ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार - Open Books Online2024-03-28T21:21:27Zhttp://openbooks.ning.com/forum/categories/5170231:Category:43676/listForCategory?categoryId=5170231%3ACategory%3A43676&feed=yes&xn_auth=noआयोजन कैलंडर संबंधितtag:openbooks.ning.com,2023-09-30:5170231:Topic:11103092023-09-30T04:30:42.286Zअजय गुप्ता 'अजेयhttp://openbooks.ning.com/profile/3tuckjroyzywi
<p>आदरणीय प्रबंधन समूह,</p>
<p></p>
<p>मेरा एक सुझाव है जिसे आपके विचारार्थ रखना चाहता हूँ । ओबीओ में पूर्व कि भाँति आयोजन कैलंडर के प्रकाशन कि आवश्यकता महसूस हो रही है। पहले कि तरह यदि वेबसाईट पर ही हर महीने कि 4-5 तारीख तक चारों आयोजनों का विवरण या जाए तो बहुत सरलता हो जाती है।</p>
<p>साथ ही जितनी बार हम वेबसाईट खोलते हैं, उतनी ही बार कैलंडर पर नजर पड़ती है तो उनमें भाग लेने का उत्साह भी उसी अनुपात में बढ़ने लगता है। इसका एक और लाभ यह मिलता है कि मस्तिष्क का नेपथ्य आयोजनों को हर बार दोहराता और…</p>
<p>आदरणीय प्रबंधन समूह,</p>
<p></p>
<p>मेरा एक सुझाव है जिसे आपके विचारार्थ रखना चाहता हूँ । ओबीओ में पूर्व कि भाँति आयोजन कैलंडर के प्रकाशन कि आवश्यकता महसूस हो रही है। पहले कि तरह यदि वेबसाईट पर ही हर महीने कि 4-5 तारीख तक चारों आयोजनों का विवरण या जाए तो बहुत सरलता हो जाती है।</p>
<p>साथ ही जितनी बार हम वेबसाईट खोलते हैं, उतनी ही बार कैलंडर पर नजर पड़ती है तो उनमें भाग लेने का उत्साह भी उसी अनुपात में बढ़ने लगता है। इसका एक और लाभ यह मिलता है कि मस्तिष्क का नेपथ्य आयोजनों को हर बार दोहराता और पकाता रहता है। इससे सहभागिता और गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।</p>
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<p>आभार सहित</p>
<p></p> ओबीओ साहित्योत्सव भोपाल 2023tag:openbooks.ning.com,2023-05-11:5170231:Topic:11032292023-05-11T12:25:27.901Zमिथिलेश वामनकरhttp://openbooks.ning.com/profile/mw
<p>ओपन बुक्स ऑनलाइन की भोपाल इकाई का वार्षिकोत्सव 'ओबीओ साहित्योत्सव 2023' दिनांक 7 मई 2023 दिन रविवार को भोपाल की होटल रेवा रीजेंसी, एमपी नगर में सम्पन्न हुआ। यह आयोजन तीन सत्रों में आयोजित किया गया था। प्रथम सत्र में व्याख्यान व विमोचन, द्वितीय सत्र में लघुकथा पाता और तृतीय सत्र में कविता एवं मुशायरा संपन्न हुआ। वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय तिलक राज कपूर जी ने स्वागत उद्बोधन दिया। आदरणीया विशाखा राजुरकर जी ने प्रथम सत्र यानी उद्घाटन व्याख्यान व विमोचन सत्र का सफल संचालन किया।…</p>
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<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075507266?profile=RESIZE_710x"></img></p>
<p>ओपन बुक्स ऑनलाइन की भोपाल इकाई का वार्षिकोत्सव 'ओबीओ साहित्योत्सव 2023' दिनांक 7 मई 2023 दिन रविवार को भोपाल की होटल रेवा रीजेंसी, एमपी नगर में सम्पन्न हुआ। यह आयोजन तीन सत्रों में आयोजित किया गया था। प्रथम सत्र में व्याख्यान व विमोचन, द्वितीय सत्र में लघुकथा पाता और तृतीय सत्र में कविता एवं मुशायरा संपन्न हुआ। वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय तिलक राज कपूर जी ने स्वागत उद्बोधन दिया। आदरणीया विशाखा राजुरकर जी ने प्रथम सत्र यानी उद्घाटन व्याख्यान व विमोचन सत्र का सफल संचालन किया।</p>
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<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075507266?profile=RESIZE_710x"/></p>
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<p>"बदलते सामाजिक राजनीतिक संदर्भों में हिंदी कहानी" विषय पर बोलते हुए प्रमुख कहानीकार और सत्र के मुख्य अतिथि आदरणीय मुकेश वर्मा जी ने अपने विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए कहा कि वो लेखन जो आपके दिल को छू ले वही साहित्य है। ओबीओ भोपाल चैप्टर के संरक्षक, ओबीओ मुख्य पटल के टीम प्रबंधक और ओबीओ चित्र से काव्य तक छान्दोत्सव के मंच संचालक वरिष्ठ गीतकार आदरणीय सौरभ पांडे जी ने "गीतिकाव्य का पुनरुत्थान और छंदों की प्रासंगिकता" पर अपने विचार रखते हुए कहा कि हम जब क्यों से कैसे की तरफ आये, तभी काव्य का व्याकरण और शिल्प आया, शिल्प यदि त्रुटिपूर्ण हो तो रचनाकार पाठक के साथ-साथ समाज को भी बिगाड़ देता है।</p>
<p></p>
<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075507673?profile=RESIZE_710x"/></p>
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<p>कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि आदरणीय बद्र वास्ती जी ने "नई नज़्म एक अध्ययन" विषय पर बोलते हुए नज़्म विधा की व्याख्या विस्तार से की। उन्होंने बताया कि नज़्म ने भी और विधाओं की तरह नया लिबास पहना है। इसमें भी बहुत प्रयोग हो रहे हैं, जो बदलते समय के साथ आवश्यक भी है। विशिष्ट अतिथि व वरिष्ठ शायर आदरणीय डॉ अशोक गोयल जी ने "ग़ज़ल की शेरियत" पर बोलते हुए शे'र के कहन की बारीकियों से परिचय कराया। प्रथम सत्र ओबीओ भोपाल चैप्टर के कार्यकारी अध्यक्ष आदरणीय अशोक निर्मल जी की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। इस सत्र के अंत में देश भर के साहित्यकारों जो ओबीओ के सदस्य हैं, की रचनाओं से पुस्तक "शब्द शिल्पी " (संपादक-मिथिलेश वामनकर) का विमोचन किया गया।</p>
<p></p>
<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075508661?profile=RESIZE_710x"/></p>
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<p>दूसरे सत्र लघुकथा पाठ किया गया और इस सत्र का सञ्चालन आदरणीया कल्पना भट्ट जी ने किया जिसमें आदरणीया नयना 'आरती' कानिटकरजी, आदरणीया कल्पना भट्टजी, आदरणीया शशि बंसल जी, आदरणीया अभिलाषा श्रीवास्तव जी, आदरणीया प्रियंका श्रीवास्तव जी, आदरणीय मनीष बादलजी, आदरणीया अंशु वर्माजी, और आदरणीय कपिल शास्त्रीजी ने लघुकथा का पाठ किया वहीँ आदरणीया अर्पणा शर्मा जी ने अपनी एक छंद मुक्त कविता का पाठ किया। इस सत्र की अध्यक्षता आदरणीय अशोक निर्मल ने की एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में आदरणीय अजय वर्मा जी और आदरणीय भुवनेश दशोत्तर जी उपस्थित थे जिन्होनें सत्र के अंत में लघुकथाओं पर अपने विचार व्यक्त किये।</p>
<p></p>
<p><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075509465?profile=RESIZE_710x"/></p>
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<p>तृतीय और अंतिम सत्र काव्य पाठ और मुशायरे का था जिसकी अध्यक्षता आदरणीय अशोक निर्मल ने की और मुख्य अतिथि के रूप में ओबीओ के नवीनतम सदस्य व वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय अशोक गोयल जी मंचासीन थे। यह सत्र ओबीओ के वरिष्ठ सदस्यों आदरणीय रवि शुक्ल जी और आदरणीय नीलेश नूर जी के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न हुआ। लगभग चार घंटे चले इस सत्र में आदरणीय ऋषि श्रृंगारी जी, आदरणीय आबिद काज़मी जी, आ. रामराव वामनकर जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों ने मंच सुशोभित किया।</p>
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<p>इस सत्र में तीस से अधिक रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया जिनमें आ.गौरव गर्वित, आ.डॉ अशोक गोयल, गुना , आ.तिलक राज कपूर, आ.देवेश देव, आ.निलेश नूर, इंदौर, आ.प्रतिभा पाण्डे, रतलाम, आ.बलराम धाकड़, मिथिलेश वामनकर, आ.रवि शुक्ल, बीकानेर , आ.सीमा 'सुशी', आ.सौरभ पाण्डेय, आ.महेश अग्रवाल, आ.आबिद काज़मी, आ.ऋषि शृंगारी, आ.कमलेश नूर, आ.चरणजीत सिंह कुकरेजा, आ.डॉ किशन तिवारी, आ.डॉ मुबारक़ खान 'शाहीन', आ.डॉ राधेश्याम पनवरिया, आ.डॉ शरद यायावर, आ.डॉ सुधीर शर्मा, आ.दिनेश भदौरिया 'शेष', आ.प्रशांत दीक्षित, आ.प्रियेश गुप्ता, आ.प्रेम चंद गुप्त, आ.मनोरमा चोपड़ा 'मन्नू', आ.रामराव वामनकर, आ.लता स्वराञ्जलि, आ.शोएब अली खान, आ.संतोष खिरवड़कर, आ.अशोक व्यग्र, आ.प्रियंका श्रीवास्तव, आ.अशोक निर्मल जी आदि ने अपनी रचनाओं से कार्यक्रम को ऊंचाईयां प्रदान की। कार्यक्रम का सफल संचालन आदरणीय बलराम धाकड़ जी और आदरणीय देवेश देव जी ने किया।</p>
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<p>अंत मे सभी अतिथि साहित्यकारों और ओबीओ सदस्यों आयोजन की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाने के लिए स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।</p>
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<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075510655?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075510655?profile=RESIZE_710x" width="200" class="align-full"/></a></p>
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<p>ध्यातव्य हैं कि देश भर के साहित्यकारों और ओबीओ के सदस्यों की रचनाओं का संकलन पुस्तक "शब्द शिल्पी " (संपादक-मिथिलेश वामनकर) में किया गया है। दो सौ पृष्ठ के इस संकलन में आलेख, कहानी, लघुकथा, पुस्तक समीक्षा, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, कविता, छंद आदि विधाओं की रचनाएँ है। यह पुस्तक अमेजन (Amazon) पर उपलब्ध है जिसकी लिंक दी जा रही है-<a href="https://www.amazon.in/dp/B0C4K2HPRS">https://www.amazon.in/dp/B0C4K2HPRS</a><br/> सुलभ सन्दर्भ हेतु "शब्द शिल्पी " का कवर पेज और अनुक्रमणिका दी जा रही है-</p>
<p><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511663?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511663?profile=RESIZE_710x" width="500" class="align-full"/></a><a href="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511300?profile=RESIZE_710x" target="_blank" rel="noopener"><img src="https://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/11075511300?profile=RESIZE_710x" width="500" class="align-left"/></a></p> दीवालीtag:openbooks.ning.com,2022-10-23:5170231:Topic:10922642022-10-23T15:13:01.787Zसुरेश कुमार 'कल्याण'http://openbooks.ning.com/profile/SureshKumarKalyan
<p>*कुंडलियां*</p>
<p>हर घर की मुंडेर पर,<br/>दीप जले चहुँ ओर।<br/>दीवाली की रात है,<br/>बाल मचाएं शोर।<br/>बाल मचाएं शोर,<br/>शोर ये बड़ा सुहाना।<br/>भूलचूक सब भूल,<br/>रहा लग गले जमाना।<br/>खाओ रे *'कल्याण',* <br/>मिठाई डिब्बे भर - भर।<br/>खुशियाँ मिली अपार,<br/>हुआ है रोशन हर घर।<br/> <br/> *दोहा*</p>
<p>बढ़ें उजाले की तरफ,<br/>हम सबके ही पांव।<br/>इस दीवाली ना रहे,<br/>अंधेरे में गांव।।</p>
<p>मौलिक एवम् अप्रकाशित<br/>सुरेश कुमार 'कल्याण'</p>
<p>*कुंडलियां*</p>
<p>हर घर की मुंडेर पर,<br/>दीप जले चहुँ ओर।<br/>दीवाली की रात है,<br/>बाल मचाएं शोर।<br/>बाल मचाएं शोर,<br/>शोर ये बड़ा सुहाना।<br/>भूलचूक सब भूल,<br/>रहा लग गले जमाना।<br/>खाओ रे *'कल्याण',* <br/>मिठाई डिब्बे भर - भर।<br/>खुशियाँ मिली अपार,<br/>हुआ है रोशन हर घर।<br/> <br/> *दोहा*</p>
<p>बढ़ें उजाले की तरफ,<br/>हम सबके ही पांव।<br/>इस दीवाली ना रहे,<br/>अंधेरे में गांव।।</p>
<p>मौलिक एवम् अप्रकाशित<br/>सुरेश कुमार 'कल्याण'</p> साहित्यिक परिचर्चा ओबीओ लखनऊ-चैप्टर, मार्च 2021 प्रस्तोता :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-03-24:5170231:Topic:10569762021-03-24T14:01:14.450Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p><strong> </strong></p>
<p><strong>विषय –</strong> अब्दुर्रहीम खानखाना कृत ‘मदनाष्टक’ के तीन छंद</p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 मार्च 2021 ई० <strong>मुख्य अतिथि –</strong> श्री कुँवर कुसुमेश</p>
<p><strong>दिवस -</strong> रविवार <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> आलोक रावत ‘आहत लखनवी’</p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>डॉ. अशोक…</p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong>विषय –</strong> अब्दुर्रहीम खानखाना कृत ‘मदनाष्टक’ के तीन छंद</p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 मार्च 2021 ई० <strong>मुख्य अतिथि –</strong> श्री कुँवर कुसुमेश</p>
<p><strong>दिवस -</strong> रविवार <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> आलोक रावत ‘आहत लखनवी’</p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>डॉ. अशोक शर्मा </p>
<p><strong> </strong></p>
<p><strong> रहीम की रचना</strong></p>
<p>शरद-निशि निशीथे चाँद की रोशनाई ।</p>
<p>सघन वन निकुंजे कान्ह वंशी बजाई ।।</p>
<p>रति, पति, सुत, निद्रा, साइयाँ छोड़ भागी ।</p>
<p>मदन-शिरसि भूय: या बला आन लागी ।।1।।</p>
<p>कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था ।</p>
<p>चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था ।।</p>
<p>कटि-तट बिच मेला पीत सेला नवेला ।</p>
<p>अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।2।।</p>
<p>ज़रद बसन-वाला गुल चमन देखता था ।</p>
<p>झुक झुक मतवाला गावता रेखता था ।।</p>
<p>श्रुति युग चपला से कुण्डलें झूमते थे ।</p>
<p>नयन कर तमाशे मस्तु ह्वै घूमते थे ।।3II</p>
<p>इस परिचर्चा में केवल दो लोगों ने भाग लिया I श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ जी ने कहा कि उपर्युक्त कविता रहीम जी की रचना ‘मदनाष्टक’ से गृहीत है l यह पूर्णतया शृंगारिक है l श्रीकृष्ण जो रसिक, योगी, अनासक्त, युद्धरत, युद्ध विमुख अनेकानेक विशेषताओं से पूरित हैं, वे इस कविता में अपने रसिक रूप में हैं I यह रूप मन को मुग्ध कर देने वाला है l इस छवि में कृष्ण के होंठों पर बाँसुरी है, उनकी मुद्रा त्रिभंगी है और इस रूप पर कामदेव और रति दोनों मुग्ध हैं I विभु की धवल चाँदनी में अप्रतिम, अद्भुत, अलौकिकता से पूर्ण उनकी शोभा है l कृष्ण को देखकर कामदेव के मन में ईर्ष्या मिश्रित भाव जाग्रत होता है I अपनी छवि को वह गौण मानता हैl 'चपल चखन वाला', 'अलि बन अलबेला यार' में शब्दों का मार्दव है l 'श्रुति युग चपला से कुण्डलें झूमते थे' अद्भुत उपमा का सौंदर्य अप्रतिम है l कविता में शृंगार रस का अद्भुत परिपाक हुआ है I</p>
<p> </p>
<p>दूसरे परिचर्चाकार थे डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव I उनका कहना था कि प्रस्तुत पद्यांश में कवि रहीम ने भगवान कृष्ण के उस स्वरुप का वर्णन किया है, जब वे ब्रज में अपनी बाल लीलाओं के उत्कर्ष पर थे I उनकी बाँसुरी की सम्मोहन शक्ति का बखान बहुत से लोगों ने किया है I इस परंपरा में रहीम ने ‘मदनाष्टक’ शीर्षक से जो छंद रचे, विवेच्य छंद वहीं से लिए गए हैं I इनकी रचना सममात्रिक चतुष्पद कुंडल छंद में हुयी है, जिसमें (12,10) पर यति होती है और चरणांत में दो गुरु (ss) रखने की नियामक व्यवस्था है I रहीम के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें भगवान कृष्ण की मोहिनी से गोपियों पर पड़ने वाले काम-प्रभावों का वर्णन हुआ है I कृष्ण ने शरद पूर्णिमा में अर्धरात्रि को ब्रज के निकुंजों में जाकर वंशी क्या बजाई सारी विवाहित गोप नारियाँ अपना रतिजनित सुख, पति, पुत्र और नींद तक छोड़कर उन निकुंजों की ओर दौड़ पड़ीं I कवि को स्वयं आश्चर्य है कि यह काम-प्रभाव था या कोई बला उनके पीछे पड़ गयी थी I इस संदेह अलंकार के जरिये रहीम ने कृष्ण की उस विराट सम्मोहन शक्ति का उद्घाटन किया है जिसके सामने काम का आकर्षण भी फीका पड़ जाता है I क्योकि कवि के अनुसार ब्रज नारियाँ रति-सुरति तक छोड़कर दौड़ पड़ी थीं I शृंगार रस का ‘स्थाई भाव’ भी तो ‘रति’ ही है I स्पष्टतः रति काम-प्रभाव की सीमा रेखा है I कृष्ण का यह सम्मोहन भी लोक दृष्टि से प्रत्यक्षतः काम-प्रभाव ही जान पड़ता था पर वह संभवतः इससे भिन्न कोई अतीन्द्रिय आकर्षण था I यह आकर्षण कृष्ण की बाँसुरी के स्वर, उनके परिधान और दैहिक आकर्षण में आश्रय पाता था I ध्यान देने की बात है कि रहीम के अनुसार कोई भी गोप-कुमारी इस आकर्षण से बँधकर नहीं आयी I यह कवि की अतिरिक्त सावधानी है I वे कृष्ण के चरित्र को एक नई धज प्रदान करते दिखते हैं I अतः यह आकर्षण अद्भुत है I छंद की अन्य पंक्तियों में कृष्ण की वेशभूषा और सौन्दर्य का जो अनिर्वचनीय वर्णन रहीम ने किया है, वही वह आलम्बन है जिसके सम्मोहन में फँस कर गोपियाँ सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर अपने घरों से आधी रात में भाग खड़ी होती थीं I मुरली का स्वर तो केवल एक संकेत या आह्वान मात्र था जैसे नमाजियों के लिए अज़ान I </p>
<p> कृष्ण के बाहिज सौन्दर्य वर्णन में रहीम ने कमाल ही कर दिया है I शब्दों का इतना सुन्दर चयन और भाषा का ऐसा अनोखा सौष्ठव दुर्लभ है I रहीम ने शब्दों के विन्यास में अपनी जादुई कला से ऐसी अनोखी ऊर्जा भर दी है कि उसमें गति का संचार तो मानो अपने आप ही हो गया है –</p>
<p>कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था ।</p>
<p>चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था ।।</p>
<p> रहीम की भाषा में यह निखार फारसी के प्रभाव से भी आया है I रोशनाई, जर्द, यार, गुल, चमन, रेखता, तमाशे जैसे शब्द तो इन तीन छंदों में ही है जबकि अन्य छंदों में फारसी के शब्द कहीं अधिक हैं I भाषा, भाव और शिल्प की दृष्टि से यह रहीम की बेजोड़ रचना है I बहुत से लोग रहीम को केवल दोहाकार समझते हैं I कुछ अधिक समझ रखने वाले उन्हें बरवै-कार के रूप में भी जानते हैं, पर कवि का यह रूप अधिकतर लोगों के लिए अनजाना है I मदनाष्टक ऐसे लोगों के लिए एक नेत्र विस्फारक (eye opener) की तरह है I रहीम की इस अनन्य कृष्ण भक्ति के सामने कौन श्रद्धा विनत नहीं हो जाएगा I वे निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य के अंतर्गत भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवियों में से एक हैं I </p>
<p> (मौलिक /अप्रकाशित ) <strong> </strong></p>
<p> </p>
<p><strong> </strong></p> प्रतिवेदन साहित्य-संध्या ओबीओ लखनऊ-चैप्टर, मार्च 2021 ई० प्रस्तोता :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-03-24:5170231:Topic:10570152021-03-24T13:57:33.698Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p> <strong>स्थान</strong>- 537A /005, महाराजा अग्रसेन नगर, सीतापुर रोड. लखनऊ <strong>दिनांक –</strong> 21 मार्च 2021 ई० <strong>मुख्य अतिथि –</strong> श्री कुँवर कुसुमेश <strong>दिवस-</strong> रविवार <strong>संचालक –</strong> श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ <strong>समय –</strong> 3 बजे…</p>
<p> <strong>स्थान</strong>- 537A /005, महाराजा अग्रसेन नगर, सीतापुर रोड. लखनऊ <strong>दिनांक –</strong> 21 मार्च 2021 ई० <strong>मुख्य अतिथि –</strong> श्री कुँवर कुसुमेश <strong>दिवस-</strong> रविवार <strong>संचालक –</strong> श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ <strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong> डॉ. अशोक शर्मा</p>
<p>सयोजक डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव द्वारा आयोजित इस काव्य संध्या के प्रथम चरण में भक्तिकाल के प्रतिनिधि कवियों में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा रचे गए ‘मदनाष्टक’ नामक कविता से चयनित तीन छंदों पर परिचर्चा हुई I इसका प्रतिवेदन अलग से जारी किया जा रहा है I दूसरे चरण में काव्य पाठ से पूर्व संचालक के आह्वान पर गोपाल जी ने माँ सरस्वती की स्मृति में ‘उपालंभ वंदना’ के दो छंद सुनाये, उनमे से एक निम्नप्रकार है –</p>
<p>देखो मातु, शारदा है आपकी विचित्र अति</p>
<p>मेरी लेखनी का अंग-भंग कर देती है ।</p>
<p>चिन्तना में डूबता हूँ आत्मलीन होके जब</p>
<p>शुण्ड को हिला के मुझे तंग कर देती है ।</p>
<p>काटती हठीली बात-बात पर मेरी बात</p>
<p>देती नये तर्क मुझे दंग कर देती है ।</p>
<p>किन्तु यही वसुधा के कीट कवियो की सारी</p>
<p>काव्य’-सर्जना को रस-रंग कर देती है ।</p>
<p>माँ के स्मरण के बाद काव्य पाठ हेतु पहला आमन्त्रण नवागन्तुक कवि श्री ब्रज किशोर शुक्ल ‘ब्रज’ के निमित्त हुआ I ब्रज जी ने हास्य विनोद की कुछ रचनाएँ सुनाईं किन्तु उनके द्वारा पढ़ी गयी रचना ‘मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं‘ का भरपूर स्वागत हुआ I</p>
<p>मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं</p>
<p>मिटाइये दिलों से दूरियों को आप कि आप लखनऊ में हैं II</p>
<p>कहिये चौक की देशी चाट कि आप लखनऊ में हैं II</p>
<p>देखिये हनुमान सेतु के ठाठ कि आप लखनऊ में हैं II</p>
<p>उनके द्वारा पठित एक अन्य कविता का पद्यांश यहाँ प्रस्तुत है -</p>
<p>राम तो पा गए भवन क्यों न पाए आप ?</p>
<p>राम तो चर्चित हुए किन्तु सोये क्यूं हैं आप ?</p>
<p>राम मन्दिर का स्थान अयोध्या नगरी था</p>
<p>हनुमत सेवा का नहीं दिखता है न कोई प्रताप II</p>
<p>अगली बारी थी सौम्य कवयित्री सुश्री आभा खरे की I इन्होंने एक ग़ज़ल तरन्नुम में और एक तहद में सुनाई I उनके द्वारा पढ़ी गयी ग़ज़ल का एक अंश इस प्रकार है –</p>
<p>मोहब्बत खेल ऐसा है जिसे जीता नहीं करते I</p>
<p>मिले गर दर्द जो यारों उसे बाँटा नहीं करते II</p>
<p>छुपा लो आँख में बीते हुए सारे फसानों को I</p>
<p>सरे महफिल यहाँ खुद पर कभी रोया नहीं करते II</p>
<p>आभा जी के द्वारा पढ़ी गयी समकालीन कविता, जो उनकी प्रिय विधा भी है उसका एक मिजाज कुछ इस तरह नुमाया हुआ - न जाने पेड़ ने उससे क्या कहा होगा ?</p>
<p>बंद पत्ता टप से से टपका</p>
<p>और धरा से मिल गया .</p>
<p>हास्य के पर्याय बन चुके श्री मृगांक श्रीवास्तव ने अपनी कई रचनाएं सुनाकर बड़ा ही समृद्ध मनोरंजन कर सबको आप्यायित किया I उनकी रचना-बानगी इस प्रकार है -</p>
<p>देश में गज़ब किसान धरना है, कथित किसान सड़कें जकड़े हैं I</p>
<p>देश के दुश्मन दौलत, समर्थन और संसाधन पेले पड़े हैं I</p>
<p>दिक्कत बस इतनी है एक कुछ देने और अगला कुछ लेने की जिद पर है I</p>
<p>कई दौर की वार्ताएं किसलिए जब अगले क़ानून वापसी पर ही अड़े हैं I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने अपने दो गीत सुनाए I पहले गीत का शीर्षक था विश्वास i इसका एकांश यहाँ प्रस्तुत है -</p>
<p>मैं कहता हॅू इस धरती पर कितने ही केशव राम हुये ।</p>
<p>मुनि, यती, सिद्ध, योद्धा, ज्ञानी कितने योगी अभिराम हुये ।</p>
<p>पर कोई भी इस जग का दुख क्या सदा सर्वथा धो पाया ?</p>
<p>गुण-अवगुण से मिल बना जीव क्या कभी शाश्वत हो पाया ?</p>
<p>यदि नही तो मेरा सत्य अटल पर तुमको समझाऊॅं कैसे ?</p>
<p>विश्वास तेरे मधु बैनो पर बोलो प्रिय मै लाऊॅ कैसे ?</p>
<p>इसके साथ ही उन्होंने एक बड़ा ही मार्मिक विदा गीत पढ़ा I यथा-</p>
<p>आओ अब से हम जीवन मे किंचित परिवर्तन कर लें ।</p>
<p>राग-द्वेष को छोड हृदय में करूणा का सागर भर लें ।</p>
<p>किसे पता किस बुद्ध–शुद्ध को बोधिसत्व हो जाना है ।</p>
<p>चार दिनों के बाद हमे भी इसी पंथ पर आना है I</p>
<p>श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के अप्रतिम सञ्चालन से अभिभूत मुख्य अतिथि ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए अध्यक्ष महोदय की अनुमति से परवर्ती काव्य पाठ हेतु संचालक को आमंत्रित किया I आलोक जी ने अपना प्रिय गीत ‘तेरा लगदा रूप कमाल .. ‘ सुनाकर सबको आत्मविभोर कर दिया I उनके इस गीत की कुछ पंक्तियाँ निम्नवत हैं –</p>
<p>मन महका-महका रहता है I</p>
<p>तन दहका-दहका रहता है I</p>
<p>मदमस्त निगाहों से मिलकर</p>
<p>दिल बहका-बहका रह्ता है II</p>
<p>तुझे देख के है यते हाल बसंती चूनर में I</p>
<p>तेरा लगदा रूप कमाल बसंती चूनर में II</p>
<p>अब बारी थी मुख्य अतिथि श्री कुँवर कुसुमेश जी की I शहरे लखनऊ में ग़ज़ल के मर्मज्ञों में आपका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है I शहर के कितने ही ग़ज़लकार आपकी शागिर्दी में रह चुके हैं I कुसुमेश जी ने दो गज़लें बातारंनुम सुनाईं , लेकिन उतने से लोग तृप्त नही हुए I अंततः सभी के विशेष अनुरोध पर उन्होंने एक रूमानी रवायती ग़ज़ल और सुनाई I उनके द्वारा पढ़ी गयी एक संजीदा ग़ज़ल के चंद शे’र इस प्रकार हैं –</p>
<p>समझता नहीं खुद के आगे किसी को I</p>
<p>ये क्या हो गया आजकल आद्म्री को II</p>
<p>यही एक है सिर्फ कारण पतन का</p>
<p>मगर कोसता आदमी जिदगी को II</p>
<p>अंत में अध्यक्ष महोदय का काव्य पाठ हुआ I उनका मानना था कि प्रायः गोष्ठी में उपस्थित शत-प्रतिशत लोग कविताएँ ध्यान से नही सुनते पर यह एक दुर्लभ अवसर था जब सबने एक दूसरे को अक्षरशः सुना I उन्होंने अपना पुराना किन्तु प्रसिद्ध गीत इस प्रकार पढ़ा –</p>
<p>कभी-कभी मुझको लगता है I</p>
<p>ईश्वर भी कविता पढ़ता है II</p>
<p>तीन बजे से प्रस्तावित यह कार्यक्रम साढ़े तीन बजे से शुरू होकर साढ़े सात बजे तक चला और किसी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं I कुसुमेश जी ने तो यहाँ तक कहा ऐसी गोष्ठी तो बार-बार होनी चाहिए I अंततः सभी लोग हँसते मुस्कराते विदा हुए I मैं उन्हें अनिमेष जाते देखता रहा और मन में कुसुमेश जी के स्वर सरगोशी कर रहे थे- समझता नहीं खुद के आगे किसी को I ये क्या हो गया आजकल आद्म्री को II मेरे मन में भी कविता सुगबुगाने लगी -</p>
<p>सोता रहता है स्वाभिमान टुक सोने दो</p>
<p>छेड़ो मत उसको अभी अरे उकसाओ मत I</p>
<p>है पता मुझे हिंसक होता यह जीव नहीं</p>
<p>पर स्वप्नलीन होगा संज्ञा में लाओ मत II</p>
<p> लेकर आती स्वत कुटिलता ध्वांत रूप है</p>
<p> अहंकार जाने कब आकर है छा जाता I</p>
<p> दर्पाचार स्वतः बढ़ता है धीरे-धीरे</p>
<p> नींद त्याग कर स्वाभिमान तब सत्वर आता II</p>
<p>होता है जो द्वंद्व शांत थिर होकर देखो</p>
<p>पाप-शाप लड़कर दोनों को ही धोने दो I</p>
<p>सोता रहता है स्वाभिमान टुक सोने दो ( सद्य रचित ) [चौबीस मात्रिक अवतार जाति के छंद में (16, 8) की स्वतंत्र योजना]</p>
<p>(मौलिक/अप्रकाशित )</p> प्रतिवेदन साहित्य-संध्या ओबीओ लखनऊ-चैप्टर, फरवरी 2021 ई० प्रस्तोता :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-03-11:5170231:Topic:10564972021-03-11T14:26:39.383Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p></p>
<p><strong> (संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 फरवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> सुश्री आभा खरे </p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री अजय प्रकाश श्रीवास्तव ’विकल’ <strong> </strong>माँ वीणापाणि के सम्मान में आज सुश्री आभा खरे जी ने श्री आनन्द पाठक द्वारा रचित…</p>
<p></p>
<p><strong> (संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 फरवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> सुश्री आभा खरे </p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री अजय प्रकाश श्रीवास्तव ’विकल’ <strong> </strong>माँ वीणापाणि के सम्मान में आज सुश्री आभा खरे जी ने श्री आनन्द पाठक द्वारा रचित वाणी-वन्दना प्रस्तुत की और इसी के साथ साहित्य संध्या का समारंभ हुआ I इसके प्रथम चरण में संचालिका ने कवयित्री सुश्री निर्मला शुक्ल की कविता- ‘फूल बनो‘ पर परिचर्चा आरंभ की I इसमें सभी उपस्थित सदस्यों ने प्रतिभाग किया और जो उपस्थित नहीं थे, उनमें से कुछ लोगों ने वाया वाट्स ऐप अपनी प्रतिक्रिया उपलब्ध कराया I परिचर्चा का प्रतिवेदन अलग से बनाया गया है I</p>
<p>कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्यगोष्ठी के अंतर्गत पहला आह्वान सुश्री कौशांबरी जी के लिए हुआ I उनकी कविता में एक शाम जी लेने का भाव है I जैसे-</p>
<p><em>भाव सूने मन विकल है</em></p>
<p><em>प्राण व्याकुल पुनः जी ले I</em></p>
<p><em>विगत पथ पर चल पड़े मुड़</em></p>
<p><em>फिर सुरों को मधुर लय दे II</em></p>
<p><em>बाँध कर बीते दिनों को</em></p>
<p><em>मन चाहा संसार रच ले I</em></p>
<p><em>आओ मिल ये खेल खेलें</em></p>
<p><em>संग मिल एक शाम जी लें ।I</em></p>
<p>सुश्री नमिता सुन्दर जी ने ‘मिजाज’ नामक अपनी कविता में रिश्तों पर प्रकाश डालने हेतु सड़कों और गलियों का उपयोग रूपक की भाँति किया i जैसे -</p>
<p><em>गलियाँ</em></p>
<p><em>छज्जों की कानाफूसी, झरोखों का प्यार</em></p>
<p><em>चौकन्नी निगाहों की ताका-झाँकी</em></p>
<p><em>धर-पकड़, चीख-पुकार तेज तकरार</em></p>
<p><em>सब कुछ खदबदाता है</em></p>
<p><em>गली भीतर बटलोई में अदहन सरीखा I</em></p>
<p>डॉ. अशोक शर्मा ने अपनी कविता में मुस्कराने का निहितार्थ रूपायित किया- </p>
<p><em>कम-कम से आज तो</em></p>
<p><em>मुस्कराना है दिन भर</em></p>
<p><em>और खड़ा करना है</em></p>
<p><em>सपनों का एक संसार</em></p>
<p><em>पर भूल जाता हूँ</em> <em>l</em></p>
<p><em>जाने कब सीख पाऊँगा मैं</em> <em>,</em></p>
<p><em>जबकि जानता हूँ</em></p>
<p><em>मुस्कराना</em></p>
<p><em>जीवन में मुस्कराहटें भर देता है</em></p>
<p>श्री आलोक रावत ’आहत लखनवी’ ने मनुष्य के सात्विक और तामस भावों को उदाहरण सहित अपने गीत में उकेरा-</p>
<p><em>ईर्ष्या का भाव जब कैकेयी के उर में जगा था</em><em>,</em></p>
<p><em>राम का वनवास तब पाषाण-हृद होकर चुना था</em><em>,</em></p>
<p><em>छवि समर्पण</em><em>,</em> <em>त्याग की ऐसी कहीं देखी नहीं है</em><em>,</em></p>
<p><em>जो भरत</em><em>,</em> <em>लक्ष्मण के भावों में सतत रहती रही है I</em></p>
<p>सुश्री निर्मला जी ने संबंधों को लेकर मन की विभिन्न स्थितियों को अपनी कविता में ढाला-</p>
<p><em>मन से मन की दूरी</em></p>
<p><em>तो आज भी उतनी ही है</em><em>,</em></p>
<p><em>है कोई ऐसा विज्ञान</em></p>
<p><em>जो मिटा दे</em></p>
<p><em>दिलों के फासले</em></p>
<p><em>जगा सके भाव मन में</em></p>
<p><em>प्यार का I</em> <em> </em></p>
<p>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘चातक’ नामक अपनी कविता में कवि का रूपक उतार कर उसकी मन:स्थितियों में गहरी पैठ बनाई -</p>
<p><em>मैं</em><em>,</em></p>
<p><em>शब्द-शब्द तरसता हूँ</em></p>
<p><em>चातक बनकर-</em></p>
<p><em>अधूरी रह जाती हैं रचनाएँ</em><em>,</em></p>
<p><em>प्यासी रह जाती है चेतना</em><em>;</em></p>
<p><em>लेकिन क्यों!</em></p>
<p><em>पृथ्वी के गर्भ से</em></p>
<p><em>व्योम के असीम तक</em></p>
<p><em>व्याप्त है तुम्हारी कविता-</em></p>
<p><em>शब्द</em><em>,</em> <em>सुर और रस का</em></p>
<p><em>अनन्त भंडार लिए</em><em>;</em></p>
<p><em>मैं फिर भी रह जाता हूँ तृषित</em></p>
<p>सुश्री कुंती मुकर्जी ने अपनी कविता में बसंत के आगमन पर कल्पनाओं के मनोरम पट खोले -</p>
<p><em>अमलतास</em></p>
<p><em>बारी-बारी से मेरी बातों में रंग भरता रहता.</em></p>
<p><em>रातरानी मेरी बातों की खुशबू लेकर</em></p>
<p><em>चाँदनी से कहती-</em></p>
<p><em>"तुम भी आओ..</em></p>
<p><em>कुछ गुफ़्तगू कर लो..</em></p>
<p><em>हम बाग-बाग</em><em> </em> <em>हुए</em></p>
<p>डॉ. अर्चना प्रकाश ने ‘’मधुमास’ नामक कविता में बसंत के प्रकृति परिवर्तन पर अपनी शब्द-दृष्टि कुछ इस प्रकार फेरी - </p>
<p><em>लो आ गया मधुमास !</em></p>
<p><em>शीत की गागर रीत गयी</em><em>,</em> <em>धुंध कोहरे की बात गयी ।</em></p>
<p><em>नीलाम्बर में भरी उजास</em><em>,</em> <em>कण-कण छाया उल्लास । </em></p>
<p><em>लो आ गया मधुमास !</em></p>
<p>श्री मृगांक श्रीवास्तव ने हास्य की छवि से हटकर स्वयं को संवेदना और व्यंग्य के रंग में उतारा -</p>
<p><em>धरना प्रदर्शन जारी है</em></p>
<p><em>अब उन्हें भोले-भाले गाँव वाले या किसान</em></p>
<p><em>कहना बेईमानी होगी</em></p>
<p><em>एजेंडा चलाया जा रहा है</em></p>
<p><em>देशद्रोहियों</em><em>,</em> <em>दुश्मन देशों और</em></p>
<p><em>अंतर्राष्ट्रीय गिरोहों संग</em></p>
<p><em>खूब काला धन लगाकर</em></p>
<p><em>जनजीवन ठप कर दिया है I</em></p>
<p>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने संवाद कविता में स्त्री के दर्द को एक बार फिर से शब्दों से नये स्वर दिए -</p>
<p><em>रूढ़िवादियों ने यूँ तरसाया।</em></p>
<p><em>नारी हो न नर से करो मुकाबला</em></p>
<p><em>'</em><em>अधिकार</em><em>' '</em><em>बराबरी</em><em>'</em> <em>बढ़ाये फासला।</em></p>
<p><em>शिक्षा</em><em>,</em> <em>पेशा</em><em>,</em> <em>आज़ादी के हक में भागीदार</em></p>
<p><em>हद की रेखा न करो अनदेखा</em></p>
<p><em>मिलती रही कि हम रहे सौजन्य साझेदार।</em></p>
<p>श्री भूपेन्द्र सिंह ’होश’ ने अपनी ग़ज़ल में कुछ बहुत ही माकूल शेर कहे I एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है -</p>
<p><em>अगर हमने मुहब्बत की तो हरदम डूब कर है की</em><em>, </em></p>
<p><em>कभी सोचा नहीं ये बेवफ़ा या बावफ़ा क्या है.</em></p>
<p><em> </em><em>अगरचे "होश" में हूँ पर अजब इक बेख़ुदी सी है</em><em>, </em></p>
<p><em>मैं आख़िर किस से ये पूछूँ ख़ुदा तेरा पता क्या है.</em></p>
<p>डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने देश के सैनिको की भावनाओं को प्रकट करते हए देशभक्ति की संवेदना को एक नया आयाम दिया-</p>
<p><em>समर-क्षेत्र में युद्ध-वाद्य जब बजते हैं </em></p>
<p><em>सारा वपु-अभिमान वहीं मिट जाता है</em> <em>I</em></p>
<p><em>अब मरना है और मार कर मरना है</em></p>
<p><em>अन्तस में यह भाव शेष रह जाता है</em> <em>II</em></p>
<p><em>अगर बचेंगे तो फिर माँ के माथे पर</em><em>,</em> <em>जय का तिलक लगा जन-गण-मन गाएंगे</em> <em>I</em></p>
<p><em>दृप्त सिपाही हम नगण्य से भारत के</em><em>, </em> <em>हम सीमा पर विजय-केतु फहराएंगे</em> II</p>
<p>संचालिका सुश्री आभा खरे ने युग परिवर्तन में अन्दर तक धँसे जीव के अवसाद को प्रकट करने वाली कविता प्रस्तुत की I यथा-</p>
<p><em>दूर-दूर तक नीम न पीपल</em><em>,</em> <em>छाया वीराना</em></p>
<p><em>भूले हम लय-ताल ख़ुशी की</em><em>,</em> <em>बे-सुर है गाना</em></p>
<p><em>सपनों जैसे अब पंछी के</em></p>
<p><em>मधुगान हुए हैं</em></p>
<p><em>फ्लैटों में गुम छत</em> <em>,</em><em>आँगन औ</em><em>'</em></p>
<p><em>दालान हुए हैं</em></p>
<p><em>अवसादों की कड़ी धूप में मुरझाया बाना</em></p>
<p><em>दूर-दूर तक .....</em></p>
<p>अंत में अध्यक्ष श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ ने ‘चाँद’ शीर्षक से अपना बड़ा ही मनोहारी गीत प्रस्तुत किया I उदाहरण निम्नवत है - </p>
<p><em>तब वही संताप व्याकुल अश्रु कण नभ ने गिराए</em> <em>l</em></p>
<p><em>थिर गए धूमिल हृदय पर सोमरस शशि ने पिलाये</em> <em>ll</em></p>
<p><em>बह गयी उन्माद में उर्वी सुनाती थी विभा को रागिनी</em> <em>l</em></p>
<p><em>प्रात प्राची से अरुण लेता रहा फैली धरा की चाँदनी</em> <em>ll</em></p>
<p><em> साँझ रस में डूब कर तब ले लिया प्रतिकार है</em> <em>l</em></p>
<p><em> कालिमा काजल विभा-तन श्वेत रसमय धार है II</em></p>
<p>आज की साहित्य संध्या का यह आख़िरी दीप था i इसके बाद बस विश्राम – विश्राम ----- आज बासंती रंग कविता में बहुत निखरा पर मैंने कुसुमायुध को बहुत-बहुत उदास देखा I शायद-----</p>
<p><em>कामदेव का पुष्प बाण अब खंडित होगा I</em></p>
<p><em>शासन कोई नया यहाँ पर मंडित होगा II</em></p>
<p><em>विभा रात भर ही अपना, नर्तन है करती </em></p>
<p><em>और प्रभा का भी है बस प्रभात का फेरा I</em></p>
<p><em>नहीं एक को मिलता है दिनकर का दर्शन ]</em></p>
<p><em>और दूसरे को भी कब हिमकर ने टेरा ?</em></p>
<p><em>नये सिरे से प्रकृति-कथा बाँची जायेगी,</em></p>
<p><em>अहो व्यास आसन पर अब नव पंडित होगा I</em></p>
<p><em>कामदेव का पुष्प बाण -------------------</em></p>
<p><em>बरसाकर पुरुषार्थ आग, ढलता है सूरज</em></p>
<p><em>और चाँदनी-राग बिछा शशि ओझल होता I</em></p>
<p><em>मुट्ठी में अमरत्व बाँध कब कोई आया</em></p>
<p><em>चिर होता जागरण-बोध कोई क्यों सोता ?</em></p>
<p><em>यहाँ काल ने दुराधर्ष कितने है मारे?</em></p>
<p><em>शासन कौन यहाँ अविचल अविखंडित होगा</em></p>
<p><em>कामदेव का पुष्प बाण ----------------</em></p>
<p><em>अधिक प्रणय के गीत न गा मानस के मधुकर </em></p>
<p><em>नहीं रहेंगी बहुत दिनों तक सुमनावलियाँ I</em></p>
<p><em>यह परिमल मधुमय पराग दो दिन भर ही है</em></p>
<p><em>नहीं चटक पाएंगी कल उपवन में कलियाँ II</em></p>
<p><em>प्रेम यहाँ अब मात्र रोग पर्याय बनेगा </em></p>
<p><em>निरपराध भी यहाँ सखे अब दंडित होगा</em></p>
<p><em>कामदेव का पुष्प बाण ----------------- (सद्य रचित )</em></p>
<p><em> </em>(मौलिक एवं अप्रकाशित )</p> साहित्यिक परिचर्चा ओबीओ लखनऊ-चैप्टर, फरवरी 2021 प्रस्तोता :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-03-08:5170231:Topic:10563602021-03-08T07:53:23.759Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p><strong>(संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong>विषय –</strong> कवयित्री सुश्री निर्मला शुक्ल की कविता ‘फूल बनो‘</p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 फरवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong><span>संचालक –</span></strong> <span>सुश्री आभा खरे </span></p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री अजय प्रकाश श्रीवास्तव ’विकल’</p>
<p><strong> </strong></p>
<p> ‘फूल…</p>
<p><strong>(संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong>विषय –</strong> कवयित्री सुश्री निर्मला शुक्ल की कविता ‘फूल बनो‘</p>
<p><strong>दिनांक –</strong> 21 फरवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong><span>संचालक –</span></strong> <span>सुश्री आभा खरे </span></p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री अजय प्रकाश श्रीवास्तव ’विकल’</p>
<p><strong> </strong></p>
<p> ‘फूल बनो‘</p>
<p> बीज बने मत रहो धरा में उगकर फूल बनो I</p>
<p> कलिका बनो पराग सुपूरित, किन्तु न शूल बनो।</p>
<p>बीज वही सार्थक है जो मिट्टी में मिल जाता है</p>
<p>पादप बन विकसित होता है सौरभ बिखराता है।</p>
<p> महकाओ उपवन का कण-कण मधुमय धूल बनो</p>
<p> बीज बने मत रहो धरा में उगकर फूल बनो ।</p>
<p> जिसने प्यासे पथिकों की हो, तनिक न प्यास बुझाई</p>
<p>जलचर नभचर दोनों ने हो, जहाँ न थकन मिटाई</p>
<p> कभी भूलकर भी मत उस सरिता के कूल बनो I</p>
<p> बीज बने मत रहो धरा में उगकर फूल बनो ।</p>
<p> जिसमें काँटे ही काँटे हैं, दर्द चुभन का पहरा</p>
<p>तनिक असावधान होते ही घाव बनाएँ गहरा I</p>
<p> फल फूलों से वंचित तुम न करील बबूल बनो</p>
<p>बीज बने मत रहो धरा में, उगकर फूल बनो ।</p>
<p><br/> <span> </span> उक्त कविता पर विचार रखने हेतु सर्वप्रथम सुश्री कौशांबरी जी का आह्वान हुआ I उनका कहना था कि ‘फूल बनो’ एक प्रेरणादायी रचना है । इसकी पंक्तियों में स्पष्ट संदेश है कि मनुष्य को अपने निज को विकसित कर अनुंकरित बीज की भाँति नष्ट न हो पूर्णता प्राप्त करना चाहिए I हमें जगत रूपी उपवन में हास्य सुगन्ध का संचार करना है I ऐसा सरिता-तट बनना है जहाँ पशु-पक्षी मानव सब अपनी तृष्णा शांत कर सकें । हमें दूसरों के लिए बबूल करील के काँटेदार वृक्ष नहीं बनना है I इसके विपरीत हमें सभी के लिये फल, फूल, सुगन्ध एवं छायादार सघन वृक्ष बनना है।</p>
<p> सुश्री नमिता सुन्दर ने कहा कि कविता 'फूल बनो' मन में बहुत सारे मीठे भाव जगा गई I मन को प्रेरित करती, पाठ पढ़ाती कविता हमें बचपन के गलियारों में खींच ले गई जब पाठ्यक्रम की ऐसी कविताएँ हम जोशोखरोश से कंठस्थ करते थे और गाते थे । हमारा मानना है कि आज इस प्रकार की उत्साहवर्धक शिक्षाप्रद कविताओं की अधिक आवश्यकता है । भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टि से कविता प्रभावित करती है I</p>
<p>डॉ. अशोक शर्मा के अनुसार निर्मला जी की कविता में सकारात्मकता है I समूचा जीवन दर्शन निहित है l बहुत सुन्दर भावनाओं का चित्रीकरण किया गया हैlश्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के अनुसार ‘फूल बनो’ कविता एक सार्थक जीवन प्रेरणा है | विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से कवयित्री ने जीवन की सार्थकता पर प्रकाश डाला है | कविता के प्रथम बंद में बीज का उदाहरण देते हुए उन्होंने पराग-कण की तुलना मधुमय धूल से की है जो चित्ताकर्षक है | दूसरे बंद में सरिता के कूल से थोड़ा भ्रम की स्थिति प्रकट हो रही है I कविता के भाव सुंदर हैं और संदेशपरक भी |</p>
<p> श्री भूपेन्द्र सिंह ‘होश’ जी का कहना था कि निर्मला जी की विचाराधीन रचना मुझे हर दृष्टि से श्रेष्ठ लगी I गीत की विषय वस्तु संदेशात्मक है तथा सकारात्मक चिंतन से ओत-प्रोत है I इसमें परमार्थ की भावना का पालन करने का निर्देश है I इस संदर्भ में कवयित्री ने करणीय व अकरणीय को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है I विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से जीवन की उपयोगिता तथा सार्थकता की ओर संकेत हुआ है I गीत के मुखड़े में ही क्रियाशीलता का आग्रह है कि बीज को धरती में निष्क्रिय पड़े नहीं रहना है .. उग कर फूल बनना है .. वातावरण को सुगंधमय बनाना है I गीत के हर अंतरे में मूल विचार को रेखांकित किया गया है कि जो प्यास न बुझा सके ऐसी सरिता के कूल न बनो और बबूल न बनो जिसमें काँटे ही काँटे होते हैं I भाव पक्ष के बाद भाषा व शब्द विन्यास की दृष्टि से भी रचना श्रेष्ठ है I</p>
<p> डॉ. अर्चना प्रकाश का कथन है कि ‘फूल बनो" कविता में बीज व फूल के माध्यम से मानव जीवन की सार्थकता को रेखांकित किया गया है । मनुष्य जीवन दुर्लभ है इसलिए इसे सत्कार्यो में ही प्रवृत्त करना श्रेयस्कर है । यदि स्थितियाँ धूल मिट्टी जैसी नगण्य हों तो भी उसे उपयोगी बनाने का प्रयास करना चाहिए । कविता के वाक्य - न शूल बनो, न कूल बनो, न करील बबूल बनो आदि व्यक्ति की हीनता को दर्शाते हैं I आदमी को अधिकाधिक बेहतर बनने का प्रयास करना चाहिए । कविता की शैली उपदेशात्मक और भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है ।</p>
<p> डॉ .शरदिंदु मुकर्जी ने कहा- निर्मला जी की रचना मुझे अच्छी लगी । काव्यगत गुणों से समृद्ध होने के साथ ही (जिसके बारे में विशेषज्ञ ही बता सकते हैं) आलोच्य रचना में गंभीर संदेश निहित है । मानव जीवन केवल समय बिताने के लिए नहीं, स्वयं को प्रस्फुटित करने के लिए है Iश्री मृगांक श्रीवास्तव का कथन था कि बीज के माध्यम से मानव-जाति के लिए कुछ करने व अच्छा होने की बहुत प्रेरक रचना है । बीज में अपार संभावनाएं भरी पड़ी होती हैं पर यदि वह निष्क्रिय पड़ा रहेगा तो पुष्पित पल्लवित कैसे होगा । अपेक्षा की गई है कि वह उगे भी और पेड़-पौधों के सभी अच्छे-अच्छे गुण हों तथा पशु-पक्षी और मानव सबके लिए सुखमय एवं लाभकारी हों । पीड़ादायक अवगुण बिल्कुल न हों अर्थात फूल बनो हिंदी वाला, अंग्रेजी वाला नहीं । वास्तव में यह बहुत अच्छी कल्पनाप्रसूत और प्रेरणादायक रचना है।</p>
<p>सुश्री कुंती मुकर्जी ने कहा कि निर्मला जी की रचना जीवन के सकारात्मक पहलू को दर्शाती है । हालाँकि बीज से फूल बनने की बहुत सारी प्रक्रियाएं प्रकृति को निभानी पड़ती हैं । सरल-सुंदर और ग्राह्य, निर्मला जी की यह कविता राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की एक अनुपम रचना की याद दिलाती है- 'यह धरती कितना देती है।'</p>
<p>सुश्री संध्या सिंह ने कहा कि आलोच्य कविता आंतरिक लय बरकरार रखते हुए एक निर्बाध शब्द-प्रवाह के साथ अपनी बात रखती है l कुल मिला कर एक ज़रूरी रचना गुंथे हुए शिल्प में निबद्ध है I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने कहा कि विचाराधीन कविता अभिधा और लक्षणा में है और इसमें प्रसाद गुण भी है I इसमें लक्षणा शब्द-शक्ति का बेहतरीन उपयोग हुआ है I जब कवयित्री कहती है कि - <em>बीज बने मत रहो धरा में</em> <em>उगकर फूल बनो –</em> तो सामान्यतः लोग उंगली उठा सकते हैं कि बीज से पौधा या वृक्ष बनेगा और आवश्यक नहीं कि उसमें फूल भी हों I ऐसा ही एक प्रश्न <em>‘सरिता के कूल बनो’</em> में उठता है कि कूल से प्यास कैसे बुझ सकती है ? परन्तु ये दोनों ही प्रयोग सही है I शब्द-शक्तियों के ब्याज से हम जानते हैं कि कवि अपनी बात तीन तरह से कह सकता है I एक- अभिधा, दूसरा लक्षणा तीसरा व्यंजना I</p>
<p> लक्षणा, शब्द की वह शक्ति है जिससे कथन का अभिप्राय सूचित होता है । साधारण शब्दार्थ से भिन्न जहाँ दूसरा वास्तविक अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा कहते हैं । यहाँ निर्मला जी जब ‘उग कर फूल बनो ’ कहती हैं, तो यहाँ पर लक्षणा है I यह पढ़ते ही मन में भाव जगता है कि बीज अंकुरित होगा, फिर कल्ले फूटेंगे तब वह पौधा या वृक्ष बनने की प्रक्रिया में आयेगा और समय पाकर फिर पल्लवित और पुष्पित भी होगा I लक्षणा शब्द की नहीं अपितु कविता की भी शक्ति है I आवश्यकता के अनुसार कवि अभिधा में सीधी सपाट योजना भी करते हैं किन्तु लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग न हो तो कविताई कैसी ? ‘साकेत’ में दद्दा मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं-– सूर्य का यद्यपि नहीं आना हुआ, किन्तु समझो रात का जाना हुआ I यहाँ व्यंजना है I प्रसंगानुसार इसका अर्थ यह है यद्यपि भारत से अभी पराधीनता पूरी तरह गयी नहीं है पर स्वतंत्रता समझो आने ही वाली है I कहने का तात्पर्य यह है कि निर्मला जी ने इस कविता में बेहतरीन लाक्षणिक प्रयोग किये हैं I </p>
<p>कवयित्री जब कहती है- ‘मधुमय धूल बनो’ तो यह उच्च कोटि की व्यंजना है I धूल अनुपयोगी और कष्टप्रद होती है पर उसे जब रंग कर सुगन्धित अबीर बना दिया जाता है तो वही धूल माथे और कपोलों पर सजती है I निर्मला जी की कविता हालाँकि पारंपरिक है और विषय भी पुराना है पर उनकी प्रस्तुति सराहनीय है I इसमें पांडित्य प्रदर्शन नहीं है पर इसमें कवित्व झलकता है I </p>
<p>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय का कहना था कि विचाराधीन कविता में सामान्य शब्दों में कवयित्री का आह्वान प्रकृति के सृजन के माध्यम से व्यक्त होता है I बीज की सार्थकता धरती में विलीन होने और पौध के विकास के साथ होती है । उगने की इस प्रक्रिया में जो फूल और फल उस बीज से प्राप्त होता है वह खुशबू देता है और छाया प्रदान कर सार्थक होता है। 'बीज' यहाँ सम्भाव्यता का प्रतीक है । जबकि फूल उसका विकसित अस्तित्व है I 'उगकर फूल बनो’ –उस पौध की वृद्धि, पूर्णता प्राप्ति और विकास की गतिशीलता को इंगित करता है I कवयित्री संभवतः हर सम्भाव्यता का 'आत्म साक्षात्कार' करवाने के लिए उद्बुद्ध कर रही है, क्योंकि अस्तित्व की सार्थकता तभी चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है।</p>
<p>संचालिका सुश्री आभा खरे ने कहा कि सुश्री निर्मला जी की कविता फूल बनों में ...फूल के माध्यम से संदेश प्रेषित करने का प्रयास हुआ है । निरर्थक कूप मंडूक जैसे जीवन यापन करने से क्या लाभ I जीवन है तो कुछ सार्थक होने की दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए । संसार को ही उन्होंने अपनी कविता में विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से संप्रेषित किया। यह एक अच्छी और सकारात्मकता से भरी कविता है I </p>
<p>अंत में अध्यक्ष श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ ने अपने विचार व्यक्त किये तदनुसार निर्मला जी की 'फूल बनो' कविता प्रेरणादायक है I इसमें कवयित्री मनुष्य को एक सार्थक एवं अर्थ पूर्ण जीवन जीने का संदेश देती है l जीवन ऐसा होना चाहिए जिसमें मानव कल्याण की भावना हो, हृदय पराये दुःख से द्रवित हो, मानव-संवेदना कूट-कूट कर भरी हो l निराशा और दुःख से भरे जीवन में आशा और विश्वास के अमृत का संचार करे l जीवन के कोमल पक्ष को उदघाटित करती यह कविता अत्यंत सार्थक और सारगर्भित है l</p>
<p> लेखकीय मन्तव्य</p>
<p>आप सभी की इतनी सुंदर व सारगर्भित प्रतिक्रियायें पाकर अभिभूत हूँ।आद. कौशांबरी जी, नमिता जी, अशोक शर्मा जी, आलोक रावत जी, भूपेंद्र सिंह जी, आद. डॉ अर्चना प्रकाश जी, आद. शरदिंदु मुखर्जी जी, आद. मृगांक श्रीवास्तव जी, आद. कुंती मुकर्जी जी, आद. संध्या दी, आद. अंजना जी, आद. आभा खरे जी, आद. अजय श्रीवास्तव जी आप सभी ने अपनी सार्थक व उत्कृष्ट टिप्पणियों से कविता के भाव को और भी स्पष्ट कर दिया है। विशेषकर आद. गोपाल नारायन जी ने जितनी सूक्ष्मता से कविता के भाव को आत्मसात कर के उसकी विवेचना की है, वह बेजोड़ है । उनकी विवेचना ने कविता के सार को एकदम स्पष्ट कर दिया है । इतनी सुंदर बहुविधि व्याख्या के लिए आप सभी को सादर धन्यवाद एवं नमन I</p>
<p> </p>
<p>( मौलिक / अप्रकाशित )</p>
<p> </p>
<p> </p> प्रतिवेदन साहित्य-संध्या ओबीओ लखनऊ-चैप्टर, जनवरी 2021 प्रस्तोता :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-02-19:5170231:Topic:10530762021-02-19T06:34:35.892Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p><strong> (संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong> </strong><strong>दिनांक – 24</strong> जनवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> सुश्री नमिता सुन्दर </p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’</p>
<p> माँ वीणापाणि के स्मरण के साथ ही ओबीओ लखनऊ चैप्टर की पहली साहित्य संघ्या वर्ष 2021 ई० का विहान हुआ I सुश्री नमिता सुन्दर ने कवयित्री सुश्री…</p>
<p><strong> (संचार माध्यम से युगपत साहित्यिक गतिविधि)</strong></p>
<p><strong> </strong><strong>दिनांक – 24</strong> जनवरी 2021 ई० (रविवार) <strong> </strong><strong>संचालक –</strong> सुश्री नमिता सुन्दर </p>
<p><strong>समय –</strong> 3 बजे अपराह्न <strong>अध्यक्ष –</strong><span> </span>श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’</p>
<p> माँ वीणापाणि के स्मरण के साथ ही ओबीओ लखनऊ चैप्टर की पहली साहित्य संघ्या वर्ष 2021 ई० का विहान हुआ I सुश्री नमिता सुन्दर ने कवयित्री सुश्री कौशांबरी जी की कविता- ‘माँ कब पूरी हो पाती है‘ पर परिचर्चा आरंभ की I इसमें सभी उपस्थित सदस्यों ने प्रतिभाग किया और जो उपस्थित नहीं थे, उनमें से कुछ लोगों ने वाया वाट्स ऐप उपलब्ध कराया I परिचर्चा का प्रतिवेदन अलग से बनाया गया है I</p>
<p>इसके बाद एक सरस काव्य गोष्ठी हुई I प्रथम पाठ हेतु कवयित्री सुश्री निर्मला शुक्ला का आह्वान हुआ I निर्मला जी ने ‘चाँद’ शीर्षक से अपनी रूमानी कविता सुनाई –</p>
<p><strong><em>शुभ्र ज्योत्सना खिले गगन में</em></strong></p>
<p><strong><em>तारों की बारात सजे</em></strong></p>
<p><strong><em>जब पूनम का चाँद उदय हो</em></strong></p>
<p><strong><em>मन वीणा के तार बजे।</em></strong></p>
<p>डॉ. अर्चना प्रकाश की कविता का शीर्षक ‘प्रहरी’ था I देशानुराग की इस कविता की बानगी निम्नवत है - </p>
<p><strong><em>जब देश नींद में सोता</em></strong> <strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>सीमा पर तुम जागते ।</em></strong></p>
<p><strong><em>शत्रु को अपनी तोपों से</em></strong> <strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>बढ़ कर छलनी करते I</em></strong></p>
<p>श्री अजय श्रीवास्तव 'विकल' ने ‘युवा‘ शीर्षक से एक उद्बोधन गीत प्रस्तुत किया,जिसमें युवा को देश का नायक माना गया है I यथा-</p>
<p><strong><em>नायक जन में नायक मन में नायक विश्व विधाता है</em></strong> <strong><em>l</em></strong></p>
<p><strong><em>नायक प्रण में नायक तृण में नायक सबको भाता है</em></strong> <strong><em>ll</em></strong></p>
<p><strong><em>युवा सिंह जब गरज उठे पर्वत में मार्ग बनाए</em></strong> <strong><em>l</em></strong></p>
<p><strong><em>धार समय विपरीत बहे वह</em></strong><strong><em>, <span>नव प्रतिमान दिखाए</span> ll</em></strong></p>
<p>श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने उपालंभ व्यंजना से आप्त शृंगार का एक गुदगुदाता हुआ गीत पेश किया-</p>
<p><strong><em>हृदय मिलन संभव होता है अगर प्रेम अकुलाता है I</em></strong></p>
<p><strong><em>कोई मनमोहक छवि लेकर हृदय-द्वार तक आता है II</em></strong></p>
<p><strong><em>मैं तो प्रेम-पथिक हूँ बोलो मेरी पीर बढ़ाते क्यूँ हो ?</em></strong></p>
<p><strong><em>और अगर घबराते हो तो मुझसे नयन मिलाते क्यूँ हो?</em></strong></p>
<p>सुश्री कुंती मुकर्जी ने ‘सूफी मन’ के अंतर्गत जीवन-पुस्तक के पृष्ठ टटोले -</p>
<p><strong><em>हम सपनों के जाल बुनते रहे</em></strong></p>
<p><strong><em>मकड़ी सी उन जालों में उलझते रहे</em></strong></p>
<p><strong><em>तब भी</em></strong> <strong><em>,</em></strong><strong><em>वाक्यों ने अपना खेल न छोड़ा</em></strong></p>
<p><strong><em>हर घटना कथानक बनती रही</em></strong><strong><em>___</em></strong></p>
<p><strong><em>और</em></strong><strong><em>___</em></strong></p>
<p><strong><em>देखते-देखते जीवन एक किताब बनके रह गयी."</em></strong></p>
<p>श्री मृगांक श्रीवास्तव ने हास्य रस की कुछ चुटीली रचनाएँ सुनाई और सब का मन मोह लिया I उनकी निम्नांकित रचना विशेष रूप से सराही गयी -</p>
<p><strong><em>चाय की चुस्की लेते लेते</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>पति से कीमती कप गिर गया।</em></strong></p>
<p><strong><em>पत्नी की उपस्थिति के कारण</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>पति बेहद सहम गया।</em></strong></p>
<p><strong><em>पति ने देखा कप टूटा न था</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>बोला हें हें बच गया।</em></strong></p>
<p><strong><em>घूरकर पत्नी बोली बच गया नहीं... बच गये ।</em></strong></p>
<p>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय द्वारा प्रस्तुत कविता का शीर्षक था- ‘हाशिये का किरदार’ I नारी को हाशिये पर रखने की सामाजिक प्रवृत्ति को दर्शाती इस कविता का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है –</p>
<p><strong><em>हलक से नीचे उतर रहा है</em></strong></p>
<p><strong><em>हकीकत भीनी हलचल</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>हाँ, मैं हिमाकत करती हूँ</em></strong></p>
<p><strong><em>आस्नात रहूँगी कल।</em></strong></p>
<p><strong><em>अब न होगी उपेक्षा अपनी</em></strong></p>
<p><strong><em>हाशिये में स्थान I</em></strong></p>
<p><strong><em> </em></strong>श्री भूपेन्द्र सिंह ‘होश‘ ने जो ग़ज़ल पेश की उसके चंद अशआर इस प्रकार थे -</p>
<p><strong><em>अब चश्म न होंगे नम</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>दुनिया में कभी उनके</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>है मर ही गया उनकी</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>जब आँख का पानी है.</em></strong></p>
<p><strong><em>ये इल्म जो है तेरा</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>वो साथ न छोड़ेगा</em></strong><strong><em>, </em></strong></p>
<p><strong><em>दौलत का भरोसा क्या</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>आनी है तो जानी है.</em></strong></p>
<p> डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने समकालीन किसान आन्दोलन का आलंबन लेकर व्यवस्था पर तंज कसा I एक बानगी प्रस्तुत है –</p>
<p><strong><em>यहीं</em></strong></p>
<p><strong><em>टूटा है फिर रथ का पहिया</em></strong></p>
<p><strong><em>सारथी था जिसका मेरे अन्तस् का पौरुष </em></strong></p>
<p><strong><em>यहीं पर गिरेगा रथी आत्मबल भी </em></strong></p>
<p><strong><em>यहीं खत्म होगी फिर एक चुनौती</em></strong></p>
<p><strong><em>यहीं पर मिटेगा</em></strong></p>
<p><strong><em>एक बीज माटी में </em></strong></p>
<p><strong><em>यहीं पर --------- I</em></strong></p>
<p>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘कवि सम्मलेन’ नामक कविता प्रस्तुत की I सम्मेलनों के पाखंड को उजागर करती इस कविता का सार इन पंक्तियों में है - </p>
<p><strong><em>‘</em></strong><strong><em>कविता</em></strong><strong><em>’</em></strong> <strong><em>मंच पर पिछली पंक्ति में</em></strong></p>
<p><strong><em>हिरणी की तरह दुबक कर बैठी थी</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>मचान पर शिकारियों का बोलबाला था</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>भाषण जारी था</em></strong></p>
<p><strong><em>“</em></strong><strong><em>मैं</em></strong><strong><em>”</em></strong> <strong><em>का साम्राज्य था</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>‘</em></strong><strong><em>कविता</em></strong><strong><em>’</em></strong> <strong><em>ने मुड़ कर देखा</em></strong></p>
<p><strong><em>वादियों में संध्या</em></strong></p>
<p><strong><em>समय से पहुँच गई थी</em></strong></p>
<p><strong><em>सूर्य की खुशामद किए बिना</em></strong> <strong><em>–</em></strong></p>
<p><strong><em>वह उठी और दबे पाँव</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>पगडंडियों से उतर गई अपने चौबारे में I</em></strong></p>
<p><span>सुश्री</span> कौशांबरी जी ने ‘जीना अभी बाकी है’ शीर्षक कविता प्रस्तुत की I जीवन में तृप्ति कभी नहीं मिलती I कवयित्री का मानना है कि जीवन में तमाम काम अभी बाकी हैं और जीवन भी बाकी है, किन्तु कब तक ?</p>
<p><strong><em>कर्ज कितना चुकाना बाकी है</em></strong></p>
<p><strong><em>लेना बाकी है या कि देना बाकी है</em></strong></p>
<p><strong><em>इन्तजार किसका है क्या किसी का</em></strong></p>
<p><strong><em>उतारना बोझ बाकी है</em></strong> <strong><em>?</em></strong></p>
<p><strong><em>ये साँसें भी कैसी हैं जाने किस</em></strong></p>
<p><strong><em>ख्वाहिश में अटकी बैठी हैं</em></strong></p>
<p><strong><em>क्या सच में इतना लम्बा सफ़र</em></strong></p>
<p><strong><em>बाकी है I</em></strong></p>
<p> विभिन्न जीवों के बीच प्रेम के स्वाभाविक रिश्ते को मान्यता देती है संचालिका सुश्री नमिता सुन्दर जी की कविता ‘रिश्ते ऐसे भी हुआ करते हैं’ I इस कविता का एक टुकड़ा प्रस्तुत है -</p>
<p><strong><em>न हो दाने बाजरे के</em></strong></p>
<p><strong><em>गर टेरेस पर के डबरे में</em></strong></p>
<p><strong><em>हक से आवाज दे मांग लेती हैं</em></strong></p>
<p><strong><em>अपना हिस्सा</em></strong></p>
<p><strong><em>मेरे घर रोज आती</em></strong></p>
<p><strong><em>ढेर-ढेर गौरय्या I</em></strong></p>
<p>अंत में अध्यक्ष श्री मनुज शुक्ल ‘मनुज’ ने प्रेम और प्रणय के बीच रेखा खींचते हुए एक मनोहारी गीत प्रस्तुत किया, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –</p>
<p><strong><em>उम्र की सीमा हमेशा है प्रणय को बाँधती</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>प्रेम की आँधी समय के चक्र को भी लाँघती।</em></strong></p>
<p><strong><em>प्रेम ईश्वर की कृपा है</em></strong><strong><em>,</em></strong> <strong><em>इंद्रियों का सुख प्रणय</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em>प्रेम को कहते प्रणय यदि ये सरासर है अनय।</em></strong></p>
<p><strong><em> आप परिणय युक्त हों शुभ तृप्त नव जीवन मिले</em></strong><strong><em>,</em></strong></p>
<p><strong><em> डूबना लगता सहज जब कामिनी कंचन मिले।</em></strong></p>
<p>सभी साहित्य अनुरागी अभिवादन का आदान-प्रदान कर विदा हो रहे थे I मेरा ध्यान लरजती संध्या की ओर था I मैं सोचने लगा -</p>
<p><strong><em> </em></strong>पथ प्रशस्त कर निशागमन का द्वाभा अंतर्धान हुयी I</p>
<p>संध्या को आंचल से ढँककर रजनी आयुष्मान हुयी II</p>
<p> सन्नाटे का शासन गहरा पंथ हए सारे सूने I</p>
<p> लगा तिमिर भी निर्भय होकर विभावरी का पट छूने I</p>
<p> सरिताएं पायल छनका कर लगी लोल नर्तन करने I</p>
<p>शांत समीरण सभी दिशा में संशय-राग लगा भरने II</p>
<p> वृक्ष लताएं पादप पल्लव सभी ध्यान में लीन हुये</p>
<p> जागृति जग-जीवन के लक्षण तम में सभी विलीन हुए II</p>
<p> चंदोवा रचकर तारों ने धरती का सम्मान किया I</p>
<p>कुमुद कली ने मंद हास से रजनी का जयगान किया II</p>
<p> धुर निशीथ में राग छेड़कर मालकोस गाया किसने ?</p>
<p> और शर्वरी के माथे से क्यों श्रम बिंदु लगा रिसने ?</p>
<p> क्या उस लंपट तमसासुर ने कुछ अनर्थ है कर डाला I</p>
<p>तो दुर्दांत ठहर तू दो पल सूरज है आने वाला II -------(सद्य रचित)</p>
<p></p>
<p>[मौलिक/ अप्रकाशित)</p> ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक-परिचर्चा माह दिसम्बर 2020 - एक प्रतिवेदन :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-01-07:5170231:Topic:10414002021-01-07T17:01:16.927Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p>ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 20 दिसम्बर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवयित्री सुश्री आभा खरे ने की I संचालन का दायित्व सीतापुर के कवि श्री अजय कुमार ‘विकल’ ने निबाहा I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में समर्थ कवयित्री सुश्री कुंती मुकर्जी की निम्नांकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार रखे I</p>
<p><strong><em> चाँद और मैं</em></strong></p>
<p><em>कोई रास्ता नहीं</em></p>
<p><em>लेकिन कदम एक सफर को पाट…</em></p>
<p>ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 20 दिसम्बर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवयित्री सुश्री आभा खरे ने की I संचालन का दायित्व सीतापुर के कवि श्री अजय कुमार ‘विकल’ ने निबाहा I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में समर्थ कवयित्री सुश्री कुंती मुकर्जी की निम्नांकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार रखे I</p>
<p><strong><em> चाँद और मैं</em></strong></p>
<p><em>कोई रास्ता नहीं</em></p>
<p><em>लेकिन कदम एक सफर को पाट ही लेता है।</em></p>
<p><em>हर रात अपनी तन्हाई की कथा कहती</em></p>
<p><em>एक आदिम प्रलोभन को मन में जगाती</em></p>
<p><em>मुझे पृथ्वी के अंतिम छोर पर ले जाती</em></p>
<p><em>वह कैसा आकर्षण होता है!</em></p>
<p><em>फिर कौन मुझे आवाज़ देता</em></p>
<p><em>नदी के कगार पर खड़ा</em><em>,</em></p>
<p><em>तुम नदी में अपने सम्मोहन का जादू लिए</em></p>
<p><em>मेरी परछाईं को लील लेते हो.....!</em></p>
<p><em>तभी फिर</em><em>,</em></p>
<p><em>पूरब में भोर का बिगुल बज उठता है -</em></p>
<p><em>तुम बादल का ओट लिये</em></p>
<p><em>चल देते हो</em></p>
<p><em>अगले दिन के शिकार के लिए I</em></p>
<p><em> </em> उक्त कविता पर अपने विचार रखने हेतु सर्वप्रथम कवयित्री सुश्री कौशांबरी जी का आह्वान हुआ I उनका कहना था कि इस कविता में कुंती जी का हृदय सुदूर नदी तट पर पहुँचता है, जहाँ उसे लगता है कि उसका प्रियतम चाँद में तब्दील हो उसकी परछाईं को आत्मसात कर लेता है I भोर की आहट होते ही यह चाँद बादलों में छुप मानो आगे बढ़ जाता है शायद किसी और को लुभाने I कुंती जी ने प्रकृति के माध्यम से एक सुंदर सी प्रेम-कथा रची है I</p>
<p>हास्य कवि श्री मृगांक श्रीवास्तव के अनुसार विवेच्य कविता "चाँद और मैं" में सुंदर प्राकृतिक दृश्यों की कल्पनाओं को जीवन से जोड़ने का अद्भुत प्रयास हुआ है ।</p>
<p>युवा ग़ज़लकार श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ का कहना था कि आदरणीय कुंती जी ने चाँद को अपनी कविताओं में बिंब के रूप में कई बार और कई तरह से प्रस्तुत किया है । इस कविता में भी चाँद उनके साथ है । उन्हें यह कहने में कोई हिचक न थी कि कविता के मर्म तक पहुँचने का मार्ग सहज और सुगम नहीं है । सामान्य पाठक के लिए तो यह कविता कदापि सुग्राह्य नहीं है । मेरे विचार से यह कविता पूरी तरह से "फैंटेसी" है और टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत अच्छी है । यथा-</p>
<p> <em>"हर रात अपनी तनहांई की कथा कहती / एक आदि प्रलोभन को मन में जगाती / मुझे पृथ्वी के अंतिम छोर पर ले जाती / वह कैसा आकर्षण होता है I"</em></p>
<p>या फिर यह कि- <em>“फिर कौन मुझे आवाज देता / नदी के कगार पर खड़ा / तुम नदी में अपने सम्मोहन का जादू लिए / मेरी परछाई को लील लेते हो I"</em> और अंततः-</p>
<p><em>"तभी फिर पूरब में भोर का बिगुल बज उठता है /तुम बादल की ओट लिए /चल देते हो /अगले दिन के शिकार के लिए I"</em></p>
<p>निस्संदेह, कविता सुगठित है I शब्द-चयन और प्रवाह अद्भुत है ।</p>
<p>कवयित्री नमिता सुन्दर ने कहा कि मेरे विचार से इस कविता में चाँद प्रतीक है उस अदेखे, अबूझे संसार का जिसकी अनुभूति तो हमें हमेशा होती है पर वह हमारी पकड़ से बाहर रहता है । उस तक पहुँचने की हमें कोई स्पष्ट राह तो समझ नहीं आती पर यह दृश्य मानो संसार से परे है I बहुत कुछ है, जो हमें बरबस अपनी ओर खींचता है । यह अनुभूति, यह विश्वास ही वह कदम है जो बिना रास्ते के भी सफर तय करा देता है । खींच देता है एक पुल यहाँ से वहाँ तक और यह भी सच है कि वह अनजाना, अदेखा हमारे सबसे करीब होता है I रात्रि की निस्तब्धता इतना करीब कि हमारा स्वत्व उसमें विलीन होने लगता है पर तभी फूटने लगता है भोर का उजास और करवट ले उठ बैठती है जमीन से जुड़ी जिम्मेदारियाँ । जीवन में प्रायः आते हैं ऐसे पड़ाव जब लगता है कि मन उस विराट के रंग में रंगने वाला है, पर तभी आ जाता है सांसारिकता का रेला और हम तिनके सरीखे बह जाते हैं, दूर, बहुत दूर ।</p>
<p>कुंती जी के बिम्ब हमेशा ही बेइंतिहा नरम होते हैं और कविताएं रेशम की लच्छी, सिरा धीरज से नहीं पकड़ा तो उलझ जाना अवश्यंभावी है। जरा एहतियात बरतना पड़ता है आपकी कविताओं को परखने में ।</p>
<p>ग़ज़लकार भूपेन्द्र जी ने कहा कि आ. कुंती जी की कविता ने मेरे समक्ष एक ऐसे प्राकृतिक दृश्य को पुन: जीवित कर दिया जो हम सबके मन-मस्तिष्क में बाल्यकाल में ही चित्रित हो जाता है और परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर उभरता रहता है। ग़ज़लों में इसे "मंज़रकशी" कहते हैं। यही इस रचना की सार्थकता व सफलता है। चाँद को पाने का लोभ, उसका आकर्षण, बिना किसी राह के उस तक काल्पनिक पहुँच, नदी में उसका सम्मोहक प्रतिबिंब तथा स्वयं को उसमें भूल कर भोर के आगमन की दस्तक .. सभी कुछ है इस शब्द चित्र में ।</p>
<p>डॉ. शरदिंदु मुकर्जी के अनुसार चाँद का बिम्ब लेकर कवयित्री ने प्रेम के परिप्रेक्ष्य में जीवन का चित्र खींचा है, बहुत ही कुशलता पूर्वक । प्रेषणीयता प्रशंसनीय है ।</p>
<p>कवयित्री निर्मला शुक्ल ने कहा कि चाँद को प्रियतम मानकर उसे पाने की अदम्य लालसा लिए एक नायिका के मन की बातों को कुंती जी ने कविता में व्यक्त किया है । बिम्बों का प्रयोग बहुत ही सुंदर है। नायिका चाँद के सम्मोहन में डूबकर ख़ुद को समर्पित कर देती है एक परछाईं के सदृश और भोर होते ही चाँद चल देता है किसी अगले शिकार के लिए I चाँद का अद्भुत मानवीकरण हुआ है I निर्मला जी आलोक रावत आहत लखनवी’ के इस कथन का समर्थन करती हैं कि कविता सुग्राह्य नहीं है ।</p>
<p>डॉ. अंजना मुखोपाध्याय के अनुसार प्रकृति की अंगड़ाइयों से ओत-प्रोत और प्रेम तथा कशिश से सराबोर कुंती जी की रचना आकर्षक है। कवयित्री अपने प्रियतम से मुखातिब हैं । आकाश की गोद में चाँद की तनहाई के साथ कवयित्री अपने आप को एकात्म पाती हैं, मानो चाँद ही आह्वान कर उन्हें पूर्ण रूप से ग्रसित कर लेता है । काल्पनिक विस्तार कवयित्री को एक उदास कल की ओर ले जाता है जब भोर में चाँद के अस्त होने के बाद कल कोई और उसके आगोश में होगा।</p>
<p>डॉ. अर्चना प्रकाश के अनुसार कवयित्री चाँद के हर रात्रि के सफर के साथ अपने जीवन सफर की तुलना करती हैं । जिस तरह चाँद रात्रि की तनहाई में एकाकी ही चलकर कदम-दर-कदम उसे अनुभव करता है I कवयित्री के अनुभव व अहसास भी विशेष हैं । चाँद में एक आकर्षण है, सम्मोहन है, जिससे कवि हृदय व कवितायें एक दूसरे से अछूते नहीं रह सकते हैं । नदी के जल में चाँद की सम्मोहक परछाई जादुई असर के साथ भोर का पैगाम देती है तभी कवयित्री की तन्द्रा टूटती है । पूरब में भोर का बिगुल, रात की तनहाई, परछाईं को लील लेते हो और अगले शिकार के लिए आदि बड़ी ही जीवंत कल्पना है I हर रात तनहाइयों से भरी है और अनेक कथाओं की सर्जक व दर्शक भी है। ऊपर अकेला चाँद है I नीचे अकेली कवयित्री I सोचती है वो मुझे और मैं उसको निहारूँ । अपनी तनहाइयों की अदला-बदली करते ।</p>
<p>कवयित्री सुश्री संध्या सिंह के अनुसार कुंती जी हमेशा प्रकृति चित्रण के माध्यम से अपनी बात कहती हैं I ....बेहद तरल और सरल शब्दावली के साथ I मखमल जैसे भाव उनकी विशेषता है I यह कविता भी उसी खूबसूरत शृंखला की एक कड़ी है l चाँद और नदी के ज़रिए एक आदिम प्रतीक्षा में गुजरती रात, एक चिर व्याकुल प्रेयसी, एक हमेशा की तरह सूरज के हस्तक्षेप से टूटता तिलिस्म l अंततः कविता एक बेचैनी छोड़ कर पाठक से विदा लेती है I कुंती जी की कविताएं बेहद सतर्कता और एकाग्रता माँगती हैं I ध्यान हटा नहीं कि पाठक उलझा l कुल मिलाकर रहस्यवाद और छायावाद की मानक प्रवृत्तियों के बीच से गुजरती यह कविता अपने आप में एक अनुपम काव्य चित्र है I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव का मानना है कि ‘चाँद और मैं’ कविता कुंती जी की एक प्रेम-परिकल्पना (love fantasy) है I चाँद और कवयित्री दोनों पंथहीन मुसाफिर और दोनों यात्रा के लिए आतुर I एक ही कदम से पूरा सफ़र तय करने की आकांक्षा I जो लोग कुंती जी की कविता की शैली से परिचित हैं, वे जानते हैं कि इस कवयित्री में प्रेम की मनोरम असंभव कल्पनाओं को गढ़ लेने की अद्भुत क्षमता है I रूपक और बिम्बों का आलम्बन लेकर वे उद्दाम प्रेम का ऐसा ताना-बाना बुनने में समर्थ हैं कि पाठक अभिभूत नहीं अपितु स्तब्ध रह जाता है I रात का वैभव है I कवयित्री और चाँद दोनों अकेले I रात कोई भी हो उसमें एक रहस्यमय शांति और खालीपन तो होता ही है I कवयित्री का मानना है कि रात, एकांत और खालीपन ही वे उपादान हैं, जो मनुष्य की आदिम प्यास को बढ़ाते हैं I यह प्यास कवयित्री को और शायद चाँद को भी पृथ्वी के दूसरे छोर तक ले जाती है I यही कारण है कि चन्द्रमा ढलते-ढलते अपनी दिशा बदल लेता है I वह पंथहीन सफर यही है, जिसे तय करने हेतु दोनों ही समान रूप से आतुर थे I कवयित्री का प्रश्न है कि -</p>
<p>वह कैसा आकर्षण होता है !</p>
<p>फिर कौन मुझे आवाज़ देता</p>
<p>नदी के कगार पर खड़ा,</p>
<p>तुम नदी में अपने सम्मोहन का जादू लिए</p>
<p>मेरी परछाईं को लील लेते हो.....!</p>
<p> वही आदिम प्यास जिसे संसार प्रेम कहता है, वही वह आकर्षण है जो आवाज देता है, सम्मोहन का जादू बिखेरता है और ‘’आश्रय’’ की परछाई तक को लील लेता है अर्थात आत्मसात कर लेता है I यहाँ आश्रय का अर्थ शृंगार रस की अभिव्यंजना के अनुसार वह हृदय है जहाँ प्रेम पलता है और आलम्बन आश्रय लेता है I </p>
<p> अंत में कवयित्री संकेत करती है कि आदिम प्रलोभन में भी सीमा और वर्जना है I पूरब से आती अरुणिमा निशावसान का बिगुल बजाती है I प्रेम कहीं दूर बादलों में छिपता है, अगले दिन के अवसान की प्रतीक्षा में कि शायद फिर आयेगी ऐसी ही चाँदनी और रहस्य से भरी आदिम प्रलोभन को हवा देने वाली एक और एकांत रात I प्रेम-परिकल्पना से आच्छादित कविता में इस प्रकार की कमनीयता और मधुरिमा का होना बड़ी बात नहीं है, पर बड़ी बात है उस परिकल्पना को जीना और उसे आत्मसात करना I इस नजरिये से कवयित्री को साधुवाद I</p>
<p>संचालक श्री अजय श्रीवास्तव ‘विकल’ के अनुसार कुंती जी की कविता 'चाँद और मैं' एक सार्थक उद्देश्य को लेकर मनुष्य के सार्थक प्रयास को इंगित करती है l जीवन में बहुत कुछ दृष्टिगत होता है किन्तु मार्गदर्शन नहीं होता, पर सशक्त मनःस्थिति वाला व्यक्ति अपने लिए मार्ग का निर्माण कर ही लेता है, उसी प्रकार जैसे आसमान में चाँद का मार्ग निर्धारित नहीं होता किन्तु वह अपने गंतव्य तक पहुँचता ही है l 'हर रात अपनी तनहाई की कथा कहती है' रात को तटस्थ और मोहक उन्माद भी कहा जाता है जो परम शांति और एकांत युक्त अकेलेपन का द्योतक है, जिसमें चाँद के साथ एक अकल्पनीय सामंजस्य का कमनीय आकर्षण है l इस पंक्ति में अंग्रेजी के अलंकार विशेषण विपर्यय (transferred epithet) का प्रयोग किया गया है l रात तनहा है अर्थात व्यक्ति रात्रि में अकेलेपन का उन्माद महसूस कर सकता है l 'आदिम प्रलोभन' में चाँद का मनुष्य से बहुत पुराना संबंध है जो याद दिलाता है कि 'आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है' l रात्रि जैसे-जैसे व्यतीत होती जाती है, वैसे-वैसे चाँद का पराभव होता है l 'पृथ्वी का अंतिम छोर' जो होता ही नहीं, एक संकल्पना है मनुष्य की आशावादी अपूर्ण इच्छा की जो कभी पूर्ण नहीं होती, शायद चाँद को पाना भी उसकी इच्छा की अपूर्णता है जिसे वह जल में उसके प्रतिबिम्ब को देखकर अनुमान लगाता है, किन्तु वह एक सम्मोहन है, यथार्थ नहीं l 'नदी का कगार' रात्रि का व्यतीत होना है और सम्मोहन प्रातःकाल की दस्तक l प्रातःकाल होते ही चाँद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है और बादलों के पीछे ओझल हो अपनी आने वाली कलाओं के लिए दिन की गोद में वह लुप्त भी हो जाता है I मनुष्य भी अपने जीवन के कर्मपथ पर अग्रसर हो जाता है l रात्रि और चाँद का सम्मोहन मनुष्य के एकाकी और शांतिपूर्ण क्षणों में रोमांचकारी और मादक होता है जो अनभिज्ञ प्रलोभनों और यथार्थ के अपने सुखद क्षणों को तलाशता है l कविता दार्शनिक विचारों से ओत-प्रोत है, सार्थक है, अप्रतिम है l</p>
<p>अध्यक्ष कवयित्री आभा खरे की काव्यात्मक टीप इस प्रकार थी - </p>
<p>कभी चाँद से बेहिसाब प्यार,</p>
<p>कभी मीठी सी मनुहार,</p>
<p>कभी एक हसीन झिड़की और डाँट,</p>
<p>कभी उलाहने और कभी गिले-शिकवे</p>
<p>चाँद के साथ इन भावों को लेकर कविता की सर्जना कुंती दी की विशेषता रही है। प्रस्तुत कविता में भी बेहद प्रभावी ढंग से कुंती दी ने चाँद से अपनी शिकायत को शब्द दिये हैं कि किस तरह चाँद की वजह से कवयित्री का नदी किनारे पहुंचकर भी अनदेखा रह जाना और भोर की आहट होते ही क्षितिज में लोप हो जाना ।</p>
<p>बेहद सुंदर शब्दचित्र बुना है दी ने । काल्पनिकता का निर्वाह खूबसूरती से हुआ है। कुछ पंक्तियाँ और बिम्ब स्तब्ध कर जाते हैं। मन मोह लेते हैं ।</p>
<p><strong> लेखकीय मंतव्य</strong></p>
<p>हर आदमी के भीतर एक आदमी होता है. जो आदिम होता है I गाहे-बगाहे वह प्रकृति का आलम्बन पाकर अच्छे और बुरे रूप में प्रकट हो जाता है I उसी भाव को लेकर इस कविता की रचना हुई है I हालाँकि इस विषष के प्रति सबका अपना-अपना मत है I इस रचना के प्रति आप लोगों ने जो सुंदर, सुबुद्ध और सहज भाव प्रकट किये हैं, उनके लिए मैं हृदय से आभार प्रकट करती हूँ I</p>
<p><strong> (मौलिक/ अप्रकाशित )</strong></p> ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक-परिचर्चा माह नवंबर 2020 - एक प्रतिवेदन :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तवtag:openbooks.ning.com,2021-01-07:5170231:Topic:10415502021-01-07T16:31:07.680Zडॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवhttp://openbooks.ning.com/profile/GOPALNARAINSRIVASTAVA
<p><strong> </strong>ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 22 नवंबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवयित्री सुश्री संध्या सिंह ने की I संचालन का दायित्व मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ ने निबाहा I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में समर्थ कवयित्री सुश्री आभा खरे की निम्नांकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार रखे I</p>
<p> <strong>मनकही </strong></p>
<p><em>बालों से झाँकती</em><em> </em></p>
<p><em>चाँदी सी…</em></p>
<p><strong> </strong>ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 22 नवंबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवयित्री सुश्री संध्या सिंह ने की I संचालन का दायित्व मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ ने निबाहा I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में समर्थ कवयित्री सुश्री आभा खरे की निम्नांकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार रखे I</p>
<p> <strong>मनकही </strong></p>
<p><em>बालों से झाँकती</em><em> </em></p>
<p><em>चाँदी सी उम्र</em><em> </em></p>
<p><em>कहती है मुझसे</em><em> </em></p>
<p><em>कि</em> <em> </em></p>
<p><em>भाग रही ज़िन्दगी की</em><em> </em></p>
<p><em>रफ़्तार बड़ी तेज है</em><em> </em></p>
<p><em>सहेज सको तो सहेज लो</em><em> </em></p>
<p><em>यहाँ-वहाँ बिखरे उन सभी</em><em> </em></p>
<p><em>ख़ूबसूरत लम्हों को</em><em> </em></p>
<p><em>जिनमें ज़िन्दगी</em></p>
<p><em>वास्तव में बसर करती है ..!</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>लेकिन !</em><em> </em></p>
<p><em>जब-तब</em><em> </em></p>
<p><em>मेरी आँखों में चमक बन कर</em><em> </em></p>
<p><em>मचल उठती है</em><em>,</em> <em>एक मासूम सी लड़की</em><em> </em></p>
<p><em>जिसकी निश्छल मुस्कान और आँखों में</em><em> </em></p>
<p><em>बच्ची बने रहने का आग्रह देख</em><em> </em></p>
<p><em>मैं सोचने लगती हूँ कि</em><em> </em></p>
<p><em>उससे क्या कहूँ</em> <em>?</em></p>
<p><em>कैसे उसे उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ना सिखाऊँ ....</em><em>?</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>वो लड़की !</em><em> </em></p>
<p><em>जो सरपट उतरती-चढ़ती है </em></p>
<p><em>घर की सीढ़ियों पर</em><em> </em></p>
<p><em>माँ पीछे से आवाज़ देती रह जाती</em><em> </em></p>
<p><em>रे छोरी !</em><em> </em></p>
<p><em>"आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतरा कर</em><em> </em></p>
<p><em>हाथ-पाँव टूट गए और जो कोई ऐब आ गया तो</em><em> </em></p>
<p><em>ब्याह भी न होगा.....!”</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>वो लड़की !</em><em> </em></p>
<p><em>जो सहेलियों के संग</em><em> </em></p>
<p><em>साइकिल से लगाती है रेस</em><em> </em></p>
<p><em>और हमेशा की तरह</em><em> </em></p>
<p><em>हवा से बातें करती हुई</em><em> </em></p>
<p><em>सबको पीछे छोड़</em><em> </em></p>
<p><em>जीत जाती है रेस ...!</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>वो लड़की !</em><em> </em></p>
<p><em>जो बड़े आराम से चढ़ जाती है आम के पेड़ पर</em><em> </em></p>
<p><em>तोड़ लाती है ढेर सारे पके मीठे आम</em><em> </em></p>
<p><em>और माली काका को देकर चकमा</em><em> </em></p>
<p><em>पल भर में हो जाती ओझल ...!</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>वो लड़की !</em><em> </em></p>
<p><em>नहीं तय करना चाहती</em><em> </em></p>
<p><em>उम्र का लम्बा सफ़र</em><em> </em></p>
<p><em>वो टिकी रहना चाहती है</em><em> </em></p>
<p><em>लड़कपन के उसी पायदान पर</em><em> </em></p>
<p><em>जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है</em><em> </em></p>
<p><em>जहाँ बेफ़िक्री है</em><em> </em></p>
<p><em>छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं</em> <em> </em></p>
<p><em>जहाँ रात सुकून का नर्म बिछौना है</em><em> </em></p>
<p><em>तो दिन एक नए सपने को आकार देने का जरिया भी ...!</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>लेकिन वो लड़की !</em><em> </em></p>
<p><em>लगातार आती उम्र की दस्तक को</em><em> </em></p>
<p><em>अनसुना कर नहीं पाती .......!!!!!!!!!!!!!</em></p>
<p>उपर्युक्त कविता पर विचार रखने हेतु संचालक महोदय ने श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ को बुलाया I आहत ने कहा कि आभा जी की कविता उनके मन की बात है लेकिन अपनी बात कहते हुए उन्होंने सबके मन की बात भी बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त कर दी है | यह सच है कि मन बार-बार अपने बचपन की ओर कुलाँचे भरता है, लेकिन किसी मजबूत डोर से बँधा हुआ वह वहाँ तक पहुँच न पाने के लिए मानो विवश है I मन शायद पहले जैसी स्वच्छंदता, उन्मुक्तता, उत्साह, उमंग और निश्चिंतता फिर से पाना चाहता है I लेकिन उम्र की निरंतर बढ़ती हुई रफ़्तार उसे सिर्फ यादों में सिमटा देती है और मन उदास हो जाता है |</p>
<p><em>“</em><em>वो लड़की !</em></p>
<p><em>नहीं तय करना चाहती</em></p>
<p><em>उम्र का लम्बा सफ़र</em></p>
<p><em>वो टिकी रहना चाहती है</em></p>
<p><em>लड़कपन के उसी पायदान पर</em></p>
<p><em>जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है</em></p>
<p><em>जहाँ बेफ़िक्री है</em></p>
<p><em>छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं </em></p>
<p><em>जहाँ रात सुकून का नर्म बिछौना है</em></p>
<p><em>तो दिन एक नए सपने को आकार देने का जरिया भी ...!</em></p>
<p><em> </em></p>
<p><em>लेकिन वो लड़की !</em></p>
<p><em>लगातार आती उम्र की दस्तक को</em></p>
<p><em>अनसुना कर नहीं पाती .......!!!!!!!!!!!!!</em><em>”</em></p>
<p>काश, कि मन का चाहा संभव हो पाता ! यहाँ बात सिर्फ उस लड़की की नहीं है, हर उस इंसान की है जो अपने बचपन की दहलीज़ को लाँघ कर इतना आगे निकल आया है कि अब वह सिर्फ बचपन के मानस चित्र ही देख सकता है I</p>
<p>अगले आमन्त्रण पर डॉ. अर्चना प्रकाश ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि कवयित्री ने बाल-जीवन को बहुत सहजता से उकेरा है । उम्र और समय तीव्रता से आगे बढ़ते हैं, पर मानव मन उन छूटे हुए खूबसूरत पलों की यादें नहीं भूलता i अपितु वह उसे पुनः जीना चाहता है । बचपन की निश्छलता, चंचलता, मोहकता एवं शरारतें कवयित्री के मन पर दस्तक देती हैं, पर वह उम्र की चाँदी जैसी सफेदी को अनदेखा नहीं करती । अतीत की छोटी-छोटी खुशियाँ वर्तमान में किस प्रकार ऊर्जा का संचार करती हैं, यह कविता उसका अन्यतम प्रमाण है I</p>
<p>कवयित्री नमिता सुंदर का कहना था कि आभा की ‘मनकही‘ कविता के संग कदम दर कदम चलना वैसा ही है जैसे किसी अपनी बेहद मनचीती सखी के गलबहियाँ डाल अल्हड़ सुख में डूबना और उतराना । कल्पना कीजिये कि आप सड़क किनारे किसी आइसक्रीम के ठेले के पास खड़े हैं और ठेले वाले ने आइसक्रीम आपके हाथ में पकड़ाई है एकदम् चिल्ड आरेंज बार, क्या होता है फिर? हर चुस्की सँग भीतर तक उतरता बूँद-बूँद मीठा रस, रंगीन होती जीभ पर तीखी ठंडक का चटपटा एहसास और आँखों से छलकता नटखट आनंद... कुल जमा जो अनुभूतियाँ होती हैं न उस समय, बस वही सब हमने आभा जी की मनकही के एक-एक बिम्ब से गुजरते हुए अनुभव की । उम्र तो अपनी रफ्तार चलेगी ही पर इस सीढ़ियाँ फलाँगती, हवा से बातें करती लड़की की साँसों को मेरी तरफ से बसंत बयार।</p>
<p>डॉ. शरदिंदु के अनुसार आभा जी की रचना "मनकही" बहुत कुछ कह जाती है । बचपन की उस 'लड़की' के साये में नारी मन के उद्गार अपना खूबसूरत कैनवास बनाते हुए उम्र के कगार पर आकर रंग में दो बूँद आँसू लुढ़का देते हैं चुपचाप.... भाव सजीव हो उठते हैं नि:शब्द मुखर होकर I</p>
<p>ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह का कहना था कि उन्होंने रचना कई बार पढ़ कर स्वयं को उस मन:स्थिति में लाने का प्रयास किया I यह रचना एक मानसिक अंतर्द्वद्व की अभिव्यक्ति है I वर्तमान और अतीत के बीच की खींच-तान है I इसमें जो वर्णित है वह मन को उद्वेलित करता है I कवयित्री का मन आज भी उसी अतीत के क्षणों में विचरण कर आनंद का अनुभव करता है I किन्तु आज का मानसिक वातावरण उसमें बाधक है I इस ऊहा-पोह का सफल चित्रण इस रचना में है I आभा जी का चिंतन तथा उनकी भाषा दोनों ही सदैव परिष्कृत रहते हैं I मैं उन्हें पढ़ता-सुनता रहा हूँ I उनकी लेखनी के सामर्थ्य से परिचित हूँ I इस दृष्टि से मुझे लगता है उनका रचना-कौशल इस कविता के स्तर से कहीं अधिक ऊँचा है I </p>
<p>श्री मृगांक श्रीवास्तव के अनुसार विविधताओं से भरी जिंदगी में कुछ चिंतायें, कुछ उलझनें होती हैं । इन्हीं के बीच हम बीते उम्र की कुछ हसीन यादें सहेजते हैं । आभा जी शायद मासूम लड़की के माध्यम से अपने ही बचपन को याद कर रही हैं। साथ में माँ की सतर्क देखरेख की झलक भी है । पर सच्चाई यह भी है कि न उम्र ठहर सकती है न पीछे लौटा जा सकता है । इसलिए जो अच्छे पल बीत गये उन्हें सहेजने का संदेश है इसमें । सुंदर भाव, जीवन के स्वर्णिम पलों के लिए अकुलाहट और छटपटाहट।</p>
<p>कवयित्री कौशांबरी के अनुसार लेखिका के अंतर्मन की बालसुलभ चपलता की पुलक लिए नन्हीं बालिका बार-बार शैशव में लौटना चाहती है और विडंबना यह है कि जीवन की परिपक्वता और गांभीर्य को वह कैसे आत्मसात करे I उसका दिशा-निर्देश कौन करे ? बालिका जीवन के संधिकाल में अपने अंदर होते बदलाव की आहट को कैसे अनसुना कर दे i इसी भाव को बार-बार उकेरती हुई भावपूर्ण अभिव्यक्ति है यह कविता I</p>
<p>कवयित्री कुंती मुकर्जी के अनुसार आभा जी की रचना एक बालिका के युवा होने तक का पूरा सफ़र है और यह हर नारी की मनकही हो सकती है I</p>
<p>डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव के अनुसार कवयित्री आभा खरे की कविता ‘मनकही’ पाठक को विराम नहीं देती I पढ़ने वाला कदम –दर-कदम जैसे किसी भाव-सरिता में धँसता जाता है I हम सब अपने बचपन से गुजरे हैं I हमने जीवन भर बचपन के तमाम रूप-अपरूप देखे हैं और उनके भोलेपन को आत्मसात किया है I हमने अपने बच्चों और प्रायशः उनके बच्चों के बचपन को भी जिया है I आभा जी ने भी जिया I जिया ही नहीं शब्द भी दिये, जो अधिकांशतः अभिधा में है I सर्वत्र प्रसाद गुण दिखता है I कोई बनावट नहीं, कोई सजावट नहीं, कोई छद्म नहीं कोई आयास योजना नहीं I शिल्पगत सौष्ठव और अलंकार अनायास आते हैं I कविता दिल में उतरती जाती है I</p>
<p>यह कविता एक कवयित्री के आत्मचिंतन से शुरू होती है, जिसे पता है कि जीवन तेजी से भाग रहा है, उसमें से कुछ लमहे सहेजने हैं, क्योंकि उन्हीं लमहों में सच्चा जीवन हैI </p>
<p><em>“बालों से झांकती</em></p>
<p><em>चाँदी सी उम्र</em></p>
<p><em>कहती है मुझसे</em></p>
<p><em>कि </em></p>
<p><em>भाग रही ज़िन्दगी की</em></p>
<p><em>रफ़्तार बड़ी तेज है</em></p>
<p><em>सहेज सको तो सहेज लो</em></p>
<p><em>यहाँ-वहाँ बिखरे उन सभी</em></p>
<p><em>ख़ूबसूरत लमहों को</em></p>
<p><em>जिनमें ज़िन्दगी</em></p>
<p><em>वास्तव में बसर करती है ..!</em></p>
<p>इस सोच के साथ कल्पना का कैमरा अपना कोण बदलता है और कवयित्री का ध्यान उस मासूम लड़की की ओर जाता है जो जब-तब उसके ख्यालों में आती रहती है I वह मासूम लड़की वास्तविक जीवन की दुर्वह विद्रूपता से अनजान है I उसे जीवन के सोपान पर कदम रखना कौन सिखाये, कैसे सिखाये, यह आभा जी की समस्या है I हमने अपनी बड़ी-बूढ़ियों को अक्सर लड़कियों को टोकते देखा है, जब वे प्रायशः इस तरह आगाह करती हैं -</p>
<p><em>“</em><em>रे छोरी !</em></p>
<p><em>आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतरा कर</em></p>
<p><em>हाथ-पाँव टूट गए और जो कोई ऐब आ गया तो</em></p>
<p><em>ब्याह भी न होगा ".....!</em></p>
<p>लड़कियाँ इन झिड़कियों की कब परवाह करती हैं I फिर आभा जी की कल्पना की यह मासूम लड़की मामूली भी नहीं है I वह अपनी सभी सहेलियों को हराकर साईकिल की रेस जीतती है I वह माली काका को चकमा देकर आम के पेड़ पर चढ़ जाती है और ढेर सारे पके आम तोड़ लाती है I उस लड़की का अवचेतन कहता है, यही उछलना, कूदना और खिलंदड़ापन ही जीवन है I वह लड़कपन के उसी पायदान पर टिकी रहना चाहती है, जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है -</p>
<p><em>“वो लड़की !</em></p>
<p><em>नहीं तय करना चाहती</em></p>
<p><em>उम्र का लम्बा सफ़र</em></p>
<p><em>वो टिकी रहना चाहती है</em></p>
<p><em>लड़कपन के उसी पायदान पर</em></p>
<p><em>जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है</em></p>
<p><em>जहाँ बेफ़िक्री है</em></p>
<p><em>छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं I“</em></p>
<p>पर ऐसा कब हो पाता है I गतिशील समय परिवर्तन का कारक है I जेआफ्रे चासर की प्रसिद्ध उक्ति है- ‘Time and tide wait for no man.’ आभा जी इस सत्य को बड़ी शालीनता से कम शब्दों में बयाँ करती हैं, परन्तु वह हमारी अंतश्चेतना को झिंझोड़ कर रख देता है I</p>
<p><em>“लेकिन वो लड़की !</em></p>
<p><em>लगातार आती उम्र की दस्तक को</em></p>
<p><em>अनसुना कर नहीं पाती .......!!!” </em></p>
<p>इस कविता में अतीत के याद की कसक (nostalgia )तो है ही साथ ही कवयित्री ने बाल-जीवन के जो चित्र उठाये हैं, वे बड़े ही स्वाभाविक और चुटीले हैं I बालों से झाँकती चाँदी जैसी उम्र, लड़कपन के उसी पायदान पर, जीवन साँस लेता है, सुकून का नर्म बिछौना, उम्र की दस्तक जैसे अलंकारिक प्रयोग से शिल्प-सौष्ठव भी निखर कर सामने आया है I इस ‘मनकही’ कविता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात संभवतः वह सार्वकालिक संदेश है, जो आभा जी ने कविता की अंतिम तीन पंक्तियों में निबद्ध किया है I</p>
<p>अजय श्रीवास्तव 'विकल' के अनुसार आभा जी की "मनकही" यथार्थवाद पर लिखी गयी कविता है l जीवन में हमारा मन स्वतंत्र और अनियंत्रित होता है, जहाँ मन प्रसन्न भावों को वरीयता देता है l काश ऐसा होता कि बाल जीवन नियति के कशाघातों से मुक्त होता l बचपन सुखमय होता है I यही जीवन का वह समय है जब हमें प्रकृति की मनोहारी कृति को उस अवस्था में उतारने की इच्छा होती है कि वह कभी समाप्त न हो, ऐसी अपेक्षा होती है l अनुभव हमें भविष्य की भयानकता के प्रति सावधान करता है, किन्तु अल्हड़ मन कहाँ मानता है, वह तो उस जीवंत सुख को लूट लेना चाहता है l "बालों से झाँकती चाँदी सी उम्र" वाक्यांश में उपमा और रूपक का अनुपम समागम है l चाँदी परिपक्व आयु का प्रतीक है I "छोटी सी मासूम लड़की" में विरोधी उपमा के माध्यम से अनुभव और अल्हड़ता को समन्वित करने का सुन्दर प्रयास हुआ है I यहाँ कवयित्री ने जीवन के ठहराव का संकेत दिया है, किन्तु अंत में यथार्थवाद को रूपायित करते हुए "दस्तक को अनसुना कर नहीं पाती" और इस सार्वकालिक सत्य को स्वीकार करती है I</p>
<p>डॉ अंजना मुखोपाध्याय के अनुसार ‘मनकही’ कविता में परिपक्व उम्र से आस्नात कवयित्री लड़कपन के बिंदास दिनों में झाँकती है । शैशव के अल्हड़पन की यादें, माँ की सतर्क सावधानी, सहेलियों के बीच साइकिल चलाने की प्रतिस्पर्धा और इन चपलता को</p>
<p>सँजोए हमेशा चलते रहने की जिजीविषा । रचना की ऊहात्मक पंक्ति - "कैसे उसे उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ना सिखाऊं " वास्तविकता के प्रति कवयित्री की जागरूकता को इंगित करती है । जीवन की वस्तुस्थिति से गुजरते हुए प्रौढ़ता की ड्योढ़ी तक पहुँच चुकी कवयित्री की चाहत लड़कपन और बेफिक्री के उसी पायदान पर टिक जाने की है । यह एक स्वाभाविक अतीत प्रेम की कसक (nostalgia) है I</p>
<p>संचालक श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ जी ने आभा जी की कविता पर अपने विचार एक दोहे के माध्यम से रखे I दोहा इस प्रकार है -</p>
<p>आभा जी की लेखनी सच का है विस्तार I</p>
<p>जैसा देखा लिख दिया ऐसा मनुज विचार</p>
<p>कवयित्री संध्या सिंह के अनुसार कविता के संबोधन को पढ़ते ही हर उम्र की स्त्री के भीतर सोई लड़की उठ कर बैठ जाती है l दरअसल ये कविता एक नॉस्टेल्जिया पैदा करती है ...पाठक शब्द यात्रा के दौरान अपना अतीत का सफर तय करता है l निःसंदेह यह एक सशक्त पृष्ठभूमि पर प्रभावी कविता है l स्त्री का कोमल मन कहाँ-कहाँ अटका होता है I उन कोमल पलों को उन्होंने अपने शब्द-चयन से बखूबी बुना है I इतना ज़रूर है कि इस कविता की तुलना में आभा जी के पास और अच्छी चौंकाने वाली, बेधने वाली कवितायें भी हैं l वे बहुत सघन, घुमावदार , सांकेतिक कविताओं के लिए जानी जाती हैं, जिसमें पाठक उतार-चढ़ाव , सुरंग या अँधेरा पाकर अपने मन और मस्तिष्क दोनों को संतुष्ट करता है l इस कविता में उनका स्तर अपने वास्तविक रूप में रूपायित नहीं हो पाया है I ऐसा मेरा विचार है I</p>
<p> <strong> लेखकीय वक्तव्य </strong></p>
<p>आप सब की सारगर्भित प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ । ऐसी प्रतिक्रियायें निश्चित ही लेखन को और अधिक परिष्कृत करने में सहायक होंगी। ऐसा मेरा विश्वास है I आ. भूपेन्द्र जी और संध्या दी ने यह कहकर मेरा मान ही बढ़ाया है कि यह कविता मेरे स्तर को पूरी तरह रूपायित नहीं करती i यह मेरे लिए सबसे बड़ा पारितोषिक है I विशेषकर तब जब आप सबका भरपूर आशीर्वाद इस कविता को भी मिला I अपने लेखन के विषय में इतना ही कहना चाहूँगी कि यह मन के भावों को पन्नो पर उकेरने से ही शुरू हुआ। कविता सच पूछिए तो ‘मनकही’ मेरी माँ की बात है उनका अपना अनुभव है I पाठक जब ऐसी अभिव्यक्ति से जुड़ता है तो मैं अपने लेखन को सार्थक समझने लगती हूँ । भाषा को चाहकर भी सरल होने से मैं नहीं रोक पाती । दोहा भी लिखूँगी तो बोलचाल की भाषा में ही लिख पाऊँगी। मुझे लगता है कि कविता हो या कोई साधारण सी बात हो , दूसरे के दिल तक पहुँचनी चाहिए i इसके लिए यदि शब्दकोश सामने आ गया तो कविता या बात अपना मर्म , अपना असर खो बैठेगी । हो सकता है मेरी यह धारणा पूर्ण सत्य न हो , पर मेरा ऐसा विश्वास है I आप सभी का आभार I</p>
<p> (मौलिक /अप्रकाशित )</p>