और आत्ममुग्ध होने में फर्क है I आत्ममुग्धता की स्थिति तब आती है जब आप आत्मविश्लेषण को नकारते हुए स्वयं को शीर्षस्थ समझने लगते हैं I तब आप चाहते है कि आप ही को लोग पढ़े और सराहें I आपकी ही चर्चा करें और आप पर ही लेख लिखें I आत्म मुग्ध कवि या लेखक, किसी स्तरीय रचना को पढ़ना नहीं चाहते I उनकी नजर में वही स्तरीय व पठनीय हैं, जो वे लिखते हैं I आत्ममुग्धता नवबढियो में ही नहीं है, बड़े-बड़े स्थापित लेखक भी इसके शिकार है I तुलसी तो बहुत बड़े कवि थे I परन्तु उनकी विनम्रता देखिये I वह अपने बारे में कहते है – कवि न होउं नहि चतुर प्रबीनू Iसकल कला सब विद्या हीनू I I ‘ वे रामचरित मानस किसी पर थोपते नहीं Iअपितु कहते हैं कि यह तो मैंने स्वान्त:सुखाय लिखी है –</p>
<p>स्वान्तःसुखायतुलसीरघुनाथगाथा-</p>
<p>भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥</p>
<p>इतना ही नहीं मानस के उत्तरकाण्ड के अंत में वह यह भी कहते हैं कि यह तो ‘अन्तसतमःशान्तये’ लिखी गयी है –</p>
<p>मत्वातद्रघुनाथमनिरतंस्वान्तस्तमःशान्तये</p>
<p>भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥</p>
<p>आज शायद ही कोई कवि हो जो ऐसी विनम्रता रखता हो I वास्तविकता यह है कि स्तरीय रचनाये पढने पर ही अपनी औकात का पता चलता है I आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि केवल विद्वान् ही जानते है कि वे कितना कम जानते हैं I जिस दिन यह सत्य हम जान जायेंगे हम अपना आत्मविश्लेषण कर सकेंगे और आत्ममुग्धता की स्थिति से शायद बच सकेंगे I </p>
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<p><strong>रघोत्तम शुक्ल</strong> के अनुसार आत्ममुग्धता अहंकार की छोटी बहन है I शास्त्रों में कहा गया है कि -भूमि- रापो$नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टतः I इससे स्पष्ट है कि अहंकार होता तो सभी में है I अब साधना संयम और अभ्यास के द्वारा कम करने के लिए कहा गया है तकि कम हो जाए, डायलूट (D ILUTE) हो जाए I इसके लिए विद्वानों ने और महर्षियों ने तमाम उपाय किये हैं I अब जैसे वाल्मीकि रामायण है I वाल्मीकि रामायण ‘तप’ शब्द से प्रारम्भ हुई है- ॐ तप: स्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदाम् वरम् नार्दन प्रतिपच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् I पहली लाइन में ही दो बार ‘तप’ शब्द आया है I उसके द्वारा इसका निवारण होता है I अब रही यह भावना तो हम वेदों को तो छोड़ रहे हैं क्योंकि वेद अलौकिक हैं I वे अपौरुषेय हैं और उससे मतलब नहीं है I लेकिन बाद के ग्रंथों में बड़ों ने, हम लोग तो बहुत साधारण हैं, किन्तु बड़ों ने--- अब देखिये महाभारत को तो पंचम वेद की मान्यता प्राप्त है I महाभारत को जब व्यास जी ने रचने को सोचा तो उनके अन्दर भी एक आत्ममुग्धता ही कहिये क्योंकि उनके लिए अहंकार शब्द तो ठीक नहीं रहेगा I उन्होंने सोचा कि हम तो बहुत तेज बोलेंगे I हमारी तो ऋतंभरा प्रज्ञा है I वे गणेश जी को स्टेनो बनाने के लिये उनके पास गए कि भाई हमने यह सोचा है I हम बहुत तेज बोलेंगे और मनुष्य कोई लिख नहीं पायेगा I अब गणेश जी को भी यह लगा कि अच्छा काम करने को कह रहे है तो हम मना तो कर नहीं सकते पर एक मनुष्य मुझे डिक्टेशन दे ----तो उन्होंने कहा द्रुतिर्गति मम लेखनम् अर्थात बहुत तेज लिखते हैं और अगर लेखनी रुक गयी तो आपका यह काम भी रुक जायेगा I अब वह बहुत बुरा फंसे तो उन्होंने कहा ऐसा है कि आप विचार कर, आप देव हैं और हम क्षुद्र मानव हैं तो विचार कर लिखिएगा अर्थात अर्थ समझ कर लिखियेगा I तो महाभारत में कई जगह पर कूट श्लोक आये हैं जो देखने में लगता है कि यह तो हो ही नहीं सकता लेकिन उनका अर्थ कुछ और है I जब यह भावना महाभारत काल में आ गयी तो परवर्ती जो लेखक हुए हैं उन्होंने भी यह दिखाया है I अभी हम बात कर रहे थे ‘गीत गोविन्द’ की, वह जयदेव जी का लिखा हुआ है और वह रचना—अब आप देखिये यहाँ थोड़ा सा ऐसा होता है कि आत्ममुग्ध होने वालों की रचना कालजयी भी हुयी हैं और आत्ममुग्धता एक नकारात्मक चीज भी है तो उन्होंने चौथे ही श्लोक में ‘गीत गोविन्द’ में जयदेव ने अपने समकालीन और पहले जो इस तरह की विधा में लिखते थे, उनका पोस्ट मार्टम कर दिया है I उन्होंने लिखा, कवियों के नाम लिखे और कहा कि ये हैं, इनमें फलां फलां चीज तो है लेकिन फलां चीज नहीं है I इनमें ऐसा नहीं है, इनमें ऐसा नहीं है I ये सब आप जयदेव वाले में पायेंगे I ये लिखा उन्होंने I लेकिन ‘गीत गोविन्द’ कालजयी रचना हुयी I पर आत्ममुग्ध बहुत थे वे I आचार्य केशव को लीजिये I उनके बारे में लिखा गया है या उन्होंने स्वयं लिखा है कि -</p>
<p>भाषा बोल न जानहीं, जिनके कुल के दास।</p>
<p>तिन भाषा कविता करी, जडमति केशव दास।।</p>
<p>(जिन के कुल के दास भी भाषा बोलना नहीं जानते थे अर्थात केवल संस्कृत जानते थे उस कुल में जन्म लेकर भी केशव ने भाषा में कविता लिखी तो वे तो जडबुद्धि ही हुए ) </p>
<p>मतलब इतनी ज्यादा उनके अन्दर ईगो थी , फिर भी महाकवि हुए I</p>
<p>संध्या सिंह- ‘तो आपका यह कहना है I आत्ममुग्धता से –जो कविता है उसकी गुणवत्ता पर फर्क नहीं पड़ता I’</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल - दोनों बातें हैं----नहीं हम समन्वय की बात करेंगे I अभी तो हम यह दिखा रहे हैं कि बड़े लोगों में भी आत्ममुग्धता रही है और उनकी रचनायें भी कालजयी हुयी है I ये जिनको हम गिना रहे हैं ये सब महाकवि थे और ये आत्ममुग्ध थे I सेनापति कवि हुए हैं I सेनापति को यह था कि हमारी रचनाओं में बड़े अलंकार हैं, सब हैं तो उन्होंने –तो जब उनका बुढ़ापा आ गया होगा तो उन्होने कहा कि– ‘संख्या कर लीजे अलंकार अधिक हैं यामे I‘ वे कवित्तों के राजा को अपनी कविता की थाती सौंप रहे हैं तो उन्होंने कहा भई देख लेना इसमें जेवर बहुत हैं I अलंकार हैं बहुत यामें I तो ये बड़े-बड़े जितने लोग हुए हैं I अनूप शर्मा जी अभी थोड़े ही दिन पहले हुए हैं I बहुत अच्छे छंदकार थे I ‘शर्वाणी’ उनका ग्रन्थ है I उन्होंने, देवी जी से प्रार्थना की I उन्होंने कहा कि -कवि सार्वभौम पदवी का मुझे वर दे I’ वगैरह-वगैरह तो इनकी रचनाएँ कालजयी भी हुयी हैं और ऐसा भी हुआ है कि कोई –कोई ग्रन्थ अभिशप्त हो गये I एक अमृतसागर हुए हैं I बहुत बड़े वैद्य थे I उन्होंने आयुर्वेद का ग्रन्थ लिखा I अमृतसागर उस ग्रंथ का भी नाम है I कहते हैं कि उनकी पत्नी बीमार थीं और जैसा कि स्त्रियाँ कहने लगती हैं तुम हमरे लिए कुछ नाही करत हौ I तुम सबका इलाज करत हो और मेरी तबियत ख़राब है तो हमारे लिए कुछ नाहीं करत हौ Iतो उन्होंने कहा अच्छा रुको I तो भोजन की थाली आने वाली थी, उसे रोक दिया, अपने कक्ष में चले गए और वह अमृत सागर ग्रन्थ रात भर में लिखा गया, आयुर्वेद का I उन्होंने कहा अब भोजन देव हमने तुम्हारे लिए अकेले क्या सारे संसार के लिए----नुस्खा लिख दिया I तो ऐसा वैद्य लोग बताते हैं कि वह ग्रन्थ अभिशप्त हो गया और ----बड़े सीनियर वैद्यों के यहाँ हमारा पालन पोषण हुआ तो वो लोग अमृतसागर के नुस्खों से दवा नहीं करते Iतो वह अभिशप्त हो गया I तो दोनो प्रकार के उदाहरण आते हैं I हम तो इस नतीजे पर पहुँच ते हैं कि कवि का अपना एक स्वाभिमान तो होता है और स्वाभिमान वह इतना न हो और अहंकार तक न जाए तो स्वाभिमान मेन्टेन करना पड़ता है ---तो दोनों में समन्वय हो और तुलसीदास जी का जो उदाहरण डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने दिया कि –‘ कवि न होउं नहि चतुर प्रबीनू Iसकल कला सब विद्या हीनू I I ‘ और वह कि आकाश में गरुण भी उड़ते हैं और माखी भी उडती है, तो उन्होंने मक्खी से अपनी उपमा दी – ‘माछी उड़ै अकास’ तो हम इतनी विनम्रता के पक्ष में नहीं हैं कवि के लिए I दोनों का समन्वय करते हुए कवि या लेखक अपने विचार अपने निजत्व के साथ समाज में फेंके I उससे समष्टि का कल्याण होगा हमारी समझ से I</p>
<p> </p>
<p><strong>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी</strong> के अनुसार लेखक में आत्ममुग्धता न हो तो रचना स्तरीय नहीं हो सकती । हाँ यह अवश्य है कि लेखन संतुलित होना चाहिए, आत्ममुग्धता अहंकार न बन बैठे । साथ ही मैं समझता हूँ कि यदि लेखन में अहंकार आ जाए तो उसे सहज ही भुलाया जा सकता है । ऐसे में साहित्य को कोई 'ख़तरा' नहीं है । यदि ऐसी तथाकथित रचना को लेकर हम अनावश्यक बहस करते हैं तो साहित्य के लिए वह ख़तरनाक हो सकता है और जाने-अनजाने हम उसके लेखक के अहंकार को इंधन देते हैं। ऐसा करना सर्वथा अनुचित ही है।</p>
<p> </p>
<p><strong>मनोज शुक्ल</strong> <strong>‘</strong><strong>मनुज</strong>‘, का कहना था कि सीधी बात है कि यदि आप अपने को खुद को मान्यता नहीं देंगे तो दूसरे लोग क्यों आईडेंटीफाई करेंगे ? दूसरी बात कि यदि आप खराब लिखते हैं तब भी आप उसको सराहेंगे और अगर आप अचछा लिखते हैं I अच्छा का मतलब जिन रचनाकारों ने अच्छा लिखा I हर रचनाकार समय के आगे चलता है I समय के आगे उसकी सोच होती है तो उसके समकालीन लोग उसको नहीं समझते जैसे तुलसीदास जी की रामायण जाने कितनी बार फाड़ कर फेंकी गयी I उनकी आलोचना हुयी तो उनके समकालीन लोग तो उनको मान्यता देते नहीं है I अगर वो अपने को मान्यता नहीं देंगे तो समकालीन लोग तो उनकी उपेक्षा करेंगे ही क्योंकि वे समय के आगे लिखते हैं I समय के आगे वे नहीं पहुँच सकते I मान्यता उनकी सौ साल बाद होती है I एक उदाहरण नहीं है I प्रेमचंद हैं I अपने समय में बेचारे क्या उनकी हालत रही पैसों के मामले में I बाद में उनके बच्चों ने करोड़ों रायल्टी पायी I उनके पोतों ने पायी Iअगर वे अपनी रचना को मान्यता न दे पाते अगर सोच अच्छी न होती तो आदमी छोड़ कर भाग जायेगा I अगर सारा समाज आपकी आलोचना कर रहा है और आपको भी लगे कि हमारा काम गलत है तो आप करेंगे क्यों ? फ़िराक ने लिखा कि – ‘आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हमनस्लों Iजब उनको मालूम भी होगा तुमने फ़िराक को देखा था II‘‘ तो फिराक जैसे आदमी ने – तो फिराक खारिज थोड़े हो गए I आत्ममुग्धता का मतलब कि आप जो रचना का --- तो फिर पढने और न पढने का मतलब ही कहाँ है ? आप जब लिखेंगे – मौलिकता अगर आपकी सोच में नहीं है तो लिखना ही बेकार है मौलिकता है, रचना में तो मौलिकता चाहिए I मौलिकता ही --- अब एक उदाहरण जैसे बहुत सारे लोग----काबिलियत की बात है तो बहुत सारे वियोगी – निराला जी रहे , उनके समकालीन बच्चन जी तो --- निराला जी ने लिखा I उनके समकालीन तो बहुत अच्छे कवि रहे हैं जो उनसे भी अच्छे रचनाकार रहे हैं लेकिन वो इतने ज्यादा पापुलर नहीं हो पाए, लोकप्रिय नहीं हो पाए और बच्चन ऐसी रचना पर लोकप्रिय हो गए जो अनूदित रचना है I भावानुवाद है I जो उनका ‘मधुशाला‘ है वह उमर खैय्याम की रुबाईयों का हिन्दी रूपान्तरण है, उसका ट्रांसलेशन है I </p>
<p>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी – नहीं - नहीं I</p>
<p>मनुज – आप किताब खोलकर देख लीजिये --- चार लोगों ने किया है – मैथिलीशरण गुप्त ने किया ,उन्होंने किया और आजकल हिन्दी की जो सबसे अच्छी—</p>
<p>डॉ. शरदिंदु –रुबाइयां, उमर खैय्याम की किताब ही अलग है I</p>
<p>मनुज- नहीं नहीं किताब , भावानुवाद, मैंने कहा I किताब तो अलग है ही I वह हिन्दी में है I</p>
<p>गोपाल नारायण स्रीवास्तव -अनुवाद नहीं है, पर उमरखैयाम से प्रभावित जरूर है I</p>
<p>मनुज- नहीं , प्रभावित नहीं बाकायदा ट्रांसलेशन है I आजकल ने छापा है I अगर आजकल को आप मान्यता नहीं देते I वह भारत सरकार के सूचना विभाग की मैगजीन है I दिल्ली से निकलती है I सबका अनुवाद अगल-बगल में दिया है और वे छः-छ; लाइनों की रुबाईयाँ नहीं हैं तो और कौन सी विधा है हिन्दी की ? अगर रुबाईयाँ नहीं हैं तो हिन्दी की किसी विधा में तो लिखा होगा ? </p>
<p>डॉ. शरदिंदु – न न , मैं विधा की बात नहीं कर रहा हूँ I</p>
<p>मनुज- हिन्दी का कोई कवि लिखेगा तो विधा में ही तो लिखेगा I आप हिदी पर कोई किताब लिखेंगे तो किस विधा में लिखेंगे ? भई, हिदी के जितने छंद है सब संस्कृत के है मूलतः या उर्दू की बहरे भी हैं I</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल- नहीं, संस्कृत में तो देखिये तुक नहीं है I मीटर तो है लेकिन माप नहीं है I</p>
<p>मनुज- माप की बात कर रहे है तो माप तो वही है जो संस्कृत का हिन्दी में है I मतलब संस्कृत से लिया गया है और उर्दू की बहरे भी वही हैं I जब हमारे यहाँ हिदी का छंद ---</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल- अनुष्टुप छंद कहाँ है, मंदाक्रांता छंद कहाँ है? इन्हें अयोध्यासिंह उपाध्याय’हरिऔध‘ ने इंट्रोड्यूस किया है I अयोध्यासिंह उपाध्याय वे पहले कवि हुए हैं कि संस्कृत वाले वृत्तों में, वे वृत्त उन्होंने हिन्दी में उतारे हैं I यह वंशस्थ यह मंदाक्रांता I ‘विमुग्धकारी मधुमास मंजुता, वसुंधरा --- ‘</p>
<p>मनुज- ‘हे प्रभो आनंद दाता’ की बह्र पर जाने कितनी गजलें लिखी गयीं हैं I गजल में भी बहुत सारी छंद की बहरे हैं I हिदी-उर्दू ने एडॉप्ट संस्कृत के ही छंद किये हैं I</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल – ‘चौपाई कहाँ है उसमे ?’</p>
<p>मनुज – किसमें, नहीं नाम से थोड़े है I बहरों के अरकान दूसरे हैं I हिन्दी के यगण, मगण, जगण अलग हैं I सारे के सारे जरूरी थोड़े हैं I सौ छंद हैं तो सौ के सौ थोड़े ही ट्रान्सफर हुए I सौ में से पचास हुए I</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल -संस्कृत के वृत्त अलग थे I हिदी के अलग I लेकिन बताया न कि हरिऔध जी के पॉइंट हैं I हरिऔध जी ने अपने ‘प्रिय प्रवास’ की रचना उन्ही वृत्तों में की I उस समय तक यह मान्यता थी कि संस्कृत वाले वृत्त यदि हिन्दी में उतारे जांएगे तो उनमे कर्कशता आयेगी और उनमे माधुर्य नहीं आ पायेगा I इस मिथक को हरिऔध जी ने तोड़ा है और उसमे माघुर्य भी है और कहीं-कहीं तो यह होता है कि दो लाइने अगर इंडिपेंडेंट कहीं जांय तो आप कहेंगे यह हिन्दी नहीं यह श्लोक है - </p>
<p>रूपोद्यानप्रफुल्ल-प्राय-कलिकाराकेन्दु-विम्बनना।</p>
<p>तन्वंगीकल-हासिनीसुरसिकाक्रीड़ा-कलापुत्तली।</p>
<p>इसमें है और था कहीं आया ही नहीं तो श्लोक ही तो हुआ लेकिन यह हिन्दी है I यह राधा जी के सौदर्य का वर्णन है जो हरिऔध जी ने ‘प्रिय प्रवास’ में लिखा है I आगे की दो लाइने हैं- </p>
<p>शोभा-वारिधिकी,अमूल्य-मणिसी,लावण्य,लीलामयी।</p>
<p>श्रीराधा-मृदुभाषिणी मृगदृगी-माधुर्य की मुर्ति थीं॥</p>
<p>संध्या सिंह – यह तो श्लोक जैसा लग रहा है ?</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल- बिलकुल श्लोक जैसा है I</p>
<p>मनुज- हमारा मतलब वो नहीं है I मापनी जो उसका मीटर लिया I किसी ने लिया, तमाम सारे छंद हिन्दी के, संस्कृत के छंद से लिए गए हैं और उर्दू ने भी वही बहरें उतारी I आत्ममुग्धता जो विषय है उस पर आता हूँ I आत्ममुग्धता बुरी चीज कतई नहीं है I लेकिन जैसा कि आपने कहा, अहंकार I</p>
<p>तो अहंकार और आत्ममुग्धता में फर्क है I</p>
<p> </p>
<p><strong>दयानंद पाण्डेय</strong> ने कहा कि आत्ममुग्धता किसी मानव का जन्मजात या अन्तर्जात गुण है, उसको डिनाई नहीं कर सकते I यह तो बेसिक चीज है और जो आपने कहा और आपने भी कहा कि इसको एप्रोप्रियेट लेवल पर लाना होगा I समन्वय की बात कहो या एप्रोप्रियेटनेस की बात I कहो तो आत्ममुग्धता एक सीमा तक ही स्वीकार्य है I</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल- मेरे ख्याल से स्वाभिमान शब्द इसके लिए बिलकुल ठीक रहेगा I</p>
<p>संध्या सिंह – और स्वाभिमान से ऊपर आ गए तो अभिमान आ गया I</p>
<p>रघोत्तम शुक्ल- हाँ और अहंकार बहुत निगेटिव है I आत्ममुग्धता उसकी छोटी बह्न है और अगर इसमें स्वाभिमान की बात रख दी जाए तो इसमें नकारात्मकता नहीं है और उतना होना भी चाहिए I दयानंद पाण्डेय– दोनों को बीच में करना पड़ेगा I यह अंतर्जात गुण है, इसको आप रोक नहीं सकते I</p>
<p>मनुज- स्वाभिमान तो व्यक्तिगत गुणों की बात हो गयी I रचनाधर्मिता की बात हो रही है I व्यक्तिगत--- और तो बहुत सारे गुण आदमी में हैं, उनकी बात ही नहीं हो रही है I</p>
<p>संध्या सिंह – अभी आपने कहा रचनाधर्मिता अर्थात सृजन पर जो खतरे हैं I</p>
<p>गोपाल नारायण श्रीवास्तव- आत्ममुग्धता की बढ़ती प्रवृत्ति यानि कि जो अहंकार की ओर जा रही है I आत्ममुग्धता बढ़ेगी तभी तो अहंकार बढ़ेगा I आत्ममुग्धता की बढती प्रवृत्ति और उसके खतरे I</p>
<p>दयानंद पाण्डेय– आपके लेख में था न कि फेस-बुक या उसमें वो एक निगेटिव आस्पेक्ट है और पाजिटिव आस्पेक्ट भी है उसमें I आपके जो करीबी हैं, उन्होने एप्रीशियेट कर दिया I कुछ लोगों ने जो आपके करीबी नहीं हैं उन्होंने अपोज कर दिया I जो तटस्थ रूप से उसमे कुछ नहीं करते------- </p>
<p>मनुज- वह अलग विषय ही है I वह इतर विषय है कि हम आप पर टिप्पणी कर रहे हैं I वह जो प्रवृत्ति चल रही है, वह आत्ममुग्धता की विषयवस्तु से कवर ही नहीं हो रही है I वह तो अलग विषय ही है I</p>
<p>शरदिंदु मुकर्जी – वह तो डील हो गयी I</p>
<p>दयानन्द पाण्डेय- रचना में जो अराजकता आयी है I अराजकता भी आत्ममुग्धता का ही एक रूप है I देखिये अपना बच्चा हमेशा अच्छा लगता है I चाहे जैसा हो लूला हो, लंगडा हो, काला हो I बच्चा अपना सबको अच्छा लगता है I वैसे ही अपनी रचना सबको अच्छी लगती है I आपको मेरी रचना चाहे जैसी लगे I मुझे तो बहुत प्यारी लगती है I यह तो मानव स्वभाव है I इसमें कोई दो राय नहीं I कुछ होता है कि हम बैठे हैं, हमने कविता पढ़ दी I आपको नहीं भी अच्छी लगी फिर भी आपने वाह-वाह कह दिया, ताली बजा दी I क्योंकि यह डेकोरम होता है I देखिये शमशेर लिखते है – ‘बात बोलेगी हम नहीं I भेद खोलेगी बात ही II ‘ कोई रचना हो अपने आप बोलती है I कुछ कहना नहीं पड़ता है I तो यह जो आत्ममुग्धता है यह बुरी नहीं है, लेकिन जब सिर पर चढ़ कर बोलती है तो डिसेंट्री जैसी हो जाती है I आपको सोचना चाहिए कि आपकी रचना आपको तो अच्छी लग रही है पर क्या वह दूसरों को भी अचछा लग रहां है ?</p>
<p>संध्या सिंह– कुल मिलाकर सबका यही निष्कर्ष निकल रहा है, जो आप कह रहे हैं I</p>
<p>दयानन्द पाण्डेय- लेकिन आत्ममुग्धता एक बीमारी है वह कोई क्वालिटी नहीं है I किसी की भी I चाहे वह हमारी हो या किसी की I शुक्ल जी जानते है, ज्योतिषी हैं I बहुत से ज्योतिषी इसी में बर्बाद हो गए कि हम बहुत बढ़िया ज्योतिष बताते हैं I तो आत्ममुग्धता वहीं नष्ट हो जाती है जब आपका काम नहीं बोलता I काम भी बोले और आप अपनी फोटो भी लगा दे I रचनाये भी लगा दें I कोई बात नहीं I</p>
<p> </p>
<p><strong>कवयित्री ज्योत्सना सिंह</strong> ने कहा कि मुझे तो लगता है कि आत्ममुग्धता और अहम के बीच एक पतली सी रेखा है और जब वह रेखा पार हो जाती है तो घमंड आ जाता है और इस तरह, वैसे तो आत्ममुग्धता अच्छी बात है क्योंकि जो ह्म अच्छा सोचेंगे तभी हम अच्छा लिख पायेंगे I</p>
<p> </p>
<p><strong>सुश्री निवेदिता श्रीवास्तव</strong> ने कहा कि आत्मसंतुष्टि तो बड़ी अच्छी चीज है I हम जो लिख रहे हैं , उससे संतुष्ट हो रहे है तो ठीक है लेकिन जब हम आत्ममुग्ध हो जाते हैं अपने लिखे पर, तो वहीं गड़बड़ हो जाती है और हमारा लेखन उससे प्रभावित होने लगता है I किसी ने बताया कि हाँ आपने यहाँ पर शायद जो है ये वाला अलंकार ऐसे नहीं ऐसे होना चाहिए था, इस तरह से लिखना चाहिए था I आप उस पर कहते हैं कि नहीं हम तो एकदम ---------तो वहाँ पर जो भी हमारा भविष्य होता है चौपट हो जाता है I मुझे लगताहै कि थोड़ी-थोड़ी संतुष्टि होनी चाहिए फिर बड़ों की राय लेकर आगे बढना चाहिए I</p>
<p><strong>कवयित्री सध्या सिंह</strong> का कहना है कि मुझे तो बस इतना लगता है कि जब हम खुद के जज होते हैं , तो हम अपने जज बने रहे और हमको पता रहे कि हमने ख़राब लिखा है , तब—वहाँ तक तो ठीक है लेकिन जब आत्ममुग्धता इतनी हावी हो जाए कि रचना को पब्लिक करने या पब्लिश करने से पहले अगर हम एक बार उसका आकलन न कर पांए आत्ममुग्धता के चलते, वह खतरनाक है I तो जो बात आपने कही बीच का पथ मतलब वहाँ तक बना रहे कि आत्मविश्वास के पैरों पर खड़े भी रहे और अपना आकलन कर अपने को खारिज भी कर सकें I वहाँ तक मुझे लग रहा था कि आत्ममुग्धता उस सीमा तक ही जरूरी है कि हम उस स्थिति से बचे रहे कि अपने को खारिज ही न कर पांए I एक पंक्ति सुना रही हूँ – ‘एक मछली फिर टँगी है, आँख को फिर भेदना है I देख ले दर्पण नयन भर तू स्वयं की प्रेरणा है I I’ तो यहाँ सिर्फ मैं यह कहना चाह रही हूँ कि अपने दर्पण में खुद को देखकर उसको प्रेरणा मिल रही है लेकिन अगर वह अपने को दर्पण में देखकर यह सोच ले कि मैं तो भेद ही दूंगा I यहाँ आत्ममुग्धता आ जाती है I उसको प्रेरणा लेनी है और ओवर कॉन्फिडेंस में नहीं पड़ना है यानी आपको दर्पण में देखकर प्रेरणा भी लेनी है और मुग्ध नहीं होना है I </p>
<p> </p>
<p><strong>डॉ. अशोक शर्मा</strong> का कहना है कि आत्ममुग्ध लेखन में कोइ बुराई नहीं है , क्योंकि हम इसमें किसी को नुकसान पहुँचाने नहीं जा रहे हैं I हम जब आत्ममुग्ध होते है तभी आत्मविश्वास आता है I</p>
<p>संध्या सिंह – आप तो तब थे नहीं, अभी आये हैं पर सबसे बड़ी बात है कि आपने वह बात कही जो हो चुकी हैं और जिस पर सहमति है सबकी I</p>
<p>अशोक शर्मा- आत्ममुग्ध नहीं होंगे जबतक अपने को बेकार ही समझते रहेंगे तो रचना पैदा कैसे होगी ? रचना पैदा होने के लिए यह होना चाहिए कि मैं लिख लेता हूँ I अगर यही भाव नहीं होगा तो कैसे बढ़ेगी गाडी ? किसी और व्यवहार में आप लाइफ में आत्ममुग्ध हों तो उससे लोगों को चोट पहुँचती है I हम अपने लेखन में आत्ममुग्ध है तो इसमें किसी का क्या जाता है ?</p>
<p> </p>
<p><strong>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय</strong> के अनुसार मौलिक रचना साहित्य क्षेत्र की हर विधा में, कविता, कहानी अथवा निबंध किसी भी रूप में कवि या लेखक का महत्वपूर्ण अवदान है I सृजनकर्ता अपने चेतन अनुभव को समीक्षा के साथ एक मुकम्मल आकृति प्रदान करता है I लेखक समाज की परिपाटी को स्वीकारते हुए अपने वक्तव्य के आधार से उत्तरदायित्व निभाता है I उसकी अभिव्यक्ति जब तक उसके मानस को स्पर्श नहीं करती तब तक एक छटपटाहट या अकुलाहट उसे निरंतर असंतुष्ट बनाए रखती है I संतोष का यह सोपान वह कभी-कभी अनायास ही चढ़ जाता है I रचना आत्ममुग्धता के स्टार को तभी छू पाती है जब उसके भावनाएं सृष्टि के अनेक गलियारों से होती हुयी अपनी पहचान के साथ प्रस्फुटित हो जाती हैं I</p>
<p>मनोवैज्ञानिक आत्मुग्धता या स्व-प्रेम ( narcissism ) संप्रत्यय को सामान्य मानव प्रकृति का हिस्सा मानते हैं I हर आदमी अपने को आईने में देखकर संवारने के लिए प्रयत्नशील होता है I पुरुष ढूँढने की कोशिश करता है कि कौन सी OUTFIT में वह अधिक जँच रहा है या स्त्री किस रंग में अधिक खिल रही है I अंतर्क्रिया के सभी आयाम आत्मसंतोष से कभी-कभी स्वतः ही आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं I आत्ममुग्धता के कुछ खतरे इस प्रकार हैं I जैसे- आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति मनुष्य में एक अवांछनीय महत्वाकांक्षा को जन्म देती है I मानव अपने लिए हमेशा प्रशंसा की चाह रखता है तथा दूसरों की भावनाओं के प्रति उदासीन होता है I आत्ममुग्ध व्यक्ति को अपनी उपलब्धि तथा क्षमताओं का उच्च आकलन करने की तथा दूसरों के अवदान को निम्नतर करने की आदत पड़ जाती है I ऐसे व्यक्तियों में आत्मश्लाघा बहुत होती है और वे आलोचना स्वीकार करने की क्षमता खो बैठते हैं I </p>
<p>लेखन के क्षेत्र में यह प्रवृत्ति हमारे दृष्टिकोण के झरोखों को संकीर्ण बना देती है I रचना एक लक्ष्य के साथ अग्रसारित होती है और लेखक एक मुद्दे को टटोलते हैं I उसकी उपादेयता, विश्वसनीयता जितनी बनी रहती है, सफलता भी उतनी मिलती है – विचारों में गतिशीलता और लचक इसकी एक शर्त है I अतः आत्मसंतोष और स्वस्थ आलोचना के साथ लचीलेपन में एक संतुलन की आवश्यकता है</p>
<p> </p>
<p>(मौलिक/अप्रकाशित)</p> मुल्ला दाउद के ‘चंदायन’ से मुतासिर रहे है जायसी -डॉ, गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2018-12-21:5170231:Topic:9663222018-12-21T14:13:56.510Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>‘पद्मावत’ मूवी के आने पर आज का आत्ममुग्ध भारतीय यह जान सका कि मलिक मुहम्मद ‘जायसी’ नाम का भी कोई कवि भी था, जिसने अवधी लोक-भाषा में ‘पद्मावत’ जैसा महाकाव्य लिखा I साहित्य के नव अनुरागी भी जायसी को इस वजह से जानते है कि उनका काव्यांश पाठ्यक्रम में है I जायसी अकेले ही नहीं थे, जिन्होंने प्रेमाख्यानक काव्य लिखा I इस परम्परा का सूत्रपात तो डलमऊ, रायबरेली के सूफी संत मुल्ला दाउद ने अपनी कृति ‘चंदायन’ से किया था , जिसमे लोक विख्यात चनैनी कथा का आलम्बन लेकर लोरिक और चंदा की प्रेम कथा का निरूपण किया…</p>
<p>‘पद्मावत’ मूवी के आने पर आज का आत्ममुग्ध भारतीय यह जान सका कि मलिक मुहम्मद ‘जायसी’ नाम का भी कोई कवि भी था, जिसने अवधी लोक-भाषा में ‘पद्मावत’ जैसा महाकाव्य लिखा I साहित्य के नव अनुरागी भी जायसी को इस वजह से जानते है कि उनका काव्यांश पाठ्यक्रम में है I जायसी अकेले ही नहीं थे, जिन्होंने प्रेमाख्यानक काव्य लिखा I इस परम्परा का सूत्रपात तो डलमऊ, रायबरेली के सूफी संत मुल्ला दाउद ने अपनी कृति ‘चंदायन’ से किया था , जिसमे लोक विख्यात चनैनी कथा का आलम्बन लेकर लोरिक और चंदा की प्रेम कथा का निरूपण किया गया था I इसके बाद इस परम्परा में कुतुबन ने ‘मृगावती’, मंझन ने ‘मधुमालती’, उस्मान ने ‘चित्रावली’. शेख नबी ने ‘ज्ञान-दीप‘, नूर मुहम्मद ने ‘इन्द्रावती‘, कासिमशाह ने ‘हस-जवाहिर’ और जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना की i जायसी को छोड़कर आज का विद्यार्थी सभवतःप्रेम की अलख जगाने वाले इन बड़े कवियों और उनकी रचनाओं के बारे मे नहीं जानता या बहुत कम जानता है I वह जो कुछ जानता है महज पाठ्यक्रम की बाध्यता के कारण जानता है I जायसी को भी पढ़ा-लिखा तबका जो थोड़ा बहुत जानता है है, उसका भी मूल कारण यही है I </p>
<p>प्रेमाख्यान रचने वाले इन सभी कवियों में जायसी बड़े कवि यूँ ही नहीं हैं I ‘पद्मावत’ के अतिरिक्त उनकी छह अन्य कृतियाँ वर्तमान में उपलब्ध है I अवध प्रदेश में आज जो मसले प्रचलन में है, उनकी बानगी इस प्रकार है – ‘आजइ बनिया काल्है सेठ, छूट बैल भुसैले ठाढ़, मांगे बनिया गुर नहीं देय, खावा भात उड़ावा पात, बगुला मारे पखना हाथ, आधे माघे काँबर काँधे. पांचे मीत पचासे ठाकुर, धान क खेत पयारहिं आना I’ यह मसलें हमे तुलसी जैसे महान कवि की रचनाओं से नहीं मिलीं I ये हमें जायसी के मसलानामा से प्राप्त हुये हैं I अवध प्रदेश में आज भी लोग इन मसलों का प्रयोग अपनी बातचीत में करते हैं I इससे सिद्ध होता है कि लोक का यह चहेता कवि अवध की माटी से कितना जुड़ा हुआ है और जन-मानस में उसकी पैठ कितनी गहरी है I जायसी ने सूफी सिद्धांतों और योगिक क्रियाओं को अन्योक्ति अथवा समासोक्ति द्वारा अपनी कथा में जिस तरह अनुस्यूत किया वह इस परम्परा का कोई अन्य कवि नहीं कर सका I उनकी विरहानुभूति कमाल की थी I आज भी हिदी साहित्य में वह बेजोड़ है I इस सबके बावजूद यह कहना असंगत नहीं होगा कि मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’ ही सभी परवर्ती प्रेमाख्यानक काव्यों का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहा है I परन्तु जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना करने में चंदायन काव्य से जो प्रेरणा ली है केवल उसी की चर्चा करना इस लेख का मुख्य अभिप्रेत है I </p>
<p> ‘चंदायन’ काव्य के आरम्भ में सिरजनहार अर्थात अल्लाह या ईश्वर की वन्दना करते हुए उसकी रचना-कर्म का एक लम्बा ब्योरा दिया गया है जैसे –</p>
<p><em>पहिले गायउं सिरजनहारा I जिन सिरजा यह देस बयारा II</em></p>
<p><em>सिरजसि धरती और अकासू i I सिरजसि मेरु मन्दर कविलासू II</em></p>
<p><em>सिरजसि चाँद सुरुज उजियारा I सिरजसि सरग नखत का भारा II</em></p>
<p><em>सिरजसि छाँह सीउ औ धूपा I सिरजसि किरतन और सरूपा II</em></p>
<p><em>सिरजसि मेघ पवन अंधियारा I सिरजसि बीजू कराइ चमकारा II (चंदायन, 1 / 1-5)</em></p>
<p> </p>
<p> ईश-वदना की इसी तर्ज को जायसी ने ‘पद्मावत’ में ज्यों का त्यों स्वीकार किया है , केवल ‘सिरजसि’ के स्थान पर ‘कीन्हेसि’ कर दिया है i यथा –</p>
<p><em>कीन्हेसि अगिनि</em><em>, <span>पवन</span>, <span>जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥</span></em><em><br/> कीन्हेसि धरती, <span>सरग</span>, <span>पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥</span><br/> कीन्हेसि दिन, <span>दिनअर</span>, <span>ससि</span>, <span>राती । कीन्हेसि नखत</span>, <span>तराइन-पाँती ॥</span><br/> कीन्हेसि धूप, <span>सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ</span>, <span>बीजु तेहिं माँहा ॥</span> <br/> कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥ (पद्मावत, स्तुत्ति खंड/1 )</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>जायसी ने मुल्ला दाउद की ही भाँति पैगम्बर, अपने गुरुओं और शाहेवक्त और स्थान का स्मरण किया है I यही नहीं उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है I दाउद के गुरु शेख जैनुद्दीन थे, जो चिश्ती वंश के संत हजरत नसीरुद्दीन महमूद अवधी ‘चिराग ए दिल्ली’ की बड़ी बहन के बेटे थे I</p>
<p><em>शेख जैनदी हौं पथिलावा । धर्म पंथ जिन्ह पाप गंवावा ॥</em> <em>(चंदायन, 9 /1)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>दाउद ने हिजरी सं० 781 में चंदायन की रचना प्रारम्भ की I उस समय शाहेवक्त दिल्ली के सुलतान फिरोजशाह तुगलक थे I कवि डलमऊ में निवास करता था I</p>
<p><em>बरिस सात सै होइ इक्यासी । तिहि जाह कवि सरसेउ भासी ॥</em></p>
<p><em>साह फिरोज दिल्ली सुल्तानू । जौनासाहि वजीरु बखानू ॥</em></p>
<p><em>डलमउ नगर बसहिं नवरंगा । ऊपर कोट तले बह गंगा ॥</em> <em>(चंदायन, 17 /1-3 )</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> ‘पद्मावत’ का समारंभ करते हुए जायसी ने भी इन्ही सब बातों का उल्लेख किया है I अंतर केवल इतना है कि जायसी ने जायस और मानिकपुर–कालपी शाखा के गुरुओं की पूरी परम्परा दे दी है, जिसके कारण आज तक उनके असली दीक्षा-गुरु अनेकानेक कयासों के मकडजाल में फंसे हुए हैं I</p>
<p><em>सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥</em><em><br/> लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥</em><em>(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/18)</em></p>
<p><em>सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥</em><em>(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/19)</em></p>
<p><em>गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥</em><em><br/> अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥</em><em>(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/20)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना हिजरी सं० 927 में प्रारम्भ की i उनके समय में शेरशाह सूरी दिल्ली के सुलतान थे I जायसी ने जायस नगर में रहकर उन्होंने अपना काव्य रचा I</p>
<p><em>सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥</em><em>(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/24)</em></p>
<p><em>सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥</em> <em>(</em><em>पद्मावत, स्तुत्ति खंड/13)</em></p>
<p><em>जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥</em><em>(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/23)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> मुल्ला दाउद ने मुहम्मद साहब के परवर्ती चार खलीफाओं का जिक्र भी ‘चंदायन’ में किया है I</p>
<p><em>अबाबकर, उमर, उस्मान, अली सिंह ये चारि I</em></p>
<p><em>जे निदतु कर विज विस , तुरहि झाले मारि</em> <em>॥</em> <em>(चंदायन, 7 /6-7)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>ये खलीफ ‘चार यार’ के नाम से जाने जाते है I चूंकि जायसी के अपने चार यार (बड़े शेख, मिया सलोने, सालार कादिम और युसूफ) अलग थे i अतः उन्होंने इन्हें मुहम्मद साहब के स्थान के ‘चार मीत’ कहा है –</p>
<p><em>चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥</em><em><br/></em> <em>अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥</em><em><br/></em> <em>पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥</em><em><br/></em> <em>पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥</em><em><br/></em> <em>चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥ </em> <em>(</em><em>पद्मावत, स्तुत्ति खंड/12)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> ‘पद्मावत’ में मानसरोवर और मन्दिर का जो वर्णन हुआ है, उसकी नीव मुल्ला दाउद ने पहले ही अपने काव्य में रख दी थी I</p>
<p><em>नारा पोखर कुंड खनाये I महिदेव जेंहि पास उठाये II</em> <em>(चंदायन, 20 /1)</em></p>
<p><em>सरवर एक सफरि भरि रहा I झरना सहस पांच तिंह पहां II</em> <em>(चंदायन, 21/1)</em></p>
<p> </p>
<p> जायसी ने ‘पद्मावत ‘ में सिघल द्वीप का वर्णनं ‘चंदायन’ के गोबर नामक राज्य के वर्णन के आधार पर किया है I यह अवश्य है कि दाउद ने अपनी बात संक्षेप में एक या दो कड़वक में की है जबकि जायसी ने योगिक सदर्भों की अन्योक्ति से उसे लम्बा और रहस्यमय बना दिया है I यह रहस्यवाद उनके काव्य की अन्यतम विशेषता है I यथा –</p>
<p><em>नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥</em><em><br/></em> <em>घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥</em><em><br/></em> <em>जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥</em><em><br/></em> <em>परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा</em><em> </em><em>?</em></p>
<p><em> </em> <em>(</em><em>पद्मावत, सिंघलदीप वर्णन खंड /18)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>प्रेमाश्रयी काव्यों में नायिका का सौन्दर्य देखकर नायक या प्रतिनायक का मूर्च्छित हो जाना या नायक के शारीरिक सौष्ठव को देखकर नायिका का संज्ञा खो बैठना एक आम बात है I पर यह अनुकरण परवर्ती प्रेमाक्यानों में ‘चंदायन’ की तर्ज पर ही हुआ है I ‘चंदायन ‘ में वज्रयानी योगी बाजिर नायिका ‘चाँद’ को देखकर बेहोश हो जाते हैं I इसी प्रकार चाँद भी नायक लोरिक को देखकर अपना होश खो बैठती है I</p>
<p><em>धरहुत जीउ न जानैं कितगा, कया भई बिनु सांस II (चंदायन, 66 /7 )</em></p>
<p><em>चाँदहिं लोरक निरखनि हारा I देखि विमोहि गयी बेकरारा II</em></p>
<p><em>नैनं झरहिं मुख गा कुंवलाई I अन्न न रुच नहीं पानि सुहाई II</em></p>
<p><em>सुरुज सनेह चाँद कुँभलानी I जाइ विरस्पत छिरका पानी II (चंदायन, 147 /1-3)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> ‘पद्मावत‘ में भी नायिका पद्मावती को देखकर नायक राजा रत्नसेन मूर्च्छित हो जाते हैं i प्रतिनायक अलाउद्दीन खिलजी तो दर्पण में उसकी झलक मात्र ही देखकर होश गवां बैठता है I</p>
<p><em>पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरझाई ॥</em></p>
<p><em>भा रवि अस्त</em><em>,</em> <em>तराई हसी । सूर न रहा</em><em>,</em> <em>चाँद परगसी ॥</em><em><br/></em> <em>जोगी आहि</em><em>,</em> <em>न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई ॥</em><em> </em></p>
<p><em> </em> <em>(</em><em>पद्मावत, पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड /14 )</em></p>
<p>बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥<br/> होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना ॥<br/> रुख माँगत रुख ता सहुँ भएऊ । भा शह-मात, खेल मिटि गएऊ ॥</p>
<p><em> </em> <em>(</em><em>पद्मावत,चित्तौरगढ़ वर्णन खंड /18)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>यहाँ शह-मात में श्लेष है I एक अर्थ शतरंज के खेल से संबंधित है I दूसरा शाह का मात खा जाना या मतवाला हो जाना या मूर्च्छित हो जाना I काव्य में यह योजना नायिका के सौन्दर्य की विराटता का परिचायक है I पर यह अवधारणा परवर्ती कवियों ने दाउद से उधार ली है i जायसी के काव्य में चूंकि नायिका में ब्रह्म का रूपकत्व है अत: ‘ वेणी छोरि बार जो झारा I सरग पतार भयो अंधियारा II‘ जैसे अत्युक्तिपूर्ण वर्णन जहाँ नायिका के अनिंद्य सौदर्य का बोध कराते है वही ब्रह्म की व्यापकता का भी रहस्य खोलते हैं I साथ ही यह भी सिद्ध करते हैं कि जायसी किस प्रकार बड़े कवि है I</p>
<p> </p>
<p>सभी प्रेमाख्यानक काव्यों में नायक-नायिका के जन्म पर ज्योतिषियों का आकर उनका भविष्य बताना शायद उस काल का एक सामाजिक रिवाज रहा होगा I आज भी हिन्दुओं में लोग बच्चे की पैदाईश पर पंडित बुलाते हैं और उनकी बनायी हई कुण्डली का उपयोग शादी-व्याह के मामले में करते है I किन्तु हर प्रेमाश्रयी कवि का काव्य नायक अनिवार्य रूप से जोगी का रूप धारण करे, यह महज इत्तेफाक नहीं है I ‘चंदायन’ में काव्य नायक लोरिक नायिका ‘चाँद’ को पाने के लिए जोगी का रूप धारण करता है I उसका वेश इस प्रकार है –</p>
<p><em>सुवन फटिक मुंदरा सरसेली I कंठ जाप रुदरा कै मेली II</em></p>
<p><em>चकर जगौटा गूँथी कंथा I पाय पावरी गोरख्पन्था II</em></p>
<p><em>मुख भभूत कर गही अधारी I छाला बैस क आसन पारी II</em></p>
<p><em>दंड अखर बैन कै पूरी I नेह चारचा गावइ झोरी II</em> <em>(चंदायन, 174 /1-4)</em></p>
<p> </p>
<p> ‘चंदायन’ के अनुकरण पर कुतुबन की ‘मृगावती’ का नायक चन्द्रकुंवर (चन्द्रगिरि के राजा गणपति देव का पुत्र ) मृगावती के लिये, मंझन की ‘मधुमालती’ का नायक मनोहर (कनेसर के राजा सूरजभान का पुत्र) मधुमालती के लिए, उस्मान की ‘चित्रावली’ का नायक सुजान (नेपाल के राजा धरनीधर पंवार का पुत्र ) चित्रावली के लिये , नूर मुहम्मद की ‘इन्द्रावती’ का नायक राजकुंवर (कालिंजर के राजा का पुत्र ) इन्द्रावती के लिए जोगी का बाना धारण करते हैं I मुल्ला दाउद की इस मौलिक अवधारणा का उपयोग लगभग सभी परवर्ती कवियों ने किया I जायसी के ‘पद्मावत’ में न केवल काव्य नायक राजा रत्नसिह जोगी का रूप धारण करते हैं, अपितु उनके साथ सोलह हजार कुंवर भी जोगी के वेश में पद्मिनी की खोजने निकल पड़ते हैं I</p>
<p><em>निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँडा नगर मैलि कै धूरी ॥</em><em><br/></em> <em>राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥</em><em><br/></em> <em>॥चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।</em><em><br/></em> <em>कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥ </em> <em>(</em><em>पद्मावत, जोगी खंड /9 )</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> काव्य में नायिका के नख-शिख वर्णन की परम्परा आर्षग्रंथों में पायी जाती है I इसी प्रकार संस्कृत के काव्यों में षट–ऋतु के बड़े ही मनोहारी चित्र मिलते हैं I यह परम्परा कालिदास के ‘मेघदूत’ में भी मिलती है I ‘ऋतु-संहार’ तो मुख्य रूप से ऋतु-वर्णन पर ही आधारित है I दंडी के ‘काव्यादर्श’ और भामह के ‘काव्यालंकार’ में भी षट–ऋतु वर्णन के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं I प्राकृत कविता-काल में यह परम्परा काफी समृद्ध रही है I इस ऋतु वर्णन के समानांतर बारह्मासे की परम्परा का विकास अपभ्रंश साहित्य ग्यारहवीं शती से प्रारम्भ हुआ I बारहमासा वस्तुतः कविता, प्रकृति एवं लोक जीवन की तरलतम अनुभूति का एक विशिष्ट रूप है I अतः ये वर्णन यदि प्रेमाख्यानक काव्यों में प्रचुरता से मिलते हैं तो इन्हें ‘चंदायन’ काव्य का अनुकरण नहीं कहा जा सकता I </p>
<p></p>
<p>प्रेमाख्यानक काव्यों में अनिवार्य रूप से यह कथा मिलती है कि नायिका के अप्रतिम सौन्दर्य से अभिभूत होकर नायक आकुल–व्याकुल बीमार हो जाता है या खाट पकड़ लेता है I उसकी स्थिति इतने खराब हो जाती है कि उसे देखने कविराज और नायक के अन्यान्य हितैषी आते है I उसका प्रेम रोग जग जाहिर हो जाता है I अनेक विधियों से उसका उपचार होता है I जैसे ही नायक के मन की दशा तनिक सँभलती है वह अपनी प्रिया की खोज में जोगी बनकर दुर्गम यात्रा पर निकल पड़ता है I उसे मार्ग में अनेकानेक संकट एवं बिघ्न का सामना करना पड़ता है I यहाँ तक की कई बार नायक की जान पर बन आती है I इन सब के बाद भी अंततः वह सभी बाधाओं को पार कर नायक नायिका को पाने में सफल होता है I प्रायः सभी कवियों ने मार्ग की दुर्गमता का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन किया है i इसका निर्देश भी उन्हें ‘चंदायन’ से ही प्राप्त हुआ है I लोरिक भादों की अंधियारी रात में कमंद लेकर ‘चाँद; के शयनकक्ष में जाने हेतु प्रयत्नशील है I कवि कहता है –</p>
<p><em>छठ भादों निसि भइ अंधियारी I नैन न सूझे बांह पसारी II</em></p>
<p><em>चला बीर बरहा गर लावा I जियकै परे दूसरहिं बुलावा II</em></p>
<p><em>खिन गरजे फिर दहइ बरीसा I खोर भरे जर बाट न दीसा II </em> <em>(चंदायन, 200 /1-3)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p>जायसी के ‘पद्मावत’ में तो राजा रत्नसेन की मार्ग बाधा का बड़ा ही अत्युक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है I वह क्षारसमुद्र, क्षीरसमुद्र, दधिसमुद्र, उदधिसमुद्र, सुरासमुद्र , किलकिला समुद्र की दुर्गम बाधाओं को पार कर सातवे मानसरोवर समुद्र में पहुंचता है जो उसके अभीष्ट स्थान सिंघलगढ़ के चारों ओर स्थित है I इतना ही नहीं पद्मावती का सन्देश पाकर जब रत्नसेन सिंघलगढ़ के किले में धंसता है, वह भी कम अगम नहीं है I </p>
<p><em>सो गढ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा</em><em>,</em> <em>कर न पहुँचा ॥</em><em><br/></em> <em>बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥</em><em><br/></em> <em>धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥</em><em><br/></em> <em>चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥</em><em><br/></em> <em>पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा</em><em> </em> <em>II</em> <em>(</em><em>पद्मावत, सिंघलदीप खंड /3)</em></p>
<p><em> </em> परमेश्वरीलाल गुप्त अपनी संपादित पुस्तक ‘चंदायन’ के पृष्ठ 66 पर कहते है कि –<em>‘चंदायन से सबसे अधिक प्रभावित पद्मावत है I पद्मावत की कथा का पूर्वार्ध, जिसे रामचन्द्र शुक्ल एवं कुछ विद्वान् ऐतिहासिक समझते रहे हैं, वस्तुतः चंदायन की कथा का ही पूर्वार्ध है I नामों को बदलकर जायसी ने उसे अविकल रूप से आत्मसात कर लिया है I‘ </em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>‘चंदायन’ में चाँद को झरोखे पर खड़ी देखकर बाजिर मूर्च्छित होता है और वह जाकर रूपचन्द्र से उसके रूप की प्रशंसा करता है I उसे सुनकर रूपचन्द्र गोबर (राज्य) पर आक्रमण करता है I ठीक यही कथा पद्मावत की भी है I इसमें बाजिर, चाँद और रूपचन्द्र के स्थान पर राघव-चेतन , पद्मावती और अलाउद्दीन का नाम दिया गया है I जिस ढंग से दाउद ने चाँद का रूप वर्णन किया है ठीक उसी ढंग से जायसी ने पद्मावती का किया है I ‘</em></p>
<p></p>
<p> ‘पद्मावत‘ में अलाउद्दीन खिलजी के सम्मान में रत्नसेन एक विशाल भोज का आयोजन करते हैं I इस भोज का विस्तृत वर्णन जायसी ने परिगणनात्मक शैली में किया है I जिन पक्षियों का मांस उस भोज में पकाया उनके नाम जायसी ने इस प्रकार दिए हैं -</p>
<p><em>तीतर</em><em>,</em> <em>बटई</em><em>,</em> <em>लवा न बाँचे । सारस</em><em>,</em> <em>कूज</em> <em>,</em> <em>पुछार जो नाचे ॥</em><em><br/></em> <em>धरे परेवा पंडुक हेरी । खेहा</em><em>,</em> <em>गुडरू और बगेरी ॥</em><em><br/></em> <em>हारिल</em><em>,</em> <em>चरग</em><em>,</em> <em>चाह बँदि परे । बन-कुक्कुट</em><em>,</em> <em>जल-कुक्कुट धरे ॥</em><em><br/></em> <em>चकई चकवा और पिदारे । नकटा</em><em>,</em> <em>लेदी</em><em>,</em> <em>सोन सलारे ॥</em> <em>(</em><em>पद्मावत, बादशाह भोज खंड /1)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> इस परिगणनात्मक शैली का अनुकरण जायसी ने शत प्रतिशत ‘चंदायन’ की तर्ज पर किया है I ‘पद्मावत’ में पक्षियों के नाम इस प्रकार गिनाये गए हैं I</p>
<p><em>बटेर , तीतर , लावा धरे I गुडरू, कंवां खाचियं भरे II</em></p>
<p><em>बहुल, बिगुरिया औ चिरयारा I उसर तलोवा औ भनजारा II</em></p>
<p><em>परवा , तेलकार , तलोरा I रेन टिटहरी धरे टटोरा II</em></p>
<p><em>बनकुकरा केरमोरो घने I कूज महोख जानी नहिं गिने II</em></p>
<p><em>धरे कोयरें अँकुसी बनॉ I पंखि बहुल नांव को गिना II (चंदायन, 154 /1-5)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p> पद्मावत‘ और ‘चंदायन‘ में उक्त प्रकार की अन्य अनेक समानताएं है I यहाँ तक कि कुछ काव्यांश तो हू-बहू एक जैसे है I यथा –</p>
<table>
<tbody><tr><td width="373"><p> पद्मावत</p>
</td>
<td width="236"><p> चन्दायन</p>
</td>
</tr>
<tr><td width="373"><p><em>चकई-चकवा केलि कराहींI(सिघल-दीप वर्णन,खंड /9)</em> <em>ओझा</em><em>,</em> <em>बैद</em><em>,</em> <em>सयान बोलाए (प्रेम खंड /2)</em></p>
<p><em>पदुमति धौराहर चढी</em><em> </em><em>(रत्नसेन-पद्मिनी विवाह खंड /4)</em></p>
<p><em>तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे (लक्ष्मी समुद्र खंड /13)</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em> </em></p>
</td>
<td width="236"><p><em>चकवा चकई केरि कराहैं (22/1)</em></p>
<p><em>पडित</em><em>,</em> <em>बैद</em><em>,</em> <em>सयान बोलाए (</em><em>164/3)</em></p>
<p><em>चाँद धौराहर ऊपर गयी</em> <em>(145/1)</em></p>
<p><em>तिलक दुवादस मस्तक काढा (420 /2)</em></p>
</td>
</tr>
</tbody>
</table>
<p>इस प्रकार की समानताएं यह सिद्ध करती है कि जायसी ने मुल्ला दाउद का प्रभाव ग्रहण कर ही अपने काव्य का ताना-बाना बुना है I यह बात और है कि उनका कवित्व, उनकी भाव विदग्धता उनका विस्तार और उनकी सी मार्मिक अनुभूति किसी अन्य प्रेमाख्यानक काव्य में नहीं है I हर लेखक अपने समकालीन और पूर्ववर्ती साहित्य से जुडा होता है I वह चाहे-अनचाहे उसका प्रभाव भी ग्रहण करता है जो उसकी रचनाओं में प्रतिफलित होता है I जायसी ने स्वयं अपने समकालीन काव्यों की चर्चा ‘पद्मावत’ में की है <em>बिक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गएउ पतारा ॥</em><em><br/></em> <em>मधूपाछ मुगुधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी ॥</em><em><br/></em> <em>राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावति कहँ जोगी भएऊ ॥</em><em><br/></em> <em>साध कुँवर खंडावत जोगू । मधु-मालति कर कीन्ह वियोगू ॥</em><em><br/></em> <em>प्रेमावति कहँ सुरपुर साधा । ऊषा लगि अनिरुध बर बाँधा</em><em> </em> <em>II</em></p>
<p><em> (पद्मावत, राजा गढ़-छेंका खंड / 17 )</em></p>
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<p> उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि जायसी ने अपने समय में प्रचलित पांच काव्यों का उल्लेख इन चौपाईयों में किया है – सपनावती, मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती I इनमे मृगावती और मधुमालती ही वर्तमान में उपलब्ध हैं i आश्चर्य यह है कि लोरिक और चंदा के प्रेमाख्यान ‘चंदायन‘ जो पद्मावत’ के भाँति अवध की माटी पर रचा गया और जिसका सर्वाधिक प्रभाव जायसी ने स्वयं ग्रहण कर अपने महाकाव्य की रचना की, उसका स्मरण तक उन्होंने नहीं किया I ‘चंदायन’ के उद्धारक और संपादक परमेश्वरीलाल गुप्त का स्पष्ट कथन है कि ‘चंदायन’ और ‘पद्मावत’ के कथा शिल्प में जो सादृश्य इतना स्पष्ट दिखता है वह ---‘ मात्र आकस्मिक, संस्कारजन्य अथवा किसी अविच्छिन्न विचार का परिणाम कहना, किसी के लिए कठिन ही नहीं असम्भव होगा I ‘</p>
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<p> अब तक उपलब्ध साहित्य के आधार पर मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’ प्रेमाख्यानक परम्परा का पहला काव्य है I कवि ने इस काव्य को अमिधा में लिखा है I इसमें वह भावप्रवणता नहीं है जो परवर्ती काव्यों में मिलती है I किन्तु यह काव्य उन सभी प्रेमाश्रयी काव्यों की नींव रहा है जो इसके बाद रचे गए I उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी ने ‘चंदायन’ का प्रभाव सबसे अधिक ग्रहण किया I मुल्ला दाउद भी सूफी ही थे, किन्तु उनके काव्य में सूफी मत का ज़रा भी प्रचार नहीं है I उनकी जायसी से तुलना करना भी बे-मायने है I निस्संदेह जायसी अपने समय के सबसे बड़े कवि हैं I कुछ विद्वान् तो भाषाई कारणों से ‘पृथ्वीराज रासो’ को बरतरफ कर ‘पद्मावत’ को ही हिन्दी का पहला महाकाव्य मानते है I</p>
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<p> (मौलिक /अप्रकाशित )</p>
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